श्रावण | गणेश चतुर्थी व्रत कथा,Shravan-Ganesh Chaturthi fasting story

श्रावण -गणेश चतुर्थी व्रत कथा (Shravan-Ganesh Chaturthi fasting story)

ऋषिगण पूछते हैं कि हे स्कन्द कुमार ! दरिद्रता, शोक, कुष्ठ आदि से विकलांग, शत्रुओं से सन्तप्त, राज्य से निष्कासित राजा, सदैव दुःखी रहने वाले, धनहीन, समस्त उपद्रवों से पीड़ित, विद्याहीन, सन्तानहीन, घर से निष्कासित लोगों, रोगियों एवं अपने कल्याण की कामना करने वाले लोगों को क्या उपाय करना चाहिए जिससे उनका कल्याण हो और उनके उपरोक्त कष्टों का निवारण हो। यदि आप कोई उपाय जानते हों तो उसे बतलाइए ।
स्वामी कीर्तिकेय जी ने कहा-हे ऋषियों! आपने जो प्रश्न किया है, उसके निवारार्थ मैं आप लोगों को एक शुभदायक व्रत बतलाता हूँ, उसे सुनिए। इस व्रत के करने से पृथ्वी के समस्त प्राणी सभी संकटों से मुक्त हो जाते हैं। यह व्रतराज महापुण्यकारी एवं मानवों को सभी कार्यों में सफलता प्रदान करने वाला है। विशेषतया यदि इस व्रत को महिलायें करें तो उन्हें सन्तान एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है। इस व्रत को धर्मराज युधिष्ठिर ने किया था। पूर्वकाल में राज्यच्युत होकर अपने भाइयों के साथ जब धर्मराज वन में चले गये थे, तो उस वनवास काल में भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा था। युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से अपने कष्टों के शमनार्थ जो प्रश्न किया था, उस कथा को आप श्रवण कीजिए।

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 (Shravan-Ganesh Chaturthi fasting story)

