Nav Durga : नवरात्रि के षष्ठं मां कात्यायनी पूजा विधान और,मंत्र,Navratri Ke Shashthan Maa Katyayani Pooja Vidhaan Aur,Mantr,

Nav Durga : नवरात्रि के षष्ठं मां कात्यायनी पूजा विधान और,मंत्र,

योगेश्वरी भगवती कात्यायनी स्वयं प्रकृति, प्रकृतिदेवी, शक्ति, शक्तिमयी, संकल्परूपिणी, सर्गस्थिति प्रलयरूप संसार की अधिष्ठात्री विधात्री हैं। जिस प्रकार लौकिक पदार्थों में स्फोटादि कार्यजनिका ज्वलन आदि उनकी शक्तियां होती हैं उसी प्रकार सच्चिदानन्दा उपादान भूता माँ कात्यायनी में अलौकिक शक्ति विद्यमान है। ये विचित्र कार्य करने के कारण 'महामाया', सर्वजगत का प्रकृष्ट निधान (आश्रय) होने के कारण प्रधन और सब जगत का उपादान होने के कारण 'प्रकृति' नाम से प्रसिद्ध हैं।
कात्यायनी देवी की कृपा जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक शिक्षण कार्य तो क्या समस्त शोध तथा अन्वेषण कार्य कदापि सम्पादित नहीं होते। लेखकं, वैज्ञानिक, चिकित्सक अधिवक्ता तथा इंजीनियर आदि इनकी कृपा के बिना अपना कार्य सम्पादित नहीं कर सकते। शोध तथा शोधनकार्य इनका प्रमुख गुण है। परमात्मारूपा यह महाशक्ति स्वयं अपरिणामिनी हैं, परन्तु इन्हीं की मायाशक्ति से सारे परिणाम होते हैं, जो लोग कृष्ण की उपासना करते हैं उनके लिए कात्यायनी माता विशेष फल प्रदान करती है, क्योंकि वे स्वयं माता सुभद्रा के रूप में आकर भक्त का भोजन ग्रहण करती हैं। माता सुभद्रा का भगवान श्री कृष्ण से भाई-बहिन का सम्बंध जग जानता है। ऐसे लोग जिनकी बहिनें नहीं होतीं कुछ प्रान्तों में विशेषतः ब्रजप्रान्त के लोग माता भगवती कात्यायनी को बहिन के रूप में भी पूजते हैं। रक्षाबंधन के अवसर पर राखी भगवती कात्यायनी को अर्पण कर बहिन के रूप में माँ का ध्यान कर राखी को लेकर बंधवा लेते हैं।
Navratri Ke Shashthan Maa Katyayani Pooja Vidhaan Aur,Mantr,

भगवती कात्यायनी माता ही नहीं बहिन बनकर भी साधक का मंगल करती हैं। भगवती ने स्वयं अपने स्वरूप के प्रकट होने के सम्बंध में दुर्गासप्तमी में इस प्रकार कहा है-

नन्दगोप गृहे जाता यशोदा गर्भसंभवा । 
ततस्तौ नाशयिष्यामि विंध्याचलनिवासिनी ॥
  • अर्थात् 
"मैं नन्दगोप की पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतरित होकर विंध्याचल में जाकर रहूंगी"-इस श्लोक से पता चलता है कि ये ही योगमाया हैं।

