श्रीदुर्गा-परिचय 'श्रीदुर्गा'-नाम-माहात्म्य,Shree Durga-Parichay Shree Durga-Naam-Maahaatmy

श्रीदुर्गा-परिचय 'श्रीदुर्गा'-नाम-माहात्म्य

श्रीदुर्गा-परिचय

दुर्गा'-पद कितना सुन्दर है, कैसा स्फूर्ति-दायक है। इसके ज्ञान मात्र से निखिल विश्व सुन्दर हो जाता है। इस दो अक्षरवाले नाम का उच्चारण भर करने से हमारी सोई शक्ति में स्फुरता आ जाती है। हमारे अन्तस्तल में शान्ति-भाव स्वतः उदय हो जाता है। इसके श्रवण से हमारे आसुरी भाव काँप कर भागने को प्रस्तुत होने लगते हैं। इसके मनन से समस्त असुर मृत-प्राय हो जाते हैं। इसके निदिध्यास से सम्पूर्ण आसुरी सर्गों का निर्मूलन हो जाता है।

Shree Durga-Parichay Shree Durga-Naam-Maahaatmy

'दुर्गा' नाम का अर्थ

  • 'द'-कार, 
  • 'अ'-कार, 
  • रेफ,
  • 'ग' कार और 
  • 'आ' कार-इन 
वर्णों के योग से मन्त्र-स्वरूप 'दुर्गा' नाम की निष्पत्ति होती है। इसका अर्थ इस प्रकार है-

दैत्य-नाशार्थ-वचनो, दकारः परिकीर्तितः ।
उकारो विघ्न-नाशस्य, वाचको वेद-सम्पतः।
रेफो रोगघ्न-वचनो, गश्च पापघ्न-वाचकः। 
भय-शत्रुघ्न-वचनश्चाकारः परि-कीर्तितः ।।

अर्थात् दैत्यों (असुरो) के नाश के अर्थ को द-कार बतलाता है, उ-कार विघ्न का नाशक वेद-सम्मत है। र-कार रोग का नाशक, ग-कार पाप का नाशक और आ-कार भय तथा शत्रु का विनाशक है। इस प्रकार 'दुर्गा' नाम अपने अर्थ का यथार्थ बोधक है। शास्त्र-कार जहाँ-तहाँ कहते हैं-

दुर्-दुःखात् गमयति दुर्गा, दुर्-दुःखेन गम्यते दुर्गा।
दुर् दुःखानि गमयति दुर्गा, दुर् दुर्गतिं (नरकं) गमयति, दूरयति सा दुर्गा।
दुर् दुर्दशां गमयति (नाशयति) सा दुर्गा, 
दुर् दुराशां गमयति, दूरयति सा दुर्गा।
दुर् दुरितानि पापानि गमयति, विनाशयति सा दुर्गा।
दुर् दुराचारं दोषं वा गमयति, दूरं करोति सा दुर्गा ।।

'दुर्गा' शब्द का दूसरा रूप 'दूर्गा' भी है। 'दुर्गा' पद में हुस्व उ-कार है, परन्तु कहीं-कहीं दीर्घ ऊ-कार का भी उल्लेख है। इससे 'दुर्गा' नाम का अर्थ अधिक स्पष्ट हो जाता है। 'विश्वसार तन्त्र' कहता है-'थान्त-वीजं समुद्धृत्य, वाम-कर्ण 
(ऊ) विभूषितम्।'
'वरदा तन्त्र' भी इसी मत का समर्थन करता है-  
'दं दुर्गा-वाचकं देवि ! ऊ-कारो रक्षणार्थकः।' '
ब्रह्म-सूत्र' का प्राणाधिकरण 'शक्ति-भाष्य' भी यही कहता है- 
 'दू-नाम्नी देवता च जगद्धात्री दुर्गा तद्-वीज-वर्णात्।' 

