श्री महा लक्ष्मी मंत्र सिद्धि की विधि,Shri Mahalakshmi Mantra Siddhi Kee Vidhi

श्री महा लक्ष्मी मंत्र सिद्धि की विधि,Shri Mahalakshmi Mantra Siddhi Kee Vidhi

श्री महा लक्ष्मी मंत्र सिद्धि की विधि मातृ भाव से साधना करने के लाभ, मां के स्वरूपों  का वर्णन, महालक्ष्मी, महा काली, महा सरस्वती के मन्त्रों की साधना !

श्री महा लक्ष्मी मंत्र सिद्धि की विधि

हमारे शास्त्रों मे जन कल्याण और विपत्ति निवारण के लिए बहुत से यत्र-मंत्र-तंत्र जंप अनुष्ठानो का वर्णन है जिन्हें गुरु के निर्देशन मे विधिपूर्वक करने से सफलता व सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। यहां एक अनुभव वि लक्ष्मी मंत्र का अनुष्ठान बताया जा रहा है। संसार मे रहने वाले गृहस्य जनो को लक्ष्मी की आवश्यकता पग-पग पर होती है ओर प्रत्येक मनुष्य) की चाहना में रहता है। तो कौन नहीं चाहेगा कि उसे लक्ष्मी की प्राप्ति न लक्ष्मी को। सबसे पहले तो यह बता देना जरूरी है कि नीचे लिले प्रयोग को सिद्ध करने से ऐसा नहीं है कि लक्ष्मी छप्पर फाड़कर अनायास प्रकट हो जाए या बिना कुछ करे घरे छप्पन करोड़ की चौथाई आपको मिल जाये। मिलेगी परिश्रम से ही। पहला परिश्रम तो आप को मंत्र सिद्ध करने का ही करना पड़ेगा। आपने देखा होगा कि जीवन संघर्ष में बहुधा धन कमाने के लिए बहुत परिश्रम करना होता है और फिर भी कभी-कभी सफलता नहीं मिलती । कभी-कभी हानि भी हो जाती है और परिश्रम निष्फल जाता है। इस मंत्र को सिद्ध कर लेने पर आपका परिश्रम निष्फल नहीं होगा और सफलताये सरलता से मिलेंगी। सफलता दिलाने वाले अवसर स्वमेव आपके सामने आयेगे ।
Shri Mahalakshmi Mantra Siddhi Kee Vidhi

