अग्नि पुराण - बावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 52 Chapter !

 अग्नि पुराण - बावनवाँ  अध्याय ! Agni Purana - 52 Chapter !

अग्निपुराण अध्याय ५२ चौंसठ योगिनी आदि की प्रतिमाओं के लक्षण का वर्णन है। - देवीप्रतिमालक्षणम्
अग्नि पुराण - बावनवाँ  अध्याय ! Agni Purana - 52 Chapter !

अग्नि पुराण - बावनवाँ  अध्याय ! Agni Purana - 52 Chapter !

भगवानुवाच
योगिन्यष्टाष्टकं वक्ष्ये ऐन्द्रादीशान्ततः क्रमात्।
अक्षोभ्या रूक्षकर्णी च राक्षसी कृपणाक्षया ।। १ ।।

पिङ्गाक्षी च क्षया क्षेमा इला लीलालया तथा।
लोला लक्ता बलाकेशी लालसा विमला पुनः ।। २ ।।

हुताशा च विशालाक्षी हुङ्कारा वडवामुखी।
महाक्रूरा क्रोधना तु भयङ्करी महानना ।। ३ ।।

सर्वज्ञा तला तारा ऋग्वेदा तु हयानना।
साराख्या रुद्रसङ्ग्रही सम्बरा तालजङ्घिका ।। ४ ।।

रक्ताक्षी सुप्रसिद्धा तु विद्युज्जिह्वा कारङ्किणी।
मेघनादा प्रचण्डोग्रा कालकर्णी वरप्रदा ।। ५ ।।

चन्द्रा चन्द्रावली चैव प्रपञ्चा प्रलयान्तिका।
शिशुवक्त्रा पिशाची च पिशिताशा च लोलुपा ।। ६ ।।

धमनी तापनी चैव रागिणी विकृतानना।
वायुवेगा बृहत्‌कुक्षिर्विकृता विश्वरूपिका ।। ७ ।।

यमजिह्वा जयन्ती च दुर्जया च जयन्तिका।
विडाली रेवती चैव पूतना विजयान्तिका ।। ८ ।।

अष्टहस्ताश्चतुर्हस्ता इच्छास्त्राःसर्वसिद्धिदाः।
भैरवश्चार्कहस्तः स्यात् कूर्परास्यो जटेन्दुभृत् ।। ९ ।।

खड्गाङ्कुशकुठारेषुविश्वाभयभृदेकतः।
चापत्रिशूलखट्‌वाङ्गपाशकार्द्धवरोद्यतः ।। १० ।।

गजचर्मधरो द्वाभ्यां कृत्तिवासोहिभूषितः।
प्रेताशनो मातृमध्ये पूज्यः पञ्चाननोथवा ।। ११ ।।

अविलोमाग्निपर्यन्तं दीर्घाष्टकैकभेदितम्।
तत्‌षडङ्गानि जात्यन्तैरन्वितं च क्रमाद् यजेत् ।। १२ ।।

मन्दिराग्निदलारुढं सुवर्णरसकान्वितम्।
नादविन्द्विन्दुसंयुक्तंमातृनाथाङ्गदीपितम् ।। १३ ।।

वीरभद्रो वृषारूढो मात्रग्रे स चतुर्मुखः।
गौरी तु द्विभुजा त्र्यक्षा शूलिनी दर्पणान्विता ।। १४ ।।

शूलं गलन्तिका कुण्डी वरदा च चतुर्भुजा।
अब्जस्था ललिता स्कन्दगणादर्शशलाकया ।। १५ ।।

चण्डिका दशहस्ता स्यात् खड्गशूलारिशक्तिधृक्।
दक्षे वामे नागपाश चर्माङ्कुशकुठारकम् ।। १६ ।।

धनुः सिंहे च महिषः शूलेन प्रहतोग्रतः ।। १७ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये देवीप्रतिमालक्षणं नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।

अग्नि पुराण - बावनवाँ  अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 52 Chapter!-In Hindi

