महाकाली "काली महात्म्य" "काली की उत्पत्ति, Mahakali "Kali Mahatmya" "Origin of Kali

 महाकाली  "काली महात्म्य" "काली की उत्पत्ति"

4. काली महात्म्य
5. काली की उत्पत्ति

 काली महात्म्य

भगवती काली की साधना करने वाले साधक को निम्नलिखित लाभ स्वतः प्राप्त होने लग जाते हैं-
काली की उपासना से साधक के जीवन के समस्त विघ्न ठीक उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कि अग्नि के सम्पर्क में आकर पतंगे भस्म हो जाते हैं।
काली स्तोत्रों का नियमित पाठ करने वाले साधक की वाणी में अजस्र प्रवाह व्याप्त हो जाने के कारण उसे गद्य-पद्य सभी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।
काली साधना सम्पन्न व्यक्ति के अन्दर अत्यधिक तेजस्विता स्वतः व्याप्त हो जाने के कारण प्रतिवादी निष्प्रभ हो जाते हैं।
Mahakali "Kali Mahatmya" "Origin of Kali

दस महाविद्याओं में प्रथम स्थान महाकाली का है, अतः इनकी साधना सम्पन्न करने वाले साधक को सुगमता से सभी सिद्धियां हस्तगत हो जाती हैं।
  1. भगवती काली अपने साधकों पर सदैव परम स्नेह रखने वाली तथा उनका कल्याण करने वाली हैं।भगवती काली के मंत्र का अनुष्ठान यदि साधक पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति युक्त होकर करता है, तो उसे चतुर्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा भगवती का सायुज्य भी प्राप्त होता है।
  2. काली साधक समस्त लोकों को वशीभूत करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
  3. भगवती अपने साधक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर उसे श्री, सम्पेक्षता तथा श्रेष्ठता प्रदान करती हैं तथा साधक के घर में कुबेरवंतू अक्षय भण्डार बना रहता है।
काली की साधना करने वाले साधक समस्त रोगों से मुक्त होकर पूर्ण स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हैं तथा पूर्ण युवा एवं दीर्घायु होते हैं।
  • काली महाविद्या त्रिभुवन में अत्यन्त दुर्लभ चारों पुरुषार्थों को देने वाली, महापापों को नष्ट करने वाली, सनातनी तथा समस्त भोगों को प्रदान करने वाली हैं।

