काम्य कर्म निरूपण ,आवरण पूजन विधान ,शिव-स्तोत्र निरूपण Representation of lustful deeds, method of covering worship, formulation of Shiva-stotra

काम्य कर्म निरूपण ,आवरण पूजन विधान ,शिव-स्तोत्र निरूपण

काम्य कर्म निरूपण

श्रीकृष्ण बोले- हे महर्षे! अब आप मुझसे शिव धर्म के अधिकारी पुरुषों का कर्तव्य कर्म निरूपण करें। उपमन्यु बोले- हे कृष्ण ! कर्म ऐहिक और आयुष्मिक दो प्रकार के होते हैं। जिनमें आयुष्मिक कर्म, क्रियामय, तपोमय, जनमय ध्यानमय, सर्वमय आदि कुल पांच प्रकार के होते हैं। इन कर्मों की पूर्णता हेतु हवन, दान और पूजन आदि सब कर्म किए जाते हैं। शक्तिमान पुरुष ही इन कर्मों को सफल करते हैं। भगवान शिव ही अपने भक्तों को आज्ञा और शक्ति प्रदान करने वाले हैं। इसलिए उन्हीं पुरुषों को काम्य कर्म करना चाहिए। यह काम्यकर्म इस लोक और परलोक दोनों में परम फलदायक है। शिव महेश्वर हैं, वे सबके ईश्वर हैं। ज्ञानपूर्वक यज्ञ करने वाले शिवभक्त ही महेश्वर हैं। इसलिए ही आभ्यंतर कर्म शैव तथा वाहा कर्म महेश्वर हैं। गंध, रस, वर्ण द्वारा भूमि परीक्षा कर पृथ्वी के पृष्ठ पर पूर्व दिशा की उत्पत्ति करें और मंडल की रचना करें। फिर सर्वेश्वर महेश्वर का पूजन करें। तीन तत्वों से युक्त त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की मूर्ति के समक्ष शक्ति का आह्वान करें। तत्पश्चात पांच आवरणों का पूजन शुरू करना चाहिए।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध उनतीसवां अध्याय

आवरण पूजन विधान

उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! सबसे पहले भगवान शिव के दक्षिण में बैठे गणनायक, बाईं और कार्तिकेय एवं चारों ओर ईशान से सद्योजात का पूजन करें। द्वितीय आवरण में पूर्व दिशा के बाईं ओर से शक्ति, सूक्ष्मतत्व, पश्चिम में शक्ति, उत्तर दिशा में ईशान कोण का रुद्र सहित पूजन करें। तृतीय आवरण में शिवजी की आठों मूर्तियों का पूजन करें । फिर वृषेंद्र का पूजन करें। तत्पश्चात दक्षिण में नदी, उत्तर में महाकाल, शास्त्रों, अग्निकोण एवं मातृकाओं का दक्षिण दिशा में पूजन करें। श्री गणेश को नैऋत्य कोण में पूछें। पश्चिम में कार्तिक, वायव्य में ज्येष्ठा, उत्तर में गौरी व ईशान कोण में चंड का पूजन करें। चौथे आवरण में सर्वप्रथम ध्यान करें। फिर पूर्व में भानु, दक्षिण में ब्रह्मा, पश्चिम में रुद्र, उत्तर में श्रीहरि विष्णु का पूजन करें। आदित्य, भास्कर, भानु, रवि का पूजन करने के बाद आठ ग्रहों का पूजन करें। पांचवें आवरण में देव योनि का पूजन करें और फिर देवेश का पूजन करते हुए पंचाक्षरी मंत्र का जाप करें। पूजन करने के पश्चात भगवान शिव पार्वती को सभी भोग अर्पित करें। फिर स्तुति गायन करें और 'ॐ नमः शिवाय' का एक सौ आठ बार जाप करें। क्रमानुसार गुरुदेव का पूजन करें। सभी आवरणों के साथ देव विसर्जन करें। सब सामान गुरुदेव को अर्पित करें। यह योग योगेश्वर कहलाता है जो चिंतामणि तुल्य है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध तीरावां अध्याय

शिव-स्तोत्र निरूपण

उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! अब मैं आपको पंचवरण नामक पवित्र स्तोत्र सुनाता हूं। हे जगतनाथ! प्रकृति से सुंदर नित्य चेतन स्वरूप की सदा जय-जयकार हो । हे सरल स्वभाव वाले पवित्र, चरित्रवान सर्वशक्ति संपन्न! पुरुषोत्तम तुम्हारी सदा ही जय हो। हे मंगलमूर्ति कृपानिधान! देवाधिदेव! मैं आपको प्रणाम करता हूं। भगवन्! पूरा संसार आपके वश में है। प्रभु आप सब पर कृपा करके अपने भक्तों की कामनाओं को पूरा करें। हे जगदंबा ! हे मातेश्वरी! आप हम सब भक्तों के मनोरथों को पूरा कीजिए। हे गणनायक! हे स्कंद देव ! आप भगवान शिव की आज्ञा का पालन करने वाले और उनके ज्ञान रूपी अमृत को पीने वाले हैं। भगवन्! आप मेरी रक्षा करें। हे पांच कला के स्वामी आप मेरी अभिलाषा पूरी करें। हे आठ शक्तियों के स्वामी! आप सर्वेश्वर शिव की आज्ञा से हमारी कामनाएं पूरी करें। हे सात लोकों की माता! आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें। हे विघ्न विनाशक! आप हमारे शुभ कार्यों में आने वाले सभी विघ्नों को दूर करें। इस प्रकार यह आवरण स्तोत्र अत्यंत शुभ है। प्रतिदिन इस कीर्तन को श्रवण करने वाला पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध इकतीसवां अध्याय

सिद्धि कर्मों का निरूपण

उपमन्यु बोले— कृष्णजी! सर्वप्रथम प्राण वायु को जीतना चाहिए क्योंकि इस पर विजय प्राप्त होने से सब वायुओं पर विजय मिल जाती है। क्रमानुसार अभ्यस्त किया गया प्राणायाम सब दोषों को हटा देता है। यह शरीर की भी रक्षा करता है। जब प्राण वायु पर विजय प्राप्त हो जाती है तो विष्ठा, मूत्र, कफ सभी मंद पड़ जाते हैं। श्वास वायु लंबी तथा देर से आने लगती है। हल्कापन, द्रुतगमन, उत्साह, बोलने में चातुर्य सभी रोगों का विनाश सब प्राणायाम की सिद्धि से पूरे हो जाते हैं। इंद्रियों को वश में करने का नाम प्रत्याहार है, क्योंकि इंद्रियां ही विषयों में संलग्न होती हैं। सभी इंद्रियों को वश में कर लेना ही परम सुखकारी होता है। यह ही विद्वानों को ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है। अपनी इंद्रियों को वश में कर लेने से आत्मा का उद्धार होता है। अपने हृदय को एकाग्र करना और शिव चरणों में समर्पित कर देना ही सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध बत्तीसवां अध्याय

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