जप ध्यान आदि की विधि,Jap Dhyaan Aadi Kee Vidhi

जप ध्यान आदि की विधियां,Jap Dhyaan Aadi Kee Vidhi

जप ध्यान आदि की विधियां साधना विधि ऋष्यादिन्यास करन्यास, हृदयादिन्यास, दिगन्यास, अक्षरन्यास, ध्यान, माला से जप, हवन विधि, तर्पण, पुरश्चरण । 

जप ध्यान आदि की विधि

यह यंत्र-मंत्र-तंत्र का विषय बहुत गहन है और प्रत्येकं पर अलग-अलग पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है, परन्तु यहाँ हम इस विषय की ज्योतिष सम्बन्धी उपादेयता तक ही अपने को सीमित रखना चाहेगे। मंत्र सिद्धि से परमपद मोक्ष की भी प्राप्ति होती है और सांसारिक भोग पदार्थों की भी । निष्काम साधना तथा सकाम साघना । इसमें निष्काम साधना तो परमार्थ की - अपने परम अर्थ सबसे बड़े स्वार्य की सिद्धि आत्म कल्याण के लिए की जाती है और यह सर्वोत्कृष्ट साधना है। दूसरों को हानि न पहुंचाते हुए अपने सांसारिक लाभ सफलता के लिए की गई मंत्र साधना को निष्काम साधना से घटिया दरजे की साधना समझा जाता है । परन्तु अपने या दूसरों के सांसारिके लाभ व कल्याण भावना से की गई साधना की भी उपादेयता है । निष्काम साधना सात्विक और उपरोक्त सकाम साधना राजस यानी रजोगुण युक्त होती है । परन्तु मारण मोहन उच्चाटन विद्वेषण दूसरो को न पहुंचाने वाली साधनायें तामसिक होती हैं और इसलिये त्याज्य है । स्नान से शरीर की शुद्धि हो जाती है।

जप ध्यान आदि की विधि,Jap Dhyaan Aadi Kee Vidhi

अंतकरण की शुद्धि के लिए मन्त्र पढ़कर आचमन करना चाहिए। पूजा स्थान में किसी साफ मंजे हुए पात्र में आप ने शुद्ध जल रख लिया है उसे पंचपात्र कहते हैं उसमें एक छोटी चमची सी पड़ी रहती है उसके द्वारा बायें हाथ की हथेली में जल लो, मंत्र पढ़ो और उसे पान कर लो। यह मंत्र प्रत्येक देवता की उपासना में अलग-अलग है। उसे देवता के नाम व बीज को लेकर कहते हैं। जैसे ओ३म् केशवाय नमः स्वाहा आचमन कर लिया. फिर दूसरा मंत्र बोला ओ३म् नारायणाय नमः स्वाहा आचमन किया फिर तीसरा मंत्र बोला ओरम् माधवाय नमः स्वाहा और तीसरा आचमन किया। तीन आचमन के बाद ओश्म   गोविन्दाय नमः बोलकर हाथ धो लिये। इसके बाद बायें हाथ मे जल लेकर कुशा या दूर्वा से मस्तक पर जल छिड़कते हुए अपने अन्दर व बाहर को शुद्ध किया : 'ओ३म् अपवित्र: पवित्रोदा सर्वावम्यां गतोगिवा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यान्तरः शुचि. फिर आसन पर जल छिड़क कर दायें हाथ से उसका स्पर्श किया। आसन पर जल छिड़कते हुए यह मंत्र बोला "ओरम पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम ।।" मंत्र सिद्धि के बारे मे बहुत सी उपयोगी बाते आप को बताई गई है। मंत्रो द्वारा आचमन करके आसन शुद्धि करने के बाद आप मंत्र का जप करने के लिए तैयार हैं । अब यहां पर शास्त्रों में संकल्प का विधान है जिसका भावार्थ यह है कि साधक संकल्प करता है कि अमुक समय अमुक स्थान पर अमुक कार्य की सिद्धि के लिए अमुक अनुष्ठान करने का संकल्प ले रहा अपना नाम गोत्र उच्चारण करता है । जैसे भारद्वाज गोत्र उत्पन्न भगवानदास शर्मा आदि-आदि । समय के लिए आजकल अंग्रेजी तारीख, महीना, सन् का व्यवहार है । शास्त्र मे विस्तार से इसे सृष्टि के आदि से अब तक कितने कल्प मन्वंतर युग आदि व्यतीत हो गए हैं और तिथिवार नक्षत्र योग