शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता प्रथम अध्याय से चौथा अध्याय तक Shiv Purana Srikotirudra Samhita from Chapter 1 to Chapter 4

शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता प्रथम अध्याय से चौथा अध्याय तक 

द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं उपलिंगों की महिमा

निर्विकार होते हुए भी जो अपनी माया से विराट विश्व का आकार धारण करते हैं, स्वर्ग और मोक्ष जिनकी कृपा से वैभव माने जाते हैं, जिन्हें मुनिजन सदा अपने हृदय में अद्वितीय आत्मज्ञानानंद रूप में देखते हैं, उन दिव्य तेज से संपन्न भगवान शिव शंकर, जिनका आधा शरीर शैलराज पुत्री देवी पार्वती से सुशोभित है। उन्हें सदैव मेरा नमस्कार है। जिसकी कृपापूर्ण चितवन सुंदर है, जिनका मुख सदैव मंद मुस्कान की छटा से मनोहर है, चंद्रमा की कलाएं जिनके स्वरूप को निर्मल उज्ज्वल करती हैं, जो त्रितापों (आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक) को शांत करते हैं, जिनका स्वरूप सच्चिन्मय एवं परमानंद रूप से प्रकाशित होता है, जो सदा गिरिजानंदिनी पार्वती के साथ विराजते हैं, वे शिव नामक तेज पुंज सबका मंगल करें। मुनियों ने सूत जी से कहा- हे सूत जी ! आपने लोकहित की कामना से भगवान शिव की परम पवित्र अनेक कथाएं सुनाई हैं। शिवजी के माहात्म्य की कथारूपी अमृत का पान करते- करते भला कौन पुरुष तृप्त हो सकता है? मुने! आप इस जगत के मंगल के लिए पृथ्वी के तीर्थ स्थानों में श्रेष्ठ व प्रसिद्ध शिवलिंगों की कथा का वर्णन कीजिए। 
 Shiv Purana Srikotirudra Samhita from Chapter 1 to Chapter 4

मुनियों के प्रश्नों को सुनकर महाज्ञानी सूत जी बोले- हे ऋषियो! आपने संसार के हित की कामना से बड़ा सुंदर प्रश्न किया है। आपकी भगवान शिव में अगाध भक्ति और उनकी कथा में महान रुचि है। आपकी इच्छा के अनुसार मैं आपको शिवजी की उत्तम कथा सुनाता हूं। भगवान शिव के लिंगों की गणना तो असंभव है। उनके असंख्य लिंग पूरे ब्रह्मांड में फैले हुए हैं। अब मैं आपको मुख्य लिंगों की कथा सुनाता हूँ। सौराष्ट्र में सोमनाथ जी, श्री शैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकालेश्वर, ओंकार जी में परमेश्वर, हिमालय पर्वत पर केदार, डाकिनी देश में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ जी, गोमती नदी के तट पर त्रयंबकेश्वर, सेतुबंध में रामेश्वर एवं शिवालय में घुश्मेश्वर नामक बारह ज्योतिर्लिंग विद्यमान हैं। जो मनुष्य प्रातः उठकर इन बारह ज्योतिर्लिंगों का स्मरण कर पूजन व उपासना करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और सभी कामनाएं एवं मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इन ज्योतिर्लिंगों पर चढ़ा हुआ नैवेद्य का प्रसाद ग्रहण करने से मनुष्यों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त भोगों को भोगकर वह मोक्ष को प्राप्त होता है। निम्न जाति का कोई व्यक्ति यदि किसी लिंग का दर्शन कर ले तो वह उच्च कुल में जन्म लेता है। इन बारह ज्योतिर्लिंगों की महिमा का वर्णन स्वयं ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु तथा अन्य देवता भी नहीं  कर सकते। धरती और समुद्र के मिलने वाले स्थान पर सोमेश्वर जी का अन्नकेश नामक लिंग है मल्लिकार्जुन से प्रकट रुद्रेश्वर नामक उपलिंग जग प्रसिद्ध है और भृगु में स्थित है। नर्मदा नदी के तट पर स्थित महाकाल शिवलिंग का दुग्धेश नामक उपलिंग है, जो सुख देने वाला है। इसी प्रकार ओंकारेश्वर का उपलिंग कर्दमेश्वर नाम से बिंदु सरोवर के तट पर है। केदारेश्वर का उपलिंग भूतेश्वर नाम से यमुना नदी के तट पर है। यह पापों का नाश करता है। भीमेश्वर उपलिंग भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिंग का है और सह्य पर्वत पर स्थित है। नागेश्वर का उपलिंग मल्लिका सरस्वती तट पर भूतेश्वर नाम से स्थित है और रामेश्वर में घुश्मेश्वर लिंग के उपलिंग के रूप में व्याघ्रेश्वर लिंग स्थित है। इस प्रकार मैंने आपको बारह ज्योतिर्लिंगों और उपलिंगों के बारे में बताया। इनके दर्शनों से समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता प्रथम अध्याय

