अग्निदेव मंत्र अग्नि देव की उत्पत्ति कथा ,Agni Dev Mantr Utpatti [Origin] story of Agni Dev

अग्निदेव मंत्र अग्नि देव की उत्पत्ति कथा

अग्नि देवता कौन है?
ऋग्वेद में अग्नि को मानव तथा देवताओं के बीच संदेशवाहक माना गया है। इन्हें यज्ञों का राजा और दिव्य पुरोहित भी माना गया है, जो यज्ञ में देवताओं को लाते हैं। अग्नि के प्रिय भोजन—घी, यव, तिल, दही, खीर, श्रीखंड आदि मिठाई हैं, जिन्हें ये अपनी सातों जिह्वाओं से ग्रहण करते हैं।

Agni Dev Mantr Utpatti [Origin] story of Agni Dev

अग्नि देव की उत्पत्ति कथा

एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।
श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई। उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है? श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है, अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।
इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते है। भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।

अग्निदेव मंत्र और अर्थ 

  • अग्नि आवाहन मंत्र ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थ - 
हे अग्नि देवता मेरा प्रणाम स्वीकार करें और मेरे अनुष्ठान को सफल बनाएं।
  • अग्नि गायत्री मंत्र ऊँ महाज्वालाय विद्महे अग्नि मध्याय धीमहि  तन्नो: अग्नि प्रचोदयात ||
अर्थ - 
हे अग्नि देव मैं आपको नमन करता हूँ, मुझे बुद्धि प्रदान करें, अग्नि देव मेरे भविष्य और मेरे मन को अपने प्रकाश से रोशन करें।
  • ॐ वं वहि तुभ्यं नमः
अर्थ - 
हे अग्नि देव आपके बिना जीवन संभव नहीं है आपके सबके पालनहार हैं मुझे आशीर्वाद दें और कष्टों का अंत करें।
  • ॐ भूपतये स्वाहा, ॐ भुवनप, ॐ भुवनपतये स्वाहा । ॐ भूतानां पतये स्वाहा ।।
अर्थ - 
पृथ्वी सहित चौदह भुवनों के सभी जीवों के स्वामी परमात्मा तृप्त हो जाते हैं। जिसे पढ़ने से भगवान प्रसन्न होते है और भोजन में हमे संतुष्टि मिलती है।
  • ।। ॐ नमो नारायणाय ।।
अर्थ - 
मैं परम वास्तविकता नारायण को नमन करता हूं
  • अग्नि देव की सवारी क्या है?
अग्नि देव का वाहन भेड़ है। कुछ छवियों में अग्नि देव को एक रथ पर सवारी करते हुए भी दिखलाया गया है जिसे बकरियों और तोतों द्वारा खींचा जा रहा होता है।
  • अग्नि देव का नाम क्या है?
आग । तेज का गोचर रूप । उष्णता ।
  • अग्नि की 7 जीभ क्यों होती है?
कला में अग्नि को एक लाल व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जिसके 2 ज्वलंत सिर (एक परोपकारी, एक दुष्ट), 3 पैर और 7 भुजाएँ हैं। वह राम की सवारी करते हैं और फलों की माला पहनते हैं। यज्ञ अग्नि में डाले गए घी की आहुतियों को बेहतर ढंग से चाटने के लिए अग्नि की 7 जीभें हैं (प्रत्येक का एक विशेष नाम है)।

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