श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) तेंतीसवाँ अध्याय से पैंतीसवाँ अध्याय तक Shri Rudra Samhita (third volume) from thirty-third chapter to thirty-fifth chapter

श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) तेंतीसवाँ अध्याय से पैंतीसवाँ अध्याय तक

अनरण्य राजा की कथा

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! कुल की रक्षा करने के लिए किसी एक का त्याग कर देना ही नीति शास्त्र कहलाता है। जिस प्रकार राजा अनरण्य ने अपने राज-पाट, संपत्ति और अपने परिवार की रक्षा के लिए अपनी पुत्री का विवाह एक ब्राह्मण से कर दिया था। इसी प्रकार लोक कल्याण के लिए आपको भी स्वीकृति दे ही देनी चाहिए। राजा अनरण्य के बारे में सुनकर शैलराज हिमालय ने पूछा- हे महर्षि! मैं राजा अनरण्य की कथा सुनना चाहता हूं। गिरिराज हिमालय के ऐसे वचन सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले"
हे पर्वतराज! महाराजा मनु की चौदहवीं संतान इंद्रासावर्णि के वंश में ही राजा अनरण्य का जन्म हुआ था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। सातों द्वीपों पर उनका राज था। राजा अनरण्य ने भृगु मुनि को अपना आचार्य बनाकर सौ यज्ञ पूर्ण कराए थे। राजा अनरण्य की पांच रानियां, सौ पुत्र व एक साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा परम सुंदरी कन्या थी, जिसका नाम पद्मा था। पद्मा इकलौती पुत्री होने के कारण बहुत लाडली थी। राजा अनरण्य और उनकी पांचों रानियां पद्मा को बहुत प्यार करते थे। राजा बहुत ही सरल, न्यायप्रिय व उदार थे। देवताओं द्वारा स्वर्ग का सिंहासन दिए जाने पर उन्होंने उसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया था।
जब राजा अनरण्य की प्रिय पुत्री पद्मा विवाह के योग्य हुई तो राजा अनरण्य को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। पद्मा के लिए योग्य वर की खोज शुरू हो गई। चारों दिशाओं में सुयोग्य वर की तलाश की जा रही थी। अनेकों राजाओं को पत्र लिखे गए। एक दिन संयोगवश देवी पद्मा वन में विहार के लिए अपनी सखियों के साथ गई हुई थी। वहां तपस्या करके लौट रहे ऋषि पिप्पलाद की दृष्टि पद्मा नाम की उस सुंदरी पर पड़ गई, वे उसकी सुंदरता पर मोहित हो गए। वे उस सुंदरी को मन में बसाए हुए ही अपनी कुटिया पर पहुंच गए। सुंदरी का सौंदर्य पिप्पलाद के मन-मस्तिष्क में धंस गया था। एक दिन ऋषि पिप्पलाद पुष्पा भद्रा नामक नदी में स्नान करने गए। संयोगवश राजा अनरण्य की परम सुंदरी पुत्री पद्मा भी वहां उपस्थित थी। उसे पुनः देखकर ऋषि पिप्पलाद के मन की इच्छा पूरी हो गई। उन्होंने पद्मा की सखियों और सैनिकों से उसका परिचय प्राप्त कर लिया। वहीं कुछ मनुष्यों ने ऋषि की हंसी उड़ाते हुए कहा कि ऋषि जी आपका मन देवी पद्मा पर मुग्ध हो गया है तो आप महाराज से उन्हें मांग क्यों नहीं लेते? इस प्रकार के वचन सुनकर पिप्पलाद लज्जित तो हुए परंतु उनके दिल में सुंदरी पद्मा को पाने की इच्छा कम न होकर और बलवती हो गई।