कात्यायनी पूजनम्

भगवती कात्यायनी का पूजन करने से पूर्व आचमन, प्राणायाम, शिखाबंधन, मंगलाचरण करने के बाद लाल वस्त्र पर मसूर की दाल से कमल की आकृति बनायें उसके चारों ओर अष्टभुजाकार चावल से बनायें। (आलोक-नीली आकृति में चावल तथा लाल आकृति में मसूर की दाल सजायें ।)
  • आवाहन-
आइये माँ कात्यायनी मैं चाहूं करना आराधना । हो जाये भूल मुझसे हे शक्तिमयी क्षमा करना ।। ॐ भूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः, गौरीमावाहयामि, स्थापयामि पूजयामि च । प्रतिष्ठा-ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ समिमं दधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामो३ म्प्रतिष्ठ॥
फूलों से तेरा सजा दिया है सुंदर सिंहासन । आए विराजें कात्यायनी मन मेरा तुझको अर्पण ।। प्रतिष्ठापूर्वकम् आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि कात्यायन्यै नमः । (आसन के लिये अक्षत समर्पित करें)।
  • आसन-
नवरत्नों अरु मणियों से सिंहसन तेरा बनाया है। कात्यायनी हे प्रकृति की देवी ये भक्त अर्पण करने आया है।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥ (आसन स्थान या माँ के चरणों में पुष्प अर्पित करते हुए प्रार्थना करें-माँ भगवती कात्यायनी आप आसन ग्रहण करें।)
  • पाद्य-
गंगा आदि सब तीरथ से सुवासित जल मैं लाया हूं। पाद्यार्थ तुम्हें प्रकृति की देवी मैं अर्पण करने आया हूं।। ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायन्यै नमः। पादयो पाद्यं समर्पयामि ॥ (इस मंत्र से भगवती कात्यायनी के चरणों में जलं चढ़ाकर धोयें।)
  • अर्घ्य-
नाना अक्षत अरु पुष्यों से मनमोहक वासित जल है ये। हे विन्ध्यवासिनी कात्यायनी अर्पण करता हूं जल है ये।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। हस्तयोः अर्घ्यं समर्पयामि ॥
  • आचमन-
कंपूर सुवासित उत्तम जल देवी पान करो तुम पान करो। सर्व शक्तिमयी प्रकृति देवी कल्याण करो कल्याण करो।। ॐ भगवत्यै कात्यायन्यै नमः। आचमनं समर्पयामि ॥ (कर्पूर से सुवासित जल से भगवती को आचमन करायें।)
  • स्नान-
मन्दाकिनी का उत्तम जल सब पापहारी गंगाजल है। कात्यायनी हे प्रकृतिस्वरूपा अर्पण तुमको उत्तम जल है।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। स्नानार्थं जलं समर्पयामि ॥ (भगवती कात्यायनी को सुवासित जल से स्नान करायें।)
स्नानाङ्ग-आचमन-स्नानान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल दें।)
  • पञ्चामृत स्नान-
दूध, दही, घी, बूरा, शहद से युक्त मिश्रण से भगवती कात्यायनी को स्नान करायें।

शक्कर मधु को समन्वित कर दूध दधि भी मिलाया है। 
कात्यायनी तुम्हें समर्पण को मधुर मधु भी मिलाया है।।

