Durga Saptshati : श्री दुर्गा सप्तशती -दूसरा अध्याय हिन्दी अर्थ सहित,Shri Durga Saptshati -Second Adhyaay Hindi Arth Sahit

Durga Saptshati : श्री दुर्गा सप्तशती -दूसरा अध्याय
 हिन्दी अर्थ सहित,

दूसरा अध्याय- महिषासुर की सेना का वध
  • दुर्गा सप्तशती अध्याय -2
दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय के पाठ से मुकदमे में विजय मिलती है। किसी भी प्रकार का आपका झगड़ा हो, वाद विवाद हो, उसमें शांति आती है, और आपके मान-सम्मान की रक्षा होती है। दूसरा पाठ विजय के लिए होता है किंतु आपका उद्देश्य आपकी मंशा सही होनी चाहिए तभी ये पाठ फल देता है।

Shri Durga Saptshati -Second Adhyaay Hindi Arth Sahit
  • ॥ विनियोगः ॥
ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः, शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्. वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः॥
  • अर्थ
ऊँ मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज,वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है । श्रीमहालक्ष्मीकी प्रसन्नताके लिये मध्यम चरित्र के पाठमें इसका विनियोग है।
  • ॥ ध्यानम् ॥
ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
  • अर्थ
मैं कमलके आसनपर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ, जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढ़ाल, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं ।

श्री दुर्गा सप्तशती -दूसरा अध्याय हिन्दी अर्थ

“ॐ ह्रीं” ऋषिरुवाच ॥१॥ 
देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥
तत्रासुरैर्महावीर्यै-र्देवसैन्यं पराजितम्।
जित्वा च सकलान् देवा-निन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥
ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥
यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।
त्रिदशाः कथयामासु-र्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥
सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।
अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥
  • अर्थ
महर्षि मेधा बोले- प्राचीन काल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर युद्ध हुआ था और देवराज इन्द्र देवताओं के नायक थे। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई थी और इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओं को जीत महिषासुर इन्द्र बन बैठा था। युद्ध के पश्चात हारे हुए देवता प्रजापति श्रीब्रह्मा को साथ लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पर कि भगवान शंकर विराजमान थे। देवताओं ने अपनी हार का सारा वृत्तान्त भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी से कह सुनाया। वह कहने लगे-हे प्रभु! महिषासुर सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण तथा अन्य देवताओ के सब अधिकार छीनकर सबका अधिष्ठाता स्वयं बन बैठा है। ॥१-६॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥
एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥
  • अर्थ
उसने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। वह मनुष्यों की तरह पृथ्वी पर विचर रहे हैं। दैत्यों की सारी करतूत हमने आपको सुना दी है और आपकी शरण में इसलिए आए हैं कि आप उनके वध का कोई उपाय सोचें।

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥
ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्‍चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥
  • अर्थ
उसने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। वह मनुष्यों की तरह पृथ्वी पर विचर रहे हैं। दैत्यों की सारी करतूत हमने आपको सुना दी है और आपकी शरण में इसलिए आए हैं कि आप उनके वध का कोई उपाय सोचें। देवताओं की बातें सुनकर भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी को दैत्यों पर बड़ा गुस्सा आया। उनकी भौंहें तन गई और आँखें लाल हो गई। गुस्से में भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ।

