महाकाली स्वरूप भेद,Mahaakaalee Svaroop Bhed

महाकाली स्वरूप भेद,Mahaakaalee Svaroop Bhed

  1. महाकाली
  2. काली का स्वरूप
  3. काली के भेद
      महाकाली
      या कालिका रोगहरा सुवन्द्या,  वश्यैः समस्तै यवहारदक्षैः । 
      जनैर्जनानां भयहारिणी च;  सा देवमाता मयी सौख्यदात्री ।।

      अर्थात् - "समस्त रोगों को दूर करने वाली, जगत् वन्दनीय, विनम्र तथा दक्ष भक्तों के द्वारा पूजनीय, साधकों के भय का नाश करने वाली, सभी को सुख देने वाली, देव जननी भगवती काली हमारी रक्षा करें।"

      महाकाली स्वरूप भेद,Mahaakaalee Svaroop Bhed

      महाकाली का वर्णन

      भगवती काली का वर्णन प्रत्येक विज्ञजन ने अपनी भावनानुसार किया है। कोई उन्हें कृष्णवर्णा बताता है, तो कोई उन्हें रक्तवर्णा । "महानिर्वाण तंत्र" के अनुसार काली का वर्ण काला बताया गया है, जिस प्रकार काले रंग में प्रत्येक रंग चाहे वह श्वेत हो, पीत हो, नील हो आपस में समाहित हो एकमात्र काले रंग के ही प्रतीत होते हैं, ठीक उसी प्रकार विश्व के प्रत्येक जीव का समाहितीकरण चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, काली में हो जाता है। विश्व के समस्त प्राणियों का लय काली में होना माना गया है, अतः शास्त्रकारों ने निराकार, निर्गुणा, कालशक्ति भगवती काली का रंग काला ही निरूपित किया है। अस्तु, साधकों को भगवती काली की साधना करने में कृष्ण वर्ण अर्थात् काले रंग के शरीर की ही भावना अपने मन-मस्तिष्क में रखनी चाहिए।

      "अञ्जनाद्रिनिभां देवीं श्मशानालय वासिनीं" आद्याकाली का निवास स्थान श्मशान बताया गया है, किन्तु लौकिक भाषा में श्मशान वह स्थल है, जहां मृत प्राणियों को जलाया जाता है। यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है, कि भगवती काली का निवास स्थान श्मशान क्यों निर्धारित किया गया है!
      श्मशान के गूढ़ार्थ को अगर समझा जाय, तो उपरोक्त जिज्ञासा का समाधान प्राप्त हो जाता है। गूढ़ार्थ के अनुसार - "श्मशान वह स्थल है, जहां पञ्च पदार्थों से निर्मित देह को भस्म कर दिया जाता है, जिससे वे पदार्थ प्रकृति के साथ एकाकार हो जायें। इस प्रकार पंच महाभूतों का लय "चिन्मय ब्रह्म" में होता है। मां काली ब्रह्म स्वरूपा हैं, अतः श्मशान वह स्थल है, जहां पंचमहाभूत लीन हो जाते हैं।"
      सांसारिक मनुष्य के लिए श्मशान की अवधारणा उसके हृदय स्थल के लिए की गई है, क्योंकि मानव को पतनोन्मुख करने वाले विषय-विकार, काम-क्रोधादि के भस्म होने का स्थान मानव हृदय ही होता है, और चूंकि श्मशान वह स्थान है, जहां पदार्थ भस्म हो जाते हैं, इस प्रकार साधक के विकार शून्य हृदय रूपी श्मशान में ही भगवती महाकाली का निवास होता है। अस्तु, महाकाली के साधकों को चाहिए, कि वे साधना प्रारम्भ करने से पूर्व अपने हृदय को श्मशान बना लें और सभी विषय-विकारों से स्वयं को पूर्णतः मुक्त कर लें।
      महाकाली चित्तशक्ति में निहित प्राणरूपी शवासन पर आरूढ़ित हैं। जब 'शिव' से शक्ति पृथक हो जाती है, तो शिव भी 'शव' हो जाते हैं, अर्थात् मानव शरीर जो शिव का अंश रूप है, इसमें से जब प्राणशक्ति पृथक हो जाती है, तो वह मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसका शरीर 'शव' मात्र रह जाता है। इसी प्रकार काली का साधक जब अपनी प्राणशक्ति चित्तशक्ति में तिरोहित कर देता है, तो उसका पंचभूतात्मक देह प्राणशक्ति विहिन हो जाने के कारण 'शव' हो जाता है, जिस पर आद्याशक्ति महाकाली आरूढ हो जाती हैं और
      अपने साधक को स्वयं में एकीकृत कर, उसको अहेतु की कृपा प्रदान कर समस्त जागतिक प्रपंचों से मुक्त कर देती हैं। इस प्रकार भगवती काली का आसन 'शव' निरूपित किया गया है।

