जब भगवान शंकराचार्य ने एक चांडाल को अपना गुरु बनाया When Lord Shankaracharya made a Chandal his Guru
जब भगवान शंकराचार्य ने एक चांडाल को अपना गुरु बनाया
शंकराचार्य
भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की।
जब भगवान शंकराचार्य ने एक चांडाल को अपना गुरु बनाया।
दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने अवतार लेकर कलियुग में भारत मे आसुरी धर्म की स्थापना कर दी थी। शुक्राचार्य की माया को काटने के लिए आदि शंकराचार्य (शंकर के अंशावतार) को धरती पर जन्म लेना पड़ा।
आसुरी मत के प्रचलन के कारण उस समय छुवाछुत ने भारत मे घोर प्रभाव जमा लिया। अब आदिशंकराचार्य पर जिम्मेदारी थी, की वह इस छुवाछुत को खत्म करें।
When Lord Shankaracharya made a Chandal his Guru |
आदि शंकराचार्य से जुड़ा एक किस्सा प्रचलित है, ये किस्सा भारत भ्रमण के दौरान का है।
इसके मुताबिक़ उन्होंने काशी प्रवास के दौरान शमशान के चंडाल को अपना गुरु बनाया था। उस वक्त के समाज में चांडाल अस्पृश्य माने जाते थे, कहते हैं कि आदि शंकराचार्य काशी में एक शमशान से गुजर रहे थे जहां उनका सामना चांडाल से हो गया।
आदि ने उन्हें सामने से हटने को कहा। जवाब में चांडाल ने हाथजोड़ कर बोला क्या हटाऊं,
शरीर या आत्मा
आकार या निराकार?
यह जवाब सुनकर आदि शंकराचार्य चकित रह गए और उसी चांडाल को अपना गुरु स्वीकार किया। वह चांडाल भी कोई और नही, स्वयं महादेव थे।
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात्:
आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है।
जब एक चांडाल को बनाया गुरु
आदि शंकराचार्य का काशी में सामना एक चांडाल से हो गया।
चांडाल ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो शमशान में काम करता है। यह काम हीन गिना जाता है और उस समय चांडाल अस्पृश्य माने जाते थे।शंकराचार्य ने उन्हें सामने से हटने को कहा। जवाब में चांडाल हाथ जोड़कर बोले - क्या हटाऊँ, शरीर या आत्मा, आकार या निराकार?
चांडाल के इस जवाब ने आदि शंकराचार्य के मन पर वज्रप्रहार-सा किया। उस एक क्षण में उन्हें स्पष्ट हो गया कि जातिप्रथा तो घोर देहभाव का प्रमाण है, और किसी को देह के आधार पर उच्च या निम्न समझना बिल्कुल वेदांत-विरुद्ध है। सत्य की एक चोट से भीतर का दैहिक-सामाजिक अज्ञान ढह गया। अद्वैत वेदांत के अनुसार आत्मा ही सत्य है, और आत्मा की कोई जाति होती नहीं। आदि शंकराचार्य ने तत्काल उन चांडाल को अपना गुरु मान लिया। चांडाल से ही प्रेरित होकर उन्होंने मनीष-पंचकम की रचना की।
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