करण सभी ग्रहों की क्या स्थिति है, इसके द्वारा समय की सूचना देता हुआ जिस स्थान पर जप आदि अनुष्ठान कर रहा है उसका वर्णन करता है। जैसे पृथ्वी पर जम्बू द्वीप मे भारत खंड में अमुक अंचल अमुक नगर मे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष या किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए वह अमुक मंत्र, जप, अनुष्ठान आदि करने का संकल्प लेता है । संकल्प संस्कृत भाषा में इस प्रकार है- ओ इम् विष्णुर्विष्णुर्विष्णु ओम् नमः परमात्मने पुराण पुरुषोत्तमस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्री ब्राह्मणो द्वितीय परार्द्ध श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मनवन्तरे अष्टाविंशति समे कलियुगे प्रथम चरणे जम्बू द्वीपे भारतवर्षे भारतखण्डे आर्यावर्तान्तरगते ब्रह्मावर्तेक देशे पुण्य प्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमान सम्वत्सरे  अमुक अयने महा मांगल्यप्रदे मासानां उत्तमे अमुक, प्रसि अमुक तिथौ अमुकवासरान्वितायाम् अमुक नक्षत्रे अमुक राशि स्थिते सूर्ये अमुक राशि स्थितेषु चंद्र भौमे बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनिषु सत्सु शुभे अमुक योगे एवं गुणविशेषण विशिष्टियां अमुक शुभ पुण्य सत्सु तथ कल शास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्ति काम: अमुक गोत्रोत्पन्न अमुक शर्मा वर्मा गुप्ता अहं ममात्पन : (सपुत्र स्त्री बान्धवस्य ) श्री (देवता का नाम ) महतो ग्रहकृतराजकृत पीड़ा निवृत्तिपूर्वकनैरुज्य दीर्घायु पुष्टि धन धान्य समृद्धि सर्वापन्निवृत्ति सर्वाभीष्ट फलावाप्ति धर्मार्थ काम मोक्ष चतुर्विधि पार्थ सिद्धि द्वारा अमुक देवता प्रीत्यर्थं न्यास ध्यान सहित संकल्पित कर्म रिष्ये । इस प्रकार संकल्प करके पंचपात्र से जल लेकर किसी अन्य पात्र में  छोड़ दें। किसी भी काम को करने से पहले अपने निर्णय को स्पष्ट करने के ए देवताओं की साक्षी में समय और स्थान का विशद वर्णन करते हुए अपने. नाम, गोत्र का उच्चारण करते हुए जो प्रतिज्ञा की जाती है उसे संकल्प कहते हैं। हाथ में जल कुशा पुष्प तुलसीदल और अक्षत (चावल) लेकर संकल्प वाक्य संस्कृत या हिन्दी में बोले । इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह होता है कि आप यह कहकर कि “मैं यह कार्य करूँगा " अपने निश्चय को दृढ़ करते हैं । किसी भी काम को करने के लिए उपयुक्त मुड बनाना जरूरी होता है । मंत्र जाप के लिए भी आवश्यक वातावरण बनाने की यह आरम्भिक तैयारी है। इसके बाद शिखा बंधन करना चाहिए। आजकल चोटी रखने का तो रिवाज उठ गया है, परन्तु चोटी हमारे शरीर का एरियल है। शरीर के सबसे शीर्ष भाग में जहां परमात्मा का अंश आत्मा निवास करती है उसके मंदिर की ध्वजा है और वातावरण मे से सूक्ष्म विद्युत लहरों को पकड़ने के लिए लाई टिनिंग अरेस्टर जैसी चीज है। चोटी नहीं है, तो कुशा की एक चोटी बनाकर दाहिने कान पर रख लेनी चाहिए। उस समय यह मंत्र पढ़ते हैं : 
  • चिरूपिणी महामाये दिव्यतेज समन्विते । 
  • तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजो वृद्धि कुरुष्व में ।।
