शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) प्रथम अध्याय से पाँचवें अध्याय तक, Shiv Puran Shri Vayivya Samhita (First Part) From First Chapter to Fifth Chapter शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) प्रथम अध्याय से पाँचवें अध्याय तक

शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) प्रथम अध्याय से पाँचवें अध्याय तक

पुराणों और विद्यावतार का वर्णन

व्यास जी कहते हैं-जो जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूं। जिनकी शक्ति अद्वितीय है, जो संसार की हर वस्तु में विद्यमान हैं अर्थात सर्वव्यापक हैं, उन विश्वकर्ता, अविनाशी भगवान शिव की मैं शरण में हूं। जब गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग में नैमिषारण्य में ऋषिगणों ने यज्ञ का अनुष्ठान किया तब व्यास मुनि के पुत्र सूत जी उस स्थान पर गए थे। उन्हें वहां देखकर मुनि प्रसन्न हो गए। उन्हें यथायोग्य आसन पर बैठाकर उनका सत्कार और पूजन किया। ऋषिगण बोले- हे सर्वज्ञ सूत जी ! आप महर्षि व्यास जी के शिष्य होने के कारण सब कथाओं और रहस्यों को जानते हैं। हम पर कृपा करके हमें भी दिव्य कथा सुनाइए । ऋषिगण की प्रार्थना सुनकर सूत जी ने मन ही मन भगवान शिव एवं देवी पार्वती का स्मरण किया, फिर बोले - हे ऋषिगण ! अब मैं आपको पुराणों के प्रकट होने का वृत्तांत सुनाता हूं। श्वेत कल्प में वायुदेव द्वारा कहे गए वचन ही न्यास से पूर्ण व शास्त्रों से शोभित होकर पुराण कहे जाते हैं। चार वेद, छः शास्त्र, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र एवं पुराण आदि चौदह विद्याएं हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और अर्थशास्त्र से मिलकर ये अट्ठारह हो जाती हैं। देवाधिदेव भगवान शिव ही इन अट्ठारह विद्याओं के उत्पादक हैं। संसार की उत्पत्ति के समय सर्वप्रथम ब्रह्माजी उत्पन्न हुए जिन्हें ये अट्ठारह विद्याएं प्रदान कीं। उनकी रक्षा के लिए विष्णु को शक्ति प्रदान की। श्रीविष्णु जी ब्रह्मा की रक्षा करने वाले मध्य पुत्र हैं। ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए। तत्पश्चात उनके चार मुखों से शास्त्र उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न हुए इन शास्त्रों को पढ़ना अत्यंत कठिन है। इसलिए मनुष्यगणों को वेदों और शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करने हेतु भगवान शिव की कृपा से द्वापर युग में श्रीहरि विष्णु के रूप में व्यास जी अवतरित हुए। उन्होंने द्वैपायन नाम से द्वापर में जन्म लिया और वेद व्यास नाम से जगप्रसिद्ध हुए। उन्होंने सभी पुराणों की रचना की। संक्षेप में उन्होंने चार लाख श्लोकों की रचना की। ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, भविष्य, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, बामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रह्माण्ड, स्कंद आदि कुल अट्ठारह पुराण हैं। शिव पुराण के धर्म तथा विधि के अनुसार पूजन एवं आराधना से सब मनुष्य तथा देवताओं को शिवलोक की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) प्रथम अध्याय

ब्रह्माजी से मुनियों का प्रश्न पूछना

सूत जी बोले- हे ऋषियों! वराह कल्प में ऋषिगणों के मध्य विवाद छिड़ गया कि परब्रह्म कौन है? जब इस बात का निर्णय न हो सका तब सब ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति आरंभ कर दी। तब ब्रह्माजी ने उनसे पूछा, हे ऋषिगण ! आपके यहां आने का क्या प्रयोजन है? ब्रह्माजी के प्रश्न को सुनकर ऋषिगण बोले- हे ब्रह्माजी ! हम संदेह रूपी अज्ञान के अंधेरे में पड़ गए हैं। इसलिए हम सब बहुत व्याकुल हैं। हम पर कृपा करके हमारे संदेह को दूर करें। हम सब यह जानना चाहते हैं कि अविनाशी, नित्य, शुद्ध चित्त स्वरूप परब्रह्म परमात्मा कौन है? अपनी लीला से संसार को रचकर इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता कौन है? ऋषिगणों का यह प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी ने त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी देवाधिदेव महादेव जी का स्मरण करके उन्हें बताया।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता(पूर्वार्द्ध)  दूसरा अध्याय

