पशुपति ज्ञान योग ,शिव तत्व वर्णन ,व्यासावतार Pashupati Gyan Yoga, Shiva element description, Vyasavatar

पशुपति ज्ञान योग ,शिव तत्व वर्णन,व्यासावतार

पशुपति ज्ञान योग

उपमन्यु बोले- हे कृष्णजी! इस संसार में सभी जीव मोहमाया के पाश में बंधे हुए हैं, इसलिए भगवान शिव के स्वरूप को वे जान नहीं पाते। भगवान शिव के अविकल्प प्रभावों का वर्णन ऋषि-मुनिगण करते हैं। भगवान शिव को अपर ब्रह्मरूप में ब्रह्मात्मक, अनादि अनंतर रूप में महादेव तथा भूत, इंद्रिय, अंतकर, प्रधान विषयात्मक में अपरब्रह्म एवं चेतनात्मक परमब्रह्म कहलाते हैं। यह बहुत विशाल है और विश्व का विस्तार करने वाला है। और ब्रह्म कहलाता है। विद्या और अविद्या ब्रह्म के रूप हैं। चेतना और अचेतना विद्या अविद्या के ही रूप हैं। विश्व भगवान शिव रूप है और संसार के सभी जीव भगवान शिव के अधीन हैं। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव तो सत असत दोनों के स्वामी हैं। वे ही सत असत को क्षर-अक्षर करते हैं। सभी प्राणी क्षर अव्यय एवं अक्षर हैं और परमात्मा के रूप हैं। सर्वेश्वर शिव ही समष्टि और व्यष्टि रूप कहलाते हैं। वे ही संसार के प्रवर्तक और निवर्तक हैं। वे ही आविर्भाव और तिरोभाव का कारण हैं। देवाधिदेव महादेव ही सबके स्वामी और धाता हैं। सर्वेश्वर शिव अंतर्यामी हैं। जो मनुष्य अपनी बुद्धि के कारण विरोधाभासों में फंसे रहते हैं, वे किसी भी बात का निश्चय नहीं कर पाते। जो मनुष्य भगवान शिव की शरण में जाते हैं उन्हें शिवतत्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध पांचवां अध्याय

शिव तत्व वर्णन

उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! जिस प्रकार इंद्रजाल की माया जादूगर को भ्रमित नहीं करती, बल्कि उसकी लीलाओं को देखकर वह आनंदित होता है, उसी प्रकार सृष्टि रचना का आधार रूप भगवान शिव सभी प्रकार के बंधनों से सदैव मुक्त रहते हैं । त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव शिव तो सब बंधनों से दूर हैं। उन्हें कोई भी माया, प्रकृति, बुद्धि और अहंकार नहीं बांध सकता। शिव तो परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे किसी वासना, मोह अथवा भोग के प्रभाव में नहीं आ सकते। बंधु-अबंधु, नियंता, प्रेरकपति, गुरु- त्राता, अधिक-समान, कांक्षित- अकांक्षित, जन्म-मरण, विधि-निषेध, मुक्ति-बंधन कोई भी सर्वेश्वर की राह में आगे नहीं आ सकता। देवाधिदेव महादेव सारे संसार में व्याप्त हैं। सृष्टि से पूर्व शिव थे, सृष्टि रचना के बाद सृष्टि रूप भी शिव हैं और सृष्टि के खत्म होने के बाद भी शिव ही अवशिष्ट रहेंगे। यह ज्ञान ही समस्त दुखों को समाप्त करने वाला है। यही शिवोपासना और शिवाराधना का प्रतिफल है। सदाशिव के सच्चे स्वरूप को जिस प्राणी ने समझ लिया वह कभी मोह के वश में नहीं होता। हिरण्यबाहु भी शिव रूप से काल के अग्रभाग हैं। हृदय के मध्य में सर्वेश्वर शिव का ही वास है। जो भगवान शिव का परम भक्त है उसको संसार में हर मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध छठवां अध्याय

