नवरात्रि के पञ्चमं भगवती स्कन्दमाता सरस्वती के दिन पूजा कैसे करें-Navratri Ke Panchaman Bhagavatee Skandamaata Sarasvatee Ke Din Pooja Kaise Karen
नवरात्रि के पञ्चमं भगवती स्कन्दमाता सरस्वती के दिन पूजा कैसे करें-मन्त्र जानिए
भगवती स्कन्द माता सरस्वती
ज्ञान, बुद्धि प्रतिभा, स्मरण-शक्ति, चेतना, विवेक, सात्विकता, औचित्य बोध, वाणी, भाषण-शक्ति, संगीत, स्वर, विद्या, प्रत्युत्पन्नमतित्व, लेखन, काव्य, सृजन, तर्कशक्ति, धारणाशक्ति, विचारशक्ति, अनुसंधान क्षमता, कल्पना और संवेदना जैसे गुणों की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की शक्ति (पत्नी) माना गया है। वस्तुतः ये संसार की चेतना शक्ति की स्वामिनी हैं, यही स्कन्दमाता हैं। स्कन्दमाता अर्थात् सरस्वती सदैव अपने चरणों में महामूर्ख, विवेकहीन, समाज से तिरस्कृत मनुष्यों को स्थान देती हैं। मैया के चरणों में जो प्राणी एक बार भक्तिपूर्वक अपना मस्तक रख दे उसे दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। स्कन्दमाता की कृपादृष्टि से महामूढ़ कालिदास महाज्ञानी कहलाये। उन्होंने कुमार सम्भवम्, मेघदूतम् तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम् जैसे ग्रन्थों की रचना की।
Navratri Ke Panchaman Bhagavatee Skandamaata Sarasvatee Ke Din Pooja Kaise Karen |
कालिदास जी के सम्बन्ध में कथा है कि वे वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे उसी डाली (शाखा) को कुल्हाड़े से काट रहे थे। उनके कार्य को देखकर विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ में हारकर निराश लौट रहे पंडितों ने अपने मन में विचार किया कि इससे बड़ा मूर्ख सम्पूर्ण सृष्टि में कोई अन्य नहीं होगा। शास्त्रार्थ में विद्योत्तमा से हारकर तिरस्कृत होने के कारण वे पंडित स्वयं को अपमानित हुआ समझ रहे थे। विद्योत्तमा अतीव सुन्दरी थी और उसने प्रण किया था कि जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा उसी से विवाह करूंगी।
दूर-दूर से ज्ञानी विद्वान उससे शास्त्रार्थ करने आये किन्तु उसके ज्ञान के कारण लज्जा को प्राप्त हुए। लज्जाभिभूत होकर उन्होंने परस्पर विचार किया, किसी प्रकार इस अभिमानी विद्योत्तमा का विवाह किसी महामूर्ख से करा दिया जाये जिससे यह जीवन भर दुःखी रहे।
उन पण्डितों ने पेड़ की डाल काट रहे कालिदास को नीचे बुलाया और अच्छे वस्त्र पहनाकर राजसभा में ले गये। जहां विद्योत्तमा आकर शास्त्रार्थ करती थी। पंडितों ने मार्ग में ही कालिदास को भली प्रकार समझा दिया था कि विद्योत्तमा कुछ भी पूछे, कोई भी प्रश्न करे तुम मुंह बंद रखना अर्थात् तुम्हें कुछ नहीं तोलना है। तत्पश्चात् जब शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ तो पण्डितों ने राजसभा कालिदास का परिचय अपने गुरुजी के रूप में कराया तथा बताया कि उन्होंने मौन धारण कर रखा है। अतः तुम जो भी प्रश्न करना चाहती हो सांकेतिक भाषा में पूछ सकती हैं। यह जानकर कि सम्मुख बैठा विद्वान मौन धारण किए हुए है तो विद्योत्तमा ने एक उंगली उठाई। उसे क्या मालूम था कि सामने बैठा व्यक्ति महामूर्ख है। कालिदास ने अपनी ओर विद्योत्तमा की उंगली उठी देखकर मन में विचार किया कि यह मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है। तब उन्होंने अपनी दो उंगलियों को उठाते हुए मूक भाषा में संकेत भाषा में कहा-तू मेरी एक आंख फोड़ेगी तो मैं तेरी दोनों फोड़ दूंगा। जिसका अर्थ पण्डितों ने समझाया- "हे राजकुमारी ! आपने एक अंगुली उठाकर यह कहा कि ईश्वर एक है जिसका उत्तर गुरुदेव ने दो अंगुली उठाकर दिया- इनके दोनों अंगुली उठाने का अर्थ यह है कि ईश्वर और जीव दो हैं। इन दोनों के बिना सृष्टि सम्भव नहीं है।"
