पाशुपत व्रत का रहस्य , उपमन्यु की कथा
पाशुपत व्रत का रहस्य
वायुदेव बोले- हे ऋषिगणों! पाशुपत व्रत को चैत्र मास की पूर्णिमा को करना चाहिए। त्रयोदशी को गुरु पूजन कर उनसे आज्ञा लेकर स्नान कर श्वेत वस्त्र, यज्ञोपवीत, चंदन माला धारण करें तथा कुश आसन पर उत्तर की ओर मुख करके बैठें। हाथ में कुशा लेकर तीन बार प्राणायाम करें और भगवान शिव और देवी पार्वती का ध्यान करें। इच्छानुसार व्रत करने की अवधि का संकल्प लें। विधिपूर्वक हवन हेतु अग्नि स्थापना कर उसमें समिधा और चरु की आहुतियां देने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। हवन के मंत्र बोलकर हवन करें। गोबर का गोला बनाकर हवन की अग्नि में डालें। चतुर्दशी को भी इसी तरह पूजन करें परंतु भोजन न खाएं। पूर्णिमा के दिन वैसे ही पूजन करें तथा रुद्राग्नि को बुझा दें और भस्म को धारण करें। फिर स्नान करते समय पैर धोकर आचमन करें। अग्निरीत्यादि छः मंत्र बोलें। 'ॐ शिव' का जाप करते हुए भस्म धारण करें। 'त्र्यायुष जमदग्नि' मंत्र का जाप करते हुए मस्तक पर त्रिपुण्ड लगाएं। ऐसा करने से मनुष्य पशुत्व से मुक्त हो जाता है। सोने का अष्टबल का आसन बनाएं। धन न होने पर कमलासन बनाकर उस पर पंचमुख शिवलिंग की स्थापना करें आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन कराकर दूध, दही, शर्करा, जल, मधु आदि पंचामृत से स्नान कराएं। फिर रोली, चंदन, पुष्य, धूप-दीप, नैवेद्य चढ़ाएं और कमल एवं बेलपत्र से शिव पूजन करें। तत्पश्चात गणपति गणेश, स्वामी कार्तिकेय, ब्रह्मा एवं शिवजी की आठ मूर्तियों का पूजन करें। फिर सभी अस्त्रों सहित अनुचरों, दिक्पाल, मरीचि एवं ब्रह्माजी के मानस पुत्रों व गुरुजनों का पूजन करें। दूध व फल ग्रहण करें भोजन न करें। भूमि पर ही सोएं। आर्द्रा नक्षत्र, पूर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी एवं अष्टमी को उपवास करें। व्रत के समय अहिंसा व्रत रखें तथा दान करें। तीनों काल में स्नान कर भस्म धारण करें। यदि संभव हो तो वैशाख में हीरे, जेठ में मरकत, आषाढ़ में आसोज गोमेद मणि व मोतियों का, श्रावण में नीलम का, भादों में पद्रसरांग मणि का, कार्तिक में मूंगे, मंगसिर में वैदूर्यमणि, पौष में पुखराज, माघ में सूर्यकांत मणि, फाल्गुन में चंद्रकांत मणि, चैत्र में रत्न और स्वर्ण का लिंग बनवाएं। धन न होने पर पत्थर या मिट्टी का शिवलिंग भी बनाकर विधि- विधान के अनुसार पूजन करने के पश्चात पंचाक्षर मंत्रों का जाप कर विजर्सन करें।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) बतीरावां अध्याय
उपमन्यु की भक्ति
ऋषिगणों ने वायुदेव से पूछा- हे वायुदेव ! आप हमें भगवान शिव के परम भक्त उपमन्यु की भक्ति के विषय में बताइए । वायुदेव बोले- हे मुनियो ! उपमन्यु बचपन से ही परम तपस्वी हुए हैं। उपमन्यु परम तपस्वी व्याघ्रपाद मुनि के पुत्र थे। भगवान शिव की परम भक्ति के कारण ही इन्हें शिव पुत्र कार्तिक एवं गणेश के समान शास्त्रों एवं ज्ञान की प्राप्ति हुई। उपमन्यु अभी छोटे बच्चे थे। उनकी मां उनके पीने के लिए दूध का प्रबंध भी नहीं कर पाती थी। एक दिन जब उपमन्यु दूध पीने के लिए हठ करने लगे तो मां ने भूने-पिसे अनाज का आटा घोलकर दिया। उपमन्यु ने उसे पीने से मना कर दिया। वह जान चुका था कि उसकी मां दूध के नाम पर जो दे रही है, वह दूध नहीं है। उपमन्यु ने कहा, यह दूध नहीं है मां । मुझे दूध चाहिए। मैं दूध ही पीऊंगा। अपने पुत्र की बातें सुनकर माता की आंखों में आंसू आ गए और वह बोली- पुत्र शिव भक्ति के बिना किसी भी वस्तु की प्राप्ति नहीं होती। इस संसार में सबकुछ उन्हीं की इच्छा से होता है। भला हम वनों में रहने वालों को दूध कहां से मिलेगा? तुम रोना बंद करो, इससे मुझे दुख पहुंचता है। तब अपनी माता के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वह बालक उपमन्यु बोला-माते! मैं शिवजी को प्रसन्न करके ही दूध प्राप्त करूंगा। तब माता बोली- बेटा! भगवान शिव तो सर्वत्र विद्यमान हैं। वे 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र द्वारा प्रसन्न होते हैं। माता ने समझाकर उपमन्यु को शांत कर दिया