श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि। (इस मंत्र से माँ कात्यायनी को पंचामृत स्नान करायें।)
(आलोक-भगवती कात्यायनी को अलग-अलग अमृतों से भी स्नान कराया जाता है। प्रत्येक अमृत के बाद जल से स्नान कराना चाहिए-
  • दुग्ध स्नान- 
गैया के स्तन से निकल-निकल, यह दूध बना उज्ज्वल-उज्ज्वल ।। कात्यायनी तेरे इन चरणों से, बहता है तेरे हर पल-हर पल।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। दुग्धस्नानं समर्पयामि।। (गोदुग्ध से स्नान करायें ।)
  • दही स्नान-
धेनू के कोमल अंगों से सुमनोहर दुग्ध रस पाया है। शशिप्रभा की कांति पाकर दधि रूप में इसको पाया है। अब दधि समर्पित करता हूं। हे कात्यायनी मुझे वर दीजै। पूरन होवें कारज मेरे दयादृष्टि मुझ पर कीजै ।। श्री जगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। दधिस्नानं समर्पयामि ॥ (गोदही से स्नान करायें ।)
  • घृत स्नान-
सर्व संतोषों कारक पुनीत बना सुनवनीतम्। कात्यायनी घृतस्नान करें ध्यान धरें हम सुपुनीतम् ।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः । घृतस्नानं समर्पयामि ॥ (गोघृत से स्नान करायें ।)
  • मधु स्नान-
सर्वोषधि गुण उत्पन्ना सुस्वाद बना है मधुर मधु । तेज पुष्टि कारक है कात्यायनी अर्पित है मधुर मधु ।। ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायनीदेव्यै नमः । मधुस्नानं समर्पयामि। (मधु से स्नान करायें।) 
  • शर्करा स्नान-
जड़मूल रसगर्भित इक्षु से मधुर शर्करा का निर्माण किया। मलापहारी दिव्यस्नान को अर्पित कर तव सम्मान किया।। ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायन्यै नमः। शर्करास्नानं समर्पयामि।
  • गंधोदक स्नान-
मलयाचल में ठंडे झोकों बिच चंदन का प्रादुर्भाव होता है। उस चंदन को गंधोदक कर देवी स्नान समर्पण होता है।।
श्रीजगदम्बायै कात्यान्यै नमः । गन्धोदकस्नानं समर्पयामि ॥ (मलयचन्दन और अगरु से मिश्रित जल चढ़ायें ।)
श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ॥ (शुद्ध जल से स्नान करायें।)
  • आचमन-
शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल दें।)
धारण कीजै कञ्चुकी सारी। अरज सुनो जगदम्ब हमारी ।। तुम्हीं बिराजी जब कैलासा। पीर हरो पीड़ा कर नासा ।।
  • वस्त्र-
श्रीजगदम्बायै कात्यायनीदेव्यै नमः। वस्त्रोपवस्त्रं कञ्चुकीयं च दें।) समर्पयामि।। (धौतवस्त्र, उपवस्त्र और कञ्चुकी निवेदित करें।) वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल
  • सौभग्यसूत्र- 
सौभाग्य सूत्र स्वर्ण से मंडित कण्ठ में तेरे धारण हो। स्वर्ण छटा-सी मणियां इसे सौभाग्य बने
यह कारण हो।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। सौभाग्यसूत्रं समर्पयामि ॥ (सौभाग्यसूत्र चढ़ायें ।)
  • चंदन- 
दिव्य मनोहर गुणकारी अर्पित करता इस चंदन को। कात्यायनी प्रकृति देवी यह भक्त खड़ा तब वंदन को ।। श्री जगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। चन्दनं समर्पयामि ॥ (मलयचन्दन लगायें ।)
  • कुमकुम-
कुमकुम अनंग का दिव्य रूप कामिनी रति का कारक है। कुमकुम से चित्त बने कुमकुम लिये हुआ ये उपासक है।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। कुङ्कुमं समर्पयामि।। (कुमकुम चढ़ायें ।)
  • हरिद्रा चूर्ण- 
सुख-सौभाग्य पाने को माते हल्दी चूरन लाया हूं। ग्रहण करो हे देवेशि! मैं अर्पित करने आया हूं।। श्रीजगदम्बायै कात्यायन्यै नमः। हरिद्रां समर्पयामि। (हल्दी का चूर्ण चढ़ायें ।)
  • सिन्दूर-
है श्वेत लाल गुलाल से युत मिश्रित इसमें हल्दी सिंदूर बिंदू हो कात्यायनी अब अर्पण करने की जल्दी है। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै श्रीकात्यायनीदेव्यै नमः । सौभाग्यपरिमल- द्रव्याणि समर्पयामि। (इससे कात्यायनी देवी के लिए सौभाग्य द्रव्य तथा सिंदूर- चढ़ाएं।)
  • काजल-
चम्पक कर्पूर अरु चंदन की कालिख संग्रह से बना काजल नेत्रों को अर्पण करूं प्रकृति देवी स्वीकार करो मेरा काजल ।। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै श्रीकात्यायनीदेव्यै नमः। अक्षिभ्यां कज्जलं समर्पयामि। (इससे कात्यायनी देवी के लिए काजल अर्पण करें।)