तब विद्योत्तमा ने पांचों अंगुलियां उठायीं। कालीदास ने सोचा कि यह तुझे थप्पड़ मारना चाहती है। उन्होंने घूंसा दिखाया कि तू मुझे थप्पड़ मारेगी तो मैं तेरा घूंसे से मुंह तोड़ दूंगा। जिसका अर्थ ब्राह्मणों ने बताया कि तुमने पांचों अंगुली उठाकर यह संकेत किया कि तत्व पांच हैं (पञ्चतत्व-धरती, आग, पानी, वायु और आकाश) जिसका उत्तर हमारे गुरुदेव ने मुट्ठी बांधकर दिया कि पांचों तत्व अलग-अलग अर्थहीन हैं। जब ये पांचों एक साथ आपस में मिल जाते हैं तब शरीर का निर्माण होता है। सृष्टि का सृजन होता है। इस प्रकार से शास्त्रार्थ चलता रहा और वहां बैठे ब्राह्मण उत्तर देते रहे। एक समय ऐसा आया कि विद्योत्तमा को उनसे विवाह करना पड़ा।
समय के साथ विद्योत्तमा को मालूम हुआ कि कपट से उसे महामूर्ख पति मिला है। एक दिन दोनों अपने आवास पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय एक ऊंट उधर से 'गुजरा। जिसे देखकर कालिदास उट्र-उद्र कहने लगे। 'उष्ट्र' (संस्कृतभाषा) को उट् कहते देखा तो विद्योत्तमा उसी क्षण जान गयी कि मेरा पति महामूर्ख है। उसने कालिदास को बहुत धिक्कारा। पत्नी से प्रताड़ित कालिदास को महान दुःख हुआ। उनका मन आत्मग्लानि से भर उठा। वे उसी क्षण भवन से बाहर निकले और देवी के मन्दिर में जा पहुंचे। माता के चरणों में शीश झुकाकर विनय करते रहे- हे माता! मैं महामूर्ख हूं। मूर्ख होने के कारण ही आज मुझे स्त्री से अपमानित होना पड़ा है। मैं आपकी पूजा-अर्चना भी कंस्ना नहीं जानता। क्या करूं? कैसे करूं?
भक्तवत्सला माँ! करुणामयी माँ जो सकल संसार की माँ हैं। एक पुत्र की पुकार कैसे न सुनतीं। कालिदास की विह्वलता को देखकर माँ ने अपनी कृपादृष्टि से कालिदास के अन्दर दिव्य ज्ञान की ज्योति जगा दी और वही कालिदास, महाकवि कालिदास हुए जिनका नाम अमर है।
बौधिक क्षेत्र में कार्यशीलजन उनका स्मरण-चिंतन और स्तवन-पूजा करते रहते हैं। कवियों, गद्य-पद्य के क्षेत्र में सक्रिय (साहित्य साधकों) की वे माता, प्रेरक, पोषक और रक्षक हैं। उनकी उपेक्षा करके कोई व्यक्ति बौद्धिक क्षेत्र में अग्रसर होने की कल्पना करे, तो उसका मूर्खतापूर्ण दंभ ही कहा जाएगा।
परमात्मा एक ही है उसी परमात्मा की अनेक शक्तियों में से एक स्कन्दमाता - अर्थात् सरस्वती हैं। हम जानते हैं कि सभी देवी-देवता ज्ञान, योग, ऐश्वर्य एवं सिद्धियों से संपन्न होते हैं, तथापि 'शब्द ब्रह्म' में समाहित ज्ञानात्मिका शक्ति यानी वाग्देवी सरस्वती साक्षात ब्रह्मस्वरूपिणी हैं। यह देवी महालक्ष्मी एवं महाकाली से भिन्न नहीं हैं, अतः शास्त्रों में इनका मुख्य नाम 'श्री' और अपर नाम 'श्री' पंचमी' है। महाकवि निराला ने सरस्वती के रूप का दर्शन किया था, वे कहते हैं-
- विश्व-रूपिणी तुम हो, तुम्हें मूर्ति में रचकर ।
- पूजा की बसंत के दिन दीनता-विकच कर॥
प्रतीकमयी भारतीय संस्कृति में देवी सरस्वती विद्या, विज्ञान एवं कला आदि की प्रतीक हैं एवं प्रतीक हैं प्रकृति के सत्व गुण की।
सरस्वती संज्ञा की व्युत्पत्ति
संस्कृत शब्द 'सर' से सरस्वती संज्ञा की व्युत्पत्ति हुई है। 'सर' का अर्थ है गति । अतः सरस्वती का अर्थ हुआ, जो गतिशील है, प्रवाहयुक्त है। इसलिए जल के प्रवाह से युक्त नदी के अर्थ में जहां सरस्वती का प्रयोग किया गया है, वहां दूसरी ओर वाणी के प्रवाह की अधिष्ठात्री के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से भगवती सरस्वती को निष्क्रिय ब्रह्मा का सक्रिय रूप माना जाता है। इस प्रकार भारतीय वाङ्मय एवं हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में 'सरस्वती' शब्द का व्यवहार दो अर्थों में किया जाता है-एक नदी के अर्थ में और दूसरा देवी के अर्थ में। किसी भयंकर प्रलयंकारी प्राकृतिक उथल-पुथल के फलस्वरूप सरस्वती नदी का लोप हो गया, अतः सरस्वती की नदी के रूप में आराधना कालांतर में नहीं रही और विद्या की देवी के रूप में पूजित होने लगी। संप्रति सरस्वती वाग्देवी के रूप में एक लोकप्रिय आराधना है।
कहते हैं कि शुभ और निशुंभ दैत्यों के अत्याचारों से पीड़ित होकर देवताओं ने हिमालय पर जाकर देवी भगवती की अनेक प्रकार से स्तुति की। देवताओं की प्रार्थना पर भराव्रती पार्वती, ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए। उसी समय पार्वती के शरीर कोष में सरस्वती देवी प्रकट हुईं। तब उनका नाम कौशिकी प्रसिद्ध हुआ। देवी भागवत में आया है कि सरस्वती देवी का प्राकट्य भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ था।
नवरात्रि के पञ्चमं भगवती स्कन्दमाता सरस्वती पूजन
आचमन, प्राणायाम शिखानंधन, मंगलाचरण करन के बाद एक सफेद, साल वस्त्र पटड़े या चौकी पर बिछाकर माणसे का निर्माण करें। उस पर मोरपंख को चन्द्रभाग रखकर स्कन्धमाता सरस्वती का आवाहन करें-
- आवाहन-
शरद रितु की चद्रप्रभा ज्यो धरती पर सोधा देती है।।
मात शारदे तेरी आभा ज्ञान की ज्योति भर देती है।
सदा-सर्वदा सन्निधि रहना मैं शरण में तेरी आया हूं।
स्कन्दमाते सन्निधि भर यही काथा लाया हूं।।
ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः। सरस्वतीसवायामि, स्थापयामि, पूजयामि च।
इस मंत्र का उच्चारण कर सरस्वती के चरणों में श्वेत पुष्य अर्पण करें।
- आसन-
अनेक रत्नों नाना मणियों से बना तेरा आसन लाया।
श्वेत सूत्र से बना कपास का वर्ण तुम्हारा सा पाया ।।
श्री जगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः आसनायें पुष्याणि समर्पयामि। आसन स्थान पर माँ भगवती के चरणों के पास पुष्प अर्पित करें।
- पाद्य-निम्न मंत्र से भगवती स्कंदमाता के चरणों को धुलायें-
गंगा सागर नर्मदा जमुना रेवा गंडकी सरस्वती ।
कावेरी कृष्णा सरयू तट से जल लाया हे भगवती ।।
इस परम सम्मीलित जल से मैं चरण तुम्हारे धोता हूं।
पद्यार्घ ग्रहण करो शारदे चरण पखार खुश होता हूं।।
श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। पादयोः पाद्यं समर्पयामि ॥
- अर्घ्य-
गंध. सुवासित सुमनों का अर्घ्य समर्पित जल है ये। अक्षत सम्पादित जल को लेकर दूर करो मन का मल है ये।। श्री भगवत्यै स्कन्दमात्रे नमः हस्तयोः अर्घ्यं समर्पयामि। इस मंत्र से भगवती स्कन्दमाता सरस्वती के हाथों में जल डालकर हाथ धुलवायें।
- आचमन-
स्वादु सुशीतल सुगंध भरा, कर्पूर सुवासित ये पानी।
स्कन्दमाता तुम्हें समर्पित मात शारदे वरदानी ।।
