शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड )पहला अध्याय से चौथा अध्याय Shiv Purana Shri Rudra Samhita (Fourth Volume) First Chapter to Fourth Chapter

शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड )पहला अध्याय से चौथा अध्याय 

शिव-पार्वती विहार

जिनका मन वंदना करने से प्रसन्न होता है, जो प्रेम प्रिय हैं और जो प्रेम प्रदान करने वाले हैं, जो पूर्णानंद हैं और अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा पूरा करने वाले हैं, जो ऐश्वर्य संपन्न और कल्याणकारी हैं, जो साक्षात सत्य के स्वामी हैं, सत्यप्रिय और सत्य के प्रदाता हैं, ब्रह्मा और विष्णु जिनकी सदा स्तुति करते हैं, जो अपनी इच्छा के अनुरूप शरीर को धारण करते हैं, उन परम आदरमयी भगवान शिव की मैं चरण वंदना करता हूं।मुनिश्रेष्ठ नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा - हे ब्रह्मन्! आप समस्त देवताओं और प्राणियों का मंगल करने वाले हैं। हे भगवन्, आप मुझ पर कृपा करके यह बताइए कि देवाधिदेव करुणानिधान भगवान शिव तो अत्यंत शक्तिशाली और समर्थ हैं। फिर भी जिस अभीष्ट फल की सिद्धि के लिए उन्होंने गिरिजानंदिनी पार्वती से विवाह रचाया था, क्या वह पूर्ण हुआ? उन्हें पुत्र की प्राप्ति कब और कैसे हुई ? तारकासुर का वध किस प्रकार हुआ? प्रभु! कृपया कर मेरी इन जिज्ञासाओं की शांति हेतु मुझे इनके बारे में विस्तृत रूप में बताइए । सूत जी कहते हैं कि जब नारद जी ने यह पूछा तब ब्रह्माजी ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव का स्मरण करते हुए कहा - नारद! जब भगवान शिव देवी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर पधारे तब वहां सबने मंगल उत्सव किया। सभी खुशी में मगन होकर नृत्य कर रहे थे। तब भगवान शिव ने सभी को उत्तम भोजन कराया। तब सब देवताओं और मुनिगणों ने उनसे विदा लेकर अपने-अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। सब देवताओं के कैलाश पर्वत से चले जाने के पश्चात भगवान शिव अपनी प्रिया पार्वती को साथ लेकर अत्यंत मनोहर, दिव्य और निर्जन स्थान पर चले गए और वहीं सहस्रों वर्षों तक पार्वती जी के साथ विहार करते रहे। इस प्रकार भगवान शिव ने इतने अधिक समय को क्षण भर के समान व्यतीत कर दिया। इस प्रकार समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा था परंतु भगवान शिव का पुत्र अब तक उत्पन्न नहीं हुआ था। यह जानकर सभी देवताओं को मन ही मन चिंता सताने लगी। तब देवराज इंद्र ने एक सभा करने का विचार किया और उन्होंने सभी देवताओं को सुमेरु पर्वत पर आमंत्रित किया।

