श्री विश्वेश्वर महिमा ,गौतम-प्रभाव ,महर्षि गौतम को गोहत्या का दोष, Shri Vishweshwar glory, Gautam effect, Maharishi Gautam accused of cow slaughter, appearance of Gautami Ganga.

श्री विश्वेश्वर महिमा ,गौतम-प्रभाव ,महर्षि गौतम को गोहत्या का दोष ,गौतमी गंगा का प्राकट्य

श्री विश्वेश्वर महिमा

सूत जी बोले- हे मुनियो ! अब मैं आपको काशीपुरी में स्थित अविमुक्त ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य सुनाता हूं। एक बार जगदंबा माता पार्वती ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव से विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा पूछी थी। तब अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का प्रश्न सुनकर भगवान शिव बोले- हे प्रिये ! मनुष्य को भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाला उत्तम धाम काशी है। मेरा प्रिय स्थान होने के कारण काशी में अनेक सिद्ध और योगी पुरुष आकर मेरे अनेकों रूपों का वर्णन करते हैं। काशी में मृत्यु को प्राप्त करने वाले मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। वह सीधे शिवलोक को प्राप्त करता है। स्त्री पवित्र हो या अपवित्र, कुंआरी हो या सुहागन या अन्य काशी में मरकर मोक्ष को प्राप्त करती हैं। काशी में निवास करने वाले भक्तजन बिना जाति, वर्ण, ज्ञान, कर्म, दान, संस्कार, स्मरण अथवा भजन के सीधे मुक्ति को प्राप्त होते हैं। हे उमे! जिस विशेष कृपा को पाने के लिए ब्रह्माजी एवं श्रीहरि विष्णु ने जन्म-जन्मांतरों तक तपस्या की, वह काशी नगरी में मरने से ही प्राप्त हो जाती है। मनुष्य योग्य, अयोग्य कर्म करे या धर्म अथवा अधर्म के मार्ग पर चले इस काशीपुरी में मृत्यु पाकर जीवन-मरण के बंधनों से छूट जाता है। हे देवी! जो काशी नगरी में निवास करते हुए भक्तिपूर्वक मेरा ध्यान, स्मरण करता है अथवा मेरी आराधना अथवा तपस्या करता है, उसके पुण्यों की महिमा का वर्णन करना तो मेरे लिए भी असंभव है। वे सब मुझमें ही स्थित हैं। शुभ कर्मों से स्वर्ग प्राप्त होता है एवं अशुभ कर्मों से नरक की प्राप्ति होती है। हमारे द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों से ही जन्म-मरण निश्चित होता है तथा सुख की प्राप्ति होती है। पार्वती! तीन प्रकार के कर्म होते हैं- 
  1.  पहले जन्म में किए कर्म संचित होते हैं। 
  1. इस जन्म में किए हुए क्रियमाण हैं।
  1. दोनों के द्वारा मिल रहा फल, जो शरीर में भोगे जा रहे हैं, प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। 
संचित तथा क्रियमाण कर्मों को दान-दक्षिणा देकर एवं पुण्य कर्मों द्वारा कम अथवा खत्म किया जा सकता है परंतु प्रारब्ध कर्मों को मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। काशीपुरी में किया गया गंगा स्नान संचित एवं क्रियमाण कर्मों को नष्ट कर देता है। प्रारब्ध कर्म काशी में मृत्यु से ही नष्ट होते हैं। काशी का रहने वाला यदि कोई पाप करता है। तो काशी के पुण्य प्रताप से तुरंत ही पाप से मुक्त हो जाता है। हे ऋषिगणो! इस प्रकार काशी नगरी एवं विश्वेश्वर लिंग का माहात्म्य मैंने आपको सुनाया है जो कि भक्तों एवं ज्ञानियों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता  तेईसवां अध्याय

