तन्त्र साधना,Tantra Sadhana

तन्त्र साधना,Tantra Sadhana

तन्त्र साधना तन्त्र साधना, कुण्डलिनी शक्ति, गवाक्ष योग साधन, चीर हरण लीला का रहस्य, वाम मार्ग साधना, अघोरपंथ साधना, श्मशान साधना, भैरवी चक्र, षोडसी पूजा !

तन्त्र साधना

तान्त्रिक साधना भारतवर्ष में तथा विश्व के अन्य देशों में बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित है। वैदिक काल से भी पहले जो आदिम जातियां इस भूभाग पर रहती थीं उनमें लिंग और योनि की पूजा प्रचलित थी। उन लोगों ने देखा कि मनुष्यों के प्रजनन में इन इन्द्रियों का प्रमुख हाथ है तो वे इनकी प्रतीकात्मक रूप से पूजा करने लगे। आर्यों में जिस प्रकार सूर्य चन्द्र अग्नि वायु तेज वर्षा आदि के देवताओं की पूजा होती थी उसी प्रकार आर्येतर जातियों में लिंग पूजा का प्रचलन था । जब आर्यों का सम्पर्क इन अनार्य जातियों से हुआ तो उन्होंने इस प्रचलित लिंग योनि पूजा को अपने धर्म ग्रन्थों में शिव व शक्ति की पूजा के रूप में सम्मिलित कर लिया। कालान्तर में इसी का विकास होते-होते शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों का गठन हुआ।

तन्त्र साधना,Tantra Sadhana

" बाद में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ और उस समय के बहुत से शैव व शाक्त मतावलम्बी भी इस धर्म में दीक्षित हो गये। कालान्तर में उन लोगों ने बौद्ध धर्म में अपनी पूजा पद्धतियों का प्रवेश करा दिया। बुद्ध धर्म कई शाखा प्रशाखाओं में विभक्त हो गया और उनकी वह शाखा जो तान्त्रिक पूजा अनुष्ठानों में विश्वास रखती थी वज्रयान कहलाई । मुसलमानों के राज्यकाल में हिन्दू मन्दिरों, महीं तथा बौद्ध विहारों पर बहुत अत्याचार हुए और इनके प्रसिद्ध मठ विहार आदि भूमिसात कर दिये गये। यह लोग अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग गये और इनकी बहुत बड़ी संख्या नेपाल, चीन तथा तिब्बत की ओर चली गई । बिहार तथा आसाम के भागो में भी बहुत से लोग भूमिगत हो गये । शनैः-शनैः यह तान्त्रिक साधना लुप्त होती चली गई । आज तो बहुत कम तन्त्रवेत्ता रह गये हैं जो प्रच्छन्न रूप में तिब्बत, नेपाल, बिहार, आसाम आदि के कुछ भागो में पाये जाते हैं। तन्त्र की साधना अति गोपनीय तथा दुष्कर साधना है। यह मूल कुण्डलिनी योग पर आधारित है।
मेरुदण्ड के अन्दर इडा, पिगता, सुषुम तीन मुख्य नाड़ियां तथा वज्रा चित्रणी व ब्रह्म नाड़ियां मस्तिष्क से लेकर ि गुदा के मध्य स्थान तक जहां मेरुदण्ड समाप्त होता है आपस में लिपटी हुई होती हैं। इस स्थान को तन्त्र की भाषा मे योनि कहा जाता है। यह पर स्वयंभूलिंग है और कुण्डलिनी नाड़ी इस स्वयंभूलिंग के साढ़े तीन कुण्डल मारे हुए नीचे की ओर मुख किये अधोमुख पड़ी रहती है। पूरे मेरुदण्ड यानी रीढ़ की हड्डी के अन्दर कई स्थानों पर ग्रन्थियां है जहां से निकल कर नाडिय का जाल सारे शरीर मे फैला हुआ है। सबसे नीचे जहां गुदा के पास कुण्डति है वहां पर चार दल का एक कमल है यानि वहां से चारों ओर को नाड़ियों का विस्तार हुआ है। इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इसका वर्ण लाल (रम रंग) है इसकी ज्ञानेन्द्रिय नासिका और कर्मेन्द्रिय गुदा है। यहा पृथ्वी का वास है और इसे भूलोक की संज्ञा दी गई है। यया पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे । जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में सात लोक माने गये हैं, उसी प्रकार शरीर मे भी तत्व सात लोक है। योगी लोग और योग की साधना करने वाले साधक जन इन चक्रो पर ध्यान लगाकर प्राणायाम के द्वारा सोई हुई कुण्डलिनी को जगाने का प्रयत्न करते हैं । शरीर व मन की शुद्धि होने पर ब्रह्मचर्य पालन से प्राण पर नियन्त्रण होने पर गुरु कृपा से जब यह सोई हुई कुण्डलिनी जाग जात है