स्नान, नित्यकर्म और शिव पूजन आदि से निवृत्त होकर मुनि पिप्पलाद राजा अनरण्य की सभा में चले गए। अपने दरबार में मुनि को पधारा देखकर राजा अनरण्य ने चरण छूकर उनका अभिवादन किया तथा विधिवत पूजन करने के पश्चात उन्हें आसन पर बैठाया तथा पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? इस पर ऋषि पिप्पलाद बोले, राजा आप अपनी कन्या पद्मा को मुझे सौंप दीजिए। यह सुनकर राजा चुप हो गए। इस पर पिप्पलाद मुनि कहने लगे कि राजा यदि शीघ्र ही तुमने अपनी कन्या मुझे नहीं दी तो मैं क्षण भर में ही तुम्हें और तुम्हारे कुल को भस्म कर दूंगा । यह बात सुनकर राजा, उनकी रानियां, नौकर चाकर, दासियां सभी रोने लगे। राजा अनरण्य यह सोच अत्यंत व्याकुल हो उठे कि कैसे वे अपनी फूलों से भी कोमल पुत्री का हाथ एक बूढ़े ऋषि को दें। राजा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि वे क्या करें कि तभी वहां उनके पुरोहित और राजगुरु आ पहुंचे। राजा ने सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया। इस पर राजगुरु बोले कि राजन, आपको अपनी कन्या का विवाह किसी से तो करना ही है, तो क्यों न उसका विवाह ऋषि पिप्पलाद से ही कर दिया जाए। इससे आपके कुल की भी रक्षा हो जाएगी। यह ब्राह्मण इस कुल का विनाश कर दे इससे तो अच्छा है कि पद्मा का विवाह इन्हीं से हो जाए ।
इस प्रकार अपने राजपुरोहित और राजगुरु के वचन सुनकर राजा अनरण्य ने अपने कुल की रक्षा करने के लिए अपनी कन्या को वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत करा उसे ऋषि पिप्पलाद को अर्पित कर दिया। तत्पश्चात देवी प‌द्मा और ऋषि पिप्पलाद का वैदिक रीति से परिणयोत्सव संपन्न हुआ तथा राजा ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री को विदा कर दिया। राजा अनरण्य से विदा लेकर ऋषि पिप्पलाद अपनी पत्नी पद्मा को साथ लेकर अपने आश्रम पर पहुंचे। इस शोक में कि हमने अपनी पुत्री को एक वनवासी बूढ़े को सौंप दिया है, राजा अनरण्य राजपाट छोड़कर वन में चले गए। अपने पति और पुत्री की याद में रो-रोकर रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। उनके घर-परिवार में चारों ओर दुख ही दुख था । राजा अनरण्य ने शिव कृपा से शिवलोक को प्राप्त किया। तत्पश्चात उनके पुत्र कीर्तिमान ने राज्य किया और उनके कुल का नाम चारों ओर फैला । इसलिए हे हिमालय राज ! आप अपनी पुत्री को भगवान शिव को अर्पण करके अपने राज्य, कुल और धन की रक्षा करके सभी देवताओं को अपने अधीन कर लीजिए।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड तेंतीसवाँ अध्याय

