अग्नि पुराण - एक सौ पचपनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 155 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पचपनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 155 Chapter !

अग्नि पुराण  एक सौ पचपनवाँ अध्याय आचारका वर्णन !

अग्नि पुराण - एक सौ पचपनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 155 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पचपनवाँ अध्याय !

पुष्कर उवाच 
ब्रह्मे मुहुर्ते कोत्थय विष्णवादिं दैवतं स्मरेत् !
उभे मुत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदंमुखः || 1 ||

रतौ च दक्षिणे कुर्यादुभे संध्या यथा दिवा !
न मार्गादौ जले विप्यां सतृणायं सदाचरेत् || 2 ||

शौकं कृत्वा मृदाचम्य भक्षयेद्दन्तधावनम् !
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं क्रियांगं मालाकर्षणं || 3 ||

क्रियास्नानं तथा षष्ठः षोधास्नानं प्रकीर्तितम् !
अस्नातस्यफलं कर्म प्राप्तस्नानं कैरेत्ततः || 4 ||

भूमिष्ठमुद्धृतत्पुण्यं ततः प्रश्रवणोदकम् !
ततोऽपि सरसं पुण्यं तस्मान्नादेयमुच्यते || 5 ||

तीर्थतोयं ततः पुण्यं गंगं पुण्यन्तु सर्वतः !
संशोधितमलः पूर्वं निमग्नश्च जलशये || 6 ||

उपस्पृश्य तत: कुर्यादंभस: परिमार्जनम् !
हिरण्यवर्णस्तिशभिः शन्नो देवेति चाप्यथा || 7 ||

आपोहिष्ठेति तिश्रभिरिदमपस्तथैव च !
ततो जलाशाये मग्नः कुर्यादन्तर्जलं जपं || 8 ||

तत्रघमर्षणं सूक्तं द्रुपदं वा तथा जपेत !
युञ्जते मन इत्येवं सूक्तं सूक्तं वाप्यथा पौरुषम् || 9 ||

गायत्रीं तु विशेषेण अघमर्षणसूक्तके !
देवता भववृत्तस्तु ऋषिश्चैवघमर्षणः || 10 ||

छन्दश्चानुष्ठुभं तस्य भावावृत्तो हरिः स्मृतः |
आपिदमनाः शातिं तु देवतापितृतर्पणम् || 11 ||

पौरुषेण तु सुक्तेन ददेच्चैवोदाकाञ्जलिः !
ततोऽग्निहवनं कुर्यादान्नं दत्वा तु शक्तितः || 12 ||

ततः समाभिगच्छेता योगक्षेमार्थमीश्वरम् !
आसनं शयानं यानं जयपत्यन्कमण्डलुः || 13 ||

आत्मनः शुचिरेतानि परेषां न शुचिर्भवेत् !
भ्रक्रांतस्य गुरुविन्यः पंथा दियो गुरुश्वपि || 14 ||

न पश्येच्चर्कमुद्यन्तन्नस्तं यन्तं न चम्भसि !
नेक्षेन्नग्नं स्त्रीं कूपं शूनास्थानमघघिनं || 15 ||

कार्पसाथी तय भस्म नाक्रमेद्यच्च कुत्सितम् |
अन्तःपुरं वित्तगृहं पारदौत्यं ब्रजेन्न हि || 16 ||

नरोहेद्विशमन्नावन्ना वृक्षं न च पर्वतम् !
अर्थायतनशास्त्रेषु तथैव स्यात्कुतुहलि || 17 ||

लोष्टमर्दो त्रिनच्चेदि नखखादि विनश्यति |
मुखादिवादनं नेहद्विना दीपं न रात्रिगः || 18 ||

नाद्वरेण विषेद्वेष्म न च वक्त्रं विरागयेत् !
कथाभंगं न कुर्विता न च वासोविपर्ययम् || 19 ||

भद्रं भद्रमिति ब्रूयान्निष्टं कीर्तियेत्क्वचित !
पलाशमासनं वर्ज्यं देवादिच्चया व्रजेत् || 20 ||

न मध्ये पूज्ययोर्यात्नोच्छिष्टस्तारकादिद्रक !
नद्यन्नन्यां नदीं ब्रुयन्न कंदुयेद्द्विहस्तकम् || 21 ||

असन्तरप्य पित्न देवन्नदीपाराञ्च न व्रजेत् !
मलादिप्रक्षिपेन्नाप्सु न नग्नः स्नानमाचरेत् || 22 ||

ततः समभिग्च्छेता योगक्षेमार्थमीश्वरम् !
सृजन्नात्मानप्पनयेत्खरादिकराजस्त्यजेत || 23 ||

हिनान्नवहासेत्गच्छेन्नादेशे नियासेच्च तैः !
वैद्यराजनाधिने म्लेच्छस्त्रीबाहुनायके || 24 ||