 तो उसका मुख या फन जो नीचे की ओर होता है साधना से ऊपर के ओर उठ जाता है और वह ब्रह्म नाड़ी के अन्दर ऊपर की यात्रा आरम्भ क देती है। जितने भी साधन, परिश्रम, तपस्या, योग क्रियायें हैं वे सब इस सो हुई कुण्डलिनी को जगाने के लिए किये जाते हैं। जिस साधक की कुण्डलिन जागृत हो जाती है वह सबसे नीचे के मूलाधार चक्र पर ध्यानावस्थित है जाता है और उसमे काफी अलौकिक शक्तियां आ जाती है। वह उत्तम वक् लेखक कवि संगीतकार और उत्तम विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है। उसने स्वर मधुर और बुद्धि तीव्र हो जाती है । प्रसन्नचित्त व स्वस्थ रहता है। उस मुख पर तेज का निवास रहता है। परन्तु इसके साथ-साथ काम वेग बहुत बढ़ता है। काम चेष्टा कामोद्दीपन तीव्र हो जाता है और उसके भाग में अनायास ही स्त्रियां बाघा रूप में उसको इस मार्ग से गिराने के लिए अ  जाती हैं । परमार्थ के मार्ग पर चलने वाले साधकों की परीक्षा लेने के लिए समझें या उसको परमार्थ के मार्ग से विमुख करने के लिये प्रलोभन स्वरूप समझें उसको कुछ अलौकिक सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। जो साधक इनके चक्करों में नहीं पड़ते और इन बाधाओं को पार करके आगे बढ़ते जाते हैं, अपनी साधना जारी रखते हैं, वे क्रमशः आगे के चक्रों पर पहुँचते हैं तथा और अधिक अलौकिक शक्तियों के स्वामी बनते हैं । प्राणायाम के द्वारा मन्त्र का श्वांस सुरति पर जाप करते हुए निराकार प्रकाश का या इष्ट देवता का ध्यान करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र तक पहुँचने में सफल होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान पेडू में है।
 यहां पर सिन्दूरी वर्ण का षटदल कमल है, जहां से छे और को नाड़ियों का जाल निकल कर शरीर में फैलता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय रसना तथा कर्मेन्द्रिय लिंग है। यहाँ पर भुवः लोक है और जल तत्व का वास है। यहाँ पर साधक के स्थित होते ही उसके काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का प्रायः नाश हो जाता है। उसकी स्मरण शक्ति बहुत प्रखर हो जाती है, उसे कई अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है और उच्च लोक की देवात्माओं के उसे दर्शन होते रहते हैं । इन सिद्धियों के द्वारा यदि वह यहाँ पर भी प्रलोभनों का शिकार हो गया तो नीचे गिर जाता है । सिद्ध पुरुषों ने अपने शिष्यों के इन प्रलोभनों से मार्ग भ्रष्ट होने की सभावनाओं पर विचार किया और अनेक साघन उपाय क्रियायें आविष्कृत कीं जिनके द्वारा साधक इन बाधाओं को पार कर सके। साधना का अन्तिम लक्ष्य सहस्रतार मे शिव व शक्ति तक पहुँचना है। शिव निष्क्रिय शव रूप में हैं तथा शक्ति इस सारे शरीर की क्रियाओं का संचालन करती है और समष्टि रूप में इस सारे ब्रह्माण्ड का संचालन करती है । बालकं भाव से उस शक्ति की मां के रूप में साधना करना और उससे याचना करना कि वह इन सब विघ्न बाधाओं से पार कराके अपने पास तक पहुँचाने में सहायता करें। माँ की साधना मे पथभ्रष्ट होने की