काली की उत्पत्ति

काली का तात्पर्य है- "काल" की पत्नी । काल भगवान शिव को कहते हैं और इस प्रकार भगवान शिव की पत्नी 'जगदम्बा' ही काली हुई, अतः उत्पत्ति के आधार पर देखें, तो काली अजन्मा तथा आदि दैवी शक्ति हैं। भगवती काली की कृपा से ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता, ऋषि, मुनि तथा दैत्यादि सिद्धियां प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। ये उनसे ही उत्पन्न होकर उनमें ही लीन हो जाते हैं।
मार्कण्डेय पुराण में वर्णन आता है, कि एक बार महाबलशाली दो दैत्य शुम्भ एवं निशुम्भ ने युद्ध में देवराज इन्द्र को परास्त कर उनका राज्य एवं उनके सभी अधिकार उनसे छीन लिए। तत्पश्चात् उन दोनों दैत्यों ने एक-एक कर, सभी देवताओं को परास्त कर, उन्हें स्थान च्युत कर दिया। निष्कासित देव अपनी प्राण रक्षा व सम्मान रक्षा के लिए अपराजिता देवी का आवाहन करने लगे, क्योंकि इसके पूर्व देवताओं के आवाहन पर ही देवी ने महिषासुर का वध करके उन्हें यह वरदान दिया था, कि आपत्तिकाल में जब भी मेरा स्मरण करोगे, मैं तुम्हारे समस्त महान संकट क्षण भर में दूर कर दूंगी।
यही स्मरण कर सभी देवता पर्वतराज हिमालय पर पहुंच कर विष्णु माया भगवती की स्तुति करने लगे। समस्त देवता जब विपत्ति नाश के लिए भगवती की स्तुति कर रहे थे, उसी समय श्री पार्वती गंगा स्नान के लिए आयीं और देवताओं से पूछा - "आप लोग किसकी प्रार्थना कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं?" 
उस समय पार्वती के शरीर कोश से प्रकट होकर शिवा बोलीं- "ये देवता शुम्भ दैत्य से मुक्ति हेतु मेरी प्रार्थना कर रहे हैं।"
देवी के कोश से शिवा (अम्बिका) का प्राकट्य हुआ, अतः उन्हें "कौशिकी" नाम से भी जाना जाता है। कौशिकी के प्रकट होने से पार्वती जी काली रूप हो गई और "कालिका" नाम से विख्यात हुईं।
हिमालय में परम सुन्दर रूप धारण कर विचरण करती अम्बिका देवी को शुम्भ-निशुम्भ के चर चण्ड-मुण्ड ने देखा और जाकर शुम्भ से उनकी रूप की प्रशंसा कर, उन्हें अपनी पाणिग्रहिता बनाने के लिए प्रार्थना की।
चण्ड-मुण्ड के वचन सुनकर शुम्भ ने महाअसुर को अपना दूत बनाकर देवी के पास भेजा और अपने पास आने के लिए निमन्त्रण दिया। महाअसुर ने शुम्भ की आज्ञानुसार दैत्यराज की प्रशंसा की और विवाह करने का परामर्श दिया। दूत की बात सुनकर देवी ने कहा- "तुमने जो भी कहा शुम्भ और निशुम्भ उतने ही पराक्रमी होंगे, किन्तु उनका प्रस्ताव मैं स्वीकार नहीं कर सकती, क्योंकि मैंने यह प्रतिज्ञा ले रखी है, कि जो मुझे युद्ध में परास्त कर मेरे अभिमान को तोड़ देगा, वही मेरा भर्ता बन सकता है।"
देवी के ऐसे वचन सुनकर क्रोध से परिपूर्ण महाअसुर दैत्यराज के पास आया और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। दूत के वचन सुनकर दैत्यराज अत्यन्त क्रोधोन्मत्त हो उठा और धूम्रलोचन को साठ हजार असुर सैन्य के साथ भेज दिया। धूम्रलोचन तथा उसकी सेना को देवी तथा उनके सिंह ने समाप्त कर दिया। देवी के द्वारा धूम्रलोचन तथा उसकी सम्पूर्ण सेना का विनाश सुनकर उसने चण्ड-मुण्ड को विशाल सेना देकर भेजते हुए कहा - "देवी व उसके सिंह को मारकर, अम्बिका को बांधकर मेरे पास लाओ।"
आज्ञा पाते ही चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य विविध आयुधों से सज्जित चतुरंगिणी सेना के साथ देवी को पकड़ने की चेष्टा करने लगे।
अम्बिका अत्यधिक क्रोध में आ गईं। क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया, देवी के माथे पर भौंहें कुटिल होकर तन गईं... और तब भयानक मुख वाली काली देवी तलवार तथा पाश लिए प्रकट हो गईं। वे बड़े वेग से दैत्य सेना पर टूट पड़ीं, और उन्हें मारकर उनका भक्षण करने लगीं, इस प्रकार काली ने दुरात्मा असुरों की सेना कुचल डाली और घोर गर्जना करती हुई कुपिता काली ने चण्ड और मुण्ड को भी मार डाला । चण्ड-मुण्ड को मारने के कारण काली की ख्याति 'चामुण्डा' के रूप में भी हुई।
चण्ड-मुण्ड के मारे जाने की सूचना पाकर असुरराज शुम्भ अत्यधिक क्रोधित होकर उदायुध, कम्बु, कालिक, मौर्य, दौहृद, कालकेय आदि असुरों तथा अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ प्रस्थान किया और देवी, सिंह तथा काली को चारों ओर से घेर कर उन पर घातक प्रहार करने लगे।
अत्यन्त क्रोधित होकर काली ने अपना मुंह खूब फैला कर घोर गर्जना की। उसी समय दैत्यों के नाश के लिए तथा देवताओं के विकास के लिए ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिक आदि देवों की शक्तियां अत्यन्त पराक्रम एवं दिव्यायुधों से सम्पन्न होकर चण्डिका के पास आ गईं, और तब अत्यन्त दिव्य शक्तियों से समन्वित काली दैत्य सेना का संहार करने लगीं। इस प्रकार के महाविनाश को देख कर असुर भागने लगे, उन्हें भागता देखकर सेनापति रक्तबीज अत्यन्त क्रोधित होकर युद्ध करने के लिए आया। रक्तबीज के शरीर से एक भी रुधिर की बूंद पृथ्वी पर गिरते ही उसी के समान बलवान दूसरा असुर उत्पन्न हो जाता। देवी की ऐन्द्री शक्ति ने उस पर वज्र से ताड़ना की, वज्र लगते ही उसके शरीर से बहुत सा रुधिर बहने लगा और अनेकों रक्तबीज के समान पराक्रमी योद्धा प्रकट होने लगे ।
दैत्य के रुधिर से उत्पन्न उन असुरों से सारा जगत व्याप्त हो गया और देवता अत्यन्त भयग्रस्त हो गये, देवताओं को भयभीत देख देवी ने काली से कहा - "हे चामुण्डे! तुम अपना मुख विस्तार से फैला दो और मेरे शस्त्रपात से गिरते हुए रुधिर बिन्दुओं तथा बिन्दुओं से उत्पन्न महादैत्यों को अपने वेगवान मुख द्वारा खाती जाओ । युद्ध भूमि में रुधिरोत्पन्न इन महान दैत्यों का भक्षण करती हुई तुम घूमती रहो, तभी इन दैत्यों का नाश होगा, क्योंकि तुम्हारे द्वारा खाये जाने पर नये दैत्य पैदा नहीं होंगे।"
तत्पश्चात् देवी ने त्रिशूल से रक्तबीज पर प्रहार किया और काली ने तत्परता से रक्तबीज के रुधिर को मुख में ग्रहण कर लिया। इस प्रकार देवी ने शूल, वज्र, बाण, तलवार आदि, आयुधों से रुधिरहीन महाअसुर रक्तबीज को मार डाला। अस्तु, रक्तबीज के संहार से समस्त देव अत्यन्त प्रसन्न हुए।

महाकाली "काली का स्वरूप" "काली के भेद"

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