उस सभा में सब देवता इस बात पर विचार करने लगे कि इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी अब तक शिवजी ने पुत्र क्यों नहीं उत्पन्न किया? वे सोचने लगे कि शिवजी अब क्यों विलंब कर रहे हैं? उस समय मुझ ब्रह्मा को लेकर सब देवता भगवान श्रीहरि विष्णु के पास गए और कहने लगे कि हे हरे ! भगवान शिव हजारों वर्षों से रति क्रीड़ा कर रहे हैं। उनका पार्वती जी के साथ विहार अब भी जारी है परंतु अब तक किसी शुभ समाचार की प्राप्ति नहीं हुई है। तब भगवान श्रीहरि विष्णु मुस्कुराए और बोले - हे देवताओ! आप इस विषय में इतनी चिंता मत कीजिए। शिवजी स्वयं अपनी इच्छानुसार इस स्थिति से विरत हो जाएंगे। वैसे भी हमारे शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि जो व्यक्ति स्त्री-पुरुष का वियोग कराता है उसे हर जन्म में इस वियोग को स्वयं भी भोगना पड़ता है। अतः अभी कुछ भी नहीं करना चाहिए। कुछ समय और व्यतीत हो जाने दो। अभी हमें सिर्फ प्रतीक्षा करनी होगी। कुछ देर सोचने के पश्चात श्रीहरि ने पुनः कहा, एक हजार वर्ष बीत जाने पर आप सब लोक शिवजी के पास जाना तथा कोई युक्ति लगाकर ऐसा उपाय करना कि उनका शक्तिपात किसी भी प्रकार से हो जाए। उसी शक्ति से हमें उनके पुत्र की प्राप्ति हो सकती हैं परंतु इस समय आप सब देवता अपने-अपने धाम को चले जाएं। भगवान शिव को अपनी पत्नी पार्वती के साथ आनंदपूर्वक विहार करने दें। सब देवताओं को समझाकर श्रीहरि बैकुण्ठधाम को चले गए। श्रीहरि के चले जाने के उपरांत सब देवताओं ने अपनी चिंता त्याग दी और प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम चले गए। समय अपनी गति से बीतता गया परंतु शिवजी का पुत्र नहीं हुआ। तारकासुर का भय और आतंक का साया दिन पर दिन और बढ़ने लगा। देवताओं सहित ऋषि-मुनियों और साधारण मनुष्यों का जीवन उसने दूभर कर दिया था। तारकासुर के डर से पृथ्वी कांप उठी तब श्रीविष्णु जी ने सब देवताओं को बुलाया और भगवान शिव के पास चलने के लिए कहा। तब सब देवताओं को साथ लेकर भगवान श्रीहरि और मैं भगवान शिव से भेंट करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचे परंतु भगवान शिव कैलाश पर्वत पर नहीं थे। उनके गणों से जब हमने महादेव जी के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि भगवान शिव माता पार्वती के पास उनके मंदिर में गए हैं। तब श्रीहरि ने शिवगणों से उनका पता पूछा। तत्पश्चात हम सब उस स्थान पर पहुंचे जहां त्रिलोकीनाथ भगवान शिव अपनी प्रिया के साथ निवास कर रहे थे। तब वहां उनके निवास के द्वार पर पहुंचकर सब देवताओं ने भगवान शिव का स्मरण कर उन्हें मन में प्रणाम कर उनकी स्तुति आरंभ कर दी।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) पहला अध्याय समाप्त