  • दूर्वाकुर- 
दूर्वा के अंकुर संग्रहीत कर मैं मंगल कामना करता हूं।
प्रकृति की दूर्वा प्रकृति को आज समर्पित करता हूं।। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै श्रीकात्यायन्यै नमः। दूर्वांकुरान् समर्पयामि ॥
  • विल्व पत्र-
स्वच्छ साफ तीन दलों युत विल्वपत्र समर्पित करता हूं। त्रिजन्मों का पाप हरो देवी विनय भाव अर्पित करता हूं।। ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायन्यै नमः। विल्वपत्रं समर्पयामि। (विल्वपत्र के सामने की ओर बायें से दायें क्रमशः 'ॐ ऐं' 'ॐ ह्रीं', 'ॐ क्लीं' चन्दन से अनार की कलम से लिखकर उपरोक्त मंत्र से विल्वपत्र अर्पण करें।)
  • आभूषण-
कंकड़ केपूर मेखला कुंडल नूपुर हारों से, हीरक मानिक स्वर्ण रजत सब नवरत्नों के फुहारों से। भूषण बनाकर इन नवरत्नों से स्वर्णादि खनिजों से। आज समर्पित हो हे प्रकृति देवी समलंकृत जाओ रत्नों से ।। (इस मंत्र से समस्त आभूषण पहनाएं।)
नीचे कुछ आभूषणों के मंत्र दिए गए हैं उन उनका तत्सम्बंधी मंत्र को उच्चारण करके भी आभूषण धारण करा सकते हैं-
  • कंकण-
माणिक्य मुक्ता मणिखंड से युत, स्वर्णकार ने नै सं संस्कार कर बनाया है। ये कंगन स्वर्ण शिला से मंडित कात्यायनी भक्त तुम्हारा लाया है।। ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायनीदेव्यै नमः । हस्तयोः कङ्कणे समर्पयामि। (इस मंत्र से कंगन या चूड़ी अर्पित करें।)
  • कर्णाभूषण-
कर्णफूल स्वर्ण से मंडित कात्यायनी तुम्हारे कर्णों में। नमन करें स्वीकार हे देवी अब भक्त तुम्हारे चरणों में।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै कात्यायनीदेव्यै नमः। कर्णयोः कुण्डले समर्पयामि। (इस मंत्र से कुण्डल अर्पित करें।)
  • हार-
मणि-मुक्ता से बना हुआ अब समर्पण कण्ठाभूषण। ग्रैवेयक नाम इसका पावन धारण करो देवी आभूषण ।। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत् कात्यायनीदेव्यै नमः। कण्ठे ग्रैवेयकं समर्पयामि। (इस मंत्र से हार गले में पहनायें।)
  • अनुद-
जानु तक जाने वाली भुजाओं में स्वर्णांगुद समर्पण करता हूं। मेरी बाहु में हो शक्ति वर्षा जगदम्बा नमन अब करता हूं।। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै कात्यायन्यै नमः बाह्वोः अंगदे समर्पयामि। (इस मंत्र से बांह का आभूषण (बाजूबंद) अर्पण करें।)
  • मुकुट-
ॐ भूर्भुवः स्वः पर मुकुट पहनायें ।) कात्यायनीदेव्यै नमः। शिरसि मुकुटं समर्पयामि। (सिर
  • पादुकार्पण-
हरितमणि प्रवाल मुक्ता से सुंदर शोभित मुकुट बनाकर । प्रकृति की तुम हो देवी धारण करो यहां आकर ।।
जिन चरणों में आकर सुरेश उपासना करते हैं। लक्ष्मी जनक ये सप्तसिन्धु नित अराधना करते हैं। उसी कात्यायनी माँ देवी को पादुका समर्पित करता हूं। प्रभव हुए चराचर जिससे मैं नमन समर्पित करता हूं।। ॐ भूर्भुव स्वः भगवत्यै कात्यायन्यै नमः। चरणयोः पादुके समर्पयामि ॥ (भगवती को पादुका अर्पण करें।)
  • पुष्पमाला-
नाना वर्णों और रूप-रंगों के ये फूल तुम्हें समर्पित करते हैं। ये मन की बगिया महके हर दिन बस यही अरज हम करते हैं।
ॐ भूर्भुवः स्वः कात्यायनीदेव्यै नमः। पुष्पमाला समर्पयामि। (भगवती कात्यायनी को लाल पुष्प अर्पित करें।)
  • दीप-
महातेज का साक्षी तेज यह दीप समर्पित है दर तेरे । अंतः बाहर दीप जले हो मन उज्ज्वल अंदर मेरे ।। (माँ भगवती कात्यायनी देवी की आरती के सामने पुष्प चढायें ।)
  • धूपबत्ती-
प्रकृति की उत्तम औषधि से धूप बनी है गुणकारी।
धूम्र सुवासित ग्रहण करो हे कात्यायनी तुम कल्याणकारी ।। 
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै कात्यायनीदेव्यै नमः। धूपम् आघ्रापयामि।। (इस मंत्र को बोलते हुए एक बार मुंह की ओर, दो बार हृदय पर, चार बार मुखमण्डल पर, एक-एक बार दोनों भुजाओं पर तथा फिर समस्त अंगों पर धूपबत्ती से आरती उतारें ।)
  • धूप-
गौसा या गौगोवर के उपले को अग्नि से प्रज्जवलित करके लौंग का जोड़ा निम्न मंत्र से घी में भिगोकर अग्नि को समर्पित करें। एतत् ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। पातुः नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
  • नैवेद्य-