इसका भावार्थ यह है कि हे चैतन्य दिव्य स्वरूपिणी महामाया देवि, अपने दिव्य तेज के साथ मेरी शिक्षा के मध्य यानि मस्तिष्क में बैठकर मेरे तेज की वृद्धि करो । इसके बाद नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों के लिए जनेऊ पहनने का विधान है जनेऊ पहनने से कितने ही वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक लाभ हैं। कुछ पण्डितों को छोड़कर बाकी आम द्विज लोगों ने तो आजकल जनेऊ पहनना छोड़ दिया है। जो छिड़क दो । समझो आपके इष्टदेव आपके बुलाने पर आ गए हैं आपने उनका मुख, हाथ-पैर घुला दिया है स्नान करा दिया है जल से पंचामृत से । उसके बाद शरीर को पोछकर वस्त्र पहना दिये हैं। यज्ञोपवीत पहना दिया है। फिर उनके मस्तक पर तिलक लगाया है उस तिलक पर चावल लगा दिये हैं। इन सब क्रियाओं को मानसिक रूप से करते हुए आप वस्त्रं समर्पयामि, यज्ञोपवीतं समर्पयामि, गन्धं समर्पयामि अक्षत समर्पयामि कहते हुए यह सब वस्तुएं अर्पण करते जा रहे हैं। इसी प्रकार पुष्प माला, गुलाल, अबीर हल्दी आदि सुगन्धित चूर्ण, धूप, दीप, नैवेद्य आदि क्रम से अर्पण करते हैं। 'पुष्पं समर्पयामि, धूपं आध्रापयामि । फूल चढ़ाइये फूलमाला पहनाइये धूप अगरबत्ती जलाकर उसके धूम्र को इष्टदेव की ओर हाथ से ले जाइये । 'दीपं दर्शयामि' कहते हुए दीप की ओर कुछ अक्षत छोड़िए कुछ फल मिष्ठान का 'भोग लगाइये। दीपान्ते नैवेद्यम् समर्पयामि ।  यहाँ पर यदि आप थोड़ा-सा अग्नि होत्र यानि हवन भी करें तो अति उत्तम रहेगा। पक्की मिट्टी का एक छोटा सा हवन कुण्ड अम्बारी या लोहे का बना पात्र रख लो उसमें कन्डे गोबर के उपले या कीकर, खैर, आम, पीपल आदि की छोटी-छोटी लकड़ियां समिधाओं से रुई, घी, नारियल की गिरी हवन सामग्री की सहायता से ज्योति प्रज्वलित करके आहुतियां दो । अपने इष्ट मन्त्र की आहुतियां उस मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दो और उस अग्नि देवता की भी उपरोक्त प्रकार से ही षोडपोपचार या पंचोपचार पूजा करो। ठीक वृक्ष की समिधा व तकड़ियां न मिलें तो गोले की गिरी से ज्योति प्रज्वलित कर बताशे, चीनी तथा घी की आहुतियां देकर भी सक्षिप्त नित्य का हवन किया जा सकता है। इष्ट देव को तथा अग्नि देव को नैवेद्यं समर्पयामि करके आचमनं समर्पयामि करिये और पंचपात्र से जल दूसरे पात्र में डालते हुए आचमन समर्पयामि कहते हुए हाथ धुलाइये। आचमनाते ताम्बूलं पुंगीफलं सुदक्षिणां समर्पयामि कहते हुए पान सुपारी व दक्षिणा अर्पण करिए। यह सब कुछ न हो तो केवल चावल अर्पण कर दीजिए। फिर इष्ट देव की मूर्ति, चित्र मा. यंत्र की तथा ज्योति की आरती उतारिए। उस इष्ट देवता की पूरी आरती गाकर कर सके तो अति उत्तम है आरती के बाद पुष्पाजलि मन्त्र तथा समर्पण होता है। सभी देवताओं की आरतिमा आपको बाजार में मिलने वाली धार्मिक पुस्तको में मिल जायेगी । पुमाजति मन्त्र छैन यहा पर दे रहे हैं : "ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् तेहना कम्महिमान, सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्तिदेवा ।  ॐ राजाधिराजायप्र साहिने नमोवयं वैश्रवणाय कुर्महे । सने कामान्कामकामाय मह्यं ।  कामेश्वरो वैश्रवणी ददातु कुबेराय वैश्रवणाव राजाधिराजाय महाराजाय नमः ।  