अतः 
'दुर्गा'-पद से पाप-क्षय-कारिणी, मृत्यु को दूर भगानेवाली, भय तथा शत्रु का नाश करनेवाली का बोध होता है। दूसरे शब्दों में इससे उस परम सत्ता का बोध होता है, जो वागादि इन्द्रियों के पापों को दूर कर मृत्यु को दूर भगाती है। पापों को इस प्रकार हटाती है कि जीव से अच्छे कर्म करवाती है, जिससे यम का डर नहीं रहता। इसीलिए शास्त्रों में ऐसी फलश्रुति लिखी है- प्रभाते यः स्मरेन्नित्यं, दुर्गा-दुर्गाक्षर द्वयम्। आपदस्तस्य नश्यन्ति, तमः सूर्योदये यथा।।
अर्थात् प्रभात-काल (प्राण-शक्ति की सम्वर्धित स्थिति) में जो नित्य 'दुर्गा'-'दुर्गा' इस अनाशवान् वर्ण-द्वय का स्मरण करते हैं, उनकी आपदाएँ इस प्रकार नष्ट होती है, जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अन्धकार का नाश होता है। और अधिक स्पष्ट रूप में कह सकते हैं कि जिस प्रकार सूर्य की प्रकाश-शक्ति अन्धकार को भगाती है, उसी प्रकार 'दुर्गा'- सर्व-व्यापिका महा-शक्ति की धारणा से समस्त आपदाएँ- अविद्या के सहकारी आसुरी सर्ग दूर हो जाते हैं।
' 'दुर्गा' (दुर् + ग गमने, ज्ञाने टाप्) पद से 'दुग्रह' अर्थात् कठिनता से ग्रहण की जानेवाली  दुर्गा'- दुग्रह अर्थात् कठिनता से ग्रहण की जानेवाली सत्ता का भी बोध होता है। 'योग-वासिष्ठ', निर्वाण-प्रकरण, उत्तरार्धं 
दुर्गा दुग्रह-रूपतः।' 
'अथर्वशीर्ष-देव्युपनिषत्' - श्रुति भी 'दुर्गा' को 'दुर्गमा' कहती है-'तां दुर्गा दुर्गमां देवीम्।' 'देव्युपनिषत्' श्रुति में इसकी लक्षणाओं का उल्लेख इस प्रकार है- 'जिसका स्वरूप ब्रह्मा आदि भी नहीं जानते, इस कारण 'अज्ञेया' है। अन्त नहीं मिलने से 'अनन्ता' कहलाती है। लक्ष्य नहीं दिखने से 'अलक्ष्या' है। जन्म नहीं लेती, इससे 'अजा' है। सर्वत्र अकेले रहने से 'एका' कहलाती है। विश्व-रूपिणी होने से 'अनेका' कही जाती है। पुनः दुर्गा भगवती के सम्बन्ध में यही 'देव्युपनिषत्' कहता है- 'सब मन्त्रों में मातृका देवी है, सर्व-मातृका-वर्णों की अधिष्ठात्री प्रकाश- शक्ति-स्वरूपा है। शब्दों की ज्ञान-स्वरूपा, अर्थ-स्वरूपिणी है। अर्थों के ज्ञान की परा स्वरूपा है, ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ञेय की त्रिपुटी से भी परे है। शून्यों का भी शून्य, प्राणों की भी प्राण-रूपिणी है।'