पूर्व दिशा स्थित शिवलिंग

सूत जी बोले- हे ऋषियो! पतित पावनी भागीरथी श्री गंगाजी के तट पर मुक्तिदात्री काशी नगरी स्थित है, जिसमें भगवान शिव निवास करते हैं। यहीं पर कृतिका बासेश्वर शिवलिंग स्थित है, जो सब भक्तों की कामनाओं को पूर्ण कर उन्हें मुक्ति प्रदान करता है। यहीं तिल भांडेश्वर, दशाश्वमेध, गंगासागर, संगमेश्वर आदि अनेक शिवलिंग स्थित हैं। कौशिकी नदी के पास भूतेश्वर और नारीश्वर लिंग स्थित हैं। उत्तर प्रदेश में स्थित नाथेश्वर एवं दूतेश्वर नामक लिंग सभी मनोरथों को पूरा करने वाले हैं। ऋषि दधीचि के युद्धस्थल पर शृगेश्वर, वैद्यनाथ तथा जप्पेश्वर, गोपेश्वर, रंगेश्वर, रामेश्वर, नागेश, कामेश, वितलेश्वर, व्यासेश्वर, सुकेश, भांडेश्वर, हंकारेश, सुरोचन, भूतेश्वर, संगमेश नामक सभी लिंग सब प्राणियों के पापों का नाश करने वाले हैं। इसी प्रकार तृप्तका नदी के किनारे कुमारेश्वर, सिद्धेश्वर, सैनेश, रामेश्वर, कुंभेश, नंदीश्वर, पुंजेश आदि शिवलिंग स्थित हैं।  दशाश्वमेध नामक तीर्थ, जो प्रयाग में है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष देने वाला है और यहां परब्रह्मेश्वर शिवलिंग स्थित है। यह लिंग स्वयं ब्रह्माजी द्वारा स्थापित है। सोमेश्वर, ब्रह्मतेजवर्द्धक, भारद्वाजेश्वर, शुलटंकेश्वर एवं माधवेश्वर लिंग यहीं स्थित हैं। रघुवंशियों की नगरी अयोध्या में नागेश शिवलिंग स्थित है, जो भक्तों को सुख देने वाला तथा अभीष्ट को पूर्ण करने वाला है। इसी नगरी में भुवनेश व लोकेश नामक महाशिवलिंग स्थित हैं। कामेश्वर, शुद्धिकर्ता गणेश, शुक्रेश्वर एवं शुक्रसिद्धि नामक शिवलिंग लोक कल्याण हेतु स्थापित किए गए हैं। सिंधु नदी के किनारे बटेश्वर कृपालेश एवं वक्रेश आदि लिंग स्थित है। धूतपापेश्वर, भीमेश्वर, सूर्येश्वर आदि लिंगों को साक्षात परमेश्वर मानकर आराधना की जाती है। समुद्र के किनारे रामेश्वर, विमलेश्वर, कंटकेश्वर, नागेश्वर व धनुर्केश आदि लिंग महाप्रसिद्ध हैं। चंद्रेश्वर लिंग की कांति चंद्रमा के समान उज्ज्वल है। इसके अतिरिक्त विद्वेश्वर, विश्वेश्वर, कर्दमेश, कीटीश, नागेश्वर, अनंतेश्वर, योगेश्वर, वैद्यनाथेश्वर, कोटिश्वर, सत्येश्वर, भद्रनामक, चंगीश्वर व संगमेश्वर नामक ये शिवलिंग पूर्व दिशा में स्थित हैं।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता दूसरा अध्याय