नैमिषारण्य कथा

ब्रह्माजी बोले- हे ऋषियों! जिसने ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सहित पूरे संसार को रचा है, जिनकी कृपादृष्टि पाकर संसार के सभी प्राणी भयमुक्त हो जाते हैं, जो सब इंद्रियों के मूल हैं, जिनकी कृपा से मुझे प्रजापति पद प्राप्त हुआ है, जो सब पर शासन करने वाले हैं, जिनकी कृपा से सूर्य, चंद्र, अग्नि, बिजली सहित पूरा संसार प्रकाशित होता है, वे परम ब्रह्म और कोई नहीं, स्वयं शिव ही हैं। इनकी अनंत महिमा को कोई नहीं जान सकता। त्रिलोकीनाथ, कल्याणकारी भगवान शिव ही निपुण, उदार, गंभीर, माधुर्य, मकरंद से सभी प्राणियों के स्वामी और अद्भुत लीला करने वाले हैं। उन्होंने ही इस संसार को उत्पन किया है। प्रलय काल में ही वे सारे ब्रह्माण्ड को अपने अधीन कर अपने में विलीन कर लेते हैं। भगवान शिव का सच्चे मन से पूजन और आराधन करने वाले को प्रभु का दर्शन प्राप्त होता है। जाने पर भगवान शिव के तीन रूप है-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थूल रूप को देवता, सूक्ष्म रूप को योगीजन और तीसरे अर्थात अत्यंत सूक्ष्म रूप को शिवजी के परम भक्त और शिव व्रत का उत्तम पालन करने वाले ही देख सकते हैं। धर्म का विशेष ज्ञान अधर्म का नाश हो जाता है और फिर शिवजी की अचल भक्ति प्राप्त हो जाती है। भगवान शिव की कृपा से कर्म के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है तथा मनुष्य शिव धर्म में प्रवृत्त हो जाता है। धर्म दो प्रकार का होता है - गुरु अपेक्षित तथा गुरु अनपेक्षित गुर अपेक्षित धर्म द्वारा ही शिव धर्म में प्रवृत्त होकर शिव ज्ञान की प्राप्ति होती है और मनुष्य सांसारिक मोह- माया को त्यागकर भाव साधन में लग जाता है। तत्पश्चात ज्ञान और ध्यान से युक्त होकर मनुष्य योग में प्रवृत्त हो जाता है। योग से भक्ति, भक्ति से शिवजी की कृपा और उनकी कृपा से संसार से मुक्ति मिल जाती है। तब मनुष्य शिवधाम एवं शिवपद को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऋषिगण आप सबको मन और वाणी को शुद्ध करके परमात्मा शिव के ध्यान में लग जाना चाहिए। यज्ञों और मंत्रों द्वारा आवाहन करने से वायुदेव आपके पास आएंगे, उसी से तुम्हारा कल्याण होगा। फिर आप सब पवित्र वाराणसी नगरी में चले जाना क्योंकि वहीं पर पिनाकधारी शिव देवी पार्वती जी के साथ विराजमान हैं। इस समय में मनोमय चक्र को छोड़ रहा हूं। इस चक्र की नेमि जहां टूटे उसी स्थान पर आप महायज्ञ आरंभ करना। यह कहकर ब्रह्माजी ने शिवजी का स्मरण करते हुए सूर्य के समान चमकते दिव्य अलौकिक चक्र को फेंक दिया। सब ऋषियों ने ब्रह्माजी को प्रणाम कर चक्र के पीछे चलना आरंभ कर दिया। वह चक्र बहुत दूर चलकर एक बड़ी शिला से टकराया और उसकी नेमि टूट गई। तब वही स्थान नैमिषारण्य नाम से विख्यात हुआ। ऋषिगणों ने उसी स्थान पर महायज्ञ करने की दीक्षा ग्रहण की। एक समय की बात है राजा पुरुरुवा रानी उर्वशी के साथ विहार करता हुआ उस स्थान पर पहुंचा। पुरुरुवा अट्टारह समुद्र द्वीपों का स्वामी होते हुए भी उस भूमि को पाने के लिए ललचा गया। मोहित होकर वह उस भूमि को उनसे छीनने लगा। तब मुनिगण ने क्रोध में राजा पर कुशा का प्रहार किया और राजा को मार गिराया। इसी भूमि खंड पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इस भूमि खण्ड को पाकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न और आनंदित हुए।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) तीसरा अध्याय

