एकादश रुद्रों की उत्पत्ति ,दुर्वासा चरित्र,हनुमान अवतार,महेश अवतार वर्णन
एकादश रुद्रों की उत्पत्ति
नंदीश्वर बोले - हे मुने! अभी मैंने आपको कल्याणकारी भगवान शिव के दशावतारों के-बारे में बताया। अब मैं उन्हीं शिवजी के ग्यारह अवतारों के बारे में बताता हूं। इन्हें सुनने से असत्य के दोषों से उत्पन्न होने वाली बाधा दूर हो जाती है। पूर्व समय में एक बार देवराज इंद्र अपनी नगरी अमरावती को छोड़कर चले गए। यह देखकर उनके पिता कश्यप ऋषि को बहुत दुख पहुंचा। मुनि कश्यप भगवान शिव के परम भक्त थे। उन्होंने इंद्र को बहुत समझाया और स्वयं काशी नगरी आ गए। वहां उन्होंने पवन पावन गंगाजी में स्नान के पश्चात विश्वेश्वर लिंग के दर्शन किए और उसी के पास एक अन्य शिवलिंग की स्थापना की। उस लिंग की स्थापना कश्यप मुनि ने देवताओं के हितों के लिए की थी। फिर वे उस शिवलिंग की नित्य विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करने लगे और तपस्या में लीन रहने लगे। इस प्रकार दिन बीतते गए। एक दिन प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और बोले-हे मुनि कश्यप ! मैं आपकी आराधना से प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहते हो? मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। तब भगवान शिव के वचन सुनकर कश्यप मुनि बहुत प्रसन्न हुए और महादेव जी की स्तुति करने लगे। फिर बोले-हे भगवन्! मैं अपने पुत्र के दुख से बहुत दुखी हूं। आप मेरे पुत्र का दुख दूर कीजिए। आप मेरे घर में मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर मुझे सुख प्रदान कीजिए। कश्यप मुनि के वर को सुनकर शिवजी ने 'तथास्तु' कहा और वहां से अंतर्धान हो गए। तब कश्यप मुनि भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर वापिस आ गए। उन्होंने सब देवताओं को अपने वरदान के बारे में बताया जिसे जानकर सब देवता बहुत प्रसन्न हुए। भगवान शिव अपने द्वारा दिए गए वरदान के फलस्वरूप कश्यप मुनि के यहां उनके पुत्र के रूप में जन्मे। कश्यप मुनि ने प्यार से उनका नाम सुरभि रखा। सुरभि के जन्म पर बड़ा उत्सव हुआ। सभी देवताओं ने प्रसन्न होकर फूल बरसाए, अप्सराएं नृत्य करने लगीं तथा चारों दिशाओं में मंगल ध्वनि गूंजने लगी। देवताओं ने कश्यप मुनि को बहुत-बहुत बधाई दी। तत्पश्चात सुरभि के बड़े होने पर उनसे कपाली, पिंगल, भीम विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभु, चण्ड तथा भव नामक ग्यारह रुद्रों ने जन्म लिया। इन ग्यारह रुद्रों ने देवताओं की रक्षा करने तथा उनका हित करने हेतु अनेकों असुरों का वध किया। फिर उन्होंने दैत्यों द्वारा अधिकृत किया स्वर्ग का राज्य वापस ले लिया और उस पर फिर से देवराज इंद्र का राज्य हो गया। ये ग्यारह रुद्र आज भी देवताओं की रक्षा करने के लिए स्वर्ग में विराजमान रहते हैं।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता अठारहवां अध्याय
दुर्वासा चरित्र
नंदीश्वर बोले - हे महामुने! परम तेजस्वी तपस्वी महर्षि अत्रि, जो देवी अनुसूइया के पति थे, ब्रह्माजी की आज्ञा से ऋक्ष कुल नामक पर्वत पर, जो कि विंध्याचल के पास में स्थित था, पुत्र की कामना से घोर तपस्या की। उनकी तपस्या दिन-प्रतिदिन और भीषण होती जा रही थी, जिससे तेज अग्नि की ज्वाला प्रकट हुई और उससे सब लोक जलने लगे। तब सब देवताओं ने मिलकर ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी सब देवताओं को साथ लेकर भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। वहां उन्होंने विष्णुजी को महर्षि अत्रि की तपस्या से उत्पन्न ज्वाला के विषय में बताया। तब श्रीहरि बोले कि परमेश्वर भगवान शिव ही इस समस्या को दूर कर सकते हैं, इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए। तत्पश्चात श्रीहरि ब्रह्माजी व अन्य देवताओं को साथ लेकर भगवान शिव की शरण में गए। