शिव पुराण श्री कैलाश संहिता प्रथम अध्याय से पंचम अध्याय तक Shiv Puran Shri Kailash Samhita from first chapter to fifth chapter

शिव पुराण श्री कैलाश संहिता प्रथम अध्याय से पंचम अध्याय तक

जो प्रधान प्रकृति और पुरुष के सृष्टि, पालन और संहार के कारण हैं, उन पार्वती देवी एवं देवाधिदेव भगवान शिव को उनके गण एवं पुत्रों सहित बारंबार प्रणाम है।
Shiv Puran Shri Kailash Samhita from first chapter to fifth chapter

व्यासजी एवं शौनक जी की वार्ता

ऋषियों ने कहा- हे महामुने! आपने हम पर कृपा करके हमें 'उमा संहिता' सुनाई। अब आप हम पर कृपा कर हमें शिवतत्व को बढ़ाने वाली परम दिव्य एवं कल्याणकारी कैलाश संहिता सुनाइए। तब ऋषियों की प्रार्थना सुनकर व्यास जी बोले - ऋषिगण ! एक बार हिमालय पर निवास करने वाले ऋषि-मुनियों ने काशीपुरी के दर्शन का विचार किया और विश्वेश्वर का दर्शन करने हेतु वहां पहुंच गए। उन्होंने काशी पहुंचकर मणिकर्णिका में, गंगाजी में स्नान किया। तत्पश्चात शतरुद्रिय मंत्र से भगवान शिव की स्तुति की। उसी समय सूत जी भी पंचकोसी देखने की इच्छा से वहां पहुंचे। सूत जी को वहां देखकर ऋषि-मुनियों ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - हे महाभाग सूत जी ! आप परम शिवभक्त और ज्ञान के सागर हैं। आपके हृदय में पुराणों की कथा स्थित है। आप परम गुरु हैं। हम सब आपके मुख से निकली हुई अमृतमय कथा को सुनना चाहते हैं। हम पर कृपा करके हमें देवाधिदेव भगवान शिव का परम ज्ञान सुनाइए । ऋषियों की इस प्रकार की गई प्रार्थना को सुनकर सूत जी बोले- हे मुनिश्वरो ! स्वारोचिष मनु ने नैमिषारण्य में तपस्वी ऋषियों के साथ सिद्धि प्रदान करने वाला यज्ञ किया। यह यज्ञ एक सहस्र वर्षों तक चलता रहा। तत्पश्चात उन्होंने भगवान शिव का स्मरण करके शिवभक्ति में भस्म और रुद्राक्ष धारण किया। तभी वहां मुनि वेदव्यास आ गए। मुनियों ने उन्हें आसन पर बैठाया। तब वे पूछने लगे कि बताइए इस यज्ञ को करने में आपका क्या प्रयोजन है? व्यास जी का प्रश्न सुनकर नैमिषारण्य के तेजस्वी पराशर पुत्र बोले- हे कृपासागर ! इस अद्भुत महायज्ञ का अनुष्ठान करने का कारण ओंकार के अर्थ को जानना है। हम परमब्रह्म परमेश्वर शिवजी के स्वरूप को जानना और समझना चाहते हैं। हम सब आपकी शरण में आए हैं। हम अल्प बुद्धियों के संदेह को दूर करें और हमें शिव ज्ञान प्रदान कर हमारी जीवन रूपी नाव को पार करा दें। हमारी एकमात्र इच्छा शिव तत्व जानने की है। मुनिगणों सहित पराशर पुत्र की इस प्रकार की गई प्रार्थना सुनकर महामुनि व्यास जी प्रसन्न होकर उन्हें ओंकार रूप भगवान शिव का पार्वती सहित मन में स्मरण करते हुए बोलने लगे।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता प्रथम अध्याय