ॐ क्राँ क्राँ कात्यायन्यै क्रौं क्रौं फट् ।
मधुर लवणादि सब स्वादों युत 
भोजन की थाली लाकर लाया हूं। 
कात्यायनी हे प्रकृति देवी! 
ग्रहण करो यही कामना लाया हूं।। 
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै कात्यायनीदेव्यै नमः। नैवेद्यं फलं च समर्पयामि। (इस मंत्र से नैवेद्य और फलं निवेदन करें। तत्पश्चात् आचमन करायें ।)
  • ताम्बूल-
भोजन सुपाचित होता जिससे 
ताम्बूल का बीड़ा ग्रहण करो। 
कर्म सुपाच्य बनें मेरे 
बस यही है कामना शरण धरो ।। 
ॐ भूर्भुवः स्वः महादेव्यै कात्यायन्यै नमः। मुखबासार्थ एला- लवंगादिमिर्युतं ताम्बूलं समर्पयामि । (इस मंत्र से भगवती कात्यायनी को पान का बीड़ा अर्पण करें।)
  • पूंगीफल-
पूंगीफल भक्षण करने को मानव रह-रह कर यत्न करे।
 ठीक उसी तरह अगुण मेरे मेरा मन अहर्निश यत्न करे। 
अवगुण हो दूर मन से मेरे अब गुणों का मन में संचारण हो। 
प्रदान पूंगीफल की यही कामना ज्ञान ज्योति का मन में आवरण हो ।। 
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै कात्यायन्यै नमः। पूंगीफलं समर्पयामि। (इस से देवी कात्यायनी के लिये पूंगीफल (सुपारी) चढ़ायें ।)
मंत्र कात्यायनी के रूप में षष्ठ कन्या का पूजन-कात्यायनी के रूप में षष्ठ नवरात्र को या नवरात्र की अन्तिम तिथि को छठी कन्या के रूप में 'सुभद्रा' का पूजन किया जाता है। 'सुभद्रा' के लिए दस की कन्या का पूजन व भोज्य पदार्थ निम्न मंत्र से अर्पित करें-
  • ध्यान- 
अरुणकमल संस्था तद्रजः पुंजवर्णा, करकमल धूतेष्ठा भीतियुग्माम्बुजाता । मणिमुकुट विचित्राऽलंकृता कल्पजालै, सकल भुवन माता संततः श्रीः श्रियै नः ॥
  • स्तोत्र-1 :
सुन्दरी स्वर्णवर्णाभां सुख-सौभाग्यदायिनीम्। 
सुभद्रजननीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम्॥
ॐ क्षमस्व भगवत्यम्ब क्षमाशीले परात्परे। 
शुद्ध सत्व स्वरूपे च कोपादि परिवर्जित।।॥ 
उपमे सर्वसाध्वीनां देवीनां देवपूजिते। 
त्वया बिना जगतसर्व मृत्युतुल्यं च निष्फलम्॥ 
सर्व संपत् स्वरूपा त्वं सर्वेषां सर्वरूपिणी। 
रासैश्वर्याधि देवि त्वं त्वत्कलाः सर्वयोषितः ॥ 
कैलासे पार्वती त्वं च क्षीरोदे सिन्धु कन्यका। 
स्वर्गे च त्वं महालक्ष्मीर्मत्यं लक्ष्मीश्च भूतले ॥ 
हालक्ष्मा बैंकुठे च महालक्ष्मी देवदेवी सरस्वती । 
गंगा च तुलसी त्वं च सावित्री ब्रह्मलोकतः ॥ 
कृष्णप्राणाधिदेवि त्वं गोलोके राधिका स्वयम्। 
रासे रासेश्वरी त्वं च वृन्दावन वने वने॥ 
कृष्णप्रिया त्वं भाण्डीरे चन्द्रा चंदनकानने । 
विरजा चंपक वने शैलश्रृंगे च सुंदरी॥ 
पद्‌मावती पद्मवने माली माल्ती वने। 
कुंददन्ती कुंदवने सुशीला केतकीवने॥ 
कदंबमाला त्वं देवो कदंब काननेऽपि च। 
राजलक्ष्मी राजगेहे गृहलक्ष्मी गृहे गृहे॥ 
ॐ श्रीं श्रियै नमः ॥
इस स्तोत्र को ग्यारह या इक्कीस बार पढ़कर निम्न मंत्र का एक  करना चाहिए-
  • मंत्र- 
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्‌मी रूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
  • स्तोत्र-2 :
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरी। 
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे
अरुण कमल संस्था तद्रजः पुंजवर्णा । 
करकमल धृतेष्टा भीतियुग्माम्बु जाता ॥
 मणिमुकुट विचित्रऽलंकृता कल्पजालैः । 
सकल भुवन माता सन्ततः श्रीं श्रियै मः॥
 क्षमस्यत्व भगवत्यम्ब क्षमाशीले परात्परे ।
शुद्ध सत्यस्वरूपे च कोपादि परिवर्जिते ॥
उपमे सर्व साध्वीनां देवीनां देवपूजिते।
त्वया बिना जगत् सर्वं मृततुल्य च निष्फलम्॥
सर्वसम्पत स्वरूपा त्वं सर्वेषां सर्वरूपिणी।
रासैश्वर्यऽधिदेवि त्वं त्वत्कला सर्वयोषितः ॥
अक्षस्त्रक् परशुं गदेषु कुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां ।
 दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्॥ 
शूलं पाशं सुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां । 
सेवे सौरिभिमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥ 
त्रैलोक्यपूजिते देवि कमले विष्णुवल्लभे । 
यथा त्वं सुस्थिरा कृष्णे तथा भवमयि स्थिरा ॥ 
ईश्वरी कमला लक्ष्मीश्चला भूतिर्हरिप्रिया। 
पद्मा पद्मालया संपदुच्यै श्री पद्माधरिणी॥