श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। आचमनं समर्पयामि ॥
- स्नान-
नीरज का जीवन आधार है जो ऐसा सुवासित जल मैं लाया हूं।
मात स्कंदा स्नान करो बस यही कामना लाया हूं।
इस मंत्र से देवी सरस्वती को सुगंधित जल से स्नान करायें।
- इस मंत्र पञ्चामृत-
दूध, दही, घी, बूरा और शहद-इन पांचों अमृत रसों से बने पंचामृत से स्नान करायें। भगवती स्कन्दमाता को पंचामृत दो विधि से कराया जाता है। दोनों विधि नीचे दी जा रही हैं-
- प्रथम विधि-
इसमें प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग मंत्र से स्नान होता है और प्रत्येक स्नान के बाद 'ॐ सरस्वत्यै नमः स्नानार्थे जलं समर्पयामि' कहकर जल से स्नान कराया जाता है-
- दूध स्नान (दूध से स्नान) -
कामधेनु से उत्पन्न हुआ सबका जो जीवनरक्षक है। दूध से स्नान करो वीणा तू ही मेरी संरक्षक है।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः । पयःस्नानं समर्पयामि ॥
- दधिस्नान (दही से स्नान)-
शशीप्रभा से मधुर हुआ मधुर-मधुर ये गोरस । माँ स्कंदै मधुर दधि अर्पण तुमको है अब बस ।।
श्रीजगदम्बायै स्कन्दमातादेव्यै नमः । दधिस्नानं समर्पयामि ॥
- घृत स्नान (घी से स्नान)-
सभी जनों के संतोष का कारक नवनीत बना नवनीत बना ।। स्नानार्थ लाया नूतन घृत परम पुनीत बना नवनीत घना ।। ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः। घृतस्नानं सम्पूर्पयामि ॥
- मधु स्नान-
फूलों-फूलों से चुन-चुनकर मकरंद एकत्र किया उसने। मकरंद बना मधुर मधु मन मधुर हो मेरे अपने ।। श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। मधुस्नानं समर्पयामि ॥
- शर्करा स्नान (बूरा से स्नान)-
दिव्य स्नान हेतु मात स्कन्दे शुद्ध शर्करा लाया हूं। इसमें चूक्षुरस है देवि पा तुम्हें मैं हर्षाया हूं। श्री स्कन्दमात्रे नमः । षर्करास्नानं समर्पयामि। (भगवती स्कन्दमाता को बूरा से स्नान करायें।)
- आलोक-माँ भगवती को पंचामृत एक पात्र में मिलाकर इस मंत्र से भी स्नान कराया जा सकता है-
दही, दूध, घी, अरु मक्खन । शक्कर करते मधु भी अर्पण ।। करो स्नान मात स्कंदा । तुम्हीं शारदे जग की अंबा ।। ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः पञ्चामृतं समर्पयामि।
- गन्धोदक स्नान--
मलयाचल के सुंदर वन में चंदन ने है जनम लिया। कर सुवासित गंगाजल में शारदे अर्पण तुम्हें किया ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः, गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। (भगवती स्कन्दमाता को गन्धोदक से स्नान करायें।)
- शुद्धोदक स्नान-
गंगा, यमुना, कृष्णा, नर्मदा, देवी, गोदावरी, सरस्वती । सरयू इन सप्त नदियों का जल अर्पित है सरस्वती ।। ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि । (शुद्ध जल से स्नान करायें ।)
- वस्त्र-
लज्जाशील के जो रक्षक ये वस्त्र तुम्हें समर्पित हों।
देहालंकरण से पंचभूत ये मात शारदे अर्पित हों।। ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः, वस्त्रं समर्पयामि। (वस्त्र समर्पित करें।) आचमन-वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल दें।)
- उपवस्त्र-
जिस भाव के कारण शास्त्रोक्त कर्म सिद्ध हो जाते हैं। ये सर्वकर्मोपकारक कपड़े