पार्वती जी का शिवजी से प्रणव प्रश्न करना

व्यास जी बोले- हे मुनिवर ! भगवान शिव का वास्तविक ज्ञान ही प्रणव अर्थ को प्रकाशित करने वाला है। शिवजी का यह ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जिस पर शिवजी की विशेष कृपा होती है। प्राचीन समय में दाक्षायणी सती ने अपने पति भगवान शिव की निंदा सुनकर अपना शरीर त्याग दिया था। उन्होंने हिमालय के घर जन्म लिया। देवर्षि नारद की प्रेरणा से शिवजी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर पति रूप में प्राप्त किया। एक दिन भगवान शिव देवी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर बैठे हुए थे। देवी पार्वती ने शिवजी से कहा- हे देव! आप मुझे मंत्र दीक्षा देकर विशुद्ध तत्व प्रदान करें। श्री पार्वती जी के वचन सुनकर शिवजी बोले – देवी! मैं आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। यह कहकर उन्होंने पार्वती जी को प्रणव मंत्र प्रदान किया परंतु देवी इससे संतुष्ट न हुई और बोलीं- प्रभो! आपने मुझे ॐकार रहित उपदेश दिया है। मुझे प्रणव की प्राकट्य कथा भी बताइए । वेदों में इसे कैसे वर्णित किया गया है? इसकी व्यापकता एवं कला और पंचात्मकता के बारे में भी विस्तार से बताइए। इस प्रणव की उपासना कैसे और कहां की जाती है? इसके अनुष्ठान की विधि, स्थान और इससे मिलने वाले फल के बारे में भी मेरा ज्ञान बढ़ाने की कृपा करें। स्वामी! कृपा कर मुझे इस तत्व से अवगत कराकर मेरे श्रीज्ञान में अभिवृद्धि करें। देवी पार्वती की इस विनयपूर्ण प्रार्थना को सुनकर शिवजी उन्हें प्रणव की पूर्ण कथा सुनाने के लिए तैयार हो गए।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता दूसरा अध्याय

प्रणव पद्धति

भगवान शिव बोले- हे प्राणप्रिया! हे देवी! आपकी इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है। आपकी प्रसन्नता के लिए मैं आपको प्रणव कथा सुनाता हूं। प्रणव को जानने वाला शिव तत्व का भी ज्ञाता हो जाता है। प्रणव मंत्र सब मंत्रों का बीज मंत्र है। यही प्रणव सर्वज्ञ और सबका कर्ता है। 'ॐ' नामक इस एक अक्षरीय मंत्र में शिव सदा ही विद्यमान रहते हैं। इस संसार की सभी वस्तुएं गुणमयी होते हुए भी स्थावर और जड़ात्मक दिखाई पड़ती हैं। यही प्रणव का अर्थ है। यह 'ॐ' मंत्र ही सब अर्थों का साधक है। इसी अकार प्रणव से शिव अर्थात मैं सर्वप्रथम इस जगत का निर्माणकर्ता हूं। वही शिव ही प्राणरूप और प्रणव शिवरूप है। मैं ही ब्रह्मऋषि और एकाक्षर रूप हूं। इस संसार में प्रणव ही सबका कर्ता है। मुमुक्षु ही इस निर्विकार परमेश्वर प्रणव को जान और समझ सकते हैं। प्रणव मंत्र ही सभी मंत्रों में सर्वश्रेष्ठ है और शिवमणि माना जाता है। यही ओंकार मैं काशी में प्राण त्याग देने वालों को प्रदान करता हूं। इसे जानने वाले को परम सिद्धि प्राप्त होती है। इस पवित्र प्रणव रूपी ओंकार मंत्र को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम कला का उद्धार करें। जो पहले अकार को प्राप्त कर चुके हों उन्हें निवृत्त कला की प्राप्ति का विधान करना चाहिए। तत्पश्चात उकार में ईंधन, मकार में काल कला, नाद में दंड और बिंदु में ईश्वर कला का उद्धार करने का उपाय करें। ऐसे ही पंचवर्णीय प्रणव का उद्धार होता है। इन तीन मात्राओं और बिंदु नाद का जाप करने से प्राणियों को मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही मंत्र सबके हृदयों में प्राण बनकर जीवन प्रदान करता है। फिर यही 'ॐ' हो जाता है। इसी 'ॐ' का वर्णन वेदों में भी है और यही ओंकार मैं हूं। इसी के अकार के रजोगुण से ब्रह्मा, उकार से प्रकृति, सत्यगुण से जगत के पालनकर्ता श्रीहरि और मकार से पुरुष तथा तमोगुण से पापियों का संहार करने वाले शिव उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात साक्षात महेश्वर, जो बिंदुरूप हैं और नाद रूप हैं, का प्राकट्य होता है। यही सब पर कृपा करने वाले हैं। इसलिए जब भी शांत चित्त से ध्यान लगाएं, उस समय नादरूपी शिव का ही स्मरण करें। वे ही साक्षात मंगल रूप हैं। यह शिव ही सर्वज्ञ, सत्य के कर्ता, सर्वेश, निर्मल, अविनाशी, अद्वैत और परमब्रह्म हैं। वही व्यापक हैं और हर जगह स्थित हैं। इसलिए हमेशा सद्य, वामदेव, घोर, पुरुष, एशान नामक ब्रह्मस्वरूप का ही स्मरण करें। यही मेरी मूर्ति है। यही प्रणव मंत्र की उत्पत्ति और पद्धति है।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता तीसरा अध्याय 