      काली का स्वरूप

      भगवती के ललाट पर अमृत्व रूपी चन्द्रमा सुशोभित है, अतः काली के साधक को अमृतत्व की प्राप्ति होती है। वे मुक्तकेशी होने के कारण केश विन्यास से रहित त्रिगुणातीता हैं। सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये भगवती के तीन नेत्र हैं, जिनके कारण वे समस्त लोकों व समस्त कालों को देखखने में समर्थ हैं। जिस प्रकार सिंह की गर्जना से भयभीत हो वन्य पशु भाग जाते हैं, उसी प्रकार महाकाली का नाम सुनते ही समस्त पाप-दोष पलायित हो जाते हैं। भगवती ने अपने कान में बालकों के शव कुण्डलवत् पहन रखे हैं। इस कथन का तात्पर्य है, कि वे सदैव अपने बाल सुलभ हृदय वाले साधकों की प्रार्थना को सुनती हैं और उनकी मनःइच्छा को पूर्ण करती हैं।
      भगवती काली ने अपने सतोगुण रूपी उज्ज्वल दांत से (जो बाहर निकले हुए हैं) अपनी जीभ (जो तमो गुण व रजो गुण प्रधान होती है) को दबा रखा है। उनके होंठ के दोनों कोनों से रक्तधारा बह रही है, दूसरे शब्दों में वे शुद्ध सत्वात्मिका हैं और साधकों के अंदर निहित 'रजो' व 'तमो' गुण को निःस्रत कर उन्हें भी शुद्ध-सात्विक बना देती हैं। आद्या के मुख पर सदैव मुस्कान बनी रहती है, अर्थात् वे नित्यानन्दमयी हैं। सम्पूर्ण विश्व को आहार प्रदान करने में सक्षम हैं तथा अपने साधक को मोक्ष रूपी दुग्ध का पान कराने के कारण उन्नत पीनपयोधरा हैं। भगवती का कण्ठ पचास मुण्डों की माला से शोभित है, ये पचास मुण्ड पचास मातृका वर्ण के प्रतीक हैं, जिन्हें धारण करने से वे ब्रह्म स्वरूपा हैं। उन शब्द-मुण्डों से टपकता रजोगुण रूपी रक्त सृष्टि उत्पत्ति का प्रतीक है अर्थात् भगवती काली निरन्तर नवीन सृष्टि करती रहती हैं। 
      उन्हें दिगम्बरा कहा गया है, जिसका आशय है कि वे माया जनित आवरण से रहित हैं। उन्होंने शव के हाथों की करधनी धारण कर रखा है, जो इस बात का प्रतीक है, कि जीव अपने स्थूल शरीर को त्याग कर, सूक्ष्म रूप से काली के साथ तब तक संलग्न रहते हैं, जब तक कि उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता है। भगवती ने अपने ऊपरी बायें हाथ में ज्ञान रूपी तलवार धारण कर रखी है, जिसके द्वारा वे अपने साधक के मोहरूपी मायापाश को काट देती हैं। उन्होंने अपने नीचे वाले बायें हाथ में नरमुण्ड धारण कर रखा है, जिसका तात्पर्य है, कि वाम मार्ग की निम्नतम मानी जाने वाली साधना की क्रियाओं में रत अपने साधक के मस्तिष्क में वे तत्त्व रूपी ज्ञान को आरोपित करती हैं।
      भगवती ने अपने दोनों दायें हाथों में अभय तथा वर मुद्रा धारण कर रखे हैं अर्थात् वे अपने दक्षिण मार्ग के शुद्ध-सात्विक साधक को निर्भयता तथा वर प्रदान कर उनकी अभिलाषाओं को पूर्ण करती हैं। वे महाकाल को भी शक्ति प्रदान करने वाली विराट भगवती हैं, तात्पर्यतः भगवती महाकाल के साथ 'सुरत' में संलग्न हैं, अतः जब वे निर्गुणा होती हैं, तो महाकाल उन्हीं के तद्रूप हो जाते हैं, और जब वे सगुणा होती हैं, तो महाकाल से मुक्त हो जाती हैं, इस प्रकार वे स्थिति क्रम में 'सुरता' तथा सृष्टि क्रम में' 'विपरीत रता' कही जाती हैं।,
      भगवती आद्या पर काल का प्रभाव न पड़ने के कारण उनके शरीर में अवस्था सम्बन्धी कोई परिवर्तन नहीं होता है, फलस्वरूप वे नित्य यौवनवती बनी रहती हैं। इस प्रकार 'सर्वकाम समृद्धिदायिका भगवती काली' जो ब्रह्मा, विष्णु द्वारा भी वन्दित हैं, प्रत्येक देवता व राक्षस भी जिनके सम्मुख नतमस्तक हैं, ऐसी भगवती शिवा का ध्यान करना चाहिए।