आशंका नहीं रहती। माता बालक को खेलने के लिए कोई खिलौना दे भी देती है, उसको रोने से चुप कराने के लिए या उसे बहलाने के लिये तो बालक कुछ देर उससे खेल कर ऊब जाता है फिर रोने लगता है माँ का दूध पीने के लिये या माँ का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये तो माँ सब काम छोड़कर बालक की ओर ध्यान देती ही है। आज तक इस पृथ्वी पर और विशेष कर भारत भूमि पर सहस्रो की संख्या में इस तान्त्रिक साधना से सिद्ध होने वाले योगी महापुरुष हो चुके हैं। अभी पिछली शताब्दी में कलकत्ता के दक्षिणेश्वर मन्दिर में जिस महापुरुष ने अन्य अनेक साधनाओं के साथ-साथ तान्त्रिक साधना से भी सिद्धि को प्राप्त किया था उनका नाम व यश सारे संसार में व्याप्त हो गया है। ब सिद्ध महापुरुष स्वामी रामकृष्ण परमहस थे ।
 भैरवी ब्राह्मणी ने उनसे सभी 'तान्त्रिक साधनायें कराई थीं । परमहंस ठाकुर के अपने ही शब्द उनकी जीवनी से यहां उदधृत कर रहा हूँ। “मुख्य-मुख्य चौसठ तन्त्रों में जो-जो साधनाये बतलाई गई हैं, उन सभी साधनाओं को ब्राह्मणी ने मुझसे एक के बाद एक कराया। कितनी कठिन है वे साधनाये। उन साधनाओं का अभ्यास करते समय बहुतेरे साधक पथभ्रष्ट हो जाते हैं, पर माता की कृपा से में उन सभी साघनाओं को पूरा कर सका। मुझे किसी भी साधना के लिये तीन दिन से अधिक समय नहीं लगा ।" इससे स्पष्ट है कि साधनायें बहुत कठिन होती हैं और इनमें पथभ्रष्ट होने का भय रहता है। साधक के आत्म संयम की बहुत कठिन परीक्षा होती है। इस परीक्षा मे सफल होने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है। तान्त्रिक साधनाओं को बहुत गुप्त व गोपनीय रखा जाता है। इस कारण उनके प्रामाणिक विवरण आसानी से सुलभ नहीं होते। साधना की जो विस्तृत प्रक्रियायें हैं, वे तो गुरुमुख से ही प्राप्त होती है और गुरु जब तक साधक के अधिकारी होने के विषय में पूर्ण आश्वस्त नहीं हो जाता, ये सब नहीं बताता । अतएव स्वामी राम कृष्णजी की जीवनी से तान्त्रिक साधना बाते के विषय में जो बाते हमे ज्ञात होती है, उनको संक्षेप में जान लें । ब्राह्मणी भैरवी ने दो वेदियां बनवाई थीं। एक बिल्व वृक्ष के नीचे और दूसरी पंचवटी के नीचे। श्री रामकृष्ण जी ने जप ध्यान करने के लिए अपने ही हाथ से पाच वृक्ष दक्षिणेश्वर मन्दिर के अहाते मे लगाये थे। अश्वत्थ (पीपल), बिल्य, अशोक और आंवता। बिल्व वृक्ष के नीचे वाली बेदी के नीचे तीन नरमुण्ड गाड़े गये थे, और पंचवटी याती वेदी के नीचे पांच जीवो के मुण्ड गाड़े गए मे । तन्त्र विधि से जगन्माता की यथाविधि पूजा कराने के लिए जिन सामग्रियों की आवश्यकता होती है, उनका प्रवन्ध भैरवी ब्राह्मणी कर देती थी और यथाविधि पूजा कराने के बाद उन वेदियो के ऊपर बिठाकर जप ध्यान कराती थी। एक दिन संध्या के समय अंधेरा होने पर ब्राह्मणी कहीं से एक सुन्दर युवती को अपने साथ लेकर आई और श्री रामकृष्ण जी को पुकारकर कहा कि इसे देवी मानकर इसकी पूजा करो। पूजा समाप्त होने पर उस स्त्री को निर्वस्त्र करके उनसे कहा कि अब इसकी गोद मे बैठकर जप करो । श्री रामकृष्ण जी यह सुनकर डर के मारे व्याकुल हो गये और रोने लगे। उन्होने माँ से प्रार्थना की कि :- है मां अपने इस दीन बालक को तू यह कैसी अज्ञा दे रही है। इस दीन बालक में ऐसा दुस्साहस करने का साहस कहां है ?" श्री रामकृष्ण जी ने यह साधनाये जगन्माता का दर्शन लाभ प्राप्त हो जाने के बाद की थीं और