श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् ! अब मेँ चाँसठ योगिनियों का वर्णन करूँगा। इनका स्थान क्रमशः पूर्वदिशा से लेकर ईशानपर्यन्त है। इनके नाम इस प्रकार हैं – 
  1. अक्षोभ्या,रूक्षकर्णी ,राक्षसीक्षपणा, क्षमा, पिङ्गाक्षी, अक्षया, क्षेमा, इला,नीलालया, लोला, रक्ता (या लक्ता),बलाकेशी, लालसा, विमला, दुर्गा (अथवा हुताशा ), विशालाक्षी,ह्रींकारा (या हुंकारा),  वडवामुखी, महाक्रूरा, क्रोधना, भयंकरी, महानना, सर्वज्ञा, तरला, तारा, ऋग्वेदा, हयानना, सारा, रससंग्राही (अथवा सुसंग्राही या रुद्रसंग्राही), शबरा ( या शम्बरा), तालजङ्घिका रक्ताक्षी,सुप्रसिद्धा,विद्युजिह्वा, करङ्किणी, मेघनादा, प्रचण्डा, उग्रा,कालकर्णी, वरप्रदा,चण्डा (अथवा चन्द्रा), चण्डवती (या चन्द्रावली), प्रपञ्चा, प्रलयान्तिका, शिशुवक्त्रा, पिशाची, पिशितासवलोलुपा, धमनी, तपनी,रागिणी (अथवा वामनी), विकृतानना ,वायुवेगा, बृहत्कुक्षि, विकृता, विश्वरूपिका, यमजिह्वा, जयन्ती, दुर्जया, जयन्तिका ( अथवा यमान्तिका), विडाली, रेवती, पूतना तथा  ,विजयान्तिका ॥ १-८ ॥
योगिनियाँ आठ अथवा चार हाथों से युक्त होती हैं। इच्छानुसार शस्त्र धारण करती हैं तथा उपासकों को सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली हैं। भैरव के बारह हाथ हैं। उनके मुख में ऊँचे दाँत हैं तथा वे सिर पर जटा एवं चन्द्रमा धारण करते हैं। उन्होंने एक ओर के पाँच हाथों में क्रमश: खड्ग, अंकुश, कुठार, बाण तथा जगत्को अभय प्रदान करनेवाली मुद्रा धारण कर रखी है। उनके दूसरी ओर के पाँच हाथ धनुष, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, पाशकार्द्ध एवं वर की मुद्रा से सुशोभित हैं। शेष दो हाथों में उन्होंने गजचर्म ले रखा है। हाथी का चमड़ा ही उनका वस्त्र है और वे सर्पमय आभूषणों से विभूषित हैं। प्रेत पर आसन लगाये मातृकाओं के मध्यभाग में विराजमान हैं। इस रूप में उनकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भैरव के एक या पाँच मुख बनाने चाहिये ॥ ९-११ ॥
पूर्व दिशा से लेकर अग्निकोणतक विलोम- क्रम से प्रत्येक दिशा में भैरव को स्थापित करके क्रमशः उनका पूजन करे। बीज मन्त्र को आठ दीर्घ स्वरों में से एक-एक के द्वारा भेदित एवं अनुस्वारयुक्त करके उस उस दिशा के भैरव के साथ संयुक्त करे और उन सबके अन्त में ‘नमः‘ पद को जोड़े। यथा-ॐ ह्रां भैरवाय नमः – प्राच्याम् । ॐ ह्रीं भैरवाय नमः – ऐशान्याम्। ॐ ह्रूं भैरवाय नमः – उदीच्याम् । ॐ ह्रें भैरवाय नमः – वायव्ये । ॐ ह्रैं भैरवाय नमः – प्रतीच्याम् । ॐ ह्रों भैरवाय नमः – नैर्ऋत्याम् । ॐ ह्रौं भैरवाय नमः – अवाच्याम् । ॐ ह्रः भैरवाय नमः – आग्नेय्याम् । इस प्रकार इन मन्त्रों द्वारा क्रमशः उन दिशाओं में भैरव का पूजन करे। इन्हीं में से छः बीजमन्त्र द्वारा षडङ्गन्यास एवं उन अङ्गों का पूजन भी करना चाहिये ॥ १२ ॥
उनका ध्यान इस प्रकार है-भैरवजी मन्दिर अथवा मण्डल के आग्नेयदल (अग्निकोणस्थ दल)- में विराजमान सुवर्णमयी रसना से युक्त, नाद, बिन्दु एवं इन्दु से सुशोभित तथा मातृकाधिपति के अङ्ग से प्रकाशित हैं। (ऐसे भगवान् भैरव का मैं भजन करता हूँ।) वीरभद्र वृषभ पर आरूढ हैं। वे मातृकाओं के मण्डल में विराजमान और चार भुजाधारी हैं। गौरी दो भुजाओं से युक्त और त्रिनेत्रधारिणी हैं। उनके एक हाथ में शूल और दूसरे में दर्पण है। ललितादेवी कमल पर विराजमान हैं। उनके चार भुजाएँ हैं। वे अपने हाथों में त्रिशूल, कमण्डलु, कुण्डी और वरदान की मुद्रा धारण करती हैं। स्कन्द की अनुचरी मातृकागणों के हाथों में दर्पण और शलाका होनी चाहिये ॥ १३ – १५ ॥
चण्डिका देवी के दस हाथ हैं। वे अपने दाहिने हाथों में बाण, खड्ग, शूल, चक्र और शक्ति धारण करती हैं और बायें हाथों में नागपाश, ढाल, अंकुश, कुठार तथा धनुष लिये रहती हैं। वे सिंह पर सवार हैं और उनके सामने शूल से मारे गये महिषासुर का शव है ॥ १६-१७ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘चौसठ योगिनी आदि की प्रतिमाओं के लक्षणों का वर्णन‘ नामक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५२ ॥

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