सूतोपदेश वर्णन ,प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है। Sutopadesh description, Pranav is the seed form of all mantras

सूतोपदेश वर्णन ,प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है।

सूतोपदेश वर्णन 

व्यास जी बोले-ऋषिगण ! सूत जी के वहां से चले जाने के पश्चात सभी मुनिगण आपस में बोले कि हमने वामदेव के बारे में तो कुछ भी नहीं पूछा। तब चिंतित मुनि बोले कि अब तो  पता नहीं कब उनके दर्शन संभव हो सकेंगे। यही सब सोचते हुए मुनिगण अपनी योग- आराधना में लग गए। संवत्सर के पश्चात सूत जी पुनः काशी आए। उन्हें वहां देखकर सभी मुनिगण बहुत प्रसन्न हुए। वे सब सूत जी की आराधना करने लगे। तब प्रसन्न होकर सूत जी बोले - ऋषिगण! आपको प्रणव का उपदेश देकर जब मैं तीर्थ यात्रा पर निकला तो मैंने दक्षिण सागर के तट पर देवी शिवा का पूजन किया। इसके पश्चात कालहस्त शैल पर सुवर्ण मुखरा में स्नान किया। फिर मैंने देवाधिदेव महादेव जी का स्मरण कर उनका पूजन किया। शिवजी के पांच सिर वाले अद्भुत रूप के दर्शन करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। शिवजी का पूजन करने के बाद मैंने दक्षिण भाग में स्थित देवी पार्वती का पूजन किया। उसके बाद मैंने एक सहस्र अर्थात एक सौ आठ बार पंचाक्षरी विद्या का जाप किया। फिर उसकी प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया। इस प्रकार मैं कालहस्ति नामक क्षेत्र की प्रदक्षिणा प्रतिदिन करते हुए वहीं निवास करने लगा। मैं वहां पर चार महीने रहा। तब मुझ पर महाज्ञानमयी प्रसून कालिका की कृपादृष्टि हुई और उनका प्रसाद मुझे प्राप्त हुआ। तत्पश्चात देवाधिदेव शिव शिवा को प्रणाम कर, उनकी बारह बार प्रदक्षिणा करके मैं यहां आया हूं। हे ऋषिगण ! आप मुझे बताइए कि मैं अब आपके लिए क्या करूं?
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता दसवां अध्याय

वामदेव द्वारा ब्रह्मनिरूपण

ऋषि बोले—महाभाग सूत जी ! हम सभी वामदेव के बारे में जानना चाहते हैं। कृपा कर हमें उनके बारे में बताइए । तब ऋषिगणों की जिज्ञासा शांत करने हेतु सूत जी बोले- हे मुनिश्रेष्ठो! पहले मन्वंतर में वामदेव नामक एक महामुनि हुए हैं। वामदेव को गर्भ से उत्पन्न होने से पूर्व ही शिव ज्ञान प्राप्त था। वे सबके जन्म कर्म को जानने वाले थे। वामदेव मुनि सदा अपने शरीर पर भस्म लगाकर और सिर पर जटा धारण किए रहते थे। वे शांत और अहंकार रहित थे और सदा योग, ध्यान और ब्रह्म में लीन रहते थे। एक बार वामदेव ने दक्षिण शिखर पर जाकर शिवजी के पुत्र स्कंद से भेंट की। उस समय स्कंद का रूप सूर्य के समान तेजोदीप्त होकर प्रकाशित हो रहा था। उनकी चार भुजाएं थीं और वे मोर पर बैठे हुए थे। उन्हें देखकर मुनि वामदेव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी बहुत स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी के पुत्र स्कंद बोले - हे महामुनि! मैं आपकी इस स्तुति से बहुत संतुष्ट हूं। आप जैसे मुनि सदा दूसरों के हित के लिए ही कार्य करते हैं। आपकी जो इच्छा हो कहिए, मैं उसे अवश्य ही पूरा करूंगा। तब वामदेव जी स्कंद देव से बोले - भगवन्! आप सबकुछ जानने वाले और सबके कर्ता हैं। आपके दर्शनों से ही मेरी सभी कामनाएं पूरी हो गईं। मैं भला आपके गुणों का वर्णन कैसे कर सकता हूं? आप तो साक्षात परमेश्वर वाचक देव पशुपति वाच्य हैं। वे सभी के पाप मोचक हैं। प्रणव मंत्र द्वारा त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का ध्यान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ओंकार सर्वस्वरूप है और ॐ सबकी श्रुति और ब्रह्म स्वरूप है। प्रभु! मेरे दृष्टिकोण से इस संसार में शिवजी के समान दूसरा कोई नहीं है। वे ही समाविष्ट और व्यष्टि स्वरूप हैं।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता ग्यारहवां अध्याय