' दुर्गा'- महा-चिति, महा-चेतना, सर्व-व्यापिका, सर्व-प्रकाशिका

इस प्रकार 'दुर्गा' पद से महा-चिति अर्थात् महा-चेतना शक्ति का बोध होता है। यही सर्व-व्यापिका, सर्व-प्रकाशिका महा-शक्ति है। यही महा-माया है, इसी ने सारे संसार को अपने में बसा रखा है। यही २५ और ३६ तत्त्वों की राजधानी है। ब्रह्म, परमात्मा, पुरुष, महेश्वर, किसी भी नाम से कहिए सभी की विकास-सीमा इसी के भीतर है। सभी इससे प्रकाशित हैं। सब कुछ इसके किए से ही होता है।
'ब्रह्म' साक्षात् नहीं होता है और होता है, तो सर्व प्रथम इसी रूप में होता है। इसलिए यही 'ब्रह्म' है, यही 'शक्ति' है, यही 'माया' है, यही 'प्रकृति' है। यही भगवती की 'दश महाविद्याओं' की और भगवान् के 'दश तथा २४ अवतारों की मूल भूमिका' है। संसार का कोई काम, कोई चिह्न, कोई विचार, कोई सङ्केत या जल, स्थल, आकाश, पाताल-कहीं कोई सत्ता ऐसी नहीं है, जो इससे रहित हो। यही संसारार्णव से पार करती है। यही परमात्मा है। यही शरीर में चेतना है। इसी से 'ब्रह्म'- चैतन्य है। यह उस 'ब्रह्म पर तत्त्व' में विलास करती है। इसकी स्फुरणा से ही 'ब्रह्म' को प्रकाश मिलता है। भगवान् श्रीकृष्ण (परमात्मा) स्वयं अर्जुन को समझाते हैं कि-'नाहं प्रकाशः सर्वस्य, योग-माया समावृतः।' अर्थात् मैं सभी के प्रकाश में नहीं आता हूँ क्योकि योग-माया से ढका हुआ हूँ। योग-माया मुझे ढॉपे रहती है। यह योग-माया, जो ब्रह्म को ढाँपकर विलास करती है, श्री 'दुर्गा' है। 'भगवती श्री दुर्गा ने स्वयं श्री-मुख से हिमालय को सम्बोधित करते हुए, सभी देवों को, जो उस समय उपासना के लिए आए थे, समझाया है कि "मैं दो भागवाली हूँ। मेरा एक भाग 'पर' और दूसरा 'अपर' कहलाता है। 'पर' भाग- निर्गुण ब्रह्म, शुद्ध सम्वित् है और 'अपर'-भाग-सगुण ब्रह्म है। देखिए 'देवी भागवत', सप्तम स्कन्ध-भाग-द्वयवती यस्मात्, सृजामि सकल्पं जगत्।'
भोग-मोक्ष-दात्री सर्वाराध्या 'श्रीदुर्गा'
उपर्युक्त अर्थ व भावार्थ से स्पष्ट हैं कि श्रीदुर्गा ही 'ब्रह्म-शक्ति आदि-माया' है। भगवती दुर्गा का नाम, ध्यान, यन्त्र, मन्त्र-सब इसी तथ्य के प्रमाण हैं। देखिए आगे प्रस्तुत श्रीदुर्गा-मन्त्र- तत्त्व, श्रीदुर्गा-यन्त्र-तत्त्व। सभी से स्पष्ट होता है कि 'दुर्गा' ही 'ब्रह्म' की प्रतिपाद्य देवता है। यही भोग और मोक्ष का कारण है।

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन, सौभाग्यारोग्य-सम्पदः। 
शत्रु-हानिः परो मोक्षः, स्तूयते सा न किं जनैः ।। 

अर्थात्-जिसके प्रसाद (कृपा) से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पदाएँ, विजय और मोक्ष तक मिलता है, उस सर्वाराध्या भगवती दुर्गा की आराधना कौन नहीं करता? सभी करते हैं।

'देवी भागवत' में लिखा है कि जो दुर्गा की आराधना करता है (पूजता है, स्मरण करता है), वह सभी प्रकार की सिद्धियाँ पाता है और उसके आगे कोई विपद् नहीं आती। यह बुद्धि-तत्त्व की अधिष्ठात्री है और यही अन्तर्यामि-स्वरूपिणी है। 'दुर्गा'-सभी के द्वारा सेव्य है। इसे कौन पूजते-ध्याते हैं, देखिए 'देवी भागवत', ९वाँ स्कन्ध-'दुर्गा भगवती को ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव और मनुष्य, ज्ञान-निष्ठ मुनि लोग, योगी तथा आश्रमी गृहस्थादि, लक्ष्मी आदि देवियाँ सभी ध्याते-पूजते हैं।'

श्रीदुर्गा मन्त्र (नवार्ण मन्त्र) के ऋषि तीनों देव-ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। ऋषि वही होगा, जिसने मन्त्र को सिद्ध कर प्रचार किया। वे ही भगवती दुर्गा के प्रथम उपासक हैं। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि दुर्गा भगवती ही मोक्ष दायिनी है, और कोई देव मोक्ष नहीं देते, अतएव 'सप्तशती' के प्रथम अध्याय में ऋषि कहते हैं- 
'सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतु-भूता सनातनी।'