परंतु बालक का जिज्ञासु मन शांत न हुआ। उसने अपने मन में शिवजी के दर्शन करने का निश्चय कर लिया था। उस रात जब वह अपनी माता के साथ सोया हुआ था, तभी उसकी आंख खुली और उसे लगा जैसे शिवजी उसे बुला रहे हैं। वह रात को ही घर से निकल गया। बालक 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करता हुआ वनों में चला गया। उसे न तो वन में भटक जाने का भय था, ना ही किसी हिंसक पशु द्वारा खा लिए जाने की चिंता थी। उसके मन में तो उस समय सिर्फ और सिर्फ भगवान शिव के साक्षात्कार का ही संकल्प था। चलते-चलते ही रास्ते में उसे एक शिवालय दिखाई दिया। बालक उपमन्यु ने शिवालय में प्रवेश किया और 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करते हुए शिवजी की मूर्ति से लिपट गया। मूर्ति से लिपटकर वह रोता रहा। इस प्रकार तीन दिन बीत गए। बालक बेहोशी में भी मंत्र का जाप करता रहा। एक पिशाच ने उस बालक को बेहोश देखा तो वह अपनी भूख शांत करने के लिए उसे उठा ले गया परंतु शिव कृपा से एक सांप ने आकर पिशाच को डस लिया। जब वह होश में आया तो अपने को शिवमूर्ति के सामने न पाकर वह दुखी हुआ।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) तेतीसवां अध्याय
उपमन्यु की कथा
वायुदेव बोले—हे ऋषिगणो! बालक उपमन्यु रोते हुए भगवान शिव को ढूंढने लगा। उस समय वह भूख और प्यास से व्याकुल था। भगवान शिव ने जब दिव्य दृष्टि से देखा कि उनका परम भक्त उपमन्यु उनके दर्शनों के लिए भटक रहा है तो वे तुरंत उठकर जाने लगे। तभी देवी पार्वती जी उन्हें रोककर पूछने लगीं- स्वामी! आप कहां जा रहे हैं? तब शिवजी बोले- देवी! मेरा भक्त उपमन्यु मुझे पुकार रहा है। उसकी मां भी रोती हुई उसे ही ढूंढ़ रही है। मैं वहीं जा रहा हूं। शिवजी यह बता ही रहे थे कि सब देवता वहां आ पहुंचे। उन्होंने भगवान शिव-पार्वती को प्रणाम किया और उनसे संसार में अमंगल कारक दुर्भिक्ष का कारण पूछा। तब शिवजी ने उन्हें बताया कि उपमन्यु की तपस्या पूरी हो चुकी है और मैं उसे ही वर देने जा रहा हूं। तुम लोग अपने-अपने स्थान को जाओ। यह कहकर शिवजी देवराज इंद्र का रूप धारण करके ऐरावत हाथी पर सवार होकर बालक उपमन्यु के पास गए। उपमन्यु ने हाथ जोड़कर देवेंद्र को प्रणाम किया। तब इंद्र के रूप में शिवजी बोले- बालक हम तुम्हारे तप से प्रसन्न हैं। मांगो ! क्या मांगना चाहते हो? उपमन्यु बोला- हे देवेंद्र! आप मुझे भगवान शिव में भक्ति और श्रद्धा प्रदान कीजिए। यह सुनकर इंद्ररूपी शिव जानबूझकर अपनी निंदा करने लगे। यह सुनकर बालक उपमन्यु को क्रोध आ गया और उसने उन्हें उसी वक्त वहां से चले जाने के लिए कहा। उपमन्यु की शिव भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे साक्षात दर्शन दिए । शिवजी को सामने पाकर उपमन्यु उनके चरणों में गिर पड़ा और उनकी स्तुति करने लगा। तब उसे गोद में लेकर शिवजी बोले- उपमन्यु! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। मेरी कृपा से तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। तुम्हारा परिवार धनी हो जाएगा तथा तुम्हें दूध, घी और शहद आदि वस्तुओं की कोई कमी नहीं रहेगी। फिर शिव-पार्वती ने उपमन्यु को अविनाशी ब्रह्म विद्या, ऋद्धि-सिद्धि प्रदान की और उन्हें पाशुपत व्रत का तत्व ज्ञान दिया और सदा यौवन संपन्न रहने का आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव के आशीर्वादों को पाकर उपमन्यु कृतार्थ हो गया और बोला- हे देवाधिदेव महादेव! कल्याणकारी सर्वेश्वर ! आप मुझे अपनी भक्ति का वर प्रदान करें। मेरी प्रीति आप में सदा बनी रहे। मैं संसार में आपकी भक्ति का ही प्रचार-प्रसार करूं। शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा—बालक जैसा तुम चाहोगे वैसा ही होगा। तुम्हारी सभी कामनाएं पूर्ण होंगी। यह कहकर शिवजी देवी पार्वती सहित अंतर्धान हो गए और उपमन्यु प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आया ।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) चौतीसवां अध्याय
।। श्रीवायवीय संहिता संपूर्ण ॥
॥ ॐ नमः शिवाय ||
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