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥
अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्.॥१२॥
अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥
यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥
  • अर्थ
देवताओं की बातें सुनकर भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी को दैत्यों पर बड़ा गुस्सा आया। उनकी भौंहें तन गई और आँखें लाल हो गई। गुस्से में भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ। फिर वह सारा तेज एक में मिल गया और तेज का पुंज वह ऎसे दिखता था जैसे कि जाज्वल्यमान पर्वत हो।
देवताओं ने देखा कि उस पर्वत की ज्वाला चारों ओर फैली हुई थी और देवताओं के शरीर से प्रकट हुए तेज की किसी अन्य तेज से तुलना नहीं हो सकती थी। एक स्थान पर इकठ्ठा होने पर वह तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा। वह भगवान शंकर का तेज था, उससे देवी का मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके शिर के बाल बने, भगवान श्रीविष्णु के तेज से उसकी भुजाएँ बनीं, ॥११-१४॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।
वारुणेन च जङ्‍घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥
ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्‌गुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्‌गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥
तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥
भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥
ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः॥१९॥
शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः॥२०॥
  • अर्थ
चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन और इन्द्र के तेज से जंघा तथा पिंडली बनी और पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग बना, ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अँगुलियाँ पैदा हुईं। वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ एवं कुबेर के तेज से नासिका बनी, प्रजापति के तेज से उसके दाँत और अग्नि के तेज से उसके नेत्र बने, सन्ध्या के तेज से उसकी भौंहें और वायु के तेज से उसके कान प्रकट हुए थे। इस प्रकार उस देवी का प्रादुर्भाव हुआ था। महिषासुर से पराजित देवता उस देवी को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल में से एक त्रिशूल निकाल कर उस देवी को दिया और भगवान विष्णु ने अपने चक्र में से एक चक्र निकाल कर उस देवी को दिया,॥१५-२०॥

शङ्‌खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।
मारुतो दत्तवांश्‍चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥
  • अर्थ
वरुणने भी भेंट किया, अग्निने उन्हें शक्ति दी और वायुने धनुष तथा बाणसे भरे हुए दो तरकस प्रदान किये ॥ २१ ॥ 

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य कुलिशादमराधिपः।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥
कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।
प्रजापतिश्‍चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्.॥२३॥
समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।
कालश्‍च दत्तवान् खड्‌गं तस्याश्‍चर्म च निर्मलम्॥२४॥
क्षीरोदश्‍चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥
अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥
अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि समस्तास्वङ्‌गुलीषु च।
विश्‍वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥
  • अर्थ
सहस्त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रने अपने वज्रसे वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथीसे उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया ! यमराजने कालदण्डसे दण्ड, वरुणने पाश, प्रजापतिने स्फटिकाक्षकी माला तथा ब्रह्माजीने कमण्डलु भेंट किया ! सूर्यने देवीके समस्त रोम कूपोंमें अपनी किरणोंका तेज भर दिया। कालने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी ॥ २४ ॥ क्षीरसमुद्रने उज्ज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्ज्वल अर्धचन्द्र, सब बाहुओंके लिये केयूर, दोनों चरणों के लिये निर्मल नूपुर, गलेकी सुन्दर हँसली और सब अँगुलियों में पहननेके लिये रत्नोंकी बनी अँगूठियाँ भी दीं। विश्वकर्माने उन्हें 5 अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया। २५ २७ ॥ 

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।
अम्लानपङ्‌कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥
अददज्जलधिस्तस्यै पङ्‌कजं चातिशोभनम्।
हिमवा‍न् वाहनं सिंहं रत्‍नानि विविधानि च॥२९॥
ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।
शेषश्‍च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥
नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥
सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥३२॥
  • अर्थ
साथ ही अनेक प्रकारके अस्त्र और अभेद्य कवच दिये; इनके सिवा मस्तक और वक्षःस्थलपर धारण करनेके लिये कभी न कुम्हलानेवाले कमलोंकी मालाएँ दीं !  जलधिने उन्हें सुन्दर कमलका फूल भेंट किया। हिमालयने सवारीके लिये सिंह तथा भाँति- भाँतिके रत्न समर्पित किये ॥ २९ ॥ धनाध्यक्ष कुबेरने मधुसे भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषने, जो इस पृथ्वीको धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियोंसे विभूषित नागहार भेंट दिया । इसी प्रकार अन्य देवताओंने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवीका सम्मान किया। तत्पश्चात् उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वरसे गर्जना की। उनके भयंकर नादसे सम्पूर्ण आकाश गूंज उठा ॥ २८-३२ ॥