ॐ स्वस्ति साम्राज्य भौज्यं स्वराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्य महाराज्यं माथििपत्यमयं समन्त पर्यायी स्यात् सार्वभौम सार्वायुप जन्तादापरार्धात् पृथ्वि समुद्र पर्यान्ताया एकराडिति तदप्येष श्लोकोभिगीतोमरुतः, परिवेष्टारो मरुत्तस्या वसन्गृहे आवीक्षितश्च कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद् इति ॐ विश्व तश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्व तस्पातः । सम्बाहुभ्या 'धमति सम्पदर्याचा भूमि जनयन्दे एकः ।।” मन्त्र पुष्पांजलि समर्पयामि नमः सेवन्तिका क्कुल चम्पक पाटलाब्जैः पुन्नाग जाति करवीर रसात पुणे । विल्वप्रवाल तुलसी दल मञ्जरीभिः त्वा पूजयामि जगदीश्वर में प्रसीद । पापोह पाप कर्माह पापात्मा पाप सम्भवः त्राहि मा सर्वदा देव सर्व पाप हरा भव । " कहकर पुष्पांजलि फूल अर्पण कर दो। इतना अधिक पूजन न बन सके तो स्नान गन्ध अक्षत पुष्प धूप अगरवत्ती तथा दीपक जलाकर पंचोपचार से ही पूजन कर दे तथा आरती उतार दे । इसके बाद न्यास किया जाता है। न्यास का अर्थ अंगों में मन्त्र देवता की स्थापना करना है। मुख्य न्यास तीन प्रकार के होते हैं। ऋपिन्यास, करन्यास, और अंग न्यास। ऋषि न्यास में मन्त्र के देवता छद बीज शक्ति कीलक व ऋषि की अपने शरीर के अंगों सिर मुख, हृदय, नाभि, गुह्य भाग तथा दोनो पैरो मे स्थापना की जाती है । करन्यास में हाथ की विभिन्न उगतियों, हथेलियो और हाथ के पृष्ठभाग मे मन्त्रो का न्यास (स्थापन) किया जाता है। इसी प्रकार अगन्यास में हृदय सिर, शिखा, दोनो भुजाओ, दोनो नेत्रो और भू मध्य में मन्त्रो की स्थापना होती है। मंत्रों को चेतन व मूर्तिमान जान कर उन अंगो का नाम लेकर उन मंत्रमय देवताओ की ही वन्दना और स्पर्श किया जाता है। ऐसा करने से जप करने वाला स्वयं मंत्रमय होकर मुत्र देवताओ द्वारा सर्वथा सुरक्षित हो जाता है। उसके बाहर भीतर की शुद्धि होती है, दिव्य वल प्राप्त होता है और साधना निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण तथा परम लाभदायक होती है। न्यास करते समय पद्मासन लगाकर बैठना चाहिए। मुख्य रूप से ये तीन ही न्यांस होते हैं। न्यासो को करने के बाद ताली बजाई जाती है। 
  • ध्यान
इसके बाद इद देवता या मंत्र देवता को ध्यान किया जाता है। प्रत्येक देवता के ध्यान के श्लोक अलग-अलग है। उनमें उनके स्वरूप वर्ण कान्ति वस्त्र भूषण अलंकारो का तथा उन्होने हाथो में क्या आयुध आदि धारण किए हुए हैं इनका वर्णन होता है जिसके द्वारा इष्ट देवता का स्वरूप मानस चक्षुओ के सम्मुख उपस्थित हो जाता है। जिस देवता का मंत्र जप कर रहे हो उस देवता का श्लोक के सहारे मन में ध्यान करो। अब जैसे श्री रामचन्द्रजी के ध्यान का श्लोक निम्नलिखित है ।
  • नीलाम्बुज श्यामलकोमलांग सीतासमारोपित वाम भागं ।
  • पाणी महासायक चारुचापं नमामि राम रघुवंश नाथं ।।
 अर्थ :- 
आपका नीले कमल के समान कोमल श्याम वर्ण है। वाम भाग में श्री सीता महारानी शोभित हैं। हाथों में धनुष बाण हैं। हे रघुवंश के नाथ श्रीराम, मैं आपको नमस्कार करता हू । इसी प्रकार अन्य देवी-देवताओं के ध्यान मंत्र अलग-अलग हैं जो उनके स्तोत्रो मे दिये रहते हैं ।

माला से जप