'शक्रादि'-स्तव, सप्तशती में तो सभी देवों ने एक स्वर से दुर्गा भगवती को विद्या मुक्ति- स्वरूपा कहा है। मुक्ति का साधन भी कहा है। मोक्षार्थियों की उपास्या भी बतलाई है- 'हे देवि! आप अचिन्त्य महा-व्रत साधन करनेवालों, नियत इन्द्रिय वर्गवालों और ब्रह्म-सार समझनेवालों (ब्रह्म-वेत्ताओं) से उपासित होती हैं। जिनके समस्त दोष शान्त हो गए हैं और जो मोक्ष चाहते हैं, उन मुनियों से तुम उपासित होती हो। कारण तुम ही परमा विद्या हो। 'ब्रह्म-वैवर्त पुराण' में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं भगवती दुर्गा के विषय में कहते हैं- 
त्वमेव सर्व-जननी, मूल प्रकृतिरीश्वरी। 
त्वमेवाद्या सृष्टि-विधौ, स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका।। 
कार्यार्थे सगुणा त्वां च, वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। 
पर-ब्रह्म-स्वरूपा त्वं, नित्यानित्य-स्वरूपिणी ।।

स्पष्ट है कि भगवती दुर्गा आदि माया है, वह सर्व कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्था है। यही ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वरादि देवों को भी स्वेच्छा से कमों में प्रवृत्त करती है। यही इन समस्त देवादि की आदि जननी है। यही मोक्ष दायिनी है। भगवती दुर्गा की उपासना सर्व-समर्थ उपासना है। वैदिक सनातन मार्ग है। इसकी आराधना मानव मात्र का परम कर्त्तव्य है तथा मुक्ति-प्राप्ति का लक्ष्य है।

'श्रीदुर्गा'-नाम-माहात्म्य

'चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ, कलि विशेष नहिं आन उपाऊ। (मानस) सन्त तुलसी की उपर्युक्त वाणी देव-वाक्य से तनिक भी कम पूज्य नहीं है। यथार्थ में इस कराल कलि में जीवों के उद्धार के लिए कोई अन्य चारा नहीं है। इस कराल कलि-काल की बात ही क्या, अन्य युगों में भी अनेक साधकों ने केवल नाम-साधना से जीवन्मुक्ति और सर्वैश्वर्य की सिद्धि प्राप्त की, इसका स्पष्ट उल्लेख अनेक पुराणों और इतिहास ग्रन्थों में भरा है। 'श्रीमद् भागवत' का यह वचन तो सबको विदित ही है- कृते यद् ध्यायतो विष्णुत्रेतायां यजतो मखैः, द्वापरे परि-चर्यायां कलौ तन्नाम-कीर्तनात्। गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने 'मानस' में इसका पूर्ण समर्थन किया है-

ध्यानु प्रथम जुग मख विधि दूजे।
द्वापर परितोषण प्रभु पूजे ॥
कलि केवल मलि मूल मलीना। 
पाप-पयोनिधि जन मन मीना।।
नाम काम तरु काल कराला। 
सुमिरत समन सकल जंजाला ।।

 'नाम' की महिमा नामी की महिमा से तनिक भी कम नहीं है, अपितु उससे कहीं बढ़कर है। इस दशा में नाम का माहात्म्य हम लोगों के मुँह से तो 'छोटा मुँह बड़ी बात' वाली कहावत चरितार्थ होगी। 'नाम-महिमा' को गाते हुए सन्त तुलसी ने कहा है-
नाम रूप दुई ईस उपाधी, अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥
को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन-भेद समुझहहि साधू ॥ 
देखहहिं रूप नाम आधीना, रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ।। 
नाम रूप गति अकथ कहानी, समुझत सुखद न परति बखानी ॥ 
अगुन सगुन बिच नाम सुखाखी, उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी।। 

यथार्थ में 'नाम-साधना' ही वह साधना है, जहाँ निर्गुणोपासक तथा सगुणोपासक एक भूमि पर स्थित होते हैं। पातञ्जलि योग सूत्र में भी, जहाँ पर ईश्वर को ॐ स्वरूप बताया गया है, वहीं पर उसके वाचक प्रणव ॐ के जप का विधान भी है। साक्षात् वेद भगवान् ने भी 'नाम-जय' पर पूर्ण जोर दिया है। देखिए 
'यजुर्वेद', ४०वाँ अध्याय-
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् । 
ॐ कृतो स्मर कृतं स्मर ॐ कृतो स्मर कृतं स्मर।।