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर सबने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। उन्होंने महादेव जी को अत्रि मुनि की तपस्या के बारे में बताया। तत्पश्चात तीनों-ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी अत्रि मुनि को वरदान देने के लिए गए। उनके पदचिन्हों को पहचानकर अत्रि मुनि ने उन तीनों की अलग-अलग स्तुति करनी आरंभ कर दी। अत्रि बोले- हे ब्रह्मा ! विष्णु ! शिव! आप सभी इस संसार में सबके लिए आदरणीय और पूजनीय हैं। आप सबके ईश्वर हैं और इस सृष्टि का सृजन, रक्षा और विनाश करने वाले हैं। भगवन् मैंने तो पुत्र प्राप्ति हेतु भगवान शिव का पूजन-आराधन किया था परंतु आप तीनों के एक साथ दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया हूं। प्रभु! मुझे मेरा इच्छित वरदान दीजिए। मुनि अत्रि की प्रार्थना सुनकर त्रिदेव बोले- हे महामुने ! हम तुम्हारी उत्तम तपस्या से प्रसन्न हैं। हम तीनों देवता एक समान ही हैं और हममें एक ही अंश है। हमारे वरदान से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो हम तीनों के अंश होंगे। यह कहकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव वहां से अंतर्धान हो गए। अत्रि मुनि वरदान पाकर खुशी से झूम उठे और वापस अपने आश्रम में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने अपनी पत्नी अनुसूइया को वरदान के विषय में बताया जिसे सुनकर वे भी हर्षित हो उठीं। समय बीतता गया। निर्धारित समय पर देवी अनुसूइया ने तीन पुत्रों को जन्म दिया जो कि स्वयं भगवान शिव, ब्रह्मा और विष्णु का अंश थे। ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, विष्णुजी के अंश से दत्त तथा भगवान शिव के अंश से दुर्वासा जी की उत्पत्ति हुई। दुर्वासा जी ने सूर्यवंश में उत्पन्न राजा अंबरीष, जो कि सप्तद्वीप के स्वामी थे, की परीक्षा ली। एक दिन राजा अंबरीष ने एकादशी का व्रत रखा। तब दुर्वासा जी अपने शिष्यों को साथ लेकर उनके राजमहल में गए। उधर, अंबरीष ने सब ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरांत जैसे ही जल पीया दुर्वासा ऋषि वहां पहुंचकर उन पर नाराज होने लगे। वे बोले- राजन, हमें निमंत्रण देकर बुलाने पर भी आपने हमारा इंतजार नहीं किया और हमें भोजन कराने से पहले ही जल पी लिया। अब तुम्हें अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना होगा। यह कहकर दुर्वासा जी ने राजा अंबरीष को शाप से भस्म करना चाहा, परंतु उसी समय उनकी रक्षा हेतु सुदर्शन चक्र आ गया और वह दुर्वासा मुनि को ही जलाने लगा। तभी आकाशवाणी हुई कि दुर्वासा जी, अंबरीष भगवान शिव का अंश हैं। यह सुनकर सुदर्शन चक्र शांत हो गया। तब राजा अंबरीष ने दुर्वासा जी के चरण पकड़ लिए और उन्हें उत्तम भोजन करा कर विदा किया। एक बार दुर्वासा जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की परीक्षा ली। उन्होंने श्रीराम से कहा कि आपके और हमारे बीच होने वाली बात में कोई बीच में न आए। जब वे दोनों एकांत में बैठकर वार्तालाप कर रहे थे, लक्ष्मण वहां चले आए। तब रामचंद्र जी ने अपने प्रण के अनुसार अपने भाई लक्ष्मण का त्याग कर दिया। उनकी दृढ़ता से दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद देकर वहां से अपने स्थान को चले गए। इसी प्रकार एक बार उन्होंने श्रीकृष्ण जी की भी परीक्षा ली थी। जब भगवान विष्णु ने कंस का वध करने के लिए कृष्णावतार लिया, उस समय उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। वे ब्राह्मणों को प्रेमभाव से जिमाते थे। उनकी ख्याति के कारण एक बार दुर्वासा जी कृष्ण की परीक्षा लेने के लिए पहुंच गए। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने कृष्ण को वज्र के समान शरीर होने का वरदान प्रदान किया। एक बार द्रौपदी ने दुर्वासा जी को स्नान करते देखकर उन्हें वस्त्र दान किया था तब उसके फलस्वरूप दुर्वासा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि जब तुम पर विपत्ति आएगी तो यह वस्त्र बढ़कर तुम्हारी रक्षा करेगा और दुर्योधन द्वारा किए गए चीरहरण के समय उसी वरदान ने उनकी रक्षा की थी। इस प्रकार मुनि दुर्वासा ने अनेक वरदानों से प्राणियों की रक्षा की।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता उन्नीसवां अध्याय
हनुमान अवतार
नंदीश्वर बोले - हे महामुने! एक समय की बात है भगवान शिव, जो कि महान लीलाधारी हैं, भगवान श्रीहरि विष्णु का मोहिनी रूप देखकर उन पर मोहित हो गए। कामदेव के बाणों से आहत होकर रामचंद्र जी के कार्यों को सिद्ध करने हेतु उन्होंने अपना वीर्यपात कर दिया। तब उस वीर्य को पत्ते पर रखकर सप्तऋषियों ने देवी अंजनी के कान में पहुंचा दिया। समय आने पर देवी अंजनी गर्भवती हुईं और उन्होंने महाबली और पराक्रमयुक्त वानर रूपी शरीर वाले हनुमान को जन्म दिया। बाल्यकाल में हनुमान बड़े ही वीर व पराक्रमी थे। वे बहुत चंचल भी थे। बाललीला में उन्होंने सूर्य को फल समझकर निगल लिया था और देवताओं की विनती पर उसे मुक्त किया। यह जानने के बाद कि हनुमान भगवान शिव के अंश से जन्मे हैं, सबने उन्हें अनेक वरदान व आशीर्वाद प्रदान किए। सूर्यदेव की कृपा से उन्हें सारी विद्याएं प्राप्त हुईं। बालपन से ही हनुमान के हृदय में श्रीराम का निवास था। भक्ति भावना से उनकी आराधना और सेवा करना ही उनका ध्येय था। उन्होंने श्रीराम की सेवा हेतु अपना घर त्याग दिया। उनकी वानरराज सुग्रीव से भेंट ऋष्यमूक पर्वत पर हुई जिनकी पत्नी का हरण उसके भाई बाली ने किया था और उसे अपने राज्य से निकाल दिया था। हनुमान भी सुग्रीव के साथी बनकर उनके साथ रहने लगे। जब रामचंद्र जी वनवास काट रहे थे और दुष्ट रावण ने उनकी पत्नी देवी जानकी का अपहरण कर लिया था, उस समय उनकी भेंट हनुमान से हुई थी। हनुमान ने अपने आराध्य श्रीराम को पहचान लिया और उनके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। हनुमान और सुग्रीव से मित्रता हो जाने के पश्चात श्रीराम ने सुग्रीव के बड़े भाई बाली, जिसने उनका राज्य और पत्नी दोनों को छीन लिया था, का वध कर सुग्रीव का राज्याभिषेक कराया। फिर सुग्रीव अपनी पूरी वानर सेना सहित श्रीराम की पत्नी देवी सीता को ढूंढने के लिए निकल पड़े परंतु कुछ पता न चल सका। तब स्वयं हनुमान ने माता सीता की खोज शुरू की तथा समुद्र पार लेका जाकर उन्हें खोज निकाला और उनके आराध्य प्रभु राम का संदेश उन तक पहुंचाया। अपने स्वामी का समाचार पाकर देवी सीता बहुत प्रसन्न हुईं। उनका सारा शोक पल भर में दूर हो गया। माता सीता को रामजी का संदेश देकर हनुमान ने राक्षसों को सबक सिखाना शुरू किया। उन्होंने सारी अशोक वाटिका को नष्ट कर दिया। सारे वृक्षों को उखाड़कर फेंक दिया। जब