स्वामी कार्तिकेय का जन्म

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। हर विषय के ज्ञाता हैं। भला उनसे कोई बात किस प्रकार छुप सकती है? भगवान शिव तो महान योगी हैं और सबकुछ जानने वाले हैं। इसलिए उन्होंने अपने योग बल से यह जान लिया कि मैं, विष्णुजी सभी देवताओं को साथ लेकर उनके द्वार पर आए हैं। तब वे बड़े हर्षित हुए और हम सबसे मिलने के लिए द्वार पर पधारे और हमारी स्तुति को स्वीकारते हुए बोले-आप सब एक साथ यहां क्यों पधारे हैं? तब हमने अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा कि हे देवाधिदेव ! करुणानिधान भगवान! तारकासुर के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। प्रभु, अब तो उपाय कीजिए कि हमें उसके आतंक से मुक्ति मिल जाए। देवताओं के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव दुखी हो गए और कुछ देर तक चुपचाप कुछ सोचने के बाद बोले- हे देवताओ! आपके दुखों को मैं समझ रहा हूं परंतु मेरे लिए एक कठिन समस्या है कि मेरे द्वारा किए गए शक्तिपात को कौन धारण कर सकता है? ऐसा कहकर उन्होंने अपना शक्तिपात धरती पर गिरा दिया। तब सब देवताओं ने अग्निदेव से प्रार्थना की कि वे भगवान शिव की उस शक्ति को कपोत बनकर धारण कर लें। सब देवताओं का आग्रह स्वीकार करके अग्निदेव ने कपोत रूप धारण कर उस शक्ति को अपने अंदर समाहित कर लिया। जब बहुत देर तक भगवान शिव देवी पार्वती के पास वापस नहीं पहुंचे तो परेशान होकर देवी स्वयं उन्हें देखने बाहर चली आई। वहां जब उन्होंने अग्निदेव को उस शक्ति का भक्षण करते हुए देखा तो वे क्रोधित हो गईं। उस समय उनकी आंखें गुस्से के कारण लाल हो गई थीं। तब देवी पार्वती ने अग्निदेव से कहा- हे दुष्ट अग्निदेव! आपने मेरे पति त्रिलोकीनाथ की शक्ति का भक्षण किया है, इसलिए आज मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम सर्वभक्षी होगे। जो भी तुम्हारे संपर्क में आएगा वह तत्काल नष्ट हो जाएगा। तुम सर्वथा इस आग में स्वयं भी जलते रहोगे। अग्निदेव को क्रोध में यह शाप देकर देवी पार्वती वहां से चली गईं। उनके साथ शिवजी भी वहां से चले गए। इधर समस्त देवताओं द्वारा अग्नि में होम करने से और अन्न आदि के सेवन द्वारा वह शक्ति सब देवताओं के शरीर में पहुंच गई। उस शक्ति की गरमी से सभी देवता दुखी हो गए थे। तब सब पुनः भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे कि भगवन्! हमें इस जलन से मुक्ति दिलाएं। हम सबकी पीड़ा अनुभव कर उन्होंने हमसे कहा कि इस शक्ति के ताप और जलन को बंद करने के लिए उसे अपने शरीर से वमन के द्वारा बाहर निकालना होगा। भगवान शिव की आज्ञा मानकर हम सभी देवताओं ने वमन द्वारा शिवजी की उस शक्ति को अपने शरीर से निकाल दिया। उसके निकलते ही सबने संतोष की सांस ली और महादेव जी की स्तुति करके उन्हें धन्यवाद दिया परंतु अग्नि