मन्त्र जप अनुष्ठान आदि करने के लिए श्रद्धा तथा विश्वांस का होना बहुत आवश्यक होता है और इसके लिए बताने वाले पर यानी गुरु पर श्रद्धा होना अनिवार्य है। यदि कोई भिक्षुक आपसे कहे कि उसको लक्ष्मी मन्त्र जाता तो क्या आपको विश्वास होगा ? नहीं होगा। इसलिए उचित है कि अपने तथा अपने गुष के बारे में कुछ विवरण यहां दे दिया जाये । इस को आत्म प्रशंसा न समझ कर आप इसी संदर्भ में ले कि मह आपकी श्रद्धा को बलवती करने के लिए है। मेरे गुरु श्री आनन्द शरण जी स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी के शिष्य थे और एक रियासत के दीवान पद से सेवा निवृत्त हुए थे और मैंने १७ वर्ष की अवस्था से २५ वर्ष की अवस्था तक उनकी शरण में रहकर परमार्थ साधना की थी। अभी कुछ वर्ष पूर्व १९७५ मे ६० वर्ष की आयु पूर्ण हो जाने पर जीवन बीमा निगम से सेवा निवृत्त हुआ हूं। इस लक्ष्मी मन्त्र से मुझे क्या लाभ हुआ इसको संक्षेप में बताने के लिए इतना ही काफी है कि सेवा निवृत्ति के समय मेरा मासिक वेतन २५०० रु० से ऊपर ही था । मैंने माँ से इतना ही मांगा कि "सांई इतना मांगियो जामे कुटम समाय । मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय ।" परमार्थी होने के कारण मन की शाति और सन्तोष धन को प्राथमिकता दी जो निधि मुझे मिल गई है । यदि मांगता तो कह नहीं सकता कि अपार धन सम्पत्ति भी मिलती या नहीं परन्तु अब तक की ससार यात्रा आर्थिक दृष्टि से सरल व सुगम रही। मन्त्रानुष्ठान में सबसे पहले मन्त्र की दीक्षा ली जाती है। मैं अपने सभी मन्त्र की दीक्षा अपने गुरु के भी गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी के द्वारा ही दिलवाता हूं। मेरे गुरुदेव ने मुझे भी ठाकुर परमहंसजी को ही गुरु रूप मानने का आदेश दिया था। दीक्षा परमहंसजी के चित्र को सामने रखकर लेनी चाहिए । श्री महालक्ष्मी की मूर्ति या चित्र सामने रखकर उसकी पोडशोपचार पूजा करके अंगन्यास करन्यास, ध्यान मुद्रा आदि करके नियमपूर्वक मन्त्र का जाप किया जाता है। एकान्त स्थान में धूप-दीप जलाकर पवित्र आसन पर बैठकर इस लक्ष्मी मन्त्र की कम से कम १६००० आवृत्तियां करनी होती हैं। यह यदि ४० दिन के अन्दर हो जाये तो उत्तम रहता है । इसके बाद इस संख्या का दशांश हवन, उसका दशांश सर्पण, उसका दशाश मार्जन, उसका दशाश ब्राह्मण भोजन कराके पुरश्चरण सम्पूर्ण होता है और मन्त्र सिद्ध हो जाता है। तब मंत्र जाप करते समय दीपक की लौ या हवन की ज्योति की ओर ध्यान लगाते समय वह ज्योति या ली नेत्रो के द्वार से शरीर के अन्दर प्रवेश करती प्रतीत होती है। साधना करते समय सात्विक आहार, ब्रह्मचर्य पालन, भूमि पर शयन आदि नियमों का पालन आवश्यक होता है। एक निश्चित संख्या कहिये ३००० के लगभग, नित्य चाहिए ! शुद्ध घृत का दीप साधना के समय निरन्तर जलते अखण्ड दीपक का प्रबन्ध हो सके तो अति उत्तम है। साधना के बीच मे अलौकिक दर्शन, ध्वनियों का श्रवण व अन्य अनुभव होते हैं। देवी देवताओं के दर्शन होते हैं। चित्र में दी हुई लक्ष्मी जी की छवि प्रकाशमय हो जाती है। हो सकता है किसी प्रकार के विघ्न बाधा भी उपस्थित हो और आपको अनुष्ठान से विचलित करने का प्रयास करें । परन्तु मन्त्र जप पर बैठने के बाद उसे उस दिन की संख्या पूरी किये बिना किसी भी हालत में उठना नहीं चाहिए। ॐ फासोस्मितां हिरण्य प्राकारा मार्द्रा ज्वलन्तीम् तृप्ताम् तर्पयन्तम् । पद्मस्थित पद्मवर्णाम् तामिहोप हयेश्रियम् ।। उपरोक्त मन्त्र श्री सूक्त के १६ मन्त्रो मे से एक मन्त्र है। श्री सूक्त का पाठ दिवाली की रात्रि को लक्ष्मी पूजन के समय किया जाता है। इस मंत्र के सिद्ध कर लेने पर न केवल दरिद्रता का नाश होता है वरन् सुख, समृद्धि, उत्तम स्वास्थ्य, प्रखर बुद्धि भी प्राप्त होती है । मन्त्र सिद्ध हो जाने | उसे दुहराते रहना चाहिए और मन्त्र के साथ यथा शक्ति हवन भी करते रहना चाहिए। इससे आपको आपकी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की कमी कभी नहीं रहेगी। जब भी आपको अपनी किसी उचित आवश्यकता के लिए धन की कमी महसूस हो तो इस मन्त्र की कुछ आवृत्तियां कीजिए, धन आगमन का कोई न कोई साधन तुरन्त बन जायेगा और आप अनुभव करेगे कि किस प्रकार से देवी सहायता प्राप्त होती है। आप स्वयं चमत्कृत होगे। इसका अनुभव मैंने स्वयं अपने जीवन में कितनी ही बार किया है। जैसा कि पिछले अध्याय में विस्तार से बताया गया है कि किसी भी मन्त्र को सिद्ध करने के लिये जिन प्रारम्भिक बातों की आवश्यकता होती "है उसको फिर ध्यान से एक बार पढ़ जाइये। श्रद्धा, धैर्य, गुरु भक्ति, शरीर शुद्धि, मन शुद्धि, द्रव्यशुद्धि, किया शुद्धि, आसन जप के नियम आदि की बाते हृदयंगम कर लीजिए और उनका पालन करिये। गुरु भक्तिविहीनस्य, तपो विद्याव्रतं जप व्यर्य