युधिष्ठिर पूछते हैं कि, हे पुरुषोत्तम ! ऐसा कौन सा उपाय है जिससे हम वर्तमान संकटों से मुक्त हो सकें। हे गदाधर ! आप सर्वज्ञ हैं। हम लोगों को आगे अब किसी प्रकार का कष्ट न भुगनता पड़े, ऐसा उपाय बतलाइये ।
स्कन्दकुमार जी कहते हैं कि जब धैर्यवान युधिष्ठिर विनम्र भाव से हाथ जोड़कर, बारम्बार अपने कष्टों के निवारण का उपाय पूछने लगे तो भगवान हृषीकेश ने कहा।
श्रीकृष्ण जी ने कहा कि हे राजन! सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला एक बहुत बड़ा गुप्त व्रत है। हे पुरुषोत्तम! इस व्रत के सम्बन्ध में मैंने आज तक किसी को नहीं बतलाया है। हे राजन! प्राचीनकाल में सत्ययुग की बात है कि पर्वतराज हिमाचल की सुन्दर कन्या पार्वती ने शंकर जी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए गहन वन में जाकर कठोर तपस्या की। परन्तु भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तब शैलतनया पार्वतीजी ने अनादि काल से विद्यमान गणेश जी का स्मरण किया। गणेश जी को उसी क्षण प्रकट देखकर पार्वती जी ने पूछा कि मैंने कुठीर, दुर्लभ एवं लोमहर्षक तपस्या की, किन्तु अपने प्रिय भगवान  शिव को प्राप्त न कर सकी। वह कष्टविनाशक दिव्य व्रत जिसे नारद जी ने कहा है और जो आपका ही व्रत है, उस प्राचीन व्रत के तत्व को आप मुझसे कहिये। पार्वती जी की बात सुनकर तत्कालीन सिद्धि दाता गणेश जी उस कष्टनाशक, शुभदायक व्रत का प्रेम से वर्णन करने लगे। गणेश जी ने कहा- हे अचलसुते ! अत्यन्त पुण्यकारी एवं समस्त कष्टनाशक व्रत को कीजिए। इसके करने से आपकी सभी आकांक्षाएँ पूर्ण होंगी और जो व्यक्ति इस व्रत को करेंगे उन्हें भी सफलता मिलेगी। हे देवाधिदेवेश्वरी ! श्रावण के कृष्ण चतुर्थी की रात्रि में चन्द्रोदय होने पर पूजन करना चाहिए। उस दिन प्रातः कृत्य से निबटकर मन में संकल्प करें कि 'जब तक चन्द्रोदय नहीं होगा, मैं निराहार रहूँगी। पहले गणेश पूजन करके तभी भोजन ग्रहण करूंगी। मन में ऐसा निश्चय करना चाहिए। इसके बाद सफेद तिल के जल से स्नान करें। अपना नित्य कर्म करने के बाद हे सुन्दर व्रत वाली! मेरा पूजन करें। यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिमास स्वर्ण की मूर्ति का पूजन करें (अभाव में चांदी, अष्ट धातु अथवा मिट्टी की मूर्ति की ही पूजा करें) अपनी शक्ति के अनुसार सोने, चांदी, तांबे अथवा मिट्टी के कलश में जल भरकर उस पर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करें। मूर्ति कलश पर वस्त्राच्छादन करके अष्टदल कमल की आकृति बनावें और उसी मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात षोडशोपचार विधि से भक्ति पूर्वक पूजन करें। मूर्ति का ध्यान निम्न प्रकार से करें- हे लम्बोदर ! चार भुजा वाले ! तीन नेत्र वाले ! लाल रंग वाले ! हे नील वर्ण वाले ! शोभा के भण्डार ! प्रसन्न मुख वाले गणेश जी ! मैं आपका ध्यान करता हूँ। हे गजानन ! मैं आपका आवाहन करता हूँ। हे विघ्नराज ! आपको प्रणाम करता हूँ, यह आसन है। हे लम्बोदर ! यह आपके लिए पाद्य है, हे शंकरसुवन ! यह आपके लिए अर्घ्य है। हे उमापुत्र ! यह आपके स्नानार्थ जल है। हे वक्रतुण्ड ! यह आपके लिए आचमनीय जल है। हे शूर्पकर्ण! यह आपके लिए वस्त्र है। हे कुब्ज ! यह आपके लिए यज्ञोपवीत है। हे गणेश्वर ! यह आपके लिए रोली, चन्दन है। हे विघ्नविनाशन ! यह आपके लिए फूल है। हे विकट ! यह आपके लिए धूपबत्ती है। हे वामन ! यह आपके लिए दीपक है। हे सर्वदेव! यह आपके लिए लड्डू का नैवेद्य है। हे सर्वार्त्तिनाशन देव! यह आपके निमित्त फल है। हे विघ्नहर्ता ! यह आपके निमित्त मेरा प्रणाम है। प्रणाम करने के बाद क्षमा प्रार्थना करें। इस प्रकार षोडशोपचार रीति से पूजन करके नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों को बनाकर भगवान को भोग लगावें। हे देवी! शुद्ध देशी घी में पन्द्रह लड्डू बनावें। सर्व प्रथम भगवान को लड्डू अर्पित करके उसमें से पाँच ब्राह्मण को दे दें। अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देकर चन्द्रोदय होने पर भक्तिभाव से अर्घ्य देवें। तदनन्तर पाँच लड्डू का स्वयं भोजन करें।  फिर हे देवी! तुम सब तिथियों में सर्वोत्तम हो, गणेश जी की परम प्रियतमा हो। हे चतुर्थी हमारे द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को ग्रहण करो, तुम्हें प्रणाम है। निम्न प्रकार से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करें- क्षीरसागर से उत्पन्न हे लक्ष्मी के भाई! हे निशाकर ! रोहिणी सहित हे शशि ! मेरे दिये हुये अर्घ्य को ग्रहण कीजिये। गणेश जी को इस प्रकार प्रणाम करें- हे लम्बोदर ! आप सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं आपको प्रणाम है। हे समस्त विघ्नों के नाशक ! आप मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण करें। तत्पश्चात ब्राह्मण की प्रार्थना करें- हे द्विजराज ! आपको नमस्कार है, आप साक्षात देवस्वरूप हैं। गणेश जी की प्रसन्नता के लिए हम आपको लड्डू समर्पित कर रहे हैं। आप हम दोनों का उद्धार करने के लिए दक्षिणा सहित इन पाँच लड्डुओं को स्वीकार करें। हम आपको नमस्कार करते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराकर गणेश जी से प्रार्थना करें। यदि इन सब कार्यों  के करने की शक्ति न हो तो अपने भाई-बन्धुओं के साथ दही एवं पूजन में निवेदित पदार्थ का भोजन करें। प्रार्थना करके प्रतिमा का विसर्जन करें और अपने गुरु को अन्न-वस्त्रादि एवं दक्षिणा के साथ मूर्ति दे देवें। इस प्रकार से विसर्जन करें- हे देवों में श्रेष्ठ ! गणेश जी ! आप अपने स्थान को प्रस्थान कीजिए एवं इस व्रत पूजा के फल को दीजिए।
हे सुमुखि ! इस प्रकार जीवन भर गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। यदि जन्म भर न कर सकें तो इक्कीस वर्ष तक करें। यदि इतना करना भी सम्भव न हो तो एक वर्ष तक बारहों महीने के व्रत को करें। यदि इतना भी न कर सकें तो वर्ष के एक मास को अवश्य ही व्रत करें और श्रावण चतुर्थी को व्रत का उद्यापन करें।

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