Shani Vrat Katha : श्री शनि पूजन और व्रत कथा
श्री शनि पूजन(Shree Shani Poojan)
नवग्रहों की तरह शनि ग्रह की भी पूजा की जाती है। शनिवार का व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष को व्रत करते हुए दोपहर को बिना नमक का भोजन, दाल, चावल की खिचड़ी खाना चाहिए। इसके साथ पूजन के समय कृष्ण वर्ण के फूल या बिल्व पत्र और कृष्ण वर्ण के अक्षत लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए शनिदेव का आवाहन करना चाहिए।
नीलांबुजसमाभासं रविपुत्र यमाग्रजम् ।
छाया मार्तण्ड सम्भूतं शनिमावाह्वाम्यहम् ।।
Shani Vrat Katha : श्री शनि पूजन और व्रत कथा,Shree Shani Poojan Aur Vrat Katha |
'हे सूर्य पुत्र, यम के ज्येष्ठ भाई, मार्तण्ड छाया से उत्पन्न शनि देवता मैं आपका आवाहन करता हूं।' शनि की स्थापना के लिए निम्न मंत्र का उच्चारण करें- ॐ भूर्भुवः स्वः शनैश्चर इहागच्छ इहातिष्ठ शनैश्चराय नमः ।
'हे शनिदेव ! आप आएं और स्थापित हों। आपको नमन है।' शनि की उपासना के लिए शनि देवता के चित्र या मूर्ति का स्मरण करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं-
ॐ सूर्योपुत्रो दीर्घदेही विशालाक्षः शिवप्रियः ।
मन्दाचार प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनिः ॥
'हे बड़े-बड़े नेत्रों वाले, विशाल शरीर वाले, सूर्य पुत्र और शिव के अति प्रिय शनि देवता मेरे सभी कष्ट दूर करें।' शनि पूजन में शनि यंत्र द्वारा पूजा करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है- ॐ शन्नो देवीरभिष्टये आपो भवन्तु पीतये । शंयोरभि स्त्रवन्तुः नः ॐ शनैश्चराय नमः ।
- शनि यंत्र
१३ ११ ९
८ १५ १०
यह शनि का तैंतीस अंकीय यंत्र है। शनिवार को गंगाजल या गुलाब में घुली काली स्याही से नीले रंग के कागज या भोजपत्र पर इसका निर्माण करें। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि उस शनिवार को व्याघात कारक योग न हो। शुद्ध लोहे या जस्ते के पत्र पर भी इसका निर्माण कराया जा सकता है। यंत्र की स्थापना करें। उपरोक्त मंत्र का २३,००० बार रुद्राक्ष की माला से जप करना चाहिए। मनवांछित कार्य सिद्धि के लिए ९२,००० बार मंत्र का जप किया जाता है।
किसी पीपल के पेड़ के नीचे कड़वे तेल का दीपक जला कर शनिवार की संध्या को यंत्र का पूजन अभीष्ट फल देने वाला होता है। जब तक अनुष्ठान समाप्त न हो, पीपल के नीचे यंत्र को सुरक्षित रखें। घर में पवित्र स्थान (पूजा-स्थान) पर भी इसे स्थापित किया जा सकता है। अनुष्ठान के बाद यंत्र को जल में प्रवाहित कर दें।- बीज मंत्र - ॐ शं शनैश्चराय नमः
- शनि गायत्री- ॐ भूर्भुवः स्वः शन्नो देवीरभिष्टये विद्महे नीलांजनाय धीमहि तन्नो शनिः प्रचोदयात्।
शनि ग्रह के पूजन के लिए मध्याह्नकाल का विधान है। पूजन के समय श्री शनैश्चर-स्तवराज का पाठ करना शुभ फलदायक होता है। पूजन के बाद काले तिल, उड़द, तेल, काला वस्त्र, लोहा, नीलम, कस्तूरी, स्वर्ण का दान करना चाहिए।
शनि पत्नी नाम
ध्वजिनी धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया।
कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी माहिषी अजा ।।
शनेर्नामानि पत्नीनामेतानि संजपन् पुमान्।
दुःखानि नाशयेन्नित्यं सौभाग्यमेधते सुखम् ।।
जो शनि पत्नी के इन नामों का पाठ करता है, उसके समस्त दुःखों का नाश होता है। वह सौभाग्य का स्वामी बनता है तथा सुखों को प्राप्त करता है।
ओं ह्रां ह्रीं ह्रौं सूर्याय नमः ।
सूर्य का मंत्र
नीचे दिए गए सूर्य मंत्र का ७५०० की संख्या में जप करें, शनि दोष निवारण होता है।ओं ह्रां ह्रीं ह्रौं सूर्याय नमः ।
श्री शनि व्रत कथा
एक समय व्यासजी के शिष्य सूतजी अपने शिष्यों के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए नैमिषारण्य में आए। श्री सूतजी को आया देखकर महातेजस्वी शौनकादि मुनि उठकर खड़े हो गए। उन्होंने श्री सूतजी को प्रणाम किया। मुनियों द्वारा दिए आसन पर श्री सूतजी बैठ गए।