सर्वं । शवस्यैव नानालंकार भूषणम् । विना दक्षिणा दिये लिया गया मन्त्र या ज्ञान, बेमन से बताया गया मन्त्र तन्त्र फलदायक नहीं होता । इसलिए गुरु को दक्षिणा द्वारा या सेवा से या खुशामद से प्रसन्न करके ही ज्ञान लेना चाहिए। तभी वह फलदायक होता है । आजकल विश्वविद्यालयो "मे जो विद्यार्थीगण अपने गुरुओं का मजाक, घेराव, अपशब्द यहाँ तक कि मारपीट तक कर देने हैं तो उन्हें वैमी ही विद्या प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त मन्त्र के वणो पदों का न्यास शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो मे उसकी धारणा करना, प्राणायाम के द्वारा मन्त्र की शक्ति को बढ़ाना, इष्ट देवता का ध्यान, उनके भिन्न-भिन्न आयुधो की हाथ की उगलियो से मुद्रा बनाना । यह सब जहाँ तक हो सके करना चाहिए। मुद्रा बनाना लिखकर नहीं समझाया जा सकता। उसे आप अपने यहां के ही किसी पण्डितं से सीखने का प्रयत्न करें। मुद्रा नहीं बना सकें तो उसका ध्यान ही करें आवाहन विसर्जन दशाश हवन, शताश तर्पण मार्जन या तो नित्य करते जाये या अंत मे इकट्ठा कर दे । हवन मे जौ, सफेद तिल, चावल, शुद्ध घी, शक्कर या चीनी यथा शक्ति सामग्री तथा कुछ मेवा व धूप मिला ले. प्रसाद नैवेद्य मिष्ठान्न बर्फी बतासे या किसी श्वेत रंग की मिठाई का लगाये। माला कमल गट्टे की या तुलसी की होनी चाहिए। सफेद डोरे में पिरोई गई प्रत्येक मनके के बाद गांठ लगी हुई हो। कमल गट्टे की माला २७ मनको की हो, तुलसी की माला १०८ मनको की हो। सुमेह का मनका बड़ा होता है और गिनती मे नहीं लिया जाता । पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। यदि पूर्व की ओर मुख करके बैठो तो देवी का चित्र अपने सीधे हाथ की ओर रखो जिससे दैवी उत्तराभिमुख रहेगी। यदि उत्तर की ओर मुख करके बैठो तो चित्र को अपने चाई पर रखना चाहिए जिससे देवी का मुख पूर्व की ओर रहे। दक्षिण दिशा की ओर देवी का मुख नहीं होना चाहिए और पूर्व की ओर सर्वोत्तम,, उत्तर की ओर उत्तम तथा प दिशा की ओर मुख सामान्य होता है । पूजा के लिए उपयुक्त स्थान गौशाला, गुरु का घर, देव मंदिर, पुण्य क्षेत्र, तीर्थस्थान, नदी का किनारा, पर्वत की चोटी, गुफा, बेलपत्र, पीपल, अशोक, वट वृक्ष के नीचे का स्थान, घर का एकान्त कमरा या स्थान होना चाहिए। ब्रह्म मुहुर्त का प्रातः चार बजे के लगभग से सूर्योदय तक अथवा आधी  रात के बाद का समय सबसे उपयुक्त होता है । परन्तु यदि स्थान शान्त एकान्त हो तो प्रातः मध्यान्ह, सायं काल का समय भी ठीक रहता है। वस्त्र सूती रेशमी या ऊनी सफेद रंग के पहने। सूती हो तो सिले हुए या फटे हुए न हो जैसे धोती ओर चादर वगैरा सिले हुए नहीं होते। बिल्कुल नया हो तो एक बार धोकर पहनना चाहिए। पाजामा र पैन्ट आदि पहनकर जप नहीं किया जाता। सबसे पहले मन्त्र की दीक्षा लेनी चाहिए। मन्त्र को भोजपत्र पर लिखकर देवी के और हो सके तो गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस जी के चित्र के सामने रख दो। उसके बाद तीन बार आचमन करो और शरीर की शुद्धि कर लो । ॐ महालक्ष्म्यै नमः स्वाहा, ॐ महासरस्वत्यै नमः स्वाहा, ॐ महाकाल्यै नम. . स्वाहा, इन मन्त्रों को कहकर बाये हाथ से सीधे हाथ में जल लेकर आचमन करो और ओ३म् हिरण्यवर्णां नमः कहकर धो लो। उसके बाद ॐ अपवित्र पवित्रोवा मंत्र कहकर अपने मस्तक पर जल डालो और आसपास की पृथ्वी पर छिड़को ! यह जल कुशा से या पान के पत्ते से छिड़कना चाहिए। पाच बार रेचक, पूरक कुम्भक करके लक्ष्मी मंत्र का जाप पांच बार करो। सांस को धीरे-धीरे अन्दर भरो, कुछ देर रोको और धीरे-धीरे बाहर निकाल दो ! यह एक प्राणायाम होता है। इस एक प्राणायाम में पूरे लक्ष्मी मंत्र को एक बार मन में प्राणों पर जाप करो और ऐसा पांच बार करो। इसके बाद हाथ में पुष्प अक्षत जल तुलसीदल लेकर प्रथम दिन अपना नाम गोत्र तिथि चार नक्षत्र मास पक्ष देवताओं की साक्षी लेकर पहले बताया हुआ संकल्प बोलो । यह संकल्प पिछले पाठों मे "ॐ विष्णु विष्णु विष्णु । अथ श्री श्वेत बाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविशतितमे कलियुगे इस प्रकार दिया हुआ है। संस्कृत में नहीं पढ़ सको तो हिन्दी मे ही संकल्प लो कि में अमुक समय अमुक स्थान पर अपने कल्याणार्थ श्री महालक्ष्मी मंत्र को सिद्ध करने का अनुष्ठान करता हूं। ऐसा कहकर हाथ में लिये हुये पदार्थ जल अक्षत पुष्प आदि को नीचे रखे किसी पात्र में छोड़ दो । यदि शिखा हो तो शिखा बांध तो नहीं तो एक पवित्री कुशा की बनी हुई अपने दाहिने कान पर रखकर लपेट लो । नया यज्ञोपवीत धारण कर लो। मायें पर कैंसर का या श्वेत चन्दन का तिलक लगा लो। इसके बाद देवी का आवाहन करो और पिछले अध्यायो में बताई गई विधि से षोडशोपचार विधि से या पंचोपचार विधि से माता लक्ष्मी का पूजन करो।