गौतम-प्रभाव

सूत जी बोले- हे महामुनियो ! प्राचीन काल में गौतम नामक एक महामुनि थे, जिनकी पत्नी का नाम अहिल्या था। वे महामुनि गौतम दक्षिण में स्थित ब्रह्म पर्वत पर हजार वर्षों में सिद्ध होने वाली तपस्या कर रहे थे। उस समय लगभग सौ वर्षों से वर्षा नहीं हुई थी, जिससे सूखा पड़ा हुआ था। पीने के लिए जल भी उपलब्ध नहीं था। सारे वृक्ष-पौधे आदि सभी वनस्पतियां सूख चुकी थीं। उस समय आए इस संकट से मुक्ति दिलाने हेतु बहुत से ऋषि- मुनियों ने समाधि ले ली थी। तब गौतम ऋषि ने इस वर्षा के संकट को दूर करने हेतु वर्षा के देव वरुण को प्रसन्न करने हेतु उनकी तपस्या करनी आरंभ की। गौतम ऋषि ने छः महीने तक वरुण देव की घोर तपस्या की, जिससे वरुण देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने गौतम ऋषि को साक्षात दर्शन दिए। वरुण देव बोले- हे गौतम ऋषि ! मैं आपकी उत्तम भक्तिभावना से की गई तपस्या से बहुत संतुष्ट हुआ हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहते हो? तब वरुण देव का प्रश्न सुनकर महर्षि गौतम बोले- हे वरुण देव! आप तो सर्वज्ञाता हैं। भगवन्! आप जानते ही हैं कि वर्षा न होने के कारण संसार के सभी चराचर प्राणी व्याकुल हैं। इसलिए सबकी परेशानियों एवं दुखों को दूर करने के लिए मैं चाहता हूं कि वर्षा हो जाए। महर्षि गौतम के वर को सुनकर वरुण देव बोले कि मैं तो इस जगत के ईश्वर कल्याणकारी भगवान शिव के अधीन हूं और उन्हीं की आज्ञा और प्रेरणा के फलस्वरूप कार्य करता हूं। हू इसलिए इस वरदान को तो सर्वेश्वर शिव ही दे सकते हैं। अतः आप मुझसे कुछ और मांग लें। तब महर्षि गौतम बोले—प्रभो! आप मुझे जलदान दीजिए। इससे बड़ा और कोई पुण्य नहीं है और इसे कोई नष्ट भी नहीं कर सकता। तब गौतम जी की विनती को स्वीकार करते हुए वरुण देव बोले कि आप एक गड्ढा खोदें। मैं उसे जल से भर दूंगा और उस गड्ढे का जल कभी भी खाली नहीं होगा और इसके लिए तुम्हारा नाम भी संसार में प्रसिद्ध हो जाएगा। वरुण देव की आज्ञा मानते हुए महर्षि गौतम ने तुरंत एक हाथ लंबा और चौड़ा गड्ढा खोद दिया। तब वरुण देव ने उसे जल से भर दिया और महर्षि गौतम से बोले - हे महामुने! इस स्थान पर किए गए सभी कर्म, दान, हवन, देव पूजन, तपस्या, पितृ श्राद्ध आदि सब सफल होंगे। यह कहकर वरुण देव अंतर्धान हो गए। तब गौतम ऋषि बहुत प्रसन्न हो गए कि सबके संकटों को उन्होंने दूर कर दिया है। इसलिए कहते हैं कि संकट के समय बड़ों की शरण में जाने से दुखों से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार महर्षि गौतम इच्छित वर पाकर खुश हो एवं स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, जौ आदि अन्न पैदा करने लगे। उस जल से सींचकर उन्होंने मुरझाए हुए वृक्षों एवं पौधों को पुनः लहलहा दिया। उस स्थान को छोड़कर चले गए सभी जीव पुनः लौट आए। महर्षि गौतम की परम कृपा से यह स्थान ऋद्धि-सिद्धियों से युक्त एवं सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी एवं सुखदायक हुआ।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता चौबीसवां अध्याय