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्.।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्‍च चकम्पिरे॥३३॥
चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्‍च महीधराः।
जयेति देवाश्‍च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्.॥३४॥
तुष्टुवुर्मुनयश्‍चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्‌वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥
सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधा-दाभाष्य महिषासुरः॥३६॥
अभ्यधावत तं शब्द-मशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥
  • अर्थ
देवीका वह अत्यन्त उच्चस्वरसे किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका, आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोरकी प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्वमें हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे  पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओंने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ सिंहवाहिनी भवानीसे कहा 'देवि! तुम्हारी जय हो' ! साथ ही महर्षियोंने भक्तिभावसे विनम्र होकर उनका स्तवन किया। सम्पूर्ण त्रिलोकीको क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त । सेनाको कवच आदिसे सुसज्जित कर, हाथोंमें हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये। उस समय महिषासुरने बड़े क्रोधमें आकर कहा- 'आः! यह क्या हो रहा है ?' फिर वह सम्पूर्ण असुरोंसे घिरकर उस सिंहनादकी ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवीको देखा, जो अपनी प्रभासे तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं ॥ ३३ ३७ ॥


पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥
दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥
  • अर्थ
उनके चरणोंके भारसे पृथ्वी दबी जा रही थी। माथेके मुकुटसे आकाशमें रेखा-सी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुषकी टङ्कारसे सातों पातालोंको क्षुब्ध किये देती थीं ! देवी अपनी हजारों भुजाओंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करके खड़ी थीं। तदनन्तर उनके साथ दैत्योंका युद्ध छिड़ गया ॥ ३९ ॥ 

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तै-रादीपितदिगन्तरम्।
महिषासुरसेनानीश्‍चिक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥
युयुधे चामरश्‍चान्यैश्‍चतुरङ्‌गबलान्वितः।
रथानामयुतैः षड्‌भि-रुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥
अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।
पञ्चाशद्‌भिश्‍च नियुतै-रसिलोमा महासुरः॥४२॥
अयुतानां शतैः षड्‌भि-र्बाष्कलो युयुधे रणे।
गजवाजिसहस्रौघै-रनेकैः परिवारितः॥४३॥
वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥
युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥
युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥
हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्‍च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥
युयुधुः संयुगे देव्या खड्‌गैः परशुपट्टिशैः।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥
  • अर्थ
नाना प्रकार के अस्त्र - शस्त्रों के प्रहार से सम्पूर्ण दिशाएँ उद्भासित होने लगीं । चिक्षुर नामक महान् असुर महिषासुर का सेनानायक था ! वह देवीके साथ युद्ध करने लगा । अन्य दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा । साठ हजार रथियोंके साथ आकर उदग्र नामक महादैत्य ने लोहा लिया ! एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा । जिसके रोएँ तलवार के समान तीखे थे , वह असिलोमा नामका महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा ! साठ लाख रथियों से घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमि में लड़ने लगा । परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार और घुड़सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा । बिडाल नामक दैत्य पाँच अरब रथियोंसे घिरकर लोहा लेने लगा । इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य रथ , हाथी और घोड़ों की सेना साथ लेकर वहाँ देवी के साथ युद्ध करने लगे । स्वयं महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ , हाथी और घोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था । वे दैत्य देवी के साथ तोमर , भिन्दिपाल , शक्ति , मूसल , खड्ग , परशु और पट्टिश आदि अस्त्र - शस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे । कुछ दैत्यों ने उनपर शक्ति का प्रहार किया , कुछ लोगों ने पाश फेंके ॥४३- ४८॥

देवीं खड्‍गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥
लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥
मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्‍वरी।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥५१॥
चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।
निःश्‍वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥
त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।
युयुधुस्ते परशुभि-र्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥
नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्‍त्युपबृंहिताः।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्‌खांस्तथापरे॥५४॥
  • अर्थ
तथा कुछ दूसरे दैत्यों ने खड्ग प्रहार करके देवी को मार डालने का उद्योग किया । देवी ने भी क्रोध में भरकर खेल - खेल में ही अपने अस्त्र - शस्त्रों की वर्षा करके दैत्यों के वे समस्त अस्त्र - शस्त्र काट डाले । उनके मुखपर परिश्रम या थकावट का रंचमात्र भी चिह्न नहीं था , देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्यों के शरीरों पर अस्त्र - शस्त्रों की वर्षा करती रहीं । देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में इस प्रकार विचरने लगा, मानो वनों में दावानल फैल रहा हो । रणभूमि में दैत्यों के साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने नि:श्वास छोड़े , वे सभी तत्काल सैकड़ों - हजारों गणों के रूपमें प्रकट हो गये और परशु , भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों द्वारा असुरों का सामना करने लगे ! देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा और शंख आदि बाजे बजाने लगे  ॥४९ - ५४॥