अर्थात् - हे जीवों! इस भौतिक शरीर में केवल प्राण देवता ही अमृत-स्वरूप है, भौतिक शरीर का अन्तिम रूप तो केवल क्षार-ही-क्षार है। इसलिए हे जीवों, तुम इस तत्त्व को सदा समझते हुए प्रणव का स्मरण करते रहो और अपने किए हुए कर्मों का स्मरण रखो।
सगुणोपासक पुराणों ने भी प्रणव की अनेक व्याख्याएँ की हैं। एक उद्धरण यहाँ पर देना अनुचित नहीं होगा, देखिए (देवी भागवत, स्कन्ध ५, अध्याय १, २२, २३)-
अकारो भगवान् ब्रह्माऽप्युकारः स्याद्धरिः स्वयम्।
मकारो भगवान् रुद्रोऽप्यर्ध-मात्रा महेश्वरी।
उत्तरोत्तर-भावेनाऽप्युत्तमत्वं स्मृतं बुधैः ।।


प्रणव-स्थिता अर्थ-मात्रा-रूपा भवानी दुर्गा के नाम की क्या महिमा है, यहाँ यही हमारा विवेच्य विषय है। वैयाकरणों की दृष्टि में शब्द-मात्र ही 'ब्रह्म' वाचक है। एक शब्द का भी सम्यक् सु-प्रयोग निःश्रेयस प्रदान करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार हम किसी भी शब्द को उससे सम्बन्धित कर सीधे उसके पास पहुँच सकते हैं, किन्तु इसके लिए अटल विश्वास और अमित श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसलिए हमारे शाखकारों ने कुछ विशिष्ट शब्दों को विशेष रूप-लीला से सम्बन्धित कर रखा है। प्रत्येक नाम के पीछे हमारी एक विशेष धारणा बनी हुई है। अब यहाँ यही विचारना है कि माँ के इस परम प्रिय नाम 'दुर्गा' शब्द के पीछे कैसी धारणा है, जिससे राम, नारायण, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, शङ्कर आदि अनेक नाम-माला-मणियों के बीच यह 'दुर्गा' नाम सुमेरु के समान है। शास्त्रों ने सभी नामों की महिमा गाई है, जो अक्षरशः सत्य एवं यथार्थ है। इन माहात्म्यों की तुलना करने पर एक विशेष गुण की विशेषता प्रत्येक नाम के पीछे दिखाई पड़ती है। 'दुर्गा' नाम के महिमा- वर्णन में तद्-तद् विशेषताओं का एकीकरण तथा समष्टि-भाव ही इसकी विशेषता है।
माँ का यह नाम परम अद्भुत तथा विचिन्त्र रस को उत्पन्न करनेवाला है। इस नाम से माँ की सभी लीलाओं तथा सभी रूपों का द्योतन होता है। यदि 'रमणात् रामः, व्यापनात् विष्णुः, कर्षणात् कृष्णः, शिवत्वात् शिवः' आदि अनेक विभिन्न नामों की महिमा, अपनी विशेषता को लिए हुए हैं, तो 'दुर्गा' नाम के अन्तर्गत इन सभी गुणों का समावेश है। इसीलिए तो माँ की महिमा गाते हुए जगद् गुरु शङ्कर ने कहा है-
नहि दुर्गा-समा पूजा, नहि दुर्गा - समो जपः।
नहि दुर्गा - समं ज्ञानं, नहि दुर्गा समं तपः।
दुर्गायाश्चरितं यन्त्र, तत्र कैलाश मन्दिरम् ॥

(मुण्डमाला तन्त्र)

अर्थात् माँ के इस नाम का जहाँ गान होता है, वहीं शिव-कल्याण का निवास-मन्दिर कैलाश है। फिर शिव की स्थापना के बाद अवशिष्ट ही क्या रहा? माँ के भिन्न-भिन्न नामों की उपासना तथा उच्चारण तद्-तद् प्रवृत्ति के सम्प्रदायानुयायियों के द्वारा होता है, किन्तु समष्टि-गुण से समवेत रहने के कारण 'दुर्गा' नाम का जप सभी सम्प्रदायवालों के लिए उपयोगी हैं। यह आज्ञा भी भगवान् शङ्कर की ही है 