अनुसूइया एवं अत्रि मुनि का तप

सूत जी बोले- हे ऋषियों! ब्रह्माजी की नगरी में चित्रकूट नामक पर्वत है। वहां ब्रह्माजी द्वारा मत्तगयंद शिवलिंग स्थित है, जो सभी प्रकार की संपत्ति देने वाला है। इसी प्रकार पूरे संसार में अनेक परम पावन शिवलिंग स्थापित हैं, जो मनोरथों को पूर्ण करने वाले तथा भोग- मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। पापों का नाश करने वाली गोदावरी नदी के पश्चिम में पशुपति नामक शिवलिंग स्थित है। वहां से दक्षिण की ओर जगत का हित करने वाला एवं अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसूइया को आनंद देने वाला अत्रिश्वर लिंग स्थित है। सूत जी की वाणी से अत्रिश्वर लिंग व देवी अनुसूइया के बारे में सुनकर ऋषियों ने पूछा- हे सूत जी ! इस अत्रिश्वर शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई और इससे देवी अनुसूइया का क्या संबंध है? इस विषय में हमें बताइए । तब ऋषियों द्वारा उठाए गए प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत जी बोले - ऋषियो ! दक्षिण में चित्रकूट पर्वत के निकट कामद नाम का वन है। ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि अत्रि अपनी पत्नी अनुसूइया के साथ इसी स्थान पर निवास करते थे। एक समय की बात है, उस वन में सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, अकाल पड़ गया। मनुष्य पानी और भोजन के लिए तरसने लगे। चारों ओर दुख ही दुख था। लोग अन्न-जल के अभाव में मर रहे थे। यह स्थिति देखकर महर्षि अत्रि व देवी अनुसूइया बहुत व्याकुल हो गए। तब अनुसूइया ने अपने पति से कहा- स्वामी! मैं इन प्राणियों को इस दुख की स्थिति में नहीं देख सकती । कुछ प्रयत्न कीजिए ताकि इनके दुख दूर हो जाएं और प्रसन्नता छा जाए। अपनी पत्नी देवी अनुसूइया का निवेदन सुनकर महर्षि अत्रि पद्मासन में बैठ गए और भगवान शिव के चरणों का ध्यान करने लगे। इस प्रकार जब वे समाधि में बैठ गए तब उनके सभी शिष्य उनको अकेला छोड़कर वहां से चले गए परंतु देवी अनुसूइया अपने पति की सेवा में लगी रहीं। उन्होंने भगवान शिव की मूर्ति स्थापित की और फिर उसकी विधिपर्वक पूजा- अर्चना की। इस प्रकार वे भी शिवजी की आराधना में लीन हो गई। जब देवताओं को इसका ज्ञान हुआ तो वे अत्रि और अनुसूइया के आश्रम में पधारे। उनके साथ गंगा नदी भी थीं। वे देवी अनुसूइया की प्रशंसा करते हुए बोले कि हमने देवी अनुसूइया जैसी भक्ति आज तक नहीं देखी, जो पति धर्म और भक्ति धर्म का एक साथ दृढ़ता से पालन कर रही हैं। निश्चय ही आप दोनों धन्य हैं। यह कहकर अन्य देवता अपने स्थान को चले गए परंतु भगवान शिव व गंगाजी ने वहीं निवास किया। गंगाजी बोलीं कि देवी अनुसूइया का हित किए बिना मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी। भगवान शिव अंश रूप में महर्षि अत्रि के आश्रम में रहे और कैलाश पर्वत पर चले गए। महर्षि अपनी तपस्या में पूर्व की भांति लगे रहे। इस प्रकार अकाल पड़ते-पड़ते चौवन वर्ष बीत गए। देवी अनुसूइया भी अपने वचन को निभाती रहीं कि पृथ्वी पर वर्षा से पूर्व मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगी। अनुसूइया श्रद्धाभाव से शिवजी के चरणों में अपना ध्यान लगाती रहीं।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता तीसरा अध्याय