मृदङ्‌गांश्‍च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः॥५५॥
खड्‌गादिभिश्‍च शतशो निजघान महासुरान्।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्.॥५६॥
असुरान् भुवि पाशेन बद्‌ध्वा चान्यानकर्षयत्।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्‌गपातैस्तथापरे॥५७॥
विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।
वेमुश्‍च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥
केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥
श्येनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।
केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥
  • अर्थ
उस संग्राम- महोत्सव में कितने ही गण मृदंग बजा रहे थे । तदनन्तर देवी ने त्रिशूल से , गदा से , शक्ति की वर्षा से और खड्ग आदि से सैकड़ों महादैत्योंका संहार का डाला । कितनों को घण्टे के भयंकर नादसे मूर्च्छित करके मार गिराया ! बहुतेरे दैत्यों को पाश से बाँधकर धरतीपर घसीटा । कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवार की मार से दो-दो टुकड़े हो गये ! कितने ही गदा की चोट से घायल हो धरती पर सो गये । कितने ही मूसल की मार से अत्यन्त आहत होकर रक्त वमन करने लगे । कुछ दैत्य शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वीपर ढ़ेर हो गये । उस रणांगण में बाणसमूहों की वृष्टि से कितने ही असुरों की कमर टूट गयी बाजकी तरह झपटनेवाले देवपीड़क दैत्यगण अपने प्राणों से हाथ धोने लगे । ॥५५-६०॥

शिरांसि पेतुरन्येषा-मन्ये मध्ये विदारिताः।
विच्छिन्नजङ्‌घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥
एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥
कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।
ननृतुश्‍चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥६३॥
  • अर्थ
किन्हीं की बाँहें छिन्न-भिन्न हो गयीं । कितनों की गर्दनें कट गयीं । कितने ही दैत्यों के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे । कुछ लोगों के शरीर मध्यभाग में ही विदीर्ण हो गये । कितने ही महादैत्य जाँघें कट जाने से पृथ्वीपर गिर पड़े । कितनों को ही देवी ने एक बाँह , एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ों में चीर डाला । कितने ही दैत्य मस्तक कट जाने पर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़ के ही रूप में अच्छे-अच्छे हथियार हाथ में ले देवी के साथ युद्ध करने लगते थे । दूसरे कबन्ध युद्ध के बाजों की लयपर लयपर नाचते थे ॥ ६१- ६३॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्‌गशक्त्यृष्टिपाणयः।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः॥६४॥
पातितै रथनागाश्‍वैरसुरैश्‍च वसुन्धरा।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥६५॥
शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥
क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्.॥६७॥
  • अर्थ
कितने ही बिना सिर के धड़- हाथों में खड्ग , शक्ति और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरे - दूसरे महादैत्य 'ठहरो ! ठहरो !! ' यह कहते हुए देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे । जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहाँ की धरती देवी के गिराये हुए रथ , हाथी , घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था ! दैत्यों की सेना में हाथी ,घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ था कि थोड़ी देर में वहाँ खून की बड़ी - बड़ी नदियाँ बहने लगीं ! जगदम्बा ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया- ठीक उसी तरह , जैसे तृण और काठ के भारी ढ़ेर को आग कुछ ही क्षणोंमें भस्म कर देती है ॥६४-६७॥

स च सिंहो महानाद-मुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योऽमरारीणा-मसूनिव विचिन्वति॥६८॥
देव्या गणैश्‍च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।
यथैषां तुतुषुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥
  • अर्थ
और वह सिंह भी गर्दनके बालोंको हिला-हिलाकर जोर-जोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीर से मानो उनके प्राण चुन लेता था वहाँ देवी के गणों ने भी उन महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया , जिससे आकाश में खड़े हुए देवतागण उनपर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे॥६८-६९॥
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥

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