महर्षि गौतम को गोहत्या का दोष

सूत जी बोले- हे मुनियो! एक बार की बात है महर्षि गौतम ने अपने शिष्यों को कमण्डल में जल लाने के लिए भेजा। जब शिष्य जल लेने उस गड्ढे पर गए तो उस समय वहां कुछ ऋषि पत्नियां जल भरने आई हुई थीं। उन्होंने गौतम ऋषि के शिष्यों को डांटकर बिना जल दिए ही वहां से भगा दिया। आश्रम जाकर शिष्यों ने सारी बातें गुरु पत्नी देवी अहिल्या को बता दीं। तब देवी अहिल्या स्वयं जल भरने गईं और जल लाकर अपने पति को दिया। उस दिन से स्वयं अहिल्या ही जल लेने जाने लगीं। एक दिन अन्य ऋषि पत्नियों ने जान-बूझकर अहिल्या से लड़ना आरंभ कर दिया और अपने घर आकर अपने पतियों से अहिल्या की झूठी शिकायत कर दी कि वह हमें जल भरने देने से मना करती है और कहती है कि यह जल तो मेरे पति को वरदानस्वरूप वरुणदेव से प्राप्त हुआ है। अपनी पत्नियों की बातें सुनकर ऋषियों को बहुत क्रोध आया। गौतम ऋषि को सबक सिखाने के लिए अन्य ऋषियों ने गणपति की आराधना आरंभ कर दी। उनके पूजन से प्रसन्न होकर गणपति प्रकट हुए और वर देने के लिए कहने लगे। तब ऋषि बोले- हे विघ्न विनाशक गणपति! हम चाहते हैं कि गौतम ऋषि यहां से आश्रम छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाएं। उनके यह वचन सुनकर गणेश जी बोले गौतम ऋषि ने तो कोई अपराध नहीं किया है, फिर आप उनका बुरा क्यों चाहते हैं? आप कोई और वरदान मांग लीजिए परंतु जब ऋषि नहीं माने तो उनका इच्छित वरदान देकर गणेश जी वहां से अंतर्धान हो गए। गणेश जी ने अपना दिया वरदान सिद्ध करने के लिए एक गाय का रूप धारण किया और गौतम जी द्वारा लगाए गए जौ खाने उनके खेत में चली गई। जब महर्षि गौतम ने देखा कि वह गाय उनका खेत नष्ट कर रही है तो स्वयं एक तिनका हाथ में लेकर उसे बाहर निकालने लगे। उस तिनके से पीड़ित होकर गाय धरती पर गिरी और मर गई। गाय को मरा जानकर गौतम ऋषि बहुत दुखी हुए। वे अपनी पत्नी से कहने लगे कि शायद मुझसे कोई भारी भूल हो गई जिस कारण मेरे आराध्य भगवान शिव मुझसे नाराज हो गए हैं और मुझ पर गौहत्या का पाप लग गया है। उसी समय वहां अन्य ऋषि भी आ गए, जो गौतम ऋषि से बैर रखते थे। उन्होंने महर्षि गौतम, उनकी पत्नी और शिष्यों को भला-बुरा कहकर वहां से निकल जाने को मजबूर किया तो वे सब उस स्थान को छोड़कर वहां से चलने लगे। उन्होंने उन ऋषियों से पूछा कि मेरे द्वारा की गई इस गौहत्या का क्या प्रायश्चित होगा? तब वे ऋषि बोले- पतित पावनी गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। इसलिए अपने द्वारा की गई गौहत्या के प्रायश्चित से मुक्त होने के लिए आप गंगा जी को प्रकट कर उसमें स्नान करें और भगवान शिव के पार्थिव लिंग की स्थापना कर उसका भक्तिपूर्वक विधि-विधान से पूजन करें। तभी आप इस महापाप से मुक्ति पा सकेंगे। अन्य ऋषियों से पश्चाताप का मार्ग पूछकर गौतम ऋषि अपनी पत्नी और शिष्यों को साथ लेकर वहां से दूर चले गए। 
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता पच्चीसवां अध्याय