श्री महालक्ष्मी मंत्र के लिए महालक्ष्मी की षोडशोपचार पूजा विधि 

शुद्ध जल से स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहने पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पद्मासन या स्वास्तिकासन से कुशा या ऊन के आसन पर बैठे । आचमन और प्राणायाम के बाद गुरु का स्मरण करे ! ॐ श्री गुरुभ्यो नमः कह कर मस्तक झुका कर प्रणाम करो। मध्यमा अनामिका और अंगूठे को मिलाकर तत्वमुद्रा बनाकर नीचे लिखे मंत्र को बोलते हुए शरीर के अवयवों को स्पर्श करते जाओ 
  • ॐ गुँ गुरुभ्यो नमः कहकर बाँयें कन्धे को स्पर्श करो 
  • ॐ गणपतये नमः कहकर दाये कंधे को स्पर्श करो 
  • ॐ दुं दुर्गाय नमः कहकर बाँई जांघ का स्पर्श करो । 
  • ॐ क्षं क्षेत्रपालय नमः कहकर दाई जांघ का स्पर्श करो 
  • ॐ श्री महालक्ष्म्यै अस्त्राय फट् कहकर दाई हथेली से बांये हाथ की कोहनी से हथेली तक तथा बांये हाथ की हथेली से दाहिने हाथ की कोहनी से हथेली तक स्पर्श करो। 
अन्तिम मंत्र ॐ श्री महालक्ष्म्यै अस्त्राय फट् बोलते हुए तीन बार ताली बजाइये। इसके बाद अपने इष्ट मंत्र महालक्ष्मी मंत्र को बोलते हुए दशों दिशाओं का दिग्बंधन करो। मंत्र पढ़ते जाओ और पूर्व दिशा की ओर पूर्व उत्तर की ओर, उत्तर की ओर उत्तर पश्चिम की और, पश्चिम, पश्चिम दक्षिण, दक्षिण दक्षिणपूर्व दिशा आकाम तया पृथ्वी की ओर चुटकी बजाते हुए दिग्बन्धन किया जाता है। चुटकी बजाते हुए साथ-साथ इन दिशाओ की ओर प्रणाम भी करते जाओ। इसके बाद बायें पैर की ऐडी से, तीन बार हल्के से आघात करो। अनुष्ठान की निर्विघ्न समाप्ति के लिए, शीघ्र सिद्धि प्राप्ति के लिए, श्री काल भैरव की प्रार्थना करो यह मंत्र चोलो, "तीक्ष्ण दष्ट्र महाकाय कल्पांत दहनापम । भैरवाय नमस्तु मनुगां दातुमर्हति ।" इसके बाद दीपक की स्थापना करो। इसके बाद महालक्ष्मी का निम्नलिखित ध्यान मंत्र कहकर महालक्ष्मी का ध्यान करो।ओम् अक्षय परशुं गदेषु कुलिगं पदमं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्ति मि चर्म जलन घण्टां मुराभाजनम् । शूलं पाश सुदर्शनेच दधती हस्त सन्मानना ! सेवे सैरिभ मर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिता ।" प्रत्येक़ बार अपना लक्ष्मी मंत्र कहकर निम्न १६ उपचार से पूजा करो । 
  1. आवाहनम् समर्पयामि । पंचपात्र से जल छिड़क दो और प्रत्येक उपचार के साथ जल छिड़कते जाओ । 
  2. आचमनं समर्पयामि 
  3. पाद्यं मर्पयामि 
  4. अर्ध्यं समर्पयामि 
  5. आचमनीयं समर्पयामि 
  6. स्नानं पंचामृत सहितं समर्पयामि 
  7. वस्त्रोपवस्त्रे समर्पयामि 
  8. यज्ञोपवीतं समर्पयामि 
  9. गन्धं समर्पयामि 
  10. पुष्पं समर्पयामि (फूल माला अर्पण कुरो ) 
  11. धूपं समर्पयामि 
  12. दीपं समर्पयाभि 
  13. नैवेद्यं समर्पयामि 
  14. नीराजनं समर्पयामि 
  15. नमस्कारं समर्पयामि 
  16. प्रदक्षिणां समर्पयामि । 
यह १६ उपचार हैं। इसमें नीराजन आरती उतारने को कहते हूँ । नमस्कार में, पुष्पांजलि होती है। इसके बाद एक परिक्रमा की जाती है। जो सुविधा न हो तो अपने स्थान पर खड़े होकर घूम कर भी की जा सकती है । 
  1. आवाहन मंत्र से देवी का आवाहन यानी बुलाया जाता है और स्थान ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की जाती है। 
  2. के द्वारा उनको आसन ग्रहण करने के लिए निवेदन किया जाता है 
  3. के द्वारा चरण पखारे जाते हैं 
  4. के द्वारा अर्घ्य दिया जाता है। प्रत्येक बार पचपात्र से जल लेकर किसी दूसरे पात्र में डालते जाना चाहिए। 
  5. के द्वारा देवी के हाथ धुलाये जाते हैं। 
  6. के द्वारा स्नान कराया जाता है। चित्र पर जल नहीं डालते आचमनी से इधर-उधर छिड़कते जाते हैं । धातु की मूर्ति हो तो उसे पचामृत से गंगाजल से शुद्ध जल से स्नान कराते हैं । 
  7. व 
  8. में कोई सूत का धागा कलाचा मौली चुनरी वस्त्र अर्पण करते हैं। 
  9. से श्वेत चन्दन अक्षत (चावल के साबत दाने) हल्दी का चूर्ण, गुलाल, अबीर, सिन्दूर, काजल दूर्वादल, विल्वपत्र आदि मे से जितने पदार्थ हो सके अर्पण किए जाते हैं। कुछ न हो तों सबके स्थान पर केवल अक्षतों से काम चला लिया जाता है।
  10. मे पुष्प पुष्पमाला रत्नमाला सुगंधित दृव्य व 
  11. में धूप अगर बत्ती जलाकर उसके धूयें को चित्र की ओर प्रवाहित करो 
  12. में दीपक की ओर अक्षत छोड़कर घण्टी बजाओ । शुद्ध घी का दीपक जिसमें सफेद रंग की रुई की बत्ती हो देवी के बायें भाग में रखो और उसकी ओर अक्षत छोड़कर घण्टी बजाओ।
  13. मे नेवेद्य भोग प्रसाद अर्पण करो धेनु मुद्रा योनि मुद्रा तथा ग्रास मुद्रा का प्रदर्शन करो। घण्टी बजाकर आचमन कराओ हस्त प्रक्षालन कराओ ऋतुफल निवेदन करो फिर ताम्बूल पुंगीफल (सुपारी पान) दक्षिणा द्रव्य अर्पण करके आरती उतारो पुष्पाजलि अर्पण करो। इसके बाद न्यास सहित श्रीसूक्त का पाठ करो। श्री सूक्त मे केवल १६ भन्न हैं। श्री सूक्त की पुस्तक बाजार मे आसानी से मिल जाती है। अगन्यास निम्न प्रकार से हैं- 