अब आप मंत्र जप करने के लिए तैयार हैं। मंत्र जप की संख्या रखने के लिए आपके पास माला का होना आवश्यक है। माला आम तौर से १०८ मनकों की होती है। इन १०८ मनकों के अलावा एक बड़ा मनका और होता है जिते सुमेरू कहते हैं । मनको का आकार बड़ा हो तो ५४, २७, १२ मा ९. मनको की भी माताएं होती हैं। माला शंख की, कमल गट्टे की, मूंगे की, 'मणियो की, रुद्राक्ष की, स्फटिक की या तुलसी की होती है। प्रत्येक मनके के बीच मे गांठ लगी होनी चाहिए। माला को गूथने के लिए सोने, चादी, ताबे या लाल, पीले, सफेद रंग के रेशमी धागे का प्रयोग करना चाहिए। जप का प्रत्येक मनका उत्तम प्रकार गोल बिना टूटा-फूटा होना चाहिए । प्रारम्भ करने से पहले माला की पूजा करे। 
एं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । ॐ मां माले महामाये सर्व शक्ति स्वरूपिणी । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्मान्ने सिद्धिदा भव । ॐ अविछिन कुरु माले त्वं गृहणामि दक्षिणे करे । जपकालेतु सिद्धयर्थं प्रसीद भम सिंद्धये । ॐ 'अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सब मंत्रा साधिनि साधय साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय में स्वाहा' इन मंत्रों व श्लोको को पढ़कर मंत्र जप प्रारम्भ करें। मन्त्र जप को गुप्त रखने का विधान है । इसलिए दाहिने हाथ को वस्त्र के द्वारा ढक कर जप प्रारम्भ करना चाहिए। इसके लिए कपड़े की बनी गोमुखी प्रयोग मे लाई जाती है जिसके अन्दर हाथ माला डालकर जप किया जाता है। शास्त्रों में तो ऐसा कहा गया है कि यक्ष राक्षस पिशाच सिद्ध विद्याधर आदि खुली माला से जप करने पर जप का प्रभाव ग्रहण कर लेते हैं। इसका यह भी कारण हो सकता है कि खुली माला से जप करने पर आपका ध्यान जाने अनजाने सुमेरु की ओर यानि माला पूरी होने की तरफ जा सकता है। अब माता कितनी हो गई कब तक पूरी होगी आदि विचार विघ्न पैदा कर सकते हैं। प्रात:काल माला से जप करते समय माला को नाभि के पास रखकर जप करना चाहिए, मध्यान्ह काल में हृदय के समीप रखकर तथा सायंकाल में नासिका के सामने रखकर जप करना चाहिए। जप करते समय मंत्र का उच्चारण स्पष्ट एक दूसरे वर्ण का आपस मे अकारण मिश्रण न करते हुए तथा ओठो को हिलाना बन्द करके करना चाहिए। माला को मध्यमा उंगली के मध्य पर्व पर अथवा अनामिका के मध्य पर्व पर रखो और अंगूठे के पहले पर्व से एक एक मनके को एक मंत्र बोलने के पश्चात् घुमाआ व तर्जनी को इस प्रकार रखो कि वह माता का स्पर्श न करे । मालास नखों का स्पर्श भी न होना चाहिए। माला जपते समय छींक बलगम या अन्य व्यवधान आ जाए तो आचमन करे और नेत्र व दाहिने कान को जल लगाकर स्पर्श करे। मंत्र जप के बीच मे बोलना, 'बातचीत करना मना है। माता के सुभेद का उल्लघन करना भी मना है । सुभेद के पास पहुंचने पर माता के उसी मनके से घुमाकर जप करना आरम्भ करना चाहिए। क्रम बदलते समय मनके को अपने हृदय की ओर घुमायें, सामने की ओर नहीं । माता मे १०८ मनके होते हैं । १०९वां सुमेरु एक बड़ा मनका होता है। सुमेव यह बताने के लिए लगाया जाताहै कि आपकी जप संख्या १०८ हो गई यानि एक माला पूरी हो गई। सुमेरु पर जप नहीं किया जाता अतएव उसकी गिनती नहीं की जाती। जब १०८ बार मंत्र जप हो जाता है और १०८वां मनका आता है तब फिर माला को लौटकर फिर उसी मनके से ज्ञाप आरम्भ करते हैं अर्थात् १०८वां मनका ही अगली माला का पहला मनका हो जाता है। घुमाते समय उसे बाई से दाई ओर घुमाते हैं और माला की दिशा बदल देते हैं। माला का खटखटाना बार-बार सुमेरु कब आयेगा यह देखना, जप करते समय सिर या शरीर को हिलाना, ऊँघना, मांता को हाथ से गिरा देना मना है । यह जप के दोष माने गए हैं। इनसे बचना चाहिए। सुखासन से अर्थात् पद्मासन या सिद्धासन से बैठकर एकाग्रचित होकर मंत्र व उसके देवता का ध्यान चिंतन करते हुए न अधिक शीघ्रता से न बहुत मंद गति से जप करना चाहिए। मत्र के अर्थ को समझते हुए जप करने से एकाग्रता बनी रहती है। गुदा स्थान से मस्तिष्क तक रीढ़ की हड्डी के जन्दर छ: चक्र है । 