अत्रिश्वर की महिमा वर्णन

सूत जी बोले- हे ऋषियो! तपस्या करते हुए महर्षि अत्रि को बहुत समय बीत गया था। एक दिन मुनि ने समाधि से जागकर अनुसूइया से कहा- देवी! मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है। आप कहीं से जल लाकर मेरी प्यास शांत करो। अपने पति की आज्ञा का पालन करते हुए अनुसूइया ने हाथ में कमण्डल लिया और पानी लाने के लिए चल दीं। साध्वी अनुसूइया पानी की तलाश में इधर-उधर घूम रही थीं। यह देखकर स्वयं गंगा जी देवी अनुसूइया के सामने आकर बोलीं- देवी! आप इस समय कहां जा रहीं हैं? तब उनका ऐसा प्रश्न सुनकर देवी अनुसूइया ने गंगा जी से पूछा-भगवती ! आप कौन हैं और कहां से आ रही हैं? अनुसूइया के प्रश्न का उत्तर देते हुए गंगाजी ने कहा- हे देवी! में गंगा हूं और आपके पतिव्रत धर्म और शिव पूजन से प्रसन्न होकर यहां आई हूं। मैं आपकी कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहती हो। मैं अवश्य ही तुम्हारी इच्छित वस्तु तुम्हें प्रदान करूंगी। गंगाजी के ऐसे वचन सुनकर देवी अनुसूइया ने हाथ जोड़कर विनम्रता से गंगाजी से कहा- हे माता ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मेरे इस कमण्डल को जल से भर दें। मेरे पति प्यासे हैं। मैं उनकी प्यास बुझाना चाहती हूं। तब देवी गंगा बोलीं- पति परायणे! आप पृथ्वी में एक गड्ढा खोदिए। मैं यहां विराजमान हो जाऊंगी, तब तुम पानी से कमण्डल भर लेना। गंगाजी के आदेशानुसार देवी अनुसूइया ने गड्ढा खोद दिया। फिर गंगाजी उस गड्ढे में समा गईं। वह गड्ढा जल से भर गया। यह दृश्य देखकर अनुसूइया बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने अपना कमण्डल जल से भर लिया और बोली- हे भगवती ! पतित पावनी गंगे ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके इसी प्रकार इस गड्ढे में निवास कीजिए। जब तक मेरे पति यहां आकर आपके दर्शन न कर लें, आप यहीं पर स्थित रहिए। यह कहकर अनुसूइया जल से भरा कमण्डल लेकर आश्रम में लौट आईं। वहां आकर उन्होंने अपने पति अत्रि को जल पिलाया। उस मधुर शीतल जल को पीकर महर्षि तृप्त हो गए। जब उन्होंने अपने आस-पास देखा तो उन्हें सूखे फल-फूल हीन वृक्ष देखकर ज्ञात हो गया कि अभी तक वर्षा नहीं हुई है। तब उन्होंने आश्चर्यपूर्वक अपनी पत्नी से पूछा- देवी! जब अब तक वर्षा नहीं हुई है तो यह शीतल जल कहां से आया?  अपने पति के वचन सुनकर अनुसूइया ने अपने पति से कहा- हमारी शिव आराधना व आपकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं गंगाजी यहां पधारी हैं और हमारे आश्रम की शोभा बढ़ा रही हैं। यह बताकर अनुसूइया अपने पति को साथ लेकर गंगाजी के पास गईं। वहां महर्षि अत्रि ने सपत्नीक श्री गंगाजी की स्तुति करना आरंभ कर दिया। तत्पश्चात गंगा स्नान करके संध्या वंदन किया। तब गंगाजी ने दोनों पति-पत्नी से वहां से जाने की आज्ञा मांगी। तब महर्षि अत्रि बोले- हे पतित पावनी गंगा ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर सदा के लिए इसी तपोवन में निवास करें। माते! यहां विराजकर हमें कृतार्थ करें। अनुसूइया और महर्षि अत्रि की प्रार्थना सुनकर श्री गंगाजी ने कहा- अनुसूइये! यदि तुम एक वर्ष तक की शिव पूजा और पति सेवा का फल मुझे दे दो तो मैं देवताओं और ऋषि- मुनियों के हित के लिए यहां निवास करूंगी। तब जगत के कल्याण के लिए देवी अनुसूइया ने एक वर्ष की तपस्या का पुण्य गंगाजी को अर्पित कर दिया। यह देखकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव तुरंत उस पार्थिवलिंग से प्रकट हो गए। शिवजी के साक्षात दर्शन पाकर पति- पत्नी बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करने लगे। यह देखकर शिवजी बोले—साध्वी अनुसूइये! मैं आपके लोकहित के इस कर्म से बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहती हो। मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छित वस्तु अवश्य प्रदान करूंगा। तब पति-पत्नी ने भगवान शिव के दर्शन किए एवं उनका विधि-विधान से पूजन किया। भगवान शिव के बार-बार पूछने पर अनुसूइया एवं महर्षि अत्रि बोले- हे कृपानिधान! देवाधिदेव भगवान शिव ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो आप देवी पार्वती सहित यहीं निवास करें ताकि यहां वर्षा हो, अन्न उत्पन्न हो और सभी प्राणियों का कल्याण हो। तब उनकी बात सुनकर भगवान शिव बोले- हे अनुसूइये व मुनि अत्रि ! जैसा आप चाहते हैं वैसा ही होगा। यह कहकर भगवान शिव पार्थिव लिंग में समा गए और अत्रिश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए । पतित पावनी श्री गंगाजी भी मंदाकिनी नाम से विख्यात होकर उस कुण्ड में सदा के लिए स्थापित हो गईं। फिर महर्षि अत्रि का वह आश्रम पुनः पहले की भांति हरा-भरा हो गया।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता चौथा अध्याय

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