साक्षात शिव स्वरूप ही प्रणव है।

स्कंद जी बोले- हे वामदेव जी! आप धन्य हैं। आप परम शिव भक्त और शिव तत्व ज्ञान जानने वालों में श्रेष्ठ हैं। इस संसार में जीव माया से मोहित होकर परमेश्वर के स्वरूप को नहीं समझ पाते। प्रणव महेश्वर का ही रूप है, जिसे साधारण जीव नहीं समझ पाते। देवाधिदेव भगवान शिव ही सगुण, निर्गुण और ब्रह्म नामक त्रिगुणों के स्वामी हैं। साक्षात शिव स्वरूप ही प्रणव का अर्थ है। वे ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण हैं। शिवजी ने ही ब्रह्मा, रुद्र, इंद्र, आकाश, पाताल, जीव सभी का निर्माण किया है। सूर्य और चंद्रमा शिवजी के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। इस संसार में दिखाई देने वाला सारा ऐश्वर्य शिवजी का ही है। वे सर्वेश्वर ही निर्गुण सगुण निष्फल हैं। वे ही स्थूल और सूक्ष्म रूप होकर संसार के कार्यों को आगे बढ़ाते हैं। वे ही शिव देवाधिदेव, संतान, निष्फल और ज्ञान क्रिया के परमात्मा हैं। देव पंचक और पंचक कला भी उनकी बनाई हुई हैं। परमात्मा शिव का मन शीतल और स्फटिक मणि के समान निर्मल है। भगवान शिव के पांच मुख, दस भुजा और पंद्रह नेत्र हैं। जो ईश्मन देव मुकुट धारण किए औघर, हृदयी, वामदेव, गुह्य और प्रदेशवान हैं। वे परमेश्वर शिव ही सद्यपाद, तन्मूर्ति, साक्षात, संपूर्ण, निष्फल और मूर्ति नामक छः प्रकार का स्वरूप धारण करने वाले हैं। वे ही उपन्यास मार्ग पर चलने वाले, समष्टि और व्यष्टि भाव वाले हैं। इस संसार में विख्यात तीन वर्णों को वेदाचारी कहा गया है। शूद्रों को वेद पढ़ने और जानने का अधिकार नहीं है। अन्य वर्णों को श्रुति, स्मृति और धर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिए। इससे ही इंद्र सिद्धि प्राप्त होती है। भगवान शिव की ही आज्ञा के अनुसार वेद मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। श्रुति स्मृति में वर्णित धर्म और आचारों के अनुसार ही आचरण एवं पूजा करें।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता बारहवां अध्याय

प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है

स्कंद जी बोले- हे वामदेव जी! प्रातःकाल स्नान से निवृत्त होने के पश्चात गंध, पुष्प और अक्षत आदि पूजा की सामग्रियों से भगवान शिव और श्रीगणेश का विधिपूर्वक पूजन और ध्यान करें। पूर्णाहुति देकर हवन करें और गायत्री मंत्र का जाप करें। इसी प्रकार सायंकाल में संध्या करें। सद्योजात के पांच मंत्रों से हवन करें। मन में भगवान शिव का देवी पार्वती सहित ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें। 'भूर्भुवः सुवरोत्र' कहते हुए त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का ध्यान करें। देवाधिदेव महादेव जी के पांच मुख, दस भुजाएं, पंद्रह नेत्र और उज्ज्वल मनोहारी स्वरूप हैं। उनकी पत्नी देवी पार्वती जगतमाता त्रिलोक को उत्पन्न करने वाली और निगुर्णमयी हैं। ऐसा मन में विचार करते हुए ज्ञानी पुरुष गायत्री मंत्र का जाप करें। पार्वती जी ही आदि देवी, त्रिपदा, ब्राह्मणत्व दात्री और अजा हैं। वे व्याहृतियों से उत्पन्न हैं और उसी में लीन हो जाती हैं। वे जगतमाता देवी पार्वती वेदों की आदि प्रणव और शिवपात्री हैं। प्रणव मंत्र ही सब मंत्रों का बीज रूप है। प्रणव ही शिव है और शिव ही प्रणव हैं। मोक्ष की नगरी काशी में मरने वाले मनुष्य को शिवजी इसी मंत्र की शिक्षा देते हैं। तभी ज्ञानी पुरुष को मुक्ति मिलती है। इसलिए सभी को अपने हृदय में भगवान शिव को धारण कर सदा उनका पूजन करना चाहिए।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता तेरहवां अध्याय

टिप्पणियाँ