  1. मूलाधार चक्र गुदा व लिंग के मध्य में है जहां कुण्डलिनी सर्प की तरह कुण्डली मारे सोई पड़ी है । 
  2. स्वाधिष्ठान चक्र लिंग के ऊपर पेडू के पास । 
  3. मणिपुर चक्र नाभिस्थान में है । 
  4. अनाहत हृदय प्रदेश मे । 
  5. विशुद्ध चक्र कण्ठस्थत तालूमूल में 
  6. आज्ञा चक्र दोनो भो के बीच मे। 
इसमे किसी एक चक्र पर ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। अच्छा तो यही है कि यह क्रिया मूलाधार चक्र से प्रारम्भ की जाय। इसके विषय में राजयोग के पाठो में विस्तार से बताया गया है। कुण्डलिनी शक्ति फे जागृत होने से सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है। "पकर्ता को चाहिये कि वह जप करते समय प्रसन्नता का अनुभव करे जिस अनुष्ठान मे लगे हों उसके लिए अपने को पूर्ण समर्थ समझे, जप करते समय मौन रहे, अन्य के अर्थ व सामर्थ्य का चिंतन व उस पर श्रद्धा रक्से, किसी समय बेचैनी का अनुभव नहीं करे। एकाग्रता से जप करे और अपने कार्य में अनुष्ठान में जप में उत्साह बनाए रक्से। बेगार या बोझ समझ कर जप करने का कोई फल नहीं होता। मंत्र का जप करते समय मन में ऐसी भावना करनी चाहिए कि परमात्मा की शक्ति अद्भुत है, वह सबसे बड़ा है। उससे बड़ा कोई नहीं है। वह सबका कल्याण करने वाला है, इस ज साधना में यह अवश्य ही अपनी कृपा व ईश्वरी शक्ति प्रदान करेगा ऐसा ढ़ विश्वास रखना चाहिए। अहंकार, गर्व, घमण्ड, मद का भाव मन में न नावे, इष्टदेव पर पूरी तरह निर्भर रहे, तथा किसी शुभ संकल्प को लेकर अनुष्ठान करे। मन्त्र सिद्धि के लिए किए जाने वाले कर्मों को पुरश्चरण कहते हैं और इसके पांच अंग हैं।
  1. जप हवन 
  2. तर्पण 
  3. मार्जन और 
  4. ब्राह्मण भोजन । 
मन्त्र में जितने अक्षर हों उतने ही लाख की प्राय: उसकी जप संख्या होती है। उसका दसवां भाग हवन आहुति, उसका दसवां भाग तर्पण संख्या तथा उसका भी दसवां भाग मार्जन तथा उसका दसवां भाग ब्राह्मण भोजन संख्या होती है। जैसे ॐ राम रामाय नमः इसमें ॐ और नमः को छोड़कर पांच अक्षर हैं और ॐ नमः शिवाय में ॐ को छोड़ कर पांच अक्षर हैं। इन दोनों मन्त्रों को पंचाक्षरी कहते हैं । इनकी जप संख्या पांच लाख हुई हवन संख्या ५०,०००  तर्पण संख्या ५,०००  मार्जन ५०० और ब्राह्मण भोजन संख्या ५० इतने ब्राह्मण भोजन कराने की सामर्थ्य न हो तो आटे की इतनी गोलियां बनाकर मछलियों को खिलावे । गोलियां बनाते समय मन्त्र जप करता रहे और जल में गोलियां डालते समय भी एक-एक गोली एक-एक बार मन्त्र का जाप करते हुए ही डाले। हवन, तर्पण मार्जन भी निर्धारित संख्या तक नहीं कर पाये तो मछलियों को उतनी ही संख्या में गोली खिलाने से काम चल जाता है। मन्त्र जप करने से पहले जो पूजा, ध्यान न्यास आदि करने होते हैं उसकी विधि आपको बताई गई है। आप एक निश्चित