शिव-शक्ति वर्णन

उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! परमब्रह्म परमात्मा शक्तिशाली और विलक्षण वाले एक ही रूप हैं। सूर्य किरणों के समान ही उनकी कीर्ति देदीप्यमान है। इच्छा ज्ञान और क्रिया रूप में उनकी अनेक शक्तियां विद्यमान हैं। इसी शक्ति के फलस्वरूप शिव पुरुष हुए और ज्ञानदायिनी आनंदमयी देवी पार्वती सूक्ष्म शक्ति कहलाई । प्रज्ञा श्रुति स्मृति रूपी शिव विद्या है। भगवान शिव ही वैद्य हैं। भगवान शिव की शक्ति विश्व को मोहने वाली और मुक्ति प्रदान करने वाली है। अपने हृदय में शिव-शक्ति के स्वरूप का ध्यान करने वालों को परम शांति प्राप्त होती है। शिव-शक्ति का तादात्म्य संबंध है। मुक्ति की कामना करने वालों के लिए ज्ञान एवं कर्मों की आवश्यकता नहीं है। मुक्ति तो भगवान शिव और देवी पार्वती के प्रसन्न होते ही प्राप्त हो जाती है। भगवान शिव के प्रसन्न होते ही मुक्ति सुलभ हो जाती है। भगवान शिव की भक्ति उन्हें प्रसन्न करती है। देवाधिदेव महादेव जी में भक्ति भावना रखने वाले जीवों को मुक्ति मिल जाती है। सांग और अनंग दोनों सेवाभक्ति कहलाती हैं। सर्वेश्वर शिव की ध्यान, साधना करने से समस्त कामनाएं पूरी होती हैं। तप, कर्म, जप, ज्ञान, ध्यान और चांद्रायण व्रत तप हैं। परमेश्वर शिव का नाम जपने व चिंतन करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। शिव शास्त्रों में भी इस ज्ञान का वर्णन है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध सातवां अध्याय

व्यासावतार

श्रीकृष्ण बोले- हे महर्षि! अब आप वेदों का सार सुनाइए। यह सुनकर उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! जब सर्वेश्वर शिव ने सृष्टि का निर्माण करने की इच्छा की, उस समय उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को पैदा किया और उन्हें सृष्टि रचने का उपदेश दिया। ब्रह्माजी ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्था की। फिर यज्ञार्थ सोम रचना की। सोम द्वारा स्वर्ग बना। तत्पश्चात सूर्य, पृथ्वी, अनल, यज्ञ, विष्णु और इंद्र आदि देवता हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे। परमात्मा ने जब देवताओं के ज्ञान का हरण कर लिया था, तब सब देवता भगवान रुद्र से पूछने लगे कि आप कौन हैं? तब रुद्र देव बोले- हे देवगण! मैं पुराण पुरुष त्रिकाल बाधित, भूत, भविष्य, वर्तमान में रहने वाला हूं। मैं ही सबका नियंता हूं। यह कहकर रुद्रदेव अंतर्धान हो गए। देवता आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। फिर सोम मंत्र से आराध्य भगवान शिव और देवी पार्वती की वे स्तुति करने लगे। देवताओं की स्तुति सुनकर देवाधिदेव महादेव जी ने देवी पार्वती सहित उन्हें दर्शन दिए । तब अपने सामने पाकर देवता उन्हें प्रणाम करने लगे और बोले- हे स्वामी! हमें अपने पूजन का विधान सुनाइए। यह सुनकर भगवान शिव ने अपने चतुर्मुखी तेजरूप का दर्शन कराया। शिवजी का अद्भुत स्वरूप देखकर देवताओं ने शिवजी को सूर्य और देवी पार्वती को चंद्रमा मानकर अर्घ्य प्रदान किया। तब देवताओं को शिव तत्व का अमृतमय ज्ञान देकर शिव-पार्वती अंतर्धान हो गए।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध आठवां अध्याय

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