देव की पीड़ा किसी भी प्रकार कम नहीं हो रही थी। उनका हृदय जल रहा था। तब मैंने अग्निदेव को भगवान शिव की शरण में जाने की सलाह दी। मेरी बात मानकर अग्नि देवता ने भक्तवत्सल भगवान शिव की बहुत स्तुति की तब शिवजी प्रसन्न हुए और बोले – कहिए अग्निदेव, आप क्या कहना चाहते हैं? तब अग्निदेव ने हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात वे बोले -हे देवाधिदेव! कृपा करके मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिए। मैं बहुत बड़ा मूर्ख हूं जो मैंने आपकी शक्ति का भक्षण कर लिया। आप मुझे क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हों। भगवन्, मुझ पर कृपा कर इस शक्ति के ताप को कम करके मुझे मुक्ति दिलाएं। यह सुनकर भगवान प्रसन्नतापूर्वक अग्निदेव से बोले - हे अग्निदेव ! आपने उस शक्ति का सेवन करके बहुत बड़ी भूल की है। अपने किए का दंड आप काफी समय से भोग रहे हैं इसलिए मैं आपको क्षमा करता हूं। तुम मेरी इस शक्ति को किसी नारी शरीर में स्थिर कर दो। ऐसा करने से तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। यह सुनकर अग्नि ने दुबारा प्रश्न किया कि भगवन् आपका तेज धारण करने की क्षमता तो किसी में भी नहीं है। तभी नारद तुम भी वहां आ गए और अग्निदेव से बोले कि जैसा भगवान शिव की आज्ञा है, वैसा ही करो। ऐसा करने से तुम्हारे कष्ट दूर हो जाएंगे। तब तुमने अग्निदेव से कहा कि माघ महीने में जो भी स्त्री सबसे पहले प्रयाग में स्नान करे उसके शरीर में आप इस शक्ति को स्थित कर देना। माघ का महीना आने पर सुबह ब्रह्म मुहूर्त में सर्वप्रथम सप्तऋषियों की पत्नियां प्रयाग में स्नान करने पहुंचीं। स्नान करने के उपरांत जब उन्होंने अत्यधिक ठंड का अनुभव किया तो उनमें से छः स्त्रियां अग्नि के पास जाकर आग तापने लगीं। उसी समय उनके रोमों के द्वारा शिवजी की शक्ति के कण अग्नि से निकलकर उनके शरीर में पहुंच गए। तब अग्निदेव को जलन की पीड़ा से मुक्ति मिल गई। समयानुसार वे छ: ऋषि पत्नियां गर्भवती हो गईं। उनके पतियों ने उन्हें व्यभिचारी समझकर उनका त्याग कर दिया। तब वे सब हिमालय पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगीं। वहीं उस पर्वत पर उन्होंने कई भागों में मानव अंगों को जन्म दिया, परंतु वह पर्वत उनके भार को सहन नहीं कर सका और उसने उन्हें गंगाजी में गिरा दिया। गंगाजी ने उन्हें जोड़ दिया पर वे उस बालक के तेज को सहन नहीं कर सकीं और उसे अपनी तरंगों में बहाकर सरकंडे के वन के निकट छोड़ दिया। वह तेजस्वी बालक मार्गशीर्ष में शुक्ल षष्ठी के दिन पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ। उसके पृथ्वी पर आते ही सभी को आनंद की अनुभूति हुई। आकाश में दुदुभियां बजने लगीं और फूलों की वर्षा होने लगी।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) दूसरा अध्याय समाप्त