संन्यास का आचार-व्यवहार

शिवजी बोले- हे देवी पार्वती ! अब मैं तुम्हें संन्यास और आहणिक क्रम के विषय में बताता हूं। सर्वप्रथम सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठें और अपने आराध्य गुरु के चरणों का स्मरण कर उनके मनोहर रूप को नमस्कार करें। हाथ जोड़कर उनसे विनती करते हुए कहें कि भगवन्! सुबह से लेकर रात तक मैं जो कुछ भी कार्य करता हूं, उसमें आपकी ही प्रेरणा शामिल है। वही मुझे हर मुश्किल कार्य को करने की शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करने वाली है। किसी भी कार्य को करने का आप ही मुझे बल प्रदान करते हैं। हम आपकी पूजा करते हैं। कृपा कर हमारी पूजा स्वीकार करें। यह कहकर गुरु से आज्ञा लेकर आसन पर बैठें। आसन पर बैठकर प्राणायाम करें। आसन में ध्यान लगाएं और छः चक्रों का स्मरण करते हुए उन चक्रों के बीच में मुझ सच्चिदानंद निर्गुण ब्रह्म और अनामय रूद्र शिव का चिंतन करें। तत्पश्चात ध्यान एवं पूजन से निवृत्त होने के बाद ही अपने अन्य कार्य करने आरंभ करें। सर्वप्रथम उठकर देवाधिदेव सर्वेश्वर का ध्यान करना भक्ति-मुक्ति प्रदान करने वाला है। इसलिए ध्यान के बाद ही अन्य कार्य करने चाहिए। फिर अपने नित्य-प्रतिदिन के कार्यों को करें। स्नान करने के पश्चात पुनः गुरु द्वारा बताई विधि के अनुसार पंचाक्षरी मंत्र का जाप करें। ओंकार का मन में ध्यान करते हुए तीन बार अर्घ्य दें। तत्पश्चात 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का एक सौ आठ बार जाप करते हुए बारह बार तर्पण करें। फिर आचमन करके तीन बार प्राणायाम करें। पूजा के लिए, पूजा स्थान पर जाते समय मौन अवस्था में हाथ-पैर धोकर ही जाएं। प्रवेश करते समय दाहिने पैर को ही आगे रखें।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता चौथा अध्याय

संन्यास मंडल की विधि

ईश्वर बोले- पूजा के स्थान में प्रवेश करने के पश्चात उस स्थान की धरती को लीपें । चार वस्त्रों को लेकर चौकों के समान की कल्पना करें। ताल पत्र के समान लंबे-चौड़े बराबर तेरह भाग करें। चौथे मंडल में पश्चिम की ओर मुंह करके बैठें। पूरब की तरफ से सूत्र लेकर दक्षिण और उत्तर के क्रम में चौदह सूत्र बिछाएं। इस प्रकार एक सौ उनहत्तर कोण हो जाएंगे। इन्हीं कोणों के बीच कणिका के मध्य दलाष्टक होता है। तत्पश्चात दल संधि को श्वेत, पीली, काली, लाल करें। कर्णिका में प्रणव अर्थ बताने वाले मंत्र लिखें। उसके ऊपर अमरेश, मध्य में महाकाल और उसके सिर के निकट दण्ड लिखें। उसके बाद ईश्वर का नाम लिखें। फिर श्याम अर्थात काले रंग में सिंहासन और पीले रंग में श्रीकण्ठ को रंग कर अमरेश को लाल और महाकाल को काला रंग करें। ईश्वर को सफेद रंग से लिखें। ऐसा लाल यंत्र 'संध्योजा' मंत्र से दान करें। फिर नाद से ईशान को भेदकर अग्नेक्रम से बाहरी पंक्ति को ग्रहण करें। चार कोणों को श्वेत और लाल धातु रंग से रंगकर चार दरवाजे बनाएं। इन दरवाजों के चारों ओर पीले रंग हों। दक्षिण दिशा के कोष्ठ में आठ दल का कमल रखें। इस प्रकार विधि-विधान से सभी दिशाओं के मण्डल को अंकित करके सूर्यदेव की पूजा करें।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता पांचवा अध्याय

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