(मुण्डमाला तन्त्र, तृतीय पटल) -
दुर्गा-स्मरणजं देवि! दुर्गा-स्मरणजं फलम्।
दुर्गायाः स्मरणेनैव, किं न सिद्ध्यति भू-तले ॥ 
शैवो वा वैष्णवो वापि, शाक्तो वा गिरि-नन्दिनि ! 
भजेद् दुर्गा स्मरेद् दुर्गा, यजेद् दुर्गा शिव-प्रिवाम्।।

जीव के जीवन का परम लक्ष्य-परम सात्त्विकोद्देश्य 'मोक्ष' प्राप्त करना है। इसका सबसे सरल मार्ग माँ के नाम की स्मृति है। तुम्हारे नाम के जापक को 'मोक्ष' जैसी दुर्लभ वस्तु भी हस्तामलक है। 
भगवान् शङ्कर की उक्ति है- 
दुर्गे दुर्गेति दुर्गायाः, दुर्गे नाम परम् मनुम्।
यो भजेत् सततं चण्डि ! जीवन्मुक्तः स मानवः।।

अतएव 'दुर्गा' जैसे प्रिय 'नाम-जय' मार्ग को छोड़कर अन्य मार्ग का अवलम्बन करना विडम्बना और मूर्खता ही होगी! माँ के शरणापन्न हुए बिना तो कैवल्य-पद पाना बिल्कुल ही असम्भव तथा कठिन है। माँ ही तो वह शक्ति है, जिसके वश में सारा चराचर है। सभी तो उसकी आराधना करते हैं।

जब महिषासुर के प्रबल पराक्रम से सारा संसार अभिभूत हो रहा था और सारा देश, समाज महिषासुर से पराजित होकर, स्थान-भ्रष्ट होकर, अपने-अपने अधिकार खोकर विपन्न हो चुके थे। अन्य देवों की क्या गणना, त्रि-मूर्तियों की भी हालत बेहाल हो गई थी। उस समय सब देवों के सम्मिलित शक्ति-पुञ्ज का जो एकत्रीकरण हुआ, उसी से माँ, तुम महा-लक्ष्‌मी रूप में प्रकट हुई। समस्त देवों की शक्ति तुममें आ मिली और तुमने उस दैत्य का विनाश किया। इसीलिए माँ के पवित्र 'दुर्गा'-नाम लेने पर सभी नामों का स्मरण हो जाता है। तुम्हारी भक्ति-पूर्वक पूजा से सभी की पूजा हो जाती है। सभी प्रसन्न होकर वर देने के लिए तुमसे पहले ही दौड़ पड़ते हैं। लोक-पितामह भगवान् ब्रह्मा ने कहा भी है कि वही मनुष्य मुझे सृष्टि-कर्ता कहता है, जो तुम्हारे तत्त्व को ठीक-ठीक नहीं जानता है। तुम्हारे श्री चरणों की शरण से विमुख रहकर निरर्थक अष्टाङ्ग-योग की चिन्ता में रहता है। माँ, तुमसे युक्त रहने पर ही में सृष्टि करने में समर्थ होता हूँ
और नारायण पालन करने में तथा शङ्कर नाश करने में सफल और सक्षम होते हैं। 
'महाकाल- संहिता' में स्वयं भगवान् शङ्कर भी 'साम्राज्या-स्तव' में कहते हैं-
"भगवान् विष्णु अपने भक्तों को लेकर माँ के सामने कर-बद्ध उपस्थित हैं और माँ से निवेदन करते हैं कि हे माँ, यह मेरा अनन्य भक्त हैं। इसकी वृत्तियाँ सदा मुझमें ही लगी रहती हैं। मेरा ही नाम रटता रहता है। मैं इससे बहुत प्रसन्न हूँ। अनेक बार मैंने इससे अनेक प्रकार के बरदान माँगने के लिए कहा, किन्तु यह केवल कैवल्य परम पद को ही माँगता है, जो तुम्हारे ही हाथ में है। इसलिए कृपा करो, माता! इसकी साधना पूर्ण हो। भगवान् नारायण की सिफारिश को माँ बड़ी चाव से सुनती है। उनके मुख-मण्डल पर स्मित-रेखा खिच आती है और माँ उस नारायण-भक्त को कैवल्य प्रदान करती है। परम भक्त शाक्त शिरोमणि नारायण की सिफारिश को कैसे न सुनती? अपने भक्त की अभीष्ट-दातृ तुमसे बढ़ कर दूसरा कौन है? बाबा औढर-दानी भी तुम्हारी दी हुई उमा-शक्ति के संयोग से आशुतोष एवं औढर-दानी बने हुए हैं। तुमसे हीन वे स्वयं शव हैं। तुम्हारे संयोग से ही शिव है।"