संख्या में प्रतिदिन जप करे । मानतो आपको पांच लाख संख्या का जप करना है और अधिक-से-अधिक ४० दिन में अनुष्ठान पूरा करना है तो प्रतिदिन आप कम से कम १२० माला जाप करें। दशांश हवन आप नित्य भी कर सकते हैं अथवा अन्त में एक ही दिन भी कर सकते हैं। इसी प्रकार तर्पण मार्जन भी आप नित्य कर सकते अथवा अन्त में एक ही दिन भी कर सकते हैं। इसी प्रकार मछलियो को आटे की गोली बनाने या खिलाने का काम भी नित्य करें या इकट्ठा, जैसी सुविधा हो । हवन करते समय इष्ट मन्त्र के अन्त में स्वाहा लगाकर घी की या हवन सामग्री की या दोनों की आहुति दी जाती है। भी गाय भैंस का शुद्ध होना चाहिए वनस्पति नहीं और हवन सामग्री में चीनी, जौ, चादल, धूप अन्य सुगन्धित औषधियां जैसे कपूर, केसर, कस्तूरी अगर तगर साल ब श्वेत चन्दन, गोरोचन, कपूरकचरी, गुग्गल आदि सामर्थ्य के अनुसार मिलाये । कामना भेद, कर्म भेद, देवता भेद से इन सामग्रियों मे कुछ उलट फेर भी किया जाता है। सामग्री कम हो तो आहुति थोड़ी-थोड़ी दे । तर्पण करते समय किसी शुद्ध धातु के मंजे हुए पात्र मे शुद्ध जल भर ले उसमे थोड़े से पुष्प, तिल, चावल, जौ, चीनी आदि डाल लें और पहले देवताओ का तर्पण करें जैसे ब्रह्मा तृप्यन्तामि, विष्णु तृप्यन्तामि, रुद्र तृप्यन्तामि आदि आदि । इन्द्र, कुबेर, वरुण, मरुद्गण, दिक्पाल आदि देवताओं का तर्पण किया जाता है। इसके लिए बाजार मे मिलने वाली किसी तर्पण विधि की पुस्तक से प्रारम्भिक भाग में बताये गये देवताओं का तर्पण करने के बाद अपने इष्ट मन्त्र के अन्त मे तृप्यन्तामि कहते हुए, अजुलि मे जल लेकर पात्र के अन्दर ही दोनों हाथों की अंगुलियों से जल अर्पण करो। जनेऊ को माला के समान करके हाथ की अगुतियो में ले लो। बैठक उकडूं होती है यानी घुटनो के बल पर बैठा जाता है। दोनों हाथ घुटने के अन्दर रहते हैं। जनेऊ क के नीचे रहता है। केवल अंगूठे बाहर रहते हैं । तर्पण प्रातःकाल सूर्य की 'ओर मुख करके पूर्वाभिमुख होकर किया जाता है। (पितरो का तर्पण दक्षिण . दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए) मन्त्रों का तर्पण पूर्व की ओर मुख करके करते हैं । तर्पण करने के उपरान्त पात्र के जल को किसी वृक्ष की जड़ में डाल देना चाहिए। नाली में नहीं बहाना चाहिए। तर्पणोपरान्त अपने ही स्थान पर खड़े होकर एक बार घूमकर परिक्रमा करो और तर्पण किए गए जल को नेत्री तथा मस्तक आदि पर लगाओ। तर्पण करते समय हाथो की दोनों अनामिका उगलियों मे तथा शिखा में कुशा से बनी हुई गुजीठियां पहनी जाती है। कुशा सरकण्डे के पत्ते को बंटकर बनाई जाती है। सरकण्डा बी सरपता जिसकी धार बहुत पैनी होती है और हाथ चिर जाता है, खेतों की मेढ़ों पर आम उगाई जाती है और जिससे देहात मे छप्पर बनाए जाते हैं। उसके सरकण्डे के ऊपर लिपटे हुए पत्ते या छाल जैसी वस्तु को कुशा कहते हैं और कुछ हरी अवस्था मे उसको बंद कर उंगलियो आदि में पहनने योग्य बना लेते हैं। संस्कृत भाषा में इसको पवित्री कहते हैं और कोई भी पण्डित इस बारे में आपको बता देगा और उसके पास बनी हुई होगी तो दे भी देगा । मार्जन किसी पात्र में जल लेकर कुशा से पवित्री से पान के पत्ते से मन्त्र जंप करते हुए देशों दिशाओं मे अपने शरीर पर आसन पर जल के छींटे से होता है । ब्राह्मण भोजन के स्थान