वायु आगमन

सूत जी बोले- ऋषिगण ! उन भाग्यशाली ऋषियों ने नैमिषारण्य क्षेत्र में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए दस हजार वर्ष तक यज्ञ किया। तब ब्रह्माजी से प्रेरित होकर वायुदेव ने उन्हें दर्शन दिए। उन्हें अपने सामने पाकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए। ऋषिगण ने वायुदेव को उत्तम आसन देकर उनका बहुत आदर सत्कार किया। वायुदेव बोले- ऋषिगण! भगवान शिव की परम कृपा से आपका यज्ञ निर्बाध गति से चल रहा है। कोई राक्षस अथवा महादेत्य यज्ञ में विघ्न नहीं कर रहा है। फिर भी, क्या आपको इस यज्ञ में कोई कष्ट हुआ है? आपने शास्त्र स्तोत्र से देवताओं और पितृ कर्मों से पितरों को पूजकर यज्ञ को विधि-विधान से पूर्ण कर लिया है? तब वायुदेव के इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए ऋषिगण बोले- हे वायुदेव ! हमने अपने अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए ब्रह्माजी की आराधना की थी। तब उन्होंने प्रसन्न होकर हमें इस महायज्ञ को करने के लिए कहा था। उन्होंने ही हमें ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं देवों के स्वामी परब्रह्म परमेश्वर, कल्याणकारी भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए शिव मंत्र जपने की आज्ञा दी थी। आपके शुभागमन के विषय में भी ब्रह्माजी ने बताया था। आपने यहां पधारकर हमारे महायज्ञ को पूर्ण कर दिया। आपके दर्शन पाकर हम सबका जीवन सफल हुआ और हम सब कृतार्थ हुए।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) चौथा अध्याय

शिवतत्व वर्णन

ऋषि बोले- हे वायुदेव! आप हम सबको यह बताएं कि आपको यह ईश्वरीय ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ है? जिनका जन्म अभी तक अप्रकट है, ऐसे ब्रह्माजी से आपने शिव भाव को कैसे प्राप्त किया? प्रभु! हमारी इस जिज्ञासा को शांत करें और हमें ज्ञान प्रदान करें। ऋषिगण के वचन सुनकर वायुदेव बोले- हे ऋषिगण! इक्कीसवें श्वेत रूप नामक कल्प में ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तपस्या की। तब उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर कल्याणकारी शिव ने उन्हें अपने स्वरूप के दर्शन दिए। तत्पश्चात उन्हें परम शिव तत्व ज्ञान का उपदेश दिया। अपनी तपस्या के प्रभाव से ही मुझे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई है। सर्वप्रथम मुझे पशु पाशपति संज्ञक ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान को वस्तु विनाशक माना जाता है। चेतन और प्रकृति दोनों का नायक ज्ञान ही है। पशु पाश एवं पति को तत्वज्ञ कहते हैं। क्षर प्रकृति, अक्षर पुरुष और इन दोनों का प्रेरक परमेश्वर है। प्रकृति माया है। माया ही महेश्वर की परम शक्ति है। जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही माया से आच्छादित रहता है। ऋषि बोले- हे वायुदेव! कालादि क्या है? उसका कर्म व फल क्या है? भोग किसे कहते हैं और भोग के साधन क्या है? वायुदेव बोले- ऋषिगण! कला, विद्या, राग, काल और नियति का भोक्ता मनुष्य है। हमारा शरीर ही भोग का साधन है। जब शिवभक्ति की भावना प्रबल होती है, तब मनुष्य शिव स्वरूप हो जाता है। विद्या ज्ञान बढ़ाती है, राग को कला बढ़ाती है। सुख-दुख से मोहित होकर आत्मा सत्व, रज और तम गुणों को भोगती है। पंचभूत, पंचतन्मात्रा, पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय प्रधान बुद्धि, मन अहंकार विकारयुक्त है। श्रेष्ठ पुरुषों ने आत्मा को भिन्न माना है। मनुष्य अपने कर्मों का ही फल भोगता है। ईश्वर सर्वज्ञ और अगोचर है। वह ही अंतर्यामी कहलाता है। शरीर तो दुखों की खान है। वह नश्वर है और नए हो जाता है। संसार में आकर वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। आत्मा कभी नहीं मरती, वह अमर है। आत्मा एक के बाद दूसरा शरीर धारण कर लेती है। जीवात्मा ज्ञानहीन होने के कारण सुख-दुख भोगने के लिए स्वर्ग और नरक में जाती है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) पांचवां अध्याय

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