पद्मा-पिप्पलाद की कथा

ब्रह्माजी बोले - नारद जी ! शैलराज हिमालय राजा अनरण्य की कथा सुनकर बोले कि हे मुनि वशिष्ठ! आपने मुझे बहुत ही उत्तम कथा सुनाई है। अब मुझ पर कृपा करके मुझे ऋषि पिप्पलाद और देवी पदमा के विवाह से आगे की भी कथा सुनाइए। पदमा को पत्नी बनाकर ऋषि कहां गए और उन्होंने क्या किया? शैलराज हिमालय के इस प्रकार कहे प्रश्नों को सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले - पर्वतराज! ऋषि पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, उनकी कमर झुकी हुई थी तथा वे कांप-कांप कर आगे चल पाते थे। इस प्रकार बूढ़े ऋषि की पत्नी बनकर देवी पद्मा उनके साथ उनकी कुटिया में आ गई। पद्मा रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। वह साक्षात लक्ष्मी का रूप थी। अपने पति को वह साक्षात विष्णु समझकर उनकी सेवा करती थी। एक दिन की बात है देवी पद्मा स्वर्णदा नामक नदी में स्नान करने गई, तभी धर्मराज वहां आ पहुंचे और उनके मन में पद्मा की परीक्षा लेने की बात आई। धर्मराज ने राजसी वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण किया और रथ में बैठ गए। रथ में बैठे वे साक्षात कामदेव प्रतीत हो रहे थे। देवी पद्मा को मार्ग में ही रोककर उन्होंने कहा"देवी! आप तो परम सुंदरी हैं। आपकी सुंदरता को देखकर तो चांद भी शरमा जाए। आप तो राजरानी बनने योग्य हैं। आप इस भयानक जंगल में उस बूढ़े पिप्पलाद के साथ क्या कर रही हैं? वह बूढ़ा तो मृत्यु के बहुत पास है? देवी! आप उसको त्यागकर मेरे साथ चलें। मैं आपको अपने हृदय में स्थान दूंगा। आप मेरी रानी बनकर राज करेंगी। आपकी सेवा करने के लिए हजारों दासियां होंगी, जो आपकी हर आज्ञा को शिरोधार्य करेंगी। मैं स्वयं आपका दास बनकर रहूंगा। यह कहकर धर्मराज रथ से नीचे उतरकर देवी पद्मा का हाथ पकड़ने हेतु आगे बढ़े। यह देखकर पद्मा क्रोधित हो गईं और पीछे हटकर जोर से बोलीं- अरे मूर्ख! अज्ञानी! अधर्मी!
पापी! दूर हट जा। यदि तूने मुझे स्पर्श भी किया तो तू नष्ट हो जाएगा। तू काम में अंधा होकर मेरे पतिव्रत धर्म को भ्रष्ट करना चाहता है। तू क्या सोचता है कि तेरा यह राजसी रूप और धन देखकर मैं अपने परम पूज्य महातेजस्वी ऋषि पिप्पलाद को त्याग दूंगी? नहीं, कदापि नहीं। याद रख, यदि तू मुझे बुरी नजर से देखेगा भस्म हो जाएगा। देवी पद्मा के शाप को सुनकर धर्मराज भयभीत हो गए। उन्होंने तुरंत राजा का वेश त्याग दिया और अपने असली रूप में आकर बोले- माता! मैं धर्म हूं। मैं ज्ञानियों का गुरु हूं और हर स्त्री को सदैव अपनी माता मानता हूं। मैंने यह सब आपकी परीक्षा लेने के लिए ही कि है। मेरा जन्म ही इसलिए हुआ है कि मैं धर्मात्मा मनुष्यों की धर्म संबंधी परीक्षा लेकर उन्हें धर्म में दृढ़ करूं परंतु देवी आपने मुझे शाप दे दिया है, अब मेरा क्या होगा? यह कहकर धर्मराज चुपचाप खड़े हो गए। तब देवी पद्मा ने कहा ;- हे धर्मराज! आप तो इस संसार के सभी जीवों के कर्मों के साक्षी हैं। फिर मेरी परीक्षा लेने के लिए आपको यह सब ढोंग करने की क्या आवश्यकता थी? अब तो शब्द मेरे मुंह से निकल चुके हैं। जिस प्रकार कमान से निकला तीर कमान में वापिस नहीं जा सकता, उसी प्रकार मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। धर्म आपके चार पाद हैं। सतयुग में तुम्हारे चारों पाद होंगे, त्रेता युग में तीन पाद होंगे और द्वापर युग में दो पाद होंगे। कलियुग में एक भी पाद नहीं होगा परंतु जब पुनः सतयुग शुरू होगा तो तुम्हारे चारों पाद पूर्व की भांति वापिस आ जाएंगे।
पद्मा के वचनों को सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गए और कहने लगे - देवी! आप धन्य हैं। आप अति पतिव्रता हैं। आपका अपने पति से अटूट प्रेम है। आप सदा ही उनके चरणों से प्रेम करोगी। मैं आपके पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर आपको वरदान देता हूं कि आपके पति जवान हो जाएं तथा उनकी जवानी स्थिर रहे। वे मार्कण्डेय के समान दीर्घायु हों, कुबेर के समान धनवान तथा इंद्र के समान सुंदर एवं वैभव संपन्न हों। देवी! आपको शीघ्र ही दस पुत्रों की प्राप्ति होगी, जो कि गुणवान व दीर्घायु होंगे। यह कहकर धर्म अंतर्धान हो गए और देवी पद्मा अपने घर वापिस आ गई। उसने घर पहुंचकर देखा तो उसके पति धर्म के वरदान के अनुसार जवान हो गए थे। उनके घर में सुख विलास की सभी वस्तुएं मौजूद थीं। इस प्रकार पिप्पलाद और पदमा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात देवी पद्मा को दस पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिन्हें पाकर दंपति का जीवन खुशियों से भर गया।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड चौंतीससवाँ अध्याय