श्री महालक्ष्मी मन्त्र का अक्षरन्यास : 

ॐ कांसोस्मिता नम. शिखायाम् ॐ हिरण्य नमः दक्षिण नेत्रे, ॐ प्रकारामार्द्रा नम. घाम नेत्रे, ॐ ज्वलन्ती नम. दक्षिण कर्णे, ॐ तप्तां नमः बाम कर्णे, ॐ तर्पयन्तीम् नमः दक्षिणनासापुटे, ॐ पद्मस्थिताम् नन. वामनासापुटे, ॐ पद्मवर्णा नमः मुखे, ॐ तामिहोपहव्येश्रियं नमः गृहये । शिखाया कहकर सीधे हाथ के अंगूठे से शिखास्थान का स्पर्श किया जाताहै । दक्षिणनेत्रे के साथ सीधी आँख पर, वामनेत्रे के साथ बाँई आँख पर, इसी प्रकार दाहिने कान, बाँये कान, दाहिने नथुने, बाँये नथुने पर, मुख पर, गुह्य स्थान की ओर केवल इगित करते हैं। सीधे हाथ की उंगलियों के प्रथम पर्व से स्पर्श किया जाता है। इसी मन्त्र का दिगन्यास : ॐ कासोस्मिता प्राच्यै नमः (पूर्व दिशा ) ॐ हिरण्य आग्नेय्यै नमः, (अग्नि कोण पूर्व दक्षिण के बीच का ), ॐ प्रकाशमाद्रां दक्षिणायै नमः, ॐ ज्वलन्तीम् नैऋत्यै नमः (दक्षिण पश्चिम के मध्य ) ॐ तृप्ताम् प्रतीच्यै नमः (पश्चिम दिशा), ॐ तर्पयन्तीम् वायव्यै नमः (पश्चिम उत्तर के मध्य ), ॐ पद्मवर्णाम् ऐशान्यै नम. (उत्तर पूर्व के मध्य ), ॐ तामिहोप ऊर्ध्वायै नमः (आकाश की ओर), ॐ हव्येश्रियम भूम्ये नमः (भूमि की ओर ) उपरोक्त न्यास मन्त्र को बोलकर उनके सामने लिखी दिशाओं की ओर चुटकी बजाते हुए न्यास करो ।" ॐ हिरण्यमये नमः हृदयाय नमः कहकर हृदय को स्पर्श करो। (सीधे हाथ की उंगलियो के प्रथम पर्व से ) । ॐ चन्द्राय नमः शिरसे स्वाहा कहकर सिर (मस्तक) का स्पर्श करो। (सीधे हाथ की उगलियो के प्रथम पर्व से ) । ॐ रजतस्रजाये नमः शिखायै वषट् कहकर शिखा का स्पर्श करो। (सीधे हाथ के अंगूठे से ) । ॐ हिरण्यखजाये नमः कवचाय हुम् कहकर दोनों हाथों से दोनों बाहुओं का स्पर्श करो। सीधे हाथ से बांई भुजा का और बाँयें हाथ से सीधी भुजा का मध्यमा प्रथम पर्व से ॐ हिरण्याये नमः नेत्रत्रयाय वौषट् कहकर सीधे हाथ की उगलियो से दोनों नेत्रों तथा मत्तक मे तीसरे नेत्र स्थान का स्पर्श करो। ॐ हिरण्यवर्णाय नमः अस्त्राय फट् कहकर बाँई हथेली पर सीधे हाथ से ताली बजाकर फट की ध्वनि निकालो। करन्यास इस प्रकार हैं : ॐ काँसोस्मितां अंगुष्ठाभ्यां नमः दोनों हाथों की तर्जनी से दोनों अंगुष्ठ मूलों का स्पर्श करो। ॐ हिरण्यप्राकारामार्द्रा तर्जनीभ्यां नमः कहकर दोनो अंगूठों से दोनो तर्जनी उंगलियों का स्पर्श करो। ॐ ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् मध्यमाभ्यां नमः कहकर दोनों अंगूठों से दोनो तर्जनी उंगलियों का स्पर्श करो। ॐ पद्मस्थितां पद्मवर्णा अनामिकाभ्यों नमः कहकर दोनों अंगूठों से दोनो अनामिका उंगलियों का स्पर्श करो। ॐ तामिहोपहव्येश्रियम् कनिष्ठकाभ्यां नमः कहकर दोनो हाथो से कनिष्ठिका उंगलियों का स्पर्श करो। ॐ कांसोस्मितां हिरण्यप्रकारमार्द्रा ज्वतन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् पद्मस्थितां पद्मवर्णा तामिहोपहव्येश्रियम् करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः कड़कर दोनों हाथो की हथेलियों से दोनों हाथों के करपृष्ठों को बारी-बारी से स्पर्श करो ।