स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। भाव की रसगंगा में ये वस्त्र सुवासित है माते। उपवस्त्रों को ग्रहण करो आया तेरे दर माते ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः महासरस्वत्यै नमः, उपवस्त्रं (उपवस्त्राभावे रक्तसूत्रम् समर्पयामि)। (उपवस्त्र समर्पित करें।) आचमन-उपवस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल दें।)
- यज्ञोपवीत-
पंचभूत यज्ञों-सा पवित्र यज्ञोपवीत है पावन ये।
त्रिसूत्र से त्रिसूत्र बना पुनः त्रिसूत्र का शासन ये।
ब्रह्म रुद्र की ग्रंथि इसमें दामोदर भी शोभा पाते हैं।
सूत कपास से बना हुआ मातु तुम्हें चढ़ाते हैं।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि। (यज्ञोपवीत समर्पित करें।)
आचमन-यज्ञोपवीतान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल दें।)
श्रीखण्ड चंदन-सा है तेरा रूप सलौना ।
तेरा रंग-सा धवल बना लाया तेरा छौना ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः, चन्दनानुलेपनं समर्पयामि। (चन्दन अर्पित करें।)
- अक्षत-
ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः, अक्षतान् समर्पयामि। (अक्षत चढ़ायें ।)
- पुष्पमाला-
डाली-डाली से सुमनों को ज्यों अलि पराग चुन लेता है। उसी तरह चुने कुसुमों को यह भक्त चयनित कर लेता है।। कोमल किसलय से पुष्पों की माला एक बनाई है। ज्ञान-दायिनी स्कंत माते अब तेरी शोभा पाई है।। ॐ भूर्भुवः स्वः महासरस्वत्यै नमः, पुष्पमालां समर्पयामि। इस मंत्र से माँ भगवती सरस्वती को सफेद पुष्पों की माला प्रदान करें।
- कुमकुम-
जाती के पुष्पों-सा रक्त रंग मुख कान्ति को बढ़ाता है। कुमकुम नाम दिया जिसने यह भक्त उसे चढ़ाता है।। ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै श्रीसरस्वतीदेव्यै नमः, भाले कुङ्कुमं समर्पयामि।
- सिन्दूर-
कोई अरुण किरण-सा इसे माने किसी को जपासुमन-सा लगता है। स्कन्दमाते सौभागी बना सिंदूर तव भाल-सा लगता है।। श्रीजगदम्बायै सरस्वत्यै नमः, सिन्दूरं समर्पयामि। (सिन्दूर चढ़ायें।)
- कज्जल (काजल)-
काजल ग्रहण करो शारदे जो है शांति का कारक । उत्पन्न हुआ कर्पूर ज्योति से बना हमेशा ज्योतिवर्धक ।। श्रीजगदम्बायै स्कन्दमाता दिव्यै नमः, कज्जलं समर्पयामि। (काजल चढ़ायें ।)
- दूर्वाकुर-
कान्तमणि की सी प्रभा दूर्वा से पूजा करता हूं सरस्वती । चरणों में तेरे अर्पित है। वीणावादनी माँ भगवती ।। श्रीजगदम्बायै सरस्वतीदेव्यै नमः, दूर्वाङ्करान् समर्पयामि। (दूब चढ़ायें ।)
- विल्व पत्र-
त्रिदल त्रिगुणाधार बने त्रिनेत्र बने त्रिआयुध से। तीनों जन्मनें का पाप हरें विल्व दल बने ये आयुध से। श्रीजगदम्बायै शारदायै नमः। विल्वपत्रं समर्पयामि ॥ (विल्वपन्न चढायें)
- आभूषण-
हार, कंगन, केयूर, मेखला कुण्डल दर ले आया हूं।
स्कन्दमाते धारण कीजै यही कामना लाया हूं।।
ॐ भगवती शारदायै नमः, नाना भूषणान् समर्पयामि।
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए समस्त आभूषण अंग विशेष के अनुसार धारण करायें। नीचे कुछ दूसरे मंत्र दिए जा रहे हैं जो किसी आभूषण विशेष के लिए उपयुक्त हैं। उनको उसी मंत्र के अनुरूप अर्पण करें।
- अंगुलीय-
प्रबाल गोमेद से रत्नों की स्वर्णमयी बनी अंगूठी है।
स्कन्दा देवी ग्रहण करो दिव्यांग रूपा यह अनूठी है।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै स्कन्दमात्रे नमः, करयोंगुलिमुद्रिकां समर्पयामि। इस मंत्र में भगवती स्कन्दमाता को अंगूठी पहनायें।