रावण के सैनिकों ने उन्हें देख लिया तो रावण के सामने जाने हेतु उन्होंने अपने को कैद करा दिया। बंधन में बांधकर उन्हें रावण के सामने ले जाया गया। तब राक्षस राज ने वानररूपी हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दंड दिया। जब उनकी पूंछ में आग लगा दी गई तो उन्होंने पूरी लंका उससे जला दी। फिर समुद्र में कूदकर अपनी पूंछ की आग बुझाई। फिर रामचंद्र जी को उनकी प्रिया की निशानी दी। अपनी पत्नी का समाचार पाकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वानरों की सेना को साथ लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी। सर्वप्रथम उन्होंने शिवलिंग की स्थापना कर उसका पूजन किया फिर समुद्र पार लंका की ओर प्रस्थान किया। हनुमान ने इस युद्ध में बहुत वीरता का परिचय दिया। उन्होंने हजारों असुरों को मार डाला। युद्ध में जब लक्ष्मण घायल होकर मूर्च्छित हो गए तब उनकी प्राण रक्षा हेतु हनुमान संजीवनी बूटी लेकर आए और उन्हें जीवन प्रदान किया। हनुमान ने अहिरावण का वध करके भी राम-लक्ष्मण की रक्षा की थी। हनुमान में भगवान शिव का अंश था और उन्होंने पग-पग पर श्रीराम की रक्षा एवं सहयोग देकर उनके कार्यों को सिद्ध किया।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता बीसवां अध्याय
महेश अवतार वर्णन
नंदीश्वर बोले - हे महामुने! एक समय भगवान शिव और देवी पार्वती प्रसन्नतापूर्वक अपनी इच्छा से विहार कर रहे थे। उन्होंने भैरव को द्वार पर द्वारपाल बनाकर खड़ा किया था, जिसका कार्य किसी को भी द्वार पार नहीं करने देना था। उधर दूसरी ओर भगवान शिव अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती के साथ लीलाएं कर रहे थे और उनसे विनोदपूर्ण बातें कर रहे थे। बात करते हुए काफी समय बीत गया। तभी देवी पार्वती की कुछ सखियां, जो राजमहल में ही थीं, वहां उनके कक्ष में आ गईं। तब वे भी महादेव जी के पास बैठकर उनसे लीलाओं के वर्णन को सुनने लगीं। काफी देर तक उन सखियों से भगवान शिव की बातें करते देख देवी पार्वती को क्रोध आ गया। वे गुस्से से महल के बाहर जाने लगीं। द्वार पर खड़े द्वारपाल भैरव ने देवी पार्वती को देखा तो उसके मन में विकार आ गया, वह उन्हें साधारण स्त्री समझकर घूरने लगा। देवी पार्वती ने भैरव के मन की बात पहचानते हुए उसे शाप दे दिया-भैरव, तू पृथ्वी पर जाकर एक साधारण मनुष्य की भांति जीवन जिएगा और अपनी करनी का फल भोगेगा। जब देवी पार्वती इस प्रकार भैरव को शाप दे रही थीं तो भगवान शिव भी वहां आ पहुंचे। शाप से दुखी होकर भैरव ने देवी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा याचना की। तब त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल देवाधिदेव भगवान शिव ने भैरव को आश्वासन दिया। इस पर भैरव बोले कि हे प्रभु! देवी के शाप के प्रकोप से मुझे बचाइए। तब शिवजी भैरव को सांत्वना देने लगे और बोले-देवी पार्वती का शाप मिथ्या तो नहीं हो सकता परंतु भैरव हम अपने परम भक्त को ऐसे भी नहीं छोड़ सकते। तुम चिंता मत करो। भैरव को आश्वासन देकर शिवजी देवी पार्वती को साथ लेकर चले गए। शाप के अनुसार भैरव जी शीघ्र ही वेताल के रूप में पृथ्वी लोक पर विचरने लगे। तब अपने भक्त का उद्धार करने के लिए भगवान शिव ने पृथ्वी पर अवतार लिया और वे महेश के रूप में और देवी पार्वती शारदा के नाम से पृथ्वीलोक पर लीलाएं करने लगे।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता इक्कीसवां अध्याय
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