 मन्त्र का अंगन्यास : 

ॐ कांसोस्मितां हृदयाय नमः । ॐ हिरण्यप्रकारामाग्री शिरसे स्वाहा । ॐ ज्वलन्तीम् तृप्ता तर्पयन्तीम् शिखाये वषट् । ॐ पद्मस्थितां पद्मवर्णां कवचाय हुम् ॐ तामिहोपहव्येश्रियम् नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ कांसोस्मितां हिरण्यप्रकाराभाद्रा ज्वलन्तीम् तृप्तां तर्पयन्तीम् पद्मस्थितां पद्मवर्णाम् तामिहोपहव्येश्रियम् अस्त्राय फट् । इन मन्त्रो से शरीर के तत्सम्बन्धी अंग का उपरोक्त प्रकार से ही स्पर्श करो। हृदय, मस्तक, शिला स्थान, बाहुओं तीनो नेत्र स्थानों का स्पर्श करो और फट् की ध्वनि निकालो।

महालक्ष्मी जी की आरती :

ॐ जय लक्ष्मी माता मैय्या जयं लक्ष्मी माता । 
आदि शक्ति कहें तुमको सुरगण है ध्याता । 
जय कमलालय वासिनि,  हरीप्रिया कमले ।
काली. गिरा समेते, जय लक्ष्मी विमले ॥
 इन्द्राणी रुद्राणी ब्रह्माणी तुभ हो । 
सकल लोक की माता पालनहारि तुम हो ॥
जिस घर बास तुम्हारा उसका क्या कहना ।
 रम्य भवन हैं उसके रत्न मणि गहना ॥ 
महानिशा में घर-घर पूजा हो पूजा हो तेरी !
जय कमले हरि भामिनी अब सुधि ते मेरी ॥
रिद्धि सिद्धि समेता बसियो मम घर मे ! 
यही प्रार्थना मेरी स्वीकारो उर मे ॥
पूत कपूत भले हो  पर तू है ' माता । 
यही सोचकर मुझ पर करुणा कर त्राता ।
नहीं पाठ पूजा मै जानू महतारी ।
केवल  तब चरणो का हूं आश्रयकारी  ||
भक्ति भाव पूजा का  ज्ञान नहीं मुझको ।
अनुचर की लज्जा का ध्यान रहे तुझको ।।

