योग-निरूपण ,योग गति में विघ्न ,योग वर्णन Yoga formulation, obstacles in yoga movement, yoga description

योग-निरूपण ,योग गति में विघ्न ,योग वर्णन

योग-निरूपण

मुनि उपमन्यु बोले- हे केशव ! अब मैं आपको योग विधि के बारे में बताता हूं। जिसके द्वारा सभी विषयों से निवृत्ति हो और अंतःकरण की सब वृत्तियां शिवजी में स्थित हो जाएं, वह परम योग है। योग पांच प्रकार का होता है। मंत्र योग, स्पर्श योग, भावयोग, अभाव योग और महायोग मंत्रों का उनके अर्थ सहित ज्ञान होना महायोग कहलाता है। मंत्रों को प्राणायाम द्वारा सिद्ध करना स्पर्श योग कहलाता है। जब जिह्वा मंत्रों को स्पर्श न करते हुए भी उनका जाप करती है तो वह भावयोग कहलाता है। प्रलय के समय से संबद्ध पूरे संसार का विचार अभावयोग कहलाता है। जब साधना करने वाले की सभी मानसिक वृत्तियां भगवान शिव से जुड़ जाएं और वह नित्य शिव-चिंतन में मग्न रहे ऐसी दशा महायोग कहलाती है। सांसारिक बंधनों से मुक्ति की कामना करने वाले मनुष्य ही इस चिंतन और वैराग्य को अपने जीवन में अपनाकर महायोग को प्राप्त करते हैं। हमारे शरीर में रहने वाली प्राणवायु को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम रेचक, पूरक और कुंभक तीन प्रकार का होता है। साधक को इनका अभ्यास करना चाहिए क्योंकि इसी से शरीर की शुद्धि होती है। प्राणायाम सगर्भ और अगर्भ दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान वाला प्राणायाम सगर्भ कहलाता है परंतु जिसमें जप और ध्यान नहीं करते, वह अगर्भ प्राणायाम कहलाता है। योगीजन सगर्भ प्राणायाम करते हैं। प्राणवायु पर विजय प्राप्त कर लेने पर सभी वायु उस योगी के अधिकार में आ जाती हैं। प्राणायाम शरीर को पुष्ट, स्वस्थ और निरोगी बनाता है। इसके नियमित अभ्यास से कफ, मूत्र, पुरीष आदि कम हो जाते हैं। समस्त इंद्रियों को अपने वश में कर लेना प्रत्याहार कहलाता है। इंद्रियों को अपने वश में रखने से स्वर्ग और न रखने से नरक की प्राप्ति होती है। इसलिए अपने चित्त को एकाग्र रखना चाहिए। भगवान शिव, जो कि सबके ईश्वर हैं, त्रिलोकीनाथ हैं, का ध्यान करने से योगी का कल्याण होता है। अपने पूरे शरीर के साथ-साथ इंद्रियों पर काबू पाने से आत्मा का उद्धार होता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता  उत्तरार्द्ध सैंतीसवां अध्याय

योग गति में विघ्न

उपमन्यु बोले – हे केशव ! आलस्य, व्याधि, प्रमदा, स्थान, संशय, चित्त का एकाग्र न होना, - अश्रद्धा, दुख, वैमनस्य आदि योग में पड़ने वाले विघ्न हैं। इन विघ्नों को सदा शांत करते रहना चाहिए। इन सब विघ्नों के शांत होने पर छः उपसर्ग उत्पन्न हो जाते हैं। प्रतिमा, श्रवण, वार्ता, दर्शन, आस्वादन, वेदना आदि भोग के विषय हैं। यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी विप्र कृष्ट नहीं होता, यही प्रतिमा है। यत्न के बिना जब सबकुछ हमें सुनाई देने लगता है उसे श्रवण कहते हैं। सभी प्राणियों की बात को जानना और समझ लेना वार्ता कहलाता है। बिना कोई कोशिश किए जब सबकुछ आसानी से दिखाई देने लगे तो उसे दर्शन कहते हैं। दिव्य पदार्थों के स्वाद का नाम 'आस्वादन' है। वेदना को सभी प्रकार के स्पर्शो का ज्ञान माना जाता है। योगी उपसर्ग पाकर सिद्ध हो जाता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता  उत्तरार्द्ध अड़तीसवां अध्याय

योग वर्णन

उपमन्यु बोले- हे केशव ! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का सभी योगी-मुनि ध्यान करते हैं। इसी के द्वारा सिद्धियां प्राप्त होती हैं। सविनय और निर्विषय आदि ध्यान कहे गए हैं। निर्विषय ध्यान करने वाले अपनी बुद्धि के विस्तार से ध्यान करते हैं और ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। सविषय ध्यान सूर्य किरणों को आश्रय देने वाला होता है। शांति, प्रशांति, दीप्ति, प्रसाद ये दिव्य सिद्धियां देवी का ध्यान करते हुए प्राणायाम द्वारा सिद्ध होती हैं। बाह्य और आभ्यंतर अंधकार का विनाश प्रशांति और सभी आपत्तियों का नाश शांति है। बाह्य आभ्यंतर प्रकाश का दीप कहा जाता है। जब हमारी बुद्धि शुद्ध हो जाए, यही प्रसाद है। बाहर-भीतर के सभी कार्य पूर्ण होने पर सब कारण प्रसिद्ध हो जाते हैं। भगवान शिव, जो साक्षात परमेश्वर हैं, का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। बुद्धि का प्रवाह ध्यान एवं स्मरण से होता है। समस्त ऐश्वर्य, अणिमा आदि सिद्धियां एवं मुक्ति भगवान शिव का स्मरण एवं ध्यान करने से मिलती हैं। देवाधिदेव महादेव जी का ध्यान मोक्ष प्रदान करने वाला है। इसलिए ज्ञानी मनुष्यों को शिव ध्यान एवं स्मरण अवश्य करना चाहिए। ज्ञान योग यज्ञों से बढ़कर फल देता है। महायोगी योग सिद्ध कर लोकहित और लोक कल्याण हेतु लोक भ्रमण करते रहते हैं। वे विषय वासना को तुच्छ मानते हैं और सब इच्छाओं को त्यागकर वैराग्य ले लेते हैं। वे शिव- शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार अपनी देह का त्याग कर देते हैं। इससे उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जाती है। भगवान शिव में अगाध भक्ति और श्रद्धा रखने वाले ज्ञानी मनुष्यों को इस सांसारिक मोह- माया से मुक्ति मिल जाती है और वे जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होकर परम शिवधाम को प्राप्त कर लेते हैं।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता  उत्तरार्द्ध उन्तालीसवां अध्याय

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