कात्यायनीं अर्थात् लक्ष्मी चालीसा

  • ॥ दोहा ॥
मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। 
मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु मेरी आस ॥
  • ॥ सोरठा ॥
यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करूं। 
सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका ॥
  • ॥ चौपाइयां ॥
सिंधु सुता मैं सुमिरौँ तोही। ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोही॥ 
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदंबा। सबकी तुम ही हो अवलंबा ॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी ॥
जगजननी जय सिंधु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवाँ नित्य तुमहिं महरानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी ॥
ज्ञान बुद्धि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता ॥
क्षीरसिंधु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिंधु में पायो ॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी । सेवा कियो प्रभू बनि दासी ॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रूप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनायौँ तोहि अंतर्यामी। विश्वविदित त्रिभुवन के स्वामी ॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहिं आनी। कहं लौ महिमा कहाँ बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मन लाई॥
और हाल मैं कहाँ बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताकौ कोई कष्ट न होई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि । त्रिविध ताप भव बंधन हारिणि ॥
जो चालीसा पढ़ें पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै । पुत्र आदि धन संपत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपत्ति हीना। अंध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करें गौरीसा॥
सुख संपत्ति बहुत-सी बहुत-सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै ॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा ॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई।
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा॥
जय जय लक्ष्मी भवानी। सबमें व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहीं ॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै ॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दीजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रूप चतुर्भुज करके धारण कष्ट मोर अब करहु निवारण।॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान मोहि नहिं अधिकाई॥
  • ॥ दोहे ॥
त्राहि त्राहि दुःखहारिणी, हरो वेगि सब त्रास। 
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नास॥ 
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। 
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
  • कात्यायनी माँ की आरती
जगजननी जय! जय !! (मा! जगजननी जय! जय !!) 
भयहारिणि, भवतारिणि भवभामिनि जय! जय !! जग 
तू ही सत-चित सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा। 
सत्य सनातन सुन्दर पर शिव सुर-भूपा ॥1॥ जग !
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी। 
अमल अनन्त अगोचर अज आनन्दराशी ॥2॥ जग!
अविकारी अघहारी, अवल, कलाधारी। कर्त्ता विधि, 
भर्त्ता हरि हर संहारकारी ॥3॥ जग० 
तू विधिवधू, रमा तू, तू उमा, महामाया। 
मूलप्रकृति विद्या तू, तू जननी, जाया ॥4॥
जग राम, कृष्ण तू, सीता, व्रजरानी राधा। 
तू वांछा-कल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा ॥5॥ जग 
दश विद्या, नवदुर्गा नाना शस्त्रकरा। 
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा ॥6॥ 
जग तू परधाम-निवासिनि, महाविलासिनि तू। 
तू ही श्मशान-विहारिणि, ताण्डव-लासिनि तू॥7॥ 
जग सुर-मुनि-मोहिनि सौम्या तू शोभाऽऽधारा। 
विवसन विकट-स्वरूपा, प्रलयमयी धारा ॥8॥ 
जग तू ही स्नेहसुधामयि, तू अति गरलमना । 
रत्नविभूषित तू ही तू ही अस्थि-तना॥9॥ 
जग मूलाधार-निवासिनि, इह पर सिद्धिप्रदे। 
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥10॥ 
जग शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी । 
भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले ! वेदत्रयी ॥11॥ 
जग हुम अति दीनदुःखी माँ! विपत-जाल घेरे। 
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे ॥12॥ 
जग निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयि ! चरण-शरण दीजै ॥13॥जग
  • मंत्र प्रकरण-
नवरात्र की षष्ठी तिथि में विभिन्न प्रकार के मंत्र फलदायी होते हैं। षष्ठी माता कात्यायनी लक्ष्मी के कुछ अनुभूत मंत्र और स्तोत्र दिए जा रहे हैं। गुरुदीक्षा लेकर जपादि कर जीवन सुखमय बनायें।
सद्यः-लक्ष्मी-प्राप्ति हेतु धनदालक्ष्मी स्तोत्र पाठ-सद्यःलक्ष्मी प्राप्ति के लिए यह स्तोत्र महत्वपूर्ण है। इस दिन (नवरात्र की षष्ठी से आरंभ कर प्रत्येक षष्ठी को 21, 31, 51 या 100 पाठ करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
धनदे धनदे देवि, दानशीले दयाकरे । 
त्वं प्रसीद महेशानि यदर्थं प्रार्थयाम्यहम्॥ 
धरामरप्रिये पुण्ये, धन्ये धनद-पूजिते। 
सुधनं धार्मिकं देहि, यजमानाय सत्वरम्॥ 
रम्यै रुद्रप्रिये पर्णे, रमारूपे रतिप्रिये। 
शिखासख्यमनोमूर्ते! प्रसीद प्रणते मयि ॥ 
आरक्त चरणाम्भोजे, सिद्धि-सर्वार्थदायिनी। 
दिव्याम्बरधरे दिव्ये, दिव्यमाल्यानुशोभिते ॥ 
समस्तगुणसंपन्ने, सर्वलक्षण-लक्षिते। 
शरच्चन्द्रमुखे नीले, नीलनीरद लोचने॥ 
चंचरीक-चमू-चारु-श्रीहार-कुटिलालके । 
दिव्यै दिव्यकरे श्रीदे, कलकण्ठरवामृते ॥ 
हासावलोकनैर्दिव्यैर्भक्ता चिन्तापहारके। 
रूप-लावण्य-तारुण्य-कारुण्यगुणंभाजने ॥ 
क्वणत्-कंकण-मंजीरे, रस-लीलाऽऽकराम्बुजे । 
रुद्रव्यक्त-महत्तत्वे, धर्मांधारे धरालये॥ 
प्रयच्छ यजमानाय, धनं धर्मेक साधनम्। 
मातस्त्वंऽवा विलम्बेन, ददस्व जगदम्बिके॥ 
कृपाब्धे करुणागारे, प्रार्थये चाशु सिद्धये। 
वसुधे वसुधारूपे, वसु-वासव-वन्दिते ॥ 
प्रार्थिने च धनं देहि, वरदे वरदा भव। 
ब्रह्मणा ब्राह्मणैः पूज्या, त्वया च शंकरो यथा॥ 
श्रीकरे शंकरे श्रीदे! प्रसीद मयि किंकरे। 
स्तोत्रं दारिद्र्य-कष्टार्त-शमनं सुधन-प्रदम्॥ 
पार्वतीश-प्रसादेन-सुरेश किंकरे स्थितम्। 
मह्यं प्रयच्छ मातस्त्वं त्वामहं शरणं गतः ॥
  • विधान
पूर्व संकल्प के अनुसार निश्चित अवधि तक पाठ-साधना पूरी कर चुकने के बाद 'ॐ श्रियै नमः' मंत्र के द्वारा 108 आहुतियां देकर हवन करना चाहिए। हवन के बाद सामर्थ्यानुसार 1, 3, 5, या 7 ब्राह्मण-कन्याओं को श्रद्धापूर्वक भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए। इस प्रकार की गई लक्ष्मी-साधना के प्रभाव से साधक अर्थ-संकट से मुक्त होकर समृद्धि और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।
आपत्ति उद्धारक मंत्र-शरणागत-दीनार्त-परित्राण परायण!।
सर्वस्यार्ति हरे देवि! नारायणि! नमोऽस्तुते॥

