श्री गणेश पुराण | गणपति का चरित्र कथन कल्पभेद से,Shree Ganesh-Puraan Ganapati Ka Charitr Varnan Kalp Bhed Se
श्रीगणेश-पुराण द्वितीय खण्ड का प्रथम अध्याय !
श्रीगणेश-पुराण द्वितीय खण्ड का प्रथम अध्याय ! नीचे दिए गए 2 शीर्षक के बारे में वर्णन किया गया है-
- गणपति का चरित्र कथन कल्पभेद से
- गशेश्वर गणपति की प्राकट्य-कथा
गणपति का चरित्र कथन कल्पभेद से
शौनक जी ने निवेदन किया- 'भगवान् सूतजी ! कल्पभेद से श्रीगणेश्वर के अनेकानेक चरित्र कहे जाते हैं। आप उन सभी के पूर्ण ज्ञाता एवं वर्णन करने में समर्थ हैं। हे प्रभो! मैं उन चरित्रों को विस्तार सहित सुनना चाहता हूँ। इसलिए ऐसी कृपा कीजिए कि मैं उनका श्रवणानन्द प्राप्त कर सकूँ ।'
सूतजी बोले- 'शौनक ! तुम धन्य हो, जो भगवान् विनायक के चरित्र श्रवण में इतने उत्सुक हो रहे हो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा । अब मैं श्वेतकल्प में हुई गणेशोत्पत्ति की कथा तुम्हें सुनाता हूँ-ध्यान से सुनो ।' 'भगवती पार्वती की दो सखियाँ थीं जया और विजया। वे दोनों अत्यन्त रूपवती, गुणवती, विवेकमयी और मधुरहासिनी थीं, पार्वती उनका बहुत आदर करती थीं। एक दिन उन सखियों ने उनसे निवेदन किया- 'सखि ! अपना कोई गण नहीं है, इसलिए एक गण तो अवश्य होना ही चाहिए।'
उमा ने आश्चर्यपूर्वक कहा- 'क्या कह रही हो सखियो ? हमारे पास करोड़ों गण हैं, जो तुरन्त आज्ञा पालन में तत्पर रहते हैं। फिर किसी अन्य गण की क्या आवश्यकता है ?' सखियों ने कहा-'सभी गण आशुतोष भगवान् के हैं। उन्हीं की आज्ञा उनके लिए प्रमुख है। नन्दी, भृङ्गी आदि गण जो हमारे कहलाते हैं, वे भी भगवान् की आज्ञा ही सर्वोपरि मानते हैं। यदि आप कोई आदेश दें और शिवजी उसकी उपेक्षा करें तो आपके आदेश को कोई भी गण नहीं मानेगा। आप पूछेंगी तो अवश्य ही कोई बहाना बना दिया जायेगा ।' पार्वती ने कुछ सोचा और फिर कहा- 'और यह असंख्य प्रमथगण, क्या इनमें भी कोई मेरी आज्ञा की उपेक्षा कर सकता है ?'
सखियाँ बोलीं- 'प्रमथगण में तो कोई हमारा है ही नहीं, वे सभी भगवान् रुद्र के व्यक्तिगत सैनिक हैं। शिवजी की अनन्यता के कारण ही वे शिवजी की आज्ञा से हमारी रक्षा करने और हमारे कार्यकलापों पर दृष्टि रखने के उद्देश्य से ही नियुक्त हैं इसलिए कृपा कर अपने लिए भी एक व्यक्तिगत गण की रचना अवश्य कीजिए ।' पार्वती ने उनका सुझाव स्वीकार तो कर लिया, किन्तु कार्यरूप में अभी परिणत नहीं किया था। बात वहीं की वहीं रह गयी और कुछ दिन बीतते वे उसे भूल गयीं । एक दिन प्रातःकाल का समय था। पार्वती जी स्नानागार में स्नान करने जा रही थीं, उन्होंने नन्दी को आदेश दिया- 'कोई आवे तो उसे रोक देना ।' और तब वे भीतर चली गईं।
तभी भगवान् शङ्कर कहीं से आकर भीतर प्रविष्ट होने लगे। नन्दीश्वर ने उन्हें रोकते हुए निवेदन किया- 'अभी माता जी स्नान कर रही हैं, इसलिए यहीं ठहरने की कृपा करें।' शिवजी बोले- 'अरे, करने दे स्नान, मुझे एक आवश्यक कार्य है तो यहाँ कैसे रुका रहूँ ?' यह कहते हुए लीलावपु परम-शिव नन्दी के वचनों की उपेक्षा कर सीधे स्नानागार में जा पहुँचे ।
गशेश्वर गणपति की प्राकट्य-कथा
भगवान् आशुतोष को शीघ्रता से आये देखकर स्नान करती हुई जगञ्जननी लज्जावश अत्यन्त सिमट गईं। शिवजी भी बिना कुछ कहे चले गये। इधर पार्वतीजी स्नानोपरान्त वस्त्र धारण करती हुई सोचने लगीं-जया-विजया का सुझाव उचित ही था। मैंने व्यर्थ ही उसकी उपेक्षा की। यदि द्वार पर मेरा कोई निजी गण उपस्थित होता तो शिवजी को स्नानागार में सहज ही नहीं आने देता ! नन्दी ने मेरे वचनों की उपेक्षा की। इससे प्रतीत होता है कि इन गणों पर मेरा पूरा अधिकार नहीं है। इसलिए मेरा निजी गण अवश्य होना चाहिए। क्योंकि वह पूर्ण रूप से मेरी आज्ञा में रहेगा। अब जो गण हैं, वे शिवजी की आज्ञा से ही मेरी आज्ञा मानते हैं, किन्तु मेरा निजीगण मेरी आज्ञा से ही उनकी आज्ञा मानेगा । ऐसा विचार कर उन्होंने अपने अत्यन्त पवित्र देह की मैल उतारीं और उससे एक चेतन पुरुष की रचना कर डालीं-
"सर्वावयवनिर्दोषं सर्वावयव-सुन्दरम् ।
विशालं सर्वशोभाढ्यं महाबलपराक्रमम् ॥"
'वह पुरुष सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न, समस्त अवयवों से दोष रहित, अत्यन्त सुन्दर अङ्ग वाला, विशालकाय, अद्भुत शोभामय और महाबली एवं पराक्रमी था ।' पार्वती जी ने तुरन्त ही अनेक प्रकार के दिव्य वस्त्राभूषण धारण कराये और शुभ आशीर्वाद देती हुई बोलीं- 'वत्स ! तू मेरा ही पुत्र है, मेरा हृदय-रूप होने के कारण मेरा ही है। तुझसे अधिक प्रिय अन्य कोई नहीं है।' तब उस पुरुष ने अत्यन्त आदरपूर्वक जगज्जननी के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर बोला- 'जननी ! मैं आपका ही हूँ, आपका ही रहूँगा। सदैव आपकी आज्ञा पालन करूँगा। अब आपकी क्या इच्छा है, उस विषय में आदेश दीजिए। आपके द्वारा निर्दिष्ट प्रत्येक कार्य करने के लिए मैं प्रस्तुत हूँ। पार्वती बोलीं- 'पुत्र ! तुम्हें मेरी आज्ञा से भिन्न किसी की भी आज्ञा नहीं माननी है। तुम मेरे द्वारपाल रूप में रहो और कोई भी कहीं से भी आया हो, उसे मेरे अन्तःपुर में तब तक न आने दो जब तक मेरा आदेश प्राप्त न कर लो। इस विषय में तुम्हें सदैव सतर्क रहना होगा ।'
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