- कटिभूषण-
कांचन शुभ्र हारक निर्मित त्रैलोक्य विजित ये कटिभूषण।
स्कन्दा देवी ग्रहण करो दूर करो मन के खर-दूषण।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै स्कन्दमात्रे नमः कटिदेशे काञ्चीं समर्पयामि। इस मंत्र से भगवती स्कन्दमाता को करधनी पहनायें।
- नूपुर-
सुसुन्दर हण्रक से निर्मित तेरे पैरों की शोभा पाते हैं।
नूपुर ग्रहण करो वीणा दर तेरे लेकर आते हैं।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भवान्यै श्री स्कन्दमात्रे नमः, पादयोः नूपुर समर्पयामि। इस मंत्र से भगवती स्कन्दमाता को पायजेब या घुंघरू पहनायें।
- पादुकार्पण-
नवरत्न युत समर्पित हो! ये पादुकाएं हे जगदम्बे ।
तव चरणों की बस धूलि मिले हंसवासिनी हे अम्बे ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै स्कन्दमात्रे नमः, चरणयोः पादुके समर्पयामि। माँ भगवती स्कन्दमाता को पादुका अर्पित करें।पुष्प-माँ भगवती शारदा को बेला या सफेद पुष्प अतिप्रिय है,
- उन्हें निम्न मंत्र से पुष्प अर्पित करें-
नाना वर्णों से युत सुमनों को तेरे चरणों में चढ़ाने आया हूं।
जपा, करीर श्वेत कमल कुमोदिनी वेला तुझको लाया हूं।।
सुमनों-सा खिले ये घर मेरा सबके सुमन भी हरषायें। कोमल-सी कलियां घर बेटी हों उन्हीं लखि-लखि दम्पती हरषायें।। ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।
- अक्षत-
से माते सुवासित पुष्यों इत्र द्रव्य बना है सुन्दर-सा।
बेला कुसुम अक चमेली सुमनों से सुवासित हो घर सुमनों-सा ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै सरस्वतत्यै नमः, अङ्गेषु विलेपनार्थं अक्षतं समर्पयामि। इससे स्कन्दमाता को अक्षत चढ़ाएं।
- धूपबत्ती-
दस अंगों से रंजित धूप बनी। विघ्न विनाशक यह धूप घनी ।।
शारदा तव अर्पण करने को धूप बनी यह नव धूप बनी ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः भगवत्यै स्कन्दमात्रे नमः, धूपं निवेदयामि। भगवती स्कन्दमाता को अपने दाहिने हाथ को बायीं ओर ले जाकर पुनः ऊपर की ओर ले जाते हुए वृत्तक्रम में धूपबत्ती उपरोक्त मंत्र उच्चारण करते हुए घुमायें तथा अंत में प्रतिमा के बायीं ओर स्थापित कर दें।
- धूप-
गाय के गोबर या कण्डा को जलाकर माँ भगवती स्कन्दमाता का ध्यान करते हुए घी में लौंग का जोड़ा भिगोकर ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॐ स्कन्दमातेति स्वाहा। इस मंत्र से अग्नि में चढ़ायें।
- दीप-
तीनों लोकों के अंधकार को जैसे दीपक हर लेता है। वैसे ही स्कन्दा दूर करो अज्ञान तम को ये कहता है। ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दमात्रे नमः। आरार्त्तिक्यं समर्पयामि ॥ इस मंत्र से हाथ में पुष्प लेकर स्कन्दमाता का ध्यान कर दीपक के पास पुष्प अर्पित करें।
पुनः हाथ धो लें। नैवेद्य-
खोवा पनीर अन्य सुस्वादु चीजों
से नाना प्रकार का भोजन ये। ये सब समर्पित भोजन ये।। श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। नैवेद्यं निवेदयामि। (नैवेद्य निवेदित करें।) आचमनीय आदि-नैवेद्यान्ते ध्यानमाचमनीयं जलमुत्तरापोऽशनं हस्तप्रक्षालनार्थं मुखप्रक्षालनार्थं च जलं संमर्पयामि ॥
दधि दूध खीर अरु हलुआ
इस मंत्र से पूर्व तुलसी मंजरी सहित तुलसीदल अर्पित करें। फिर मंत्र बोलें। मंत्र के बाद सात बार जल भूमि पर छोड़ें या नैवेद्य के कोर लेकर अग्नि को समर्पित करें-