इस मंत्र को मात्र 21 बार बोल देने से छोटी-मोटी आपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और मंगलमय सुख की प्राप्ति होती है। चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी से आरम्भ कर प्रत्येक षष्ठी को कम-से-कम 11 माला जप करने से पूरे वर्ष सुख तथा मंगलकारी शगुन होते रहते हैं।
  • कार्यबाधा निवारण मंत्र-
किसी चौकी पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर गणेश यंत्र स्थापित कर पूजन करें। निम्न मंत्र का सवा लाख जप करें- ॐ गं गणपतये नमः ।
जप पूर्ण होने पर यंत्र को अपने पूजाघर या व्यापारिक प्रतिष्ठान में स्थापित करें। नौकरी हेतु इन्टरव्यू में सफलता प्राप्ति हेतु-
स्फटिक की माला से 'प्रतिदिन 108 बार नीचे लिखे मंत्र का पाठ करें-'ॐ ह्रीं वाग्वादिनी भगवती मम कार्यसिद्धि करि-करि स्वाहा।'
उपरोक्त मंत्र का पाठ नौ दिन तक करें।
  • सोभाग्यवर्धक मंत्र-
नवरात्रि में षष्ठी तिथि को अथवा नवरात्र के किसी सोमवार के दिन एक डिब्बी में सिन्दूर भरकर रखें। उसके ऊपर सौभाग्य कवच रखकर धूप, दीप आदि से पूजन करें। यह क्रिया नवमी तक करें और निम्न मंत्र का पाठ करें-
ॐ ह्रीं भहादेवताय महायक्षिण्यै मम अखण्ड सौभाग्यं देहि देहि नमः ।उपरोक्त मंत्र को एक माला प्रतिदिन कर नवमी को सिंदूर सहेजकर रखें। आप अखण्ड सौभाग्वती रहेंगी।
  • सौभाग्य वशीकरण मंत्र-
सियारसिंगी को किसी पात्र में रखकर उसके पास सिन्दूर बिछायें फिर तेल का दीपक जलाकर मंत्र का 108 पाठ करें। जहां 'अमुकं' शब्द लिखा है वहां पति/प्रेमी का नाम उच्चारण करें। मंत्र सिद्ध होने के बाद बिछा हुआ सिंदूर पति के कपड़े में लगायें। आपका पति. आपके वश में रहेगा। मंत्र इस प्रकार है-
ॐ ह्रीं भोगप्रदा भैरवी मातंगी, अमुकं वशमानाय स्वाहा। विवाह बाधा से मुक्ति-किसी कारणवश आपका विवाह नहीं हो रहा है, तो नीचे लिखे मंत्र को सिद्ध करें। शीघ्र ही आपकी मनचाही कन्या से आपका विवाह सम्पन्न होंगा-