      काली के भेद

      मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती खण्ड के आठवें अध्याय के अनुसार भगवती काली की उत्पत्ति जगत जननी जगदम्बिका के ललाट से वर्णित की गयी है, तथापि भगवती काली के असंख्य रूप भेद हैं। वस्तुतः समस्त दैवी शक्तियां, योगिनियां आदि भगवती की प्रतिरूप स्वरूपा हैं, फिर भी प्रमुखतः इनके आठ स्वरूप माने गये हैं
      आठ स्वरूप 
      1. चिन्तामणि काली,
      2. स्पर्शमणि काली,
      3. सन्ततिप्रदा काली,
      4. सिद्धि काली,
      5. दक्षिण काली, 
      6. कामकला काली, 
      7. हंस काली एवं 
      8. गुह्य काली।
      इनके अतिरिक्त 'भद्र काली, 'श्मशान काली' तथा 'महाकाली' इन तीनों भेदों की प्रमुखता से साधकों द्वारा आराधना की जाती है। भगवती काली के अनेक भेद हैं, उनमें दस महाविद्यान्तर्गत प्रथम महाविद्या भगवती को माना गया है, जो परब्रह्म शिव की परमशक्ति, साक्षात् ब्रह्मस्वरूपा, अनादि एवं अनन्ता हैं। 'सप्तशती' में' भगवती आद्या काली के अवतार का ही वर्णन है। काली के अनेक रूप भेदों में 'दक्षिणा काली' स्वरूप सद्यः फलप्रद कहा गया है। इस रूप को 'दक्षिणा कालिका' नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।
      दक्षिणा कालिका के ही प्रकारान्तर से चार स्वरूप निर्धारित किए गये हैं। ये स्वरूप हैं- गुह्य काली, भद्र काली, श्मशान काली तथा महाकाली। दक्षिणा काली को ही भगवती काली, अनादि रूपा, आद्या विद्या, ब्रह्म स्वरूपिणी तथा कैवल्य दात्री भी कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार भगवती काली आद्या शक्ति, चित्त शक्ति के रूप में विद्यमान होने के कारण अनादि, अनन्त, अनित्य व सबकी स्वामिनी हैं। वेद में काली की स्तुति "भद्र काली" नाम से की गयी है।
      विभिन्न शास्त्रों में काली की साधना-उपासना विभिन्न नामों से की गई है। नाम-भेद होने के बाद भी ये सभी नाम एवं स्वरूप एकमात्र दक्षिणा काली के ही हैं, जो निराकार होते हुए भी अपने साधकों की भावनाओं के अनुसार साकार रूप में उपस्थित होकर, उनको मुक्ति प्रदान कर उन्हें अभिलषित लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ बनाती हैं, अतः निराकार होते हुए भी वे साकार हैं, अदृश्य होते हुए भी दृश्यमान हैं। भगवती का नाम दक्षिणा काली क्यों पड़ा तथा 'दक्षिणा काली' शब्द का भावार्थ क्या है? इस सम्बन्ध में शास्त्रों में प्रायः विभिन्न मत दृष्टिगत होते हैं -
      • 'निर्वाण तंत्र' के अनुसार- 
      दक्षिणस्यां दिशि स्थाने संस्थितश्वत खेः सुतः। 
      काली नाम्ना पलायेत भीति युक्तः समन्ततः ।।
       अः सा दक्षिणा काली त्रिषु लोकेषु गीयते ।। 

      अर्थात् -
      "काली साधक के द्वारा उच्चरित 'काली' शब्द का श्रवण मात्र करने से ही सूर्य पुत्र "यम" भयभीत होकर पलायन कर जाते हैं। वे काली साधक को नरकगामी नहीं बना सकते, इसी कारण भगवती को 'दक्षिणा काली' कहते हैं।"

      अन्य शास्त्रों के अनुसार इस सम्बन्ध में निम्न मत प्राप्त होते हैं-
      1. धार्मिक कार्य सम्पन्न होने पर "दक्षिणा" फल प्रदायक होती है, उसी प्रकार देवी भी सभी कर्म फलों की सिद्धि प्रदान करने के कारण दक्षिणा काली हैं।
      2. भगवती काली की सर्वप्रथम आराधना दक्षिणामूर्ति भैरव ने की थी, इस कारण भी भगवती को दक्षिणा काली कहते हैं।
      3. सृष्टि क्रम में पुरुष को 'दक्षिण' तथा नारी को 'वाम' कहते हैं। भगवती काली, जो नारी होने के कारण वामा हैं, वे दक्षिणा (पुरुष) पर विजय प्राप्त कर महा मोक्ष प्रदायिनी बनीं, अतः दक्षिणा काली कही गई हैं।

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