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॐ प्राणाय स्वाहा ॐ अपानाय स्वाहा ॐ समानाय स्वाहा ॐ उदानाय स्वाहा ॐ व्यानाय स्वाहा ॐ अमृतापिधा नमसि स्वाहा।
ऋतुफल-
मौसम और ऋतुओं ने जो फल जग को प्रदान किये।
लेकर उनकी तुच्छ भेंट स्कन्दा तुम्हीं को दान किये।।
श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। ऋतुफलानि समर्पयामि ॥ (ऋतुफल
समर्पण करें।)
- ताम्बूल-
नागवल्ली के पावन पत्रों में लौंग, इलायची को लेकर,
पूगीफल को लेकर देवी संतुष्ट होऊं तुझको देकर ।।
श्रीजगदम्बायै स्कन्दमात्रे नमः। ताम्बूलं समर्पयामि ॥ (इलायची, लौंग, पूंगीफल के साथ पान निवेदित करें।)
- ध्यान (एक)-
सरस्वतीं मया दृष्ट्वा वीणा पुस्तक धारिणीं।
हंसवाहनसंयुक्ता विद्यादानं करोतु मे ॥
तरुणशकलमिन्दो विभ्रती शुभ्रकान्ति,
कुचभरनमितांगी सन्निषण्णी सिताब्जै।
निजकरकमलोद्यल्लेखनीं पुस्तकश्री,
सकलविभव सिद्धयै पातु वाग्देवता नः ॥
घण्टा शूल हलानि शंख मुसले चक्रं धनुः सायकम्,
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्त विलसच्छीतांशु तुल्य प्रभाम्।
गौरी देह समुद्भवां त्रिजगतामाधार भूतां महा,
सर्वामंत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम्।
शरत्पूर्णेन्दु शुभ्रां सकललिपिमयीं लाल रक्तत्रिनेत्रां,
शुक्लालंकारभासां शशिमुकुट जटाभार हारप्रदीप्ताम्।।
विद्याभ्रक् पूर्णकुम्भान् वरमपिदधतीं शुद्ध पट्टाम्बराढ्यां,
वाग्देवीं पदमवक्त्रां कचभरनमितां चिंतयेत् साधकेन्द्रः ॥
- मूल सरस्वती मंत्र-
शोध कार्य करने में रुकावट आने, बालक के पढ़ने में मन न लगने तथा मन्दबुद्धि को कुशाग्र बुद्धि करने में मूल संरस्वती मंत्र का जप करना अति श्रेयष्कर है। इसका 41 हजार जप करना चाहिए, इससे यह सिद्ध हो जाता है। पुनः ब्राह्मी रस या शंखपुष्पी रस को इस मंत्र से अभिमंत्रित कर पीने से निर्विघ्न सफलता मिलती है। भोजन करने, पहनने तथा देवी पर अर्पण करने के लिए सफेद पुष्प लेने चाहिएं। साधक को शाम या रात्रि में दही, चावल, मट्ठा आदि वर्जित हैं।
- विनियोग
ॐ अस्य सरस्वती मंत्रस्य कण्व ऋषिः, विराट् छंदः, वाग्वादिनी देवता, मम सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः ।
- ध्यान-स्तुति
तरुण सकलमिन्दो विभ्रति शुभ्र कान्ति,
कुचभरनमितांगी सन्निषण्णासिताब्जै ।
निजकरकमलोद्यत् लेखनी पुस्तक श्री,
सकल विभव सिद्धयै पातु वाग्देवता नः॥
- जप-मंत्र
वद् वद् वाग् वादिनि स्वाहा। स्वसिद्धि मंत्र-कवि और गायक लोग इस मंत्र की सिद्धि करते हैं। बच्चे के तुतलाने और हकलाने को दूर करने में यह सहायक मंत्र प्रातःकालीन वेला में किया जाता है। इस मंत्र के समय प्रातः आधा बिलौया दही का प्रयोग करना चाहिए। शाम या रात्रि में दही का प्रयोग न करें।
- विनियोग
ॐ अस्य श्रीसस्वतिमंत्रस्य सनत्कुमार ऋषिः अनुष्टप् छंदः, श्रीसरस्वत्यै देवता, ऐं बीजम्, वदवदेति शक्तिः, सर्वविवद्याप्रपन्नोयेति कीलकं, मम वाग्निवलाससिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।
- ध्यान-स्तुति
दोभिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना,
हस्तेनैकेन पद्म सिंतमति च शुकं पुस्तकं चापरेण।
या सा- कुंदेदुशंखस्फटिमणिनिभा भासमानाऽसमाना,
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना॥
