पौष मास गणेश चतुर्थी व्रत कथा (Paush month - Ganesh Chaturthi Vrat Katha)
पौष मास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा
पार्वती जी ने पूछा-हे पुत्र ! पौष में किस गणेश की पूजा किस तरह से करनी चाहिए और उस दिन क्या भोजन करना चाहिए? उसे आप संक्षेप में बतलाइए । श्री गणेज जी ने कहा-हे महादेवी! पौष मास की चतुर्थी विघ्नविनाशिर्न होती है। उसमें लम्बोदर नामक गणेश की पूजा करके भोजन के रूप केवल गोमूत्र ही पीना चाहिए। व्रती को पूर्वोक्त विधि से पूजन करन चाहिए अर्थात् दिन भर शान्त भाव से निराहार रहकर व्रत करें, दिन में सोयें, ब्रह्मचर्य का पालन करें। रात्रि में पूजन के बाद ब्राह्मण भोज करावें । दुग्धनिर्मित खीर में शुद्ध घी मिलाकर गणपति मंत्र से हवन तो वह शासक को भी अपने वशीभूत कर सकता है। इस सम्बन्ध में हम आपको एक प्राचीन कथा सुनाते हैं।
एक बार रावण ने सभी देवताओं को जीतकर मदान्ध हो संध्या कर रहे बालि को पीछे से जाकर पकड़ लिया। बलशाली बालि रावण को अपनी काँख में दबाये हुए आकाशमार्ग द्वारा किष्किन्धापुरी में आया और उस बन्दी रावण को अपने पुत्र अंगद के लिए खिलौने के रूप में दे दिया। रावण के गले में रस्सी बांधकर अंगद ने उसे नगर में घुमाना शुरू कर दिया। विश्वविजयी रावण की ऐसी हालत देखकर सभी नगरवासियों ने अट्टहास किया। जनता कहने लगी-अरे देखो तो सही, यह विश्वविजेता रावण आज राजकुमार द्वारा सड़कों पर घुमाया जा रहा है। पुरवासियों की बात से रावण बहुत ही लज्जित होकर उसासें लेने लगा। उसका दर्प चूर हो गया। उसने अपने नाना पुलस्त्य मुनि का स्मरण किया। अपने नाती की दीन पुकार से मुनि को आश्चर्य हुआ कि उसके नाती की ऐसी दशा क्यों कर हुई। अत्यन्त गर्व करने से देव, दानव, मनुष्य आदि सभी का पतन अवश्यम्भावी होता है। रावण के समीप आकर मुनि ने पूछा कि तुमने मुझे क्यों याद किया है? रावण ने कहा-हे नाना जी! देवताओं को जीतने के कारण गर्व करने से मेरी यह दुर्गति हुई है। मैंने संध्या करते हुए एक वानरराज को देखा। पश्चिमी महासागर के तट पर मैंने उसे पीछे से पकड़ने की चेष्टा की। परन्तु मैं ही उसके द्वारा पकड़ लिया गया। मुझे उसने यहाँ लाकर गले में रस्सी बाँधकर अपने लड़के को खेलने के लिये दे दिया। इस दुर्गति को देखकर नगरवासी मेरी हँसी उड़ाते हैं। हे देव! इसी चिन्ता में मैं व्याकुल रहता हूँ। रस्सी में बंधे रहने के कारण मैं अशक्त हो गया हूँ। हे नाथ! अब मैं क्या करूँ? मेरे जैसा आपके वंश में कोई दूसरा कुलकलंकी नहीं है। अब आप ही मेरी रक्षा कर सकते हैं।
पुलस्त्य जी ने कहा-हे रावण ! डरने की कोई बात नहीं है। मैं तुम् बन्धनमुक्त करा दूँगा। यह बालि देवराज इन्द्र के वीर्य से उत्पन्न है औ पराक्रम में तुमसे बढ़कर है। इसकी मृत्यु महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम के हाथों होगी। हे राक्षसराज ! यदि तुम बालि के बन्धन से छूटना चाह हो तो मेरी बात मानकर संकटनाशक गणेश जी का व्रत करो। प्राचीन काल में वृत्रासुर की हत्या के प्रायश्चितस्वरूप इन्द्र ने इस व्रत को किय था। अतः तुम भी इस संकटनाशक व्रत को करो। बहुत शीघ्र ही तुम्हार क्लेश दूर होगा। इस प्रकार आदेश देकर ब्रह्मर्षि वन में चले गये और इधर रावण ने व्रत का अनुष्ठान किया। हे देवी! इस व्रत के प्रभाव से रावण तत्काल ही बन्धन रहित हो गया और सुखपूर्वक अपना राज्य करने लगा। भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे युधिष्ठिर! आप भी इस व्रत को कीजिए। 'इस व्रत के प्रभाव से समर में समस्त शत्रुओं का संहार करके आप अपने उत्तम राज्य को प्राप्त करेंगे। कृष्ण जी की बात सुनकर युधिष्ठिर ने विधि पूर्वक पौष कृष्ण चतुर्थी व्रत किया और इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया ।
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