पार्वती का स्वप्न 'भौम-जन्म 'भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या

 पार्वती का स्वप्न 'भौम-जन्म 'भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या

पार्वती का स्वप्न

ब्रह्माजी बोले – हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब मैना पार्वती के पास पहुंची तो उन्हें देखकर सोचने लगीं कि मेरी पुत्री तो कोमल और नाजुक है। यह सदैव राजसी ठाठ-बाट में रही है। दुख और कष्टों को सहना तो दूर की बात है इनके बारे में भी यह सर्वथा अनजान है। पार्वती को उन्होंने बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला है। तब कैसे मैं अपनी प्रिय पुत्री को कठोर तपस्या करने के लिए प्रेरित कर सकती हूं? यही सब सोचकर मैना अपनी पुत्री से तपस्या के लिए कुछ नहीं बोल सकीं। तब अपनी माता के चिंतित चेहरे को देखकर साक्षात जगदंबा का अवतार धारण करने वाली देवी पार्वती यह जान गईं कि उनकी माताजी क्या कहना चाहती हैं? तब सबकुछ जानने वाली देवी भगवती का साक्षात स्वरूप पार्वती बोलीं- हे माता! आप यहां कब आईं? आप बैठिए। माता, पिछली रात्रि के ब्रह्ममुहूर्त में मैंने एक स्वप्न देखा है। उसके विषय में मैं आपको बताती हूं। मेरे सपने में एक दयालु और तपस्वी ब्राह्मण आए। जब मैंने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि तुम अवश्य ही भगवान शिव शंकर की प्राणवल्लभा बनोगी। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रेमपूर्वक तपस्या करो ।यह सुनकर मैना ने अपनी पुत्री के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और अपने पति हिमालय को वहां बुलाया। हिमालय के आने पर मैना ने पार्वती के सपने के बारे में उनको बताया। तब उनके मुख से पुत्री के सपने के विषय में जानकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए।तब वे अपनी पत्नी से बोले  प्रिय मैना! मैंने भी पिछली रात को एक सपना देखा था। मैंने अपने सपने में एक बड़े उत्तम तपस्वी को देखा। वे नारद मुनि द्वारा बताए गए सभी लक्षणों से युक्त थे। वे उत्तम तपस्वी मेरे नगर में तपस्या करने के लिए आए थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत खुशी हुई । मैं अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर उनके दर्शनों के लिए उनके पास पहुंचा। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे नारद जी के बताए हुए वर भगवान शिव ही हैं। तब मैंने पार्वती को उनकी सेवा करने का उपदेश दिया परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। तभी वहां सांख्य और वेदांत पर विवाद छिड़ गया। तत्पश्चात उनकी आज्ञा पाकर पार्वती वहीं रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगीं। हे प्रिये! यही मेरा सपना था जिसे देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मैं सोचता हूं कि हमें कुछ समय तक इस सपने के सच होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कहकर हिमालय और मैना उस उत्तम सपने के सच होने की प्रतीक्षा करने लगे।
श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)नवा अध्याय

भौम-जन्म

ब्रह्माजी बोले  नारद! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वह पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। फिर गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे। इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था। वह बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं। संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह पृथ्वी को पहचान चुके थे। वे पृथ्वी से बोले ;- हे धरिणी! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका धारण करो। नारद! यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था। उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक 'भौम' नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भौम दिव्यलोक को चले गए।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड दसवां अध्याय

भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती, जो साक्षात जगदंबा का अवतार थीं, जब आठ वर्ष की हो गईं तब भगवान शिव को उनके जन्म का समाचार मिला। तब उस अद्भुत बालिका को हृदय में रखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपने मन को एकाग्र कर तपस्या करने के विषय में सोचा। तत्पश्चात नंदी एवं कुछ और गणों को साथ लेकर महादेव जी हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर गंगोत्री नामक तीर्थ पर चले गए। इसी स्थान पर पतित पावनी गंगा ब्रह्मलोक से गिर रही हैं। भगवान शिव ने उसी स्थान को तपस्या करने के लिए चुना। शिवजी अपने मन को एकाग्रचित्त कर आत्मभूत, ज्ञानमयी, नित्य ज्योतिर्मय चिदानंद स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा का चिंतन करने लगे। अपने स्वामी को ध् में मग्न पाकर नंदी एवं अन्य शिवगण भी समाधि लगाकर बैठ गए। कुछ गण शिवजी की सेवा करते तथा कुछ उस स्थान की सुरक्षा हेतु कार्य करते ।जब गिरिराज हिमालय को शिवजी के आगमन का यह शुभ समाचार प्राप्त हुआ तब वे प्रेमपूर्वक मन में आदर का भाव लिए अपने सेवकों सहित उस स्थान पर आए जहां वे तपस्या कर रहे थे। हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर रुद्रदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनकी भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने लगे। हाथ जोड़कर हिमालय बोले- भगवन्! आप यहां पधारे, यह मेरा सौभाग्य है। प्रभु! आप भक्तवत्सल हैं। आज आपके साक्षात दर्शन पाकर मेरा जन्म सफल हो गया है। आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे अपनी सेवा करने की आज्ञा प्रदान करें। हे प्रभो। आपकी सेवा करके मेरा मन अत्यधिक आनंद का अनुभव करेगा।गिरिराज हिमालय के वचन सुनकर महादेव जी ने अपनी आंखें खोलीं और वहां हिमालय और उनके सेवकों को खड़े देखा। उन्हें देखकर महादेव जी मुस्कुराते हुए बोले ;- हे गिरिराज! मैं तुम्हारे शिखर पर एकांत में तपस्या करने के लिए आया हूं। हिमालय तुम तपस्या के धाम हो, देवताओ, मुनियों और राक्षसों को भी तुम आश्रय प्रदान करते हो। गंगा, जो कि सबके पापों को धो देती है, तुम्हारे ऊपर से होकर ही निकलती है। इसलिए तुम सदा के लिए पवित्र हो गए हो। मैं इस परम पावन स्थल, जो कि गंगा का उद्गम स्थल है, पर तपस्या करने के लिए आया हूं। मैं यह चाहता हूं कि मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरी हो जाए । इसलिए तुम ऐसी व्यवस्था करो कि कोई भी मेरे निकट न आ सके। अब तुम अपने घर जाओ और इसका उचित प्रबंध करो।ऐसा कहकर भगवान शिव चुप हो गए। तब हिमालय बोले - हे परमेश्वर! आप मेरे निवास के क्षेत्र में पधारे, यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। मैं आपका स्वागत करता हूं। भगवन् अनेकों मनुष्य आपकी अनन्य भाव से तपस्या और प्रार्थना करने पर भी आपके दर्शनों के लिए तरसते हैं। ऐसे महादेव ने मुझ दीन को अपने अमृत दर्शनों से कृतार्थ किया है। भगवन्, आप यहां पर तपस्या के लिए पधारे हैं। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। आज मैं स्वयं को देवराज इंद्र से भी अधिक भाग्यशाली मानता हूं। आप यहां बिना किसी विघ्न-बाधा के एकाग्रचित्त हो तपस्या कर सकते हैं। यहां आपको किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी, ऐसा मैं आपको विश्वास दिलाता हूं।ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय अपने घर लौट गए। घर पहुंचकर उन्होंने अपनी पत्नी मैना को शिवजी से हुई सारी बातों का वृत्तांत कह सुनाया। तब उन्होंने अपने सेवकों को बुलाया और समझाते हुए कहने लगे कि आज से कोई भी गंगावतरण अर्थात गंगोत्री नामक स्थान पर नहीं जाएगा। वहां जाने वाले को मैं दंड दूंगा। इस प्रकार हिमालय ने अपने गणों को शिवजी की तपस्या के स्थान पर न जाने का आदेश दे दिया।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड ग्यारहवां अध्याय 

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