श्री सूतजी से शौनक आदि मुनियों ने विनयपूर्वक पूछा- हे मुनि ! कलियुग में कोई भी मनुष्य पुण्य न करेगा, पुण्य के नष्ट होने से मनुष्यों की प्रकृति पापमय होगी, इस कारण तुच्छ विचार करने वाले मनुष्य अपने अंश सहित नष्ट हो जावेंगे। हे सूतजी ! जिस तरह थोड़े ही परिश्रम, थोड़े धन से, थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय हम लोगों को बतलाइए। हे मुने ! कोई ऐसा व्रत बतलाइए जिसके करने से शनि द्वारा प्रदत्त कष्ट मनुष्यों को न भोगने पड़ें तथा जिस व्रत के करने से शनिदेव प्रसन्न हों। सूतजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, क्योंकि सब प्राणियों का हित चाहते हो ! मैं आपसे उस उत्तम व्रत को कहता हूं, जिसके करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं
और शनि ग्रह के कष्ट प्राप्त नहीं होते। ध्यान देकर सुनें- जब युधिष्ठिर आदि पांडव वनवास में अनेक कष्ट भोग रहे थे, उस समय उनके प्रिय सखा श्रीकृष्ण उनके पास पहुंचे। युधिष्ठिर ने उन्हें सत्कारपूर्वक सुंदर आसन पर बैठाया। श्रीकृष्ण बोले- हे युधिष्ठिर ! कुशलतापूर्वक तो हो ? युधिष्ठिर ने कहा, हे प्रभो! आपकी कृपा है। फिर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से शनि ताप का उपाय बताने का निवेदन किया। श्रीकृष्ण बोले- जो मनुष्य भक्ति और श्रद्धायुक्त होकर शनिवार के दिन भगवान शंकर का व्रत करते हैं, उन्हें शनि की ग्रह दशा में कोई कष्ट नहीं होता है। उनको निर्धनता नहीं सताती तथा इस लोक में अनेक प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में तपस्वियों के लिए भी दुर्लभ शिवलोक की प्राप्ति होती है।
युधिष्ठिर बोले- हे प्रभु! सबसे पहले यह व्रत किसने किया था। कृपा करके इसे विस्तारपूर्वक कहें तथा इसकी विधि भी बतलाएं। भगवान श्रीकृष्ण बोले- शनिवार के दिन विशेषकर श्रावण मास में शनि की लौह निर्मित प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर अनेक प्रकार के गंध, अष्टांग, धूप, फल, उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से उसका पूजन करे। शनि के दस नामों का उच्चारण करे। तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा, नीले वस्त्र का दान करे। फिर भगवान शंकर का विधिपूर्वक पूजन करे। आरती कर प्रार्थना करे। हे युधिष्ठिर ! पहले शनिवार को उड़द का भात, दूसरे को केवल खीर, तीसरे को खजला, चौथे को पूरियों का भोग लगावे। व्रत की समाप्ति पर यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन करावे । सबसे पहले जिसने इस व्रत को किया था, अब उसका इतिहास भी सुनो - पूर्वकाल में इस पृथ्वी पर एक राजा राज्य करता था। दैवगति से राजा और राजकुमार पर शनि की दशा आई। राजा को उसके शत्रुओं ने मार दिया। राजकुमार बेसहारा हो गया। राजगुरु को भी वैरियों ने मार दिया। उसकी विधवा ब्राह्मणी तथा उसका लड़का शुचिव्रत बचा रह गया। ब्राह्मणी ने राजकुमार धर्मगुप्त को साथ लिया और नगर को छोड़कर चल दी।
गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारों का बहुत कठिनाई से निर्वाह कर पाती थी। एक दिन जब वह ब्राह्मणी दोनों कुमारों को लिए एक नगर से दूसरे नगर जा रही थी कि मार्ग में उसे महर्षि शांडिल्य के दर्शन हुए। ब्राह्मणी ने दोनों बालकों के साथ मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली- महर्षि ! मैं आज आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गई। यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण हैं, आप इनकी रक्षा करें। मुनि शांडिल्य, ब्राह्मणी की सब बात सुनकर बोले- देवी ! तुम्हारे ऊपर शनि का प्रकोप है, अतः शनिवार के दिन व्रत करके भोलेशंकर की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा। ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम कर शिव मंदिर के लिए चल दिए। दोनों कुमारों ने ब्राह्मणी सहित मुनि के उपदेश के अनुसार शनिवार का व्रत किया तथा शिवजी का पूजन किया। दोनों कुमारों को यह व्रत करते-करते चार मास व्यतीत हो गए। एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिए गया। कीचड़ में उसे एक बहुत बड़ा कलश दिखाई दिया। उसमें धन था। शुचिव्रत कलश लेकर घर आया और मां से बोला, हे मां ! शिवजी के प्रसाद को देखो, भोलेशंकर ने इस कलश के रूप में धन दिया है।