- जप-मंत्र
ॐ ऐं क्लीं सौं ह्रीं श्रीं श्रीं वद् वद् वाग्वादिनि सौं क्लीं ऐ श्री सरस्वत्यै नमः ।
वाणी देवी का ज्ञान कुण्डली मंत्र-यह मंत्र स्वयं मेरे द्वारा (लेखक) प्रयोगित किया गया है जो पूर्णतः सफल हुआ है। इसके प्रभाव से मूक-बधिर बालक/बालिका बोलने तथा सुनने में सफल हुए हैं। इस मंत्र पर मुझे अटूट विश्वास है। यह मंत्र इकहत्तर हजार किया जाता है। विधिवत् पूजन करने के बाद अधिकतम इक्कीस दिन में इसे पूर्ण करना आवश्यक है। मंत्र साधना से पूर्व गुरुमंत्र लेना आवश्यक है। यह मंत्र वाणी और स्वर की शक्ति, सम्मोहन, प्रभाव और अमोघता देने की क्षमता प्रदान करता है।
- ध्यान-स्तुति
सरस्वती मया दृष्ट्वा, वीणा पुस्तक धारिणी।
हंस वाहन संयुक्ता, विद्यादानं करोतु मे ॥
- जप-मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कली सौं क्लीं ह्रीं ऐं ब्लू श्रीं, नीलतारे सरस्वती द्रां द्रीं क्लौं ब्लूं सः। ऐं ह्रीं श्रीं क्ली सौं सौं ह्रीं स्वाहा॥
- विद्या देवी का मंत्र
विद्या, ज्ञान, प्रतिभा, बौद्धिक क्षमता, धारणा-शक्ति और अनेक विषयों (वेद, शास्त्र, न्याय, दर्शन एवं अध्यात्म आदि) में पारंगति प्राप्त करने की कामना रखने वाले साधक विद्या देवी की उपासना करते हैं। इनकी उपासना भी सरस्वती जी की उपासना के समान है। विनियोग और ध्यानादि भी वो ही हैं जो स्वसिद्धि मंत्र में कहे गये हैं। केवल जग कां मंत्र भिन्न है।
- जप-मंत्र
ॐ ह्रीं श्रीं ऐं वाग्वादिनी भगवती अर्हनमुख निवासिनी सरस्वति ममास्ये प्रकाशं कुरु कुरु स्वाहा ऐं नमः।
स्कन्दमाता का बीजक मंत्र
स्वर और शब्दों में (वाणी में) प्राण-तत्व तथा प्रभाव तत्व इन्हीं की कृपा से उत्पन्न होता है। महाकवि कालीदास की सिद्धि और प्रसिद्धि का एकमात्र आधार यही था कि वाणी देवी उन पर कृपालु थीं। वाणी देवी की उपासना के लिए पूर्व वर्णित सरस्वती की उपासना-विधि अपनाई जाती है। उसके पश्चात् जप के लिए निम्नलिखित मंत्र का जप किया जाता है-
- मंत्र-
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः ।
- सरस्वती गायत्री
सरस्वती गायत्री के मंत्र का जप करते समय उनका चित्र अथवा मूर्ति पूजागृह में स्थापित करें। फिर उसका विधिवत् चंदन, पुष्प, धूप और दीप आदि से पूजा करके, कलश पर दीपक जलाकर मंत्र का जप आरंभ करें। जप-संख्या प्रतिदिन समान और नियमित रूप से होनी चाहिए। यदि किसी अनुष्ठान का संकल्प किया गया हो, तो उसकी पूर्ति पर हवन और ब्राह्मण-कन्या को भोजन, वस्त्र दान भी देना चाहिए।
- मंत्र-
ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराजाय धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात् ।
स्कन्दमाता के वाहन का रहस्य
नव शक्तियों में से पंचम स्कन्दमाता अर्थात् वाराही हैं। वारह शब्द का अर्थ है एक कल्पपरिमित काल है। क्योंकि वर शब्द का अर्थ श्रेष्ठ अर्थात् आत्मा है उसे जो आहत अर्थात् आवृत्त करे उसी का नाम वाराह है। काल सत्ता ही सर्वप्रथम आत्मा को आवृत्त करती है, इस कारण कालशक्ति का ही नाम है वाराह। यही पृथ्वी को पातल से दांतों द्वारा निकालता है। उस अधिष्ठान चैतन्य के आधार पर जो आधार शक्ति निर्भर है वही वाराह शक्ति है। इनका कोई वाहन नहीं है, क्योंकि यह किसी आधार पर प्रकाशित नहीं होतीं।
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