हिमालय का शिवजी के साथ पार्वती के विवाह का निश्चय करना"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! महर्षि वशिष्ठ ने राजा अनरण्य की पुत्री पद्मा और ऋषि पिप्पलाद के विवाह तथा धर्मराज द्वारा पद्मा को प्रदान किए गए वरदान की कथा सुनाकर कि पिप्पलाद स्थिर रहने वाले यौवन के स्वामी होंगे, इंद्र के समान सुंदर व वैभव से संपन्न होंगे और दस सर्वगुण संपन्न पुत्रों की उन्हें प्राप्ति होगी, शैलराज हिमालय से कहा कि राजन! मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आपके और आपकी पत्नी मैना के मन में, जो भी नाराजगी है, उसे भूलकर आप अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ महादेव जी के साथ कर दें। आज से एक सप्ताह बाद का मुहूर्त जब रोहिणी नक्षत्र में चंद्रमा अपने पुत्र बुध के साथ लग्न में स्थित होंगे, अत्यंत शुभ है। मार्गशीर्ष माह के सोमवार को लग्न में सभी शुभ ग्रहों की दृष्टि होगी। उस समय बृहस्पति भी सौभाग्य के वश में होंगे। ऐसे शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री पार्वती, जो कि साक्षात जगदंबा का अवतार हैं, का पाणिग्रहण भक्तवत्सल भगवान शिव से कर देने पर आप अपने आपको धन्य समझेंगे।
यह कहकर ज्ञान शिरोमणि मुनि वशिष्ठ चुप हो गए। उनकी बात सुनकर मैना और हिमालय आश्चर्यचकित रह गए और अन्य पर्वतों से बोले - गिरिराज मेरु! मंदराचल, मैनाक, गंधमादन, सह्य, विंध्य आप सभी ने मुनिराज वशिष्ठ के वचनों को सुना है। कृपया आप सब मुझे यह बताइए कि इन परिस्थितियों में मुझे क्या करना चाहिए? आप सभी इस संबंध में मुझे अपने विचारों से अवगत कराइए।शैलराज हिमालय के कहे इन वचनों को सुनकर सभी पर्वतों ने आपस में विचार-विमर्श किया और बोले ;- हे गिरिराज हिमालय ! इस समय ज्यादा सोच-विचार करने से कुछ नहीं होगा। अच्छा यही है कि हम सप्तऋषियों द्वारा कही गई बात को मानकर देवी पार्वती का विवाह शिवजी से करा दें। क्योंकि वास्तव में पार्वती का जन्म ही देवताओं के कार्यों को पूरा करने के लिए हुआ है। अतः हमें शीघ्र ही उनकी अमानत उनके हाथों में सौंपकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहिए ।
तब सुमेरु तथा अन्य पर्वतों की बात सुनकर हिमालय प्रसन्न हुए और देवी पार्वती भी मन ही मन मुस्कुराने लगीं। देवी अरुंधती ने भी विविध प्रकार की कथाओं को सुनाकर पार्वती की माता मैना को समझाने का प्रयत्न किया। मैना जब समझ गई तो बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सभी को उत्तम भोजन कराया। उनके मन का सारा संदेह और भय दूर हो गया। शैलराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर उन सप्तऋषियों से कहा कि आपकी बातों को सुनकर मेरे मन का सारा शक दूर हो गया है। मैं भली-भांति जान गया हूं कि शिवजी ही ईश्वरों के भी ईश्वर अर्थात सर्वेश्वर हैं। वे इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। वे अतुलनीय हैं। इस संसार की हर वस्तु एवं हर प्राणी उन्हीं का है। यह कहकर हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ पकड़कर उसे सप्तऋषियों के पास खड़ा कर दिया और बोले कि आज से मेरी पुत्री शिवजी की अमानत है । वे जब चाहें इसे यहां से ले जा सकते हैं।
ऋषिगण शैलराज की बातें सुनकर प्रसन्न हुए और बोले ;- भगवान शिवजी आपकी पुत्री को स्वयं मांगकर आपको सौभाग्य प्रदान कर रहे हैं। यह कहकर वे ऋषिगण पार्वती को आशीर्वाद देने लगे और बोले- देवी! आपका कल्याण हो तथा आपके गुणों में निरंतर वृद्धि हो। आप शिवजी की अर्द्धांगिनी बनकर उनका जीवन खुशियों से भर दें। सप्तऋषियों ने सुविचार करके चार दिनों के बाद का शुभ मुहूर्त विवाह के लिए निकाला । तब शैलराज हिमालय और देवी मैना से आज्ञा लेकर वे सप्तऋषि देवी अरुंधती सहित वहां से भगवान शिव के पास चले गए।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड पैंतीसवाँ अध्याय 

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