 गौतमी गंगा का प्राकट्य

सूत जी बोले- हे ऋषिगणो! महर्षि गौतम देवी अहिल्या एवं अपने अन्य शिष्यों को साथ लेकर किसी अन्य जगह पर आश्रम बनाकर रहने लगे। सर्वप्रथम गौतम ऋषि ने ब्रह्मगिरि पर्वत की परिक्रमा की। फिर भगवान शिव के पार्थिव लिंग की स्थापना कर उसका पूजन करने लगे। पति-पत्नी की उत्तम आराधना एवं भक्तिभाव से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए। अपने आराध्य को अपने सामने पाकर गौतम ऋषि व अहिल्या बहुत प्रसन्न हुए और उनको प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव बोले- हे मह! हे देवी! मैं आपकी पूजा से प्रसन्न हूं। मांगिए, क्या वर मांगना चाहते हैं? भगवान शिव के वचन सुनकर ऋषि गौतम बोले-भगवन्! मुझ पर कृपा करके मुझे गौहत्या के पाप से बचा लीजिए। तब शिवजी बोले- आपसे कोई अपराध नहीं हुआ है। वह सब तो उन दुष्ट दुराचारियों द्वारा रची गई माया थी। आप तो निर्दोष हैं। यह सुनकर महर्षि के सारे दुख दूर हो गए, तब उन्होंने शिवजी से कहा कि भगवन् मुझ पर कृपा करके पतित पावनी गंगाजी को यहां प्रकट करें, जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो सके। गौतम ऋषि की प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उन्हें गंगाजल दिया। वही गंगाजल श्रीगंगाजी का स्त्री रूप बन गया। तब गौतम जी ने उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति की। गौतम ऋषि बोले - हे मातेश्वरी! हे पतित पावनी गंगे। मैं आपको प्रणाम करता हूं। आप पापों का खंडन करने वाली एवं अपनी शरण में आए भक्तों को मुक्ति देने वाली हैं। मैं हाथ जोड़े आपकी शरण में आया हूं। आप मेरे पापों को नष्ट करके मुझे नरक में जाने से बचा दो। तब उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर गंगाजी ने उनके पापों को अपने निर्मल जल से धो दिया। फिर वे वहां से जाने के लिए सर्वेश्वर शिव से आज्ञा मांगने लगीं। तब शिवजी बोले- हे गंगे! आप पापों का नाश करने वाली हैं। इसलिए लोक कल्याण के लिए यहीं पृथ्वी पर विराजें । हे कल्याणी! आपको कलियुग में अट्ठाईसवें मन्वंतर के समाप्त होने तक यहीं पृथ्वी लोक पर निवास करना होगा और सच्चे मन एवं भक्ति भावना से अपने जल में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं के पापों को नष्ट करना होगा। कलियुग में पापों को नष्ट करने का यही एक साधन होगा। श्रद्धापूर्वक आपके दर्शन करने वालों के पापों का क्षय भी आप करेंगी। यह सुनकर गंगाजी बोलीं- हे प्रभु! मैं तो सदा आपके अधीन हूं। आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है परंतु मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि आप माता पार्वती के साथ मेरे पास ही निवास करें ताकि मैं सदा की भांति आपके पास रहूं। संसार में मेरी कीर्ति हो । तब गंगाजी के वचन सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव बोले- हे गंगे! तुम्हारी मनोकामना मैं अवश्य पूरी करूंगा। यह कहकर भगवान शिव वहां त्र्यंबकेश्वर नाम से ज्योतिर्मय रूप में स्थित हो गए। गंगाजी वहां पर गौतम ऋषि के नाम से प्रसिद्ध होकर गौतमी गंगा कहलाईं।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता छब्बीसवां अध्याय

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