नारायणादि की उपासना से कैवल्य नहीं मिलता, ऐसी बात उक्त सन्दर्भ से नहीं समझनी चाहिए। उक्त सन्दर्भ से यही समझना चाहिए कि साक्षात् कैवल्य-दात्री एक मात्र माँ ही है और नारायणादि भी माँ की कृपा से कैवल्य-पद अपने भक्तों को देते हैं। इस प्रकार माँ के नाम का गौरव स्पष्ट है। माँ का 'दुर्गा' नाम अन्यान्य नामों में सुमेरु-मणि है। 
'मुण्डमाला तन्त्र' में कहा गया है-
विष्णु-नाम-सहस्रेभ्यो, शिव-नामैकमुत्तमं। 
शिव-नाम-सहस्रेभ्यो, देवी-नामैकमुत्तमम् ।।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि माँ, तुम्हारा 'दुर्गा' नाम तुम्हारे सभी लीला-रूप स्वरूप का बोधक है। 'दुर्गा'-नाम लेने से सभी महा-विद्याओं का नामोच्चारण होता है। जिस रूप का उपासक हो, वही रूप 'दुर्गा दुर्गा' कहनेवालों के लिए प्रकट होता है। माँ, तुम्हारी करुणा तो प्रसिद्ध ही है। इसलिए श्रद्धा या अश्रद्धा से किसी भी प्रकार तुम्हारा नाम लेने से परम कल्याण होता है। इस प्रकार 'दुर्गा' जैसे परम पवित्र नाम का माहात्म्य अनन्त है। भगवान् शङ्कर ने भी जितना कहा है, वह भी थोड़ा ही है। फिर भी जैसा भगवान् शङ्कर ने कहा है, उसका कुछ उल्लेख यहाँ किया जाता है-

'सर्व-विपत्ति-समुद्र-संतरण के लिए माँ का 'दुर्गा' नाम नौका के समान है। भय चाहे लौकिक हो या आध्यात्मिक, माँ का नाम ही पार लगानेवाला है। राज्य कोप में पड़ा हो या अन्य प्रकार की किसी तरह की विपत्ति हो अथवा मनुष्य महान् दरिद्रता के चंगुल में पड़ा हो, माँ के 'दुर्गा' नाम का एक लक्ष जप करने से सभी प्रकार की विपत्तियों का नाश होता है।' (मुण्ड- माला तन्त्र)।
'दुर्गा' नाम के सदृश दूसरा कोई नाम नहीं है, जिसके स्मरण करने से ही सभी विपत्तियों का विनाश होता है।' (पिच्छला तन्त्र, पूर्व खण्ड, तृतीय पटल)।
श्री भगवान् शिव कहते हैं- 'आरोग्य, सम्पत्ति और ज्ञान के परम उत्कर्ष का 'दुर्गा'-नाम परम कारण है। कलि-युग में तो कहना ही क्या है? महा-पातकियों के भी महान्-से- महान् पाप इस नामोच्चारण से नष्ट हो जाते हैं।'
'रुद्र-यामल तन्त्र' में भगवान् शिव का देवी के प्रति कथन है कि "इस 'दुर्गा' नाम के जप की महिमा क्या कहूँ। इसी के जप के प्रभाव से मैं 'पञ्चानन' कहा जाता हूँ। प्रति-दिन पवित्र होकर भक्ति-पूर्वक अष्टोत्तर शत (१०८ बार) जो कोई इसे जपता है, वह धनी, पुत्रवान्, ज्ञानी तथा चिरञ्जीव होता है।" 
 'हे देवि! अष्टोत्तर-सहस्र (१००८ बार) जो कोई भक्ति से प्रति-दिन इसे जपता है,