पत्नी मनोरंमा देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्॥
कात्यायनी यंत्र स्थापित करके मंत्र सिद्ध करें।
व्यापारिक मंत्र-कमलगट्टे की माला से स्थापित कुबेर यंत्र के सम्मुख बैठकर मंत्र पाठ करें। मंत्र इस प्रकार है-
ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन-धान्यादियते धन-धान्य समृद्धिं मे देहि प्रदाय स्वाहा।
कामशक्तिवर्धक मंत्र-षष्ठी के दिन एक थाली में अष्टगंध से अपना नाम, पिता का नाम, गोत्र आदि लिखकर रक्तवर्ण पुष्प का आसन लगाकर पूर्णिमा तक प्रतिदिन 51 माला का जप करें। मंत्र इस प्रकार है-
ॐ श्रीं अनंगाय ह्रीं नमः ॥ जप पूर्ण होने पर स्थापित काम यंत्र को जमीन में दवा दें।
  • धनवृद्धि प्रयोग-
तीन मोती शंख, 4 गोमती चक्र, 3 हकीक पत्थर एवम् एक तांबे के सिक्के को विधिवत् पूजन करके स्थापित करके मंत्र पाठ करें- नमो देवि भगवते त्रिलोचनं त्रिपुरं देवि । अंजलीम् में कल्याणं कुरु कुरु स्वाहा। निरन्तर नवरात्र में नी दिन तक पाठ करें, तत्पश्चात् दशमी के दिन समस्त वस्तुएं लाल रंग के वस्त्र में बांधकर संदूक में रख दें। 
  • यौवन प्रदायक साधना-
पूर्ण स्वस्थ एवम् सौन्दर्य-प्राप्ति के लिए काम यंत्र स्थापित करके 108 दिन तक जाप करें। अशुद्धि होने पर 5 दिन तक यंत्र पूजा एवम् पाठ न करें- ॐ पाठ पूर्ण करके यंत्र को मिट्टी में दबा दें।
श्री अनंगाय ह्रीं नमः ॥

कात्यायनी के वाहन का रहस्य

नौ शक्तियों में नारसिंही या कात्यायनी पष्ठ शक्ति हैं। नृसिंह स्वरूप ज्ञान को कहते हैं क्योंकि आत्मस्वरूप विषयक ज्ञान के उदय होने से ही मनुष्य श्रेष्ठत्व लाभ करता है। 'नृ' शब्द का अर्थ है मनुष्य एवं 'सिंह' श्रेष्ठार्थवाचक है, इस कारण नृसिंह स्वरूप ज्ञान को कहा जाता है। यही हिरण्यकशिपु को मारता है। 'हिरण्य' का शब्दार्थ आत्मा है। जो हिरण्य यानी निर्विकल्प परमात्मा को काशित अर्थात् विषयाभिमान रूप से प्रकटित करे वही हिरण्यकशिपु है। इस असुर को एकमात्र आत्मस्वरूपविषयक यथार्थ ज्ञान ही विनष्ट कर सकता है। इसी नृसिंह की शक्ति को नारसिंही कहते हैं। ब्रह्मविद्या ही नारसिंही शक्ति है, इसी के प्रभाव से जीव नृसिंह ह अर्थात अर्थात् स्वात्मविषयक यथार्थ ज्ञानवान् होता है। यह भी किसी आधर पर प्रकाशित नहीं होती, इस कारण वाहन-विहीन हैं अथवा केवल ज्ञान से मुक्ति लाभ नहीं होता, किन्तु ज्ञान एवं कर्म-इन दोनों ही से मोक्ष लाभ होता है।

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