राजस्वलादिपतितैर्न भषेत केशवं स्मरेत् !
नासंवृतमुखः कुर्याद्धासं जृंभं तथा कुशुतम् || 25 ||

प्रभोराप्यवमानं खड्गोपयेदवचनं बुधः !
इंद्रियाणां नानुकुलि वेदारोधं न कारयेत् || 26 ||

नोपक्षितव्यो व्याधिः स्याद्रिपुरलपोऽपि भार्गव !
रथयातिगः सदाकामेत विभृयान्नाग्निवरिणि || 27 ||

न हुंकुर्यच्छिवं पूज्यं पदं पदेन नकारमेत् !
प्रत्यक्षं वा परोक्षं वा कस्य सिन्नाप्रियं वदेत् || 28 ||

वेदशास्त्रनरेन्द्रर्षिदेवनिन्दं विवर्जयेत !
स्त्रीनामिर्षा न कर्त्तव्या त्रिश्वसंतसु वर्जयेत् || 29 ||

धर्मश्रुतिं देवरतिं कुर्याद्धर्मादि नित्यशः !
सोमस्य पूजनं जन्मार्क्षे विप्रदेवादिपूजनम् || 30 ||

षष्ठीचतुर्दश्यष्टम्यमभ्यांगं वर्जयेत्तथा !
दूरादगृहान्मूत्रविष्ठे नोत्तमैवैरामचरेत् || 31 ||
इत्याग्नेये महापुराणे आचाराध्यायो नाम पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ पचपनवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 155 Chapter!-In Hindi

पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी! प्रतिदिन प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर श्रीविष्णु आदि देवताओंका स्मरण करे। दिनमें उत्तरकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये, रातमें दक्षिणाभिमुख होकर करना उचित है और दोनों संध्याओंमें दिनकी ही भाँति उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। मार्ग आदिपर, जलमें तथा गलीमें भी कभी मलादिका त्याग न करे। सदा तिनकोंसे पृथ्वीको ढककर उसके ऊपर मल-त्याग करे। मिट्टीसे हाथ-पैर आदिकी भलीभाँति शुद्धि करके, कुल्ला करनेके पश्चात्, दन्तधावन करे। नित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियाङ्ग, मलकर्षण तथा क्रिया-स्नान- ये छः प्रकारके स्नान बताये गये हैं। जो स्नान नहीं करता, उसके सब कर्म निष्फल होते हैं; इसलिये प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करना चाहिये ॥ १-४॥ 
कुएँसे निकाले हुए जलकी अपेक्षा भूमिपर स्थित जल पवित्र होता है। उससे पवित्र झरनेका जल, उससे भी पवित्र सरोवरका जल तथा उससे भी पवित्र नदीका जल बताया जाता है। तीर्थका जल उससे भी पवित्र होता है और गङ्गाका जल तो सबसे पवित्र माना गया है। पहले जलाशयमें गोता लगाकर शरीरका मैल धो डाले। फिर आचमन करके जलसे मार्जन करे। 'हिरण्यवर्णाः०' आदि तीन ऋचाएँ, 'शं नो देवीरभिष्टये०' (यजु० ३६।१२) यह मन्त्र, 'आपो हि ष्ठा०' (यजु० ३६।१४-१६) आदि तीन ऋचाएँ तथा 'इदमापः०' (यजु० ६।१७) यह मन्त्र - इन सबसे मार्जन किया जाता है। तत्पश्चात् जलाशयमें डुबकी लगाकर जलके भीतर ही जप करे। उसमें अघमर्षण सूक्त अथवा 'द्रुपदादिव०' (यजु० २०।२०) मन्त्र, या 'युञ्जते मनः०' (यजु० ५।१४) आदि सूक्त अथवा 'सहस्रशीर्षा०' (यजु० अ० ३१) आदि पुरुष सूक्तका जप करना चाहिये। विशेषतः गायत्रीका जप करना उचित है। अघमर्षणसूक्तमें भाववृत्त देवता और अघमर्षण ऋषि हैं। उसका छन्द अनुष्टुप् है। उसके द्वारा भाववृत्त (भक्तिपूर्वक वरण किये हुए) श्रीहरिका स्मरण होता है। तदनन्तर वस्त्र बदलकर भीगी धोती निचोड़नेके पहले ही देवता और पितरोंका तर्पण करे ॥ ५-११॥ 
फिर पुरुषसूक्त (यजु० अ० ३१) के द्वारा जलाञ्जलि दे। उसके बाद अग्निहोत्र करे। तत्पश्चात् अपनी शक्तिके अनुसार दान देकर योगक्षेमकी सिद्धिके लिये परमेश्वरकी शरण जाय। आसन, शय्या, सवारी, स्त्री, संतान और कमण्डलु- ये वस्तुएँ अपनी ही हों, तभी अपने लिये शुद्ध मानी गयी हैं; दूसरोंकी उपर्युक्त वस्तुएँ अपने लिये शुद्ध नहीं होतीं। राह चलते समय यदि सामनेसे कोई ऐसा पुरुष आ जाय, जो भारसे लदा हुआ कष्ट पा रहा हो, तो स्वयं हटकर उसे जानेके लिये मार्ग दे देना चाहिये। इसी प्रकार गर्भिणी स्त्री तथा गुरुजनोंको भी मार्ग देना चाहिये ॥ १२-१४॥
उदय और अस्तके समय सूर्यकी ओर न देखे। जलमें भी उनके प्रतिबिम्बकी ओर दृष्टिपात न करे। नंगी स्त्री, कुआँ, हत्याके स्थान और पापियोंको न देखे। कपास (रुई), हड्डी, भस्म तथा घृणित वस्तुओंको न लाँघे। दूसरेके अन्तःपुर और खजानाघरमें प्रवेश न करे। दूसरेके दूतका काम न करे। टूटी-फूटी नाव, वृक्ष और पर्वतपर न चढ़े। अर्थ, गृह और शास्त्रोंके विषयमें कौतूहल रखे। ढेला फोड़ने, तिनके तोड़ने और नख चबानेवाला मनुष्य नष्ट हो जाता है। मुख आदि अङ्गोंको न बजावे। रातको दीपक लिये बिना कहीं न जाय। दरवाजेके सिवा और किसी मार्गसे घरमें प्रवेश न करे। मुँहका रंग न बिगाड़े। किसीकी बातचीतमें बाधा न डाले तथा अपने वस्त्रको दूसरेके वस्त्रसे न बदले। 'कल्याण हो, कल्याण हो'- यही बात मुँहसे निकाले; कभी किसीके अनिष्ट होनेकी बात न कहे। पलाशके आसनको व्यवहारमें न लावे। देवता आदिकी छायासे हटकर चले ॥ १५-२० ॥
दो पूज्य पुरुषोंके बीचसे होकर न निकले। जूठे मुँह रहकर तारा आदिकी ओर दृष्टि न डाले। एक नदीमें जाकर दूसरी नदीका नाम न ले। दोनों हाथोंसे शरीर न खुजलावे। किसी नदीपर पहुँचनेके बाद देवता और पितरोंका तर्पण किये बिना उसे पार न करे। जलमें मल आदि न फेंके। नंगा होकर न नहाये। योगक्षेमके लिये परमात्माकी शरणमें जाय। मालाको अपने हाथसे न हटाये। गदहे आदिकी धूलसे बचे। नीच पुरुषोंको कष्टमें देखकर कभी उनका उपहास न करे। उनके साथ अनुपयुक्त स्थानपर निवास न करे। वैद्य, राजा और नदीसे हीन देशमें न रहे। जहाँके स्वामी म्लेच्छ, स्त्री तथा बहुत-से मनुष्य हों, उस देशमें भी न निवास करे। रजस्वला आदि तथा पतितोंके साथ बात न करे। सदा भगवान् विष्णुका स्मरण करे। मुँहके ढके बिना न जोरसे हँसे, न जैभाई ले और न छींके ही ॥ २१-२५ ॥
विद्वान् पुरुष स्वामीके तथा अपने अपमानकी बातको गुप्त रखे। इन्द्रियोंके सर्वथा अनुकूल न चले- उन्हें अपने वशमें किये रहे। मल-मूत्रके वेगको न रोके। परशुरामजी! छोटे-से भी रोग या शत्रुकी उपेक्षा न करे। सड़क लाँधकर आनेके बाद सदा आचमन करे। जल और अग्निको धारण न करे। कल्याणमय पूज्य पुरुषके प्रति कभी हुंकार न करे। पैरको पैरसे न दबावे। प्रत्यक्ष या परोक्षमें किसीकी निन्दा न करे। वेद, शास्त्र, राजा, ऋषि और देवताकी निन्दा करना छोड़ दे। स्त्रियोंके प्रति ईर्ष्या न रखे तथा उनका कभी विश्वास भी न करे। धर्मका श्रवण तथा देवताओंसे प्रेम करे। प्रतिदिन धर्म आदिका अनुष्ठान करे। जन्म-नक्षत्रके दिन चन्द्रमा, ब्राह्मण तथा देवता आदिकी पूजा करे। षष्ठी, अष्टमी और चतुर्दशीको तेल या उबटन न लगावे। घरसे दूर जाकर मल-मूत्रका त्याग करे। उत्तम पुरुषोंके साथ कभी वैर-विरोध न करे ॥ २६-३१॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'आचारका वर्णन' नामक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५५ ॥

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