उसके पुण्य फल को सुनो। धनार्थी धन, ज्ञानार्थी ज्ञान प्राप्त करता है, रोगातं रोग से मुक्त होता है, कैदी बन्धन से मुक्त होता है, डरा हुआ भय से, पापी पाप से मुक्त होता है एवं पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करता है।' 'हे परमेश्वरि! दस हजार जो प्रति-दिन जप करते हैं, वे निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं। उसके क्रोध में मृत्यु और प्रसन्नता में परिपूर्णता होती है। इसी प्रकार सभी कर्म में वह समर्थ होता है। अभीष्ट पूर्ण करने में वह कल्प वृक्ष के समान हो जाता है, इसे सत्य ही समझो।'
'हे देवि! प्रत्येक मास में जो लक्ष संख्या में जप करता है, उसे ग्रह की पीड़ा नहीं होती। न उसका ऐश्वर्य नष्ट होता है, न उसे सर्प का भय होता है। अग्नि, चोर, अरण्य, जल आदि से भी उसे भय नहीं होता। पर्वतारोहण में सिंह, व्याघ्र, भूत-प्रेत, पिशाच आदि का भय उसे नहीं होता। शत्रु-भय और दुष्ट-भय नहीं होता तथा वह 'दुर्गा' नाम-जपं कर्त्ता स्वर्ग-सुख का अधिकारी होता है। चन्द्र-
सूर्य के समान कल्प-पर्यन्त वह द्यौ-लोक में रहता है।'
"एक सहस्त्र वाजपेय यज्ञ करने का फल 'दुर्गा-नाम जप' के प्रभाव से मिलता है। 'दुर्गा' नाम के सदृश इस संसार में और कोई नाम नहीं है। इसलिए प्रयत्न करके उत्तम साधकों को इस नाम का निरन्तर 'जप' करना चाहिए। इसके स्मरण मात्र से सभी आपत्तियाँ भाग जाती हैं।" 'दुर्गा'-नाम के विषय में जो बातें ऊपर कही गई हैं, वे केवल 'अर्थ-वाद' या प्रशंसा-मात्र नहीं है, अपितु सर्वथा सत्य एवं अनुभव से सिद्ध है। पुराणों में भी 'दुर्गा-नाम' के विषय में ऐसा
ही कहा गया है। पद्म पुराण, पुष्कर-खण्ड में लिखा है कि- 
"मेरु पर्वत के समान महती पाप-राशि भी कात्यायनी दुर्गा भगवती की शरण में आने पर नष्ट हो जाती है। दुर्गाचंन में लगा पुरुष पाप से इस प्रकार निर्लिप्त रहता है, जिस प्रकार जल में कमल रहता है।"
 
'दुर्गा'-नाम-सर्वथा सुलभ और महान् फल का देनेवाला है। इसके जप में अन्य साधनाओं जैसी कोई कठिनता या दुरूहता नहीं है। नियमादि की भी कोई कठिनाई नहीं है, इसलिए 'दुर्गा' नाम का सदा स्मरण करते रहना चाहिए।
कराल कलि-काल में जब हमारी सारी आध्यात्मिक साधना के सोपान लड़खड़ा गए हैं, उस समय हम लोगों को इस सरल सोपान के अतिरिक्त कोई अन्य चारा नहीं है। आज यज्ञ-वाद के लिए गुजारा नहीं है। और भी साधनाओं का मार्ग कुण्ठित है। समय और हो गया है। कलि-काल की करालता कराल रूप से प्रकट हो रही है। इसलिए एक मात्र इस सरल सोपान से चलकर ही हम अपनी आत्मिक श्रेय-साधना कर सकते हैं। इसी मार्ग से चलकर पारलौकिक और ऐहिलौकिक उन्नति सिद्ध होगी। 

अतः 'दुर्गा' नाम-महा-मन्त्र की साधना व्यष्टि और समष्टि रूप से चारों ओर अनुष्ठित हो, सर्वत्र 'श्री दुर्गा, जय दुर्गा, जय दुर्गा' का नाद गूंज उठे, इसके लिए हम सबको तन- मन-धन से प्रयत्न-शील होना ही चाहिए।

टिप्पणियाँ