पर मछलियों को भोजन कराने के विषय में जौ के आटे की गोलियां बनाई जाती हैं। गोलियां बनाने के आटे को गीला लिया जाता है। कागज पर मन्त्र को लिखते हैं और उस कागज के छोटे टुकड़े को गोली के अन्दर रखते हैं। लिखने के लिए अनार की टहनी से बनाई गई कलम तथा चन्दन आदि अष्टगन्ध की स्याही प्रयोग में लाते हैं। यदि | इतना सब कुछ किया जाय तो अति उत्तम है। पतले कागज पर पहले मन्त्र को निर्धारित संख्या में लिख लो, फिर कैंची से काट कर उसके छोटे-छोटे टुकड़े बना लो और एक-एक कागज का टुकड़ा एक-एक गोली में रखते जाओ। इसके लिए पहले कागज की भी एक गोली सी बना लो । कागज की | गोली बनाने का सुभीता ने बन सके तो गोलियां बनाते समय मन्त्र का जप करते जाओ। अभिप्राय तो दोनों तरह से मन्त्र के जाप का है। इसी प्रकार दशांश हवन तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोजन आदि की पूरी व्यवस्था न हो सके तो उतनी ही संख्या में मन्त्र का जाप करना चाहिए। या कुछ संख्या मे हवन, तर्पण, भोजन आदि कर सको तो बाकी की संख्या का जाप कर देना चाहिए । यथा शक्ति दान भी करना चाहिए। साधना के अन्य आवश्यक नियम भी पूर्व अध्यायों में यथा स्थान बताए गए हैं। उनका पालन करते हुए विधि विधान से साधना करने पर मन्त्र सिद्ध होता है और अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। साधन में कोई त्रुटि रह जाने पर या कार्य की गुरुता के कारण हो सकता है कि एक बार के पुरश्चरण मे मन्त्र सिद्ध न हो तो दुबारा फिर से उसी प्रकार से पुरश्चरण करने का -विधान है, दुबारा भी न हो तो तीसरी बार करना चाहिए। तीन बार करने पर भी मन्त्र सिद्ध न हो तो भ्रामण, रोघन, वशीकरण, पीड़न, शोषण, पोषण, मिलती है। किसी दुरूह व दुष्कर कार्य के लिए अनुष्ठान किया जाय तो उतना ही अधिक परिश्रम करना पड़ता है। पूरा मन लगाकर विधि से सर्व काम किए जायें तो प्रबल इच्छा शक्ति के द्वारा शीघ्र सफलता मिलती है। किसी सिद्ध गुरु के द्वारा उनका सिद्ध मन्त्र ही मिल जाये तो कम साधना से भी शीघ्र सिद्धि प्राप्त हो जाती है। मन्त्र का जाप प्राण पर किया जाये तो भी शीघ्र फल देने वाला होता है। इसको विस्तार से तो राजयोग के बाठ में बताया गया है । जप बैठ कर ही करना चाहिए। संक्षेप में इसकी निधि यह है कि श्वास को अन्दर लेते समय श्वांस पर ही मन्त्र का जा करो । दुमातन पर बैठ जाओ । मन्त्र छोटा है तो प्रारम्भ मे श्वांस अन्दर लेते समय एक बार मन्त्र का जाप करो फिर श्वांस को रोको और मन्त्र की एक आवृत्ति करो उसके बाद श्वांस को छोड़ो और मन्त्र की एक आवृत्ति करो फिर स्वांस को रोको और एक बार मन्त्र पढ़ो। स्वांस अन्दर लेने को पूरक, अन्दर फेफड़ों मे स्वांस रोकने को कुम्भक, श्वांस बाहर निकालने को रेचक और फिर स्वांस को बाहर रोकने को भी कुम्भक कहते हैं। आरम्भ में चार सैकिण्ड में पूरक करो, सोलह सैकिण्ड सांस रोको यानी कुम्भक आठ सैकिण्ड रेचन करो वायु को बाहर निकालो। बाहर का कुम्भक चार सैकिण्ड काफी होता है। आप का इष्ट मन्त्र छोटा है तो चार सैकिण्ड में करो, उसकी एक आवृत्ति आसानी से हो जाएगी। इसलिए थोड़ा अभ्यास हो जाने पर पूरक मे एक, कुम्भक मे चार, रेचक में दो आवृत्ति हो जाती हैं। प्राण पर मन्त्र जाप बहुत जल्दी सिद्धि देता है।

टिप्पणियाँ