इसके बाद माता की पूजा करो। इसके लिये पिछले अध्यायों में माता पूजा का जो मन्त्र ॐ महामाये महामाले आदि जो श्लोक मन्त्र है उसको पढ़ो।  फिर माता को गोमुखी मे रखकर इष्टदेवी का ध्यान करते हुए जप आरम्भ कर दो। जैसा कि पहले बताया है आरम्भ मे जंप जिहा से कण्ड से करो । प्रतिदिन के लिए या प्रति बैठक के लिए अपनी सुविधा के अनुसार कुछ संख्या निर्धारित कर तो और वह पूरी होने पर माला को सिर से लगाकर जप समाप्त कर दो तथा निम्न श्लोक के साथ जप को देवी को अर्पण कर दो । गोत्रीत्वं गृणास्मत्कृत जपम् सिद्धर्भवतुमेदेवि त्वत्प्रसादा महेश्वरि । इस मन्त्र का पुरश्चरण ( सोलह हजार ) मन्त्र संख्या का । हवन यदि थोड़ा-थोड़ा नित्य करो या फिर इकट्ठा करो । नित्य करना तो आरती से पहले ज्योति जगाकर कर दिया करो। हवन में कुछ आहुतियाँ हिले घी से ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा, ॐ वरुणाय नमः स्वाहा, ॐ रुद्राय नमः वाहा, ॐ प्रजापतये नमः स्वाहा, ॐ अग्नये नमः स्वाहा, ॐ सोमाय नमः वाहा, ॐ बं बटुकाय नमः स्वाहा, ॐ क्लीं महाकाल्यै नमः स्वाहा, ॐ ह्रीं रस्वत्यै नमः स्वाहा ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नमः स्वाहा, ॐ ब्रह्मा मुरारी त्रपुरान्तकारी भानु शशि भूमि सुतो बुधश्च गुरोश्च शुक्रो शनि राहु केतुवः पर्वे ग्रहाः शान्ति करा भवन्तु स्वाहा, इस प्रकार कुछ आहुतियाँ आरम्भ में त की दें फिर मंत्र पढ़कर अन्त में स्वाहा लगाते हुए मन्त्र से हवन करें और जितनी आहुतियाँ मन्त्र की दे सकें जितनी समय- य-सुविधा हो जितनी सामग्री हो उसके अनुसार नित्य का हवन करें। कुल दशांश हवन हो जाये इसका ध्यान रखें। इसी प्रकार तर्पण में स्वाहा के स्थान पर तृप्यन्ताम् शब्द लगाया जाता है। पहले देवताओं का ॐ ब्रह्मा तृप्यन्ताम् ॐ विष्णु तृप्यन्ताम् ॐ रुद्र कृप्यन्ताम् आदि उपरोक्त मन्त्रों के साथ तर्पण किया जाता है। उसके बाद मन्त्र के बाद तृप्यन्ताम् कहते हुए मंत्र के साथ तर्पण किया जाता है। हवन के अन्त में पूर्णाहुति से पहले कुछ आहुतियाँ इस प्रकार दी जाती है जो घृत से होती है । ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा ॐ समानाय स्वाहा ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ मन बुद्धि चित्त अहंकाराय स्वाहा । बची हुई हवन सामग्री तथा घृत को अग्नि में छोड़ते हुए पूर्णाहुति की जाती है और ॐ पूर्णमिदं पूर्णमिदः पूर्णतपूर्णमुदध्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते कहते हुए पूर्णाहुति कर दो। हवन के अंतिम दिन या समाप्ति पर नारियल की सूखी गिरी जिसे गोला भी कहते हैं उसमें छेद करके घी भर तो और लाल या सफेद घुंघची के ग्यारह दाने डाल लो और पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत वस्नेव विक्रीणा वहाइप मूर्ज शतक्रतो स्वाहा इति अग्नां पाणिद्वयेन प्रक्षिपेत् कहकर पूर्णाहुति करो। सोना तोलने के काम में जो रत्ती आती है उसे ताल पची कहते हैं। ऐसी ही सफेद गोंगची होती है। वैद्यक की दवायें जहाँ मिलती है उस दुकान पर अत्तार के यहाँ से मिल जायेगी  इसको संस्कृत में लक्ष्मणा जड़ी कहते हैं। यह हिन्दुस्तानी मनी प्लाट है। इस घर में लगाना बहुत शुभ व लक्ष्मी के आगमन के लिए है। तंत्र में भी इससे कई उपाय बताए गए हैं। यह तुलसी की ही भाँति हर घर में नहीं लगती। इसकी बैल होती है पत्ते इमली के पत्ते की तरह होते है और स्वाद मे मीठे होते हैं। सफेद रंग की घोगची को मिट्टी ने बोने से आठ-दस दिन के बाद पौधा निकल आता है। परन्तु चिड़ियो से इसकी रक्षा करनी होती है क्योकि मीठे पत्ते के लालच में चिड़ियाँ इसके छोटे पौधे को खा जाती है। हवन सामग्री जो से दूना चावल उससे दुगना सफेद तिल उससे दुगना भाग शक्कर (चीनी हो तो पीस लो) शक्रुद्र के बराबर भांग घी उसमें थोड़ी धूप, मेवा या अष्टगन्ध मिला तो । अगर तगर कपूर केसर कस्तूरी गोरोस लाल चन्दन सफेद चन्दन गूगल कपूर कचरी बालडड़ आदि सुगन्धित द्रव् हवन सामग्री मे मिला लो, जितनी श्रद्धा हो, जितनी आसानी से मिल जाये, प्रबन्ध कर लो। समिधा : हवन में प्रयोग के लिए आम अनार ढाक आक छोकर पीपल की सूखी पतली टहनियाँ गिलोय की कुछ डाले लक्ष्मणा की कुछ शाखाये लेकर समिधा बनाओ । उनको पहले धोकर साफ कर लो। कीड़ों की खाई हुई मकड़ी का जाला लगी हुई न हों। लक्ष्मणा की डाली पुष्य नक्षत्र में तोड़ो जो मिले वही इकट्ठी कर लो। पुष्पांजलि मंत्र पीछे दिया हुआ है उसको पूरा पढ़ सको तो श्रद्धापूर्वक आरती के बाद पुष्प समर्पित कर देते हैं। तर्पण करते समय उकडू बैठा जाता है, पंजो के बल और दोनो हाथो को दोनो घुटनो के बीच में रखते हैं। तर्पण के लिए शुद्ध जल लिया जाता है, उसमे सफेद तिल चावल अक्षत सफेद पुष्प दूर्वा लक्ष्मणा के पत्ते डाले जाते हैं। तर्पण के बाद जल को पौधों में देते हैं, नाती मे नहीं फेंकते । ब्राह्मण भोजन यथाशक्ति कराना चाहिए, बाकी के लिए मछलियों को मन्त्र तिली जौ के आटे की गोलियाँ सिता दी जाती है। मार्जन खड़े होकर या बैठकर मन्त्र पढ़ते हुए जल के छींटे चारों ओर तथा अपने शरीर पर दुर्वा कुशा पान के पत्ते या हाथ से भी छिड़क सकते हो। अभिप्राय मन्त्र जप का ही है। इस प्रकार आपको लक्ष्मी मंत्र सिद्ध करने की पूरी विधि बता दी गई । इसको पूरे विधिविधान से किया जाये तो सफलता भी पूरी मिलती है। रन्तु यदि कहीं कुछ कमी रह जाए तो सफलता तो मिलती है, परन्तु कम दाद में मिलती है कुछ देर से मिलती है। जितना गुड़ डालो उतना ही मीठा होता है बाली उक्ति के अनुसार लाभ ही लाभ है, हानि कुछ नहीं । ते मुख्य तो पूरे मनोयोग के साथ मंत्र का जाप है। आगे पीछे के जो अन्य पुरश्चरण साधन है वे मन में श्रद्धा विश्वास के लिए हैं अगर आप कुछ भी न बन पड़े तो प्राणों पर मंत्र का जाप किसी भी शारीरिक स्थिति में रहकर करें, हर समय निरन्तर और जितनी अधिक संख्या हो जाये करते जायें। इस बात की गारंटी है कि आपको लक्ष्मी मां की कृपा अवश्य प्राप्त होगी। चलते फिरते उठते-बैठते सोते-जागते मंत्र जाप चलता रहे तो आप देखेगे कि बहुत शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। निरन्तर जाप में कुछ समय के वाद सचमुच सोते में भी जाप होता रहता है। यह आपको अनुभव ही बता देगा। कोई काम विधि से तरीके से किया जाता है तो ठीक होता है विधि से नहीं किया जाता तो ठीक नहीं होता। जैसा कि आपको एक गोल घेरा सूचना है, अब यदि आप परकार की सहायता से ठीक बिन्दु पर खींचेंगे तो घेरा साफ, सुन्दर ठीक आयेगा और यदि हाथ से खींचेगे तो उतना अच्छा नहीं आयेगा । इसलिए उपरोक्त विधि में और आगे बताई जाने वाली सभी विधियों में हमारी सलाह आपको यह है कि आरम्भ में आप अवश्य सब काम पूरे विधि विधान से करे। यदि आपको संस्कृत नहीं आती तो पूजा के संस्कृत के श्लोक व मंत्रों को न बोले उनका भावार्थ समझ लें। माँ की पूजा आरती हवन आदि यथा शक्ति करें और जप चालू रखें। आपको कुछ दिन बाद दी दीपक की लौ या हवन की ज्योति अपने शरीर में नेत्रों में प्रवेश करती प्रतीत होगी। यह सात्विक साधना है इसमें भय की कोई बात नहीं है। आपको धन आगमन के समाचार साधन मिलेंगे और विश्वास जमता चला जायेगा ।  आपके उत्साह में वृद्धि होगी। इस मन्त्र का पुरश्चरण १६००० का हो १६००  १६० तर्पण १६ मार्जन और एक से ग्यारह तक श्रद्धानुसार ब्राह्मण भोजन कुल संख्या १७७७७ हुई । इसको ४१ दिन में करना है तो ४ माला रोज से करने से ही हो जायेगा । ४ माला एक घन्टे में हो जाती हैं। समय सुविधा जितनी हो उसी हिसाव से अपना कार्यक्रम बना लो। २९ दिन में करन है तो ८ माला नित्य जप हवन आदि के लिए चाहिए। हवन तर्पण मा आदि नित्यं भी किया जा सकता है और अन्तिम दिनों में इकट्ठा भी किस जा सकता है। कुछ संख्या कम रह जाये तो मछलियों को गोली खिला है जाती हैं। मेरा यह लक्ष्मी मंत्र सम्बन्धी लेख ज्योतिष्मती पत्रिका, ज्योतिष ज्ञान दर्पण पत्रिका, श्री विश्व विजय पंचांग २०३५ मे निकला था । सन् १९७८ से १९८१ के मध्य अन्य अनेक सज्जनो को इस मंत्र के जप पुरश्चरण से लाभ हुआ है। इस प्रकार के अनेकों पत्र मेरे पास आये हैं। दीवाली की रात होली की रात चंद्र या सूर्य ग्रहण का समय शिवरात्रि और ज्योतिष के अनुसार कुछ खास योग ऐसे हैं कि इन पर्वो में मंत्र का जाप करने से हजार गुना फल होता है और मंत्र तंत्र आदि शीघ्र सिद्ध हो जाते हैं और मंत्र वेत्ता लोग अपने सिद्ध मंत्रों को भी इन रात्रियो तथा पर्वो पर जप करके पुनर्जीवित करते रहते हैं। 

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