स्वामी कार्तिकेय और विश्वामित्र

नारद जी बोले- हे ब्रह्माजी ! जब वह बालक पृथ्वी पर अवतरित हो गया, तब वहां क्या और कैसे हुआ? तब नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब गंगाजी द्वारा उस तेजस्वी बालक को लहरों द्वारा बहाकर सरकंडे के वन के पास छोड़ दिया गया, तभी वहां मुनि विश्वामित्र पधारे। उस बालक का देदीप्यमान मुख देखकर विश्वामित्र दंग रह गए। वह बालक दिव्य तेज से प्रकाशित हो रहा था। उसे बड़ा प्रतापी और बलशाली जानकर मुनि विश्वामित्र ने उसे नमस्कार किया और उसकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात मुनि बोले कि भगवान शिव की इच्छा से ही तुम यहां प्रकट हुए हो। शिव तो सर्वेश्वर हैं। वे ही परम ब्रह्म परमात्मा हैं। इस संसार का हर प्राणी, हर जीव उनकी आज्ञा का ही पालन करता है। तब मुनि विश्वामित्र के ऐसे वचन सुनकर वह बालक बोला- हे महाज्ञानी, प्रकांड पंडित, मुनि विश्वामित्र ! मेरे इस स्थान पर आने के बाद सर्वप्रथम आप ही यहां पधारे हैं। निश्चय ही आपका यहां आना भगवान शिव की प्रेरणा से ही प्रेरित है। इसलिए आप ही विधि-विधान के अनुसार मेरा नामकरण संस्कार कीजिए। आज से आप ही मेरे पुरोहित हैं और मेरे द्वारा पूज्य हैं। मेरे द्वारा पूज्य होने के कारण आप इस जगत में विख्यात और पूज्य होंगे। उस बालक के ऐसे वचन सुनकर मुनि विश्वामित्र आश्चर्यचकित होकर उस बालक से पूछ लगे कि हे बालक! आप कौन हैं? अपने विषय में मुझे बताइए । तब उनकी बात सुनकर वह बालक बोला- हे विश्वामित्र ! अब आप ब्रह्मर्षि हो गए हैं। मेरे विषय में जानने से पूर्व आप मेरा संस्कार कीजिए। तब मुनि विश्वामित्र ने उस अद्भुत बालक का नामकरण संस्कार किया और उसका नाम कार्तिकेय रखा। गुरु दक्षिणा के रूप में उसने मुनि को दिव्य ज्ञान प्रदान किया। तब मैंने स्वयं वहां जाकर उस बालक को गोद में लिया और उसे चूमा। तत्पश्चात मैंने उसे शक्तियां और शस्त्र प्रदान किए। उन अद्भुत शक्तियों को प्राप्त कर वह बालक बहुत प्रसन्न हुआ और तुरंत ही पहाड़ पर चढ़ गया। पहाड़ पर चढ़कर वह उसके शिखरों को गिराने लगा तथा वहां की संपदा नष्ट करने लगा। यह देखकर उस स्थान पर निवास करने वाले राक्षस उस बालक को मारने के लिए दौड़े। उन भयंकर राक्षसों से बिना भयभीत हुए उसने उन सबको भगा दिया। उनके भयंकर युद्ध से पूरा त्रिलोक कांपने लगा। त्रिलोक को भयभीत होता देखकर सब देवता वहां पहुंचे। देवराज इंद्र ने क्रोध में आकर उस बालक पर प्रहार किया। इस प्रहार के फलस्वरूप उस बालक के शरीर से विशाख नाम का दूसरा पुरुष पैदा हो गया। उन्होंने उस बालक पर एक और प्रहार किया तो नेगम नाम का एक और महाबली पुरुष पैदा हो गया। इस प्रकार इंद्र के प्रहारों से चार स्कंध पैदा हुए, जो बहुत वीर और बलवान थे। तब क्रोधित होकर ये चारों स्कंध एक साथ मिलकर स्वर्ग के राजा इंद्र को मारने के लिए दौड़े। यह देखकर इंद्र घबराकर अपनी जान बचाने के लिए कहीं दूर जाकर छिप गए। उनको ढूंढते ढूंढ़ते वह बालक उनके धाम स्वर्ग में पहुंच गया। उस समय जब वह बालक स्वर्ग पहुंचकर देवराज इंद्र को ढूंढ रहा था। एक सुंदर सरोवर में छः कृत्तिकाएं स्नान कर रही थीं। उस सुंदर-सलोने बालक को देखकर वह उसे प्यार करने और गोंद में खिलाने के लिए दौड़ीं और उसे पकड़कर ले आईं। तब उन कृत्तिकाओं ने उस नन्हे बालक को बहुत प्यार किया और तब वे आपस में उसे दूध पिलाने के लिए लड़ने लगीं। तब उस बालक ने छः मुख धारण करके सब माताओं का स्तनपान किया। तब वे प्रसन्नतापूर्वक उस बालक को अपने साथ अपने लोक में ले गई और उसका लालन-पालन करने लगीं।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) तीसरा अध्याय समाप्त