माता ने आदेश दिया- बेटा ! तुम दोनों इसको बांट लो। लेकिन धर्मगुप्त ने धन लेने से इन्कार कर दिया। उसका कहना था कि जिसका भोग हो, वही भोगे। धर्मगुप्त धैर्यपूर्वक प्रेम और भक्ति के साथ शनि का व्रत करके पूजा करने लगा। एक वर्ष व्यतीत हो गया। वसंत ऋतु का आगमन हो चुका था। राजकुमार धर्मगुप्त तथा ब्राह्मण पुत्र शुचिव्रत दोनों ही वन में घूमने के लिए गए। घूमते- घूमते वे काफी दूर निकल गए। एक जगह उन्हें सैकड़ों गंधर्व कन्याएं खेलती हुई दिखीं। राजकुमार स्वयं को रोक न सका। वह उनकी ओर चल दिया। ब्राह्मण कुमार उधर नहीं गया।
उन गंधर्व कन्याओं में से एक सुंदरी उस राजकुमार पर मोहित हो गई। गंधर्व कन्या ने राजकुमार को पल्लवों का आसन दिया। राजकुमार आसन पर बैठ गया। गंधर्व कन्या ने राजकुमार से उसका परिचय पूछा। राजकुमार ने अपनी सारी गाथा उसे सुना दी। फिर राजकुमार ने उस गंधर्व कन्या से पूछा- आप कौन हैं? किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहां आई हैं ? विद्रविक नाम के गंधर्व की मैं पुत्री हूं, मेरा नाम अंशुमति है। आपको आता देख आपसे बात करने की इच्छा हुई, इसी से मैं सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूं। गंधर्व कहते हैं कि मेरे बराबर संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है। भगवान शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिए आपको यहां पर भेजा है, अब से मेरा-आपका प्रेम कभी न टूटेगा।
ऐसा कहते हुए कन्या ने अपने गले का मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा- मेरे पास न राज है, न धन। आप मेरी भार्या कैसे बनेंगी ? आपके पिता हैं, आपने उनकी भी आज्ञा नहीं ली है।
गंधर्व कन्या बोली- अब आप अपने घर जाएं और परसों प्रातः काल यहां अवश्य पधारें। राजकुमार से ऐसा कहकर गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के पास चली गई। राजकुमार धर्मगुप्त शुचिव्रत के पास चला आया और उसे सब समाचार कह सुनाया। राजकुमार धर्मगुप्त तीसरे दिन शुचिव्रत को साथ लेकर उसी वन में गया। उसने देखा कि स्वयं गंधर्वराज विद्रविक उस कन्या को साथ लेकर उपस्थित हैं। गंधर्वराज ने दोनों कुमारों का अभिवादन किया और दोनों को सुंदर आसन पर बैठाकर राजकुमार से कहा, राजकुमार ! मैं परसों कैलाश पर गौरी-शंकर के दर्शन करने के लिए गया, वहां करुणारूपी सुधा के सागर भोलेशंकरजी महाराज ने मुझे अपने पास बुलाकर तुम्हारी सहायता करने की आज्ञा दी। उन्हीं की आज्ञा को शिरोधार्य कर मैं अपने घर चला आया। वहां मेरी पुत्री अंशुमति ने भी ऐसी ही प्रार्थना - की। शिवशंकर की आज्ञा तथा अंशुमति के मन की बात जानकर इसको इस वन में लाया हूं, मैं इसे आपको सौंपता हूं। मैं आपके शत्रुओं को परास्त कर आपको राज्य दिला दूंगा।
ऐसा कहकर गंधर्वराज ने अपनी कन्या का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया तथा अंशुमति की सहेली की शादी ब्राह्मण कुमार शुचिव्रत के साथ कर दी। गंधर्वराज ने राजकुमार की सहायता के लिए गंधर्वों की चतुरंगिणी सेना भी दी। शत्रुओं ने राजकुमार का राज्य लौटा दिया। धर्मगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने अपने धर्मभाई शुचिव्रत को मंत्री नियुक्त किया। जिस ब्राह्मणी ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे राजमाता बनाया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समझाते हुए कहा- हे पांडुनंदन ! आप भी यह व्रत करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण भगवान की पूजा की और व्रत किया। व्रत के प्रभाव से पांडवों ने महाभारत में विजय प्राप्त की।
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