कार्तिकेय की खोज

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार उस दिव्य बालक को लेकर वे कृत्तिकाएं अपने लोक में चली गईं। वहां जाकर उन्होंने उस बालक को सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत किया और बड़े लाड़-प्यार से उस बच्चे को पालने लगीं। जब बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन पार्वती जी ने अपने पति शिवजी से पूछा- हे प्रभु! आप तो सबके ईश्वर हैं, सब प्राणियों के वंदनीय हैं। सब आपका ही ध्यान करते हैं। भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने मुस्कुराकर कहा- देवी पूछो, क्या पूछना चाहती हो? तब देवी पार्वती ने कहा प्रभु! आपकी शक्ति जो पृथ्वी पर गिरी थी, वह कहाँ गई? देवी पार्वती के इन वचनों को सुनकर शिवजी ने विष्णुजी, मेरा और सब देवताओं और मुनियों का स्मरण किया। यह ज्ञात होते ही कि भगवान शिव ने हमें बुलाया है, हम सभी तुरंत कैलाश पर्वत पर चले गए। वहां पहुंचकर हमने महादेव जी और देवी पार्वती को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उनकी स्तुति की। तब भगवान शिव बोले- हे देवताओ, मुझे यह बताइए कि मेरी वह अमोघ शक्ति कहां है? शीघ्र बताओ, अन्यथा मैं तुम्हें इसके लिए दंड दूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर सभी देवता भय से कांपने लगे। तब उन्होंने जैसे-जैसे वह शक्ति जहां-जहां गई थी, वह सभी बातें शिव-पार्वती को विस्तार सहित बताईं। तब उन्होंने यह भी बताया कि उस बालक को छः कृत्तिकाएं अपने साथ अपने लोक को ले गई हैं और उसको पाल रही हैं। यह सुनकर शिवजी व देवी पार्वती को बहुत प्रसन्नता हुई। वे दोनों अपने उस पुत्र को देखने के लिए बहुत उत्सुक थे। तब शिवजी ने अपने गणों को उस बालक को कृतिकाओं के पास से वापस ले आने की आज्ञा दी। भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके वीर बलशाली गण, क्षेत्रपाल और भूत-प्रेत गण लाखों की संख्या में शिवजी के पुत्र की खोज में निकल पड़े। तब उन सबने वहां पहुंचकर कृत्तिकाओं के घर को घेर लिया। यह देखकर कृत्तिकाएं भय से व्याकुल हो गईं। तब कृत्तिकाओं ने अपने पुत्र कार्तिकेय से कहा कि हमें चारों ओरसे असंख्य सेनाओं ने घेर लिया है। अब हमें बचने का मार्ग खोजना होगा। यह सुनकर स्वामी कार्तिकेय मुस्कुराए और बोले - हे माताओ! आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपका यह पुत्र आपके साथ है। मेरे रहते कोई भी शत्रु इस घर में प्रवेश नहीं कर सकता। माता! मेरे बालरूप को देखकर आप मुझे अयोग्य न समझें। मैं इन सभी को हराने में सक्षम हूं। इससे पूर्व कि कार्तिकेय उन गणों की सेनाओं को नुकसान पहुंचाते नंदीश्वर उनके सामने आकर खड़े हो गए और बोले - हे माताओ! हे भ्राता ! मुझे संसार के संहारकर्ता भगवान शिव ने यहां भेजा है। मेरे यहां आने का उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नही है। मैं तो सिर्फ आपको अपने साथ ले जाने आया हूं। इस समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव त्रिदेव आपकी कैलाश पर्वत पर प्रतीक्षा कर रहे हैं तथा आपके लिए चिंतित हैं। आप शीघ्र ही हमारे साथ पृथ्वी पर चलें। आप अभी तक अपने जन्म के उद्देश्य से सर्वथा अनजान हैं। आपका जन्म दैत्यराज तारकासुर का वध करने के लिए ही हुआ है। अतः आप हमारे साथ चलें। वहां पृथ्वी लोक पर सब देवताओं सहित स्वयं भगवान शिव आपका अभिषेक करेंगे तथा सब देवता अपनी-अपनी दिव्य शक्तियां और अस्त्र-शस्त्र आपको प्रदान करेंगे। यह सुनकर कार्तिकेय बोले- यदि आपको भगवान शिव ने यहां मेरे पास भेजा है तो मैं अवश्य ही उनके दर्शनों के लिए आपके साथ चलूंगा। हे तात! ये ज्ञानयोगिनियां प्रकृति की कला हैं। इन्हें कृत्तिका नाम से जाना जाता है। इन्होंने ही अब तक मेरा पालन-पोषण किया है। इसलिए ये मेरी माताएं हैं और मैं इनका पौष्य पुत्र हूं। तब स्वामी कार्तिकेय ने हाथ जोड़कर कृत्तिकाओं से नंदीश्वर के साथ जाने की आज्ञा मांगी। माताओं ने अपना आशीर्वाद देकर उन्हें वहां से जाने की आज्ञा प्रदान कर दी।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) चीया अध्याय समाप्त

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