जैसा कि वह अपने श्रीमुख से अपने शिष्यों को बताया करते थे कि इस प्रकार प्रार्थना करते ही उनके शरीर में कोई प्रवेश कर गया और उस युवती स्त्री की गोद में बैठते ही उनकी समाधि लग गई। ब्राह्मण की सुश्रूषा से उनकी समाधि उतरी, तो ह्मणी ने उनसे कहा कि बाबा डरो मत क्रिया सम्पूर्ण हो गई। अन्य साधक तो इस अवस्था में बड़े कष्ट से धैर्य धारण करते हैं और किसी प्रकार थोड़ा सा जप करके क्रिया को शीघ्र समाप्त कर देते हैं पर तुम तो अपनी देह की स्मृति भूलकर समाधिमग्न हो गए। ब्राह्मणी से यह सुनकर श्री रामकृष्ण जी के हृदय का बोझ हल्का हुआ और वे कृतज्ञतापूर्वक शुद्ध अंतःकरण से जगन्माता का "धन्यवाद करने लगे कि इस कठिन साधना से सफलतापूर्वक पार करा दिया।
उपरोक्त विवेचन से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि यह कितनी कठिन है। एक सुन्दर युवती एक स्वस्थ पुरुष की गोद में बैठी हो और उस परिस्थिति में वह काम विकार से विकल न होकर मन्त्र जाप करे व ध्यान करे। जो इसमें सफल होते हैं, वे निश्चय ही कामजित इन्द्रिय जित होते हैं और उनकी साधना सफल होती है । परन्तु इस परीक्षा मे असफल होने की ही अधिक सम्भावना रहती है। मां जगदम्बा की कृपा का सहारा न मिले तो सफलता संदिग्ध ही समझिए। यह वीरभाव की साधनायें हैं। कोई-कोई दुःसाहती साधक ही इसमें सफल हो पाते हैं और इसमे फिसलने का डर ही अधिक रहता है । पर जो सफल होते है, सिद्धियां उनके चरण चूमती हैं। साधक' को यह साधनाएं अग्नि परीक्षा से निकाल कर खरा सोना बना देती है । जीव को सासारिक साधनों में बांधने वाले अष्टपाश होते हैं जिनमें लज्जा, घृणा, भय मुख्य तीन पाश है। तन्त्र की साधनाओं मे साधक को इन्हीं पाशों से मुक्त कराने के उपाय किए जाते हैं। लज्जा का निवारण करने के लिए साधक को नग्न होकर कई प्रकार की साधनायें, जप आदि करने होते हैं। कभी-कभी हम लोग भगवत प्रेम मे सुधबुध खोये हुए लोगो को नाचते गा, मस्त होते हुए देखते हैं तो हमारा भी मन करता है कि उसके प्रेम आनन्द में हम भी वैसा ही करें, परन्तु यह लज्जा रूपी पाश हमको रोकता है कि लोग क्या कहेंगे । हम इतने बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति इस प्रकार पागलो की तरह नाचें गायें, कितनी लल्जा की बात है तो यह लज्जा का भाव हमारा सबसे बड़ा पाश है। सबके सामने नंगा होकर विचरण करना तो बहुत बड़े साहस का काम है । हम अकेले में भी नंगे होकर ध्यान आदि करने में शरगाते हैं। जिन सम्प्रदायों मे नंगे होकर विचरण करने की प्रथा है, उसके मूल में लज्जा पाश से मुक्त होने की भावना है। श्री रामकृष्ण परमहंस जी अपनी साधनावस्था में जप ध्यानं करते समय निर्वस्त्र होकर भजन करते थे और प्रभु प्रेम मे मतवाले होने पर तो उन्हें ध्यान ही न रहता था कि कब उनके वस्त्र खुलकर अलग हो गए हैं। उनके शिष्य भक्त लोग ही उनके वस्त्रों को ठीक किया करते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियो के साथ जो चीरहरण लीला की है, उसका रहस्य भी यही है । भगवान श्री कृष्ण महान् योगेश्वर अवतारी पुरुष थे और सांसारिक दृष्टि से भी देखे तो उनकी अवस्था उस समय मात्र दस वर्ष के लगभग थी। गोपियों ने माता कात्यायिनी का व्रत किया था और यह व्रत श्रेष्ठ सुन्दर पति को प्राप्त करने के लिए किया था। गोपियों ने श्रीकृष्ण जैसा सुन्दर श्रेष्ठ पति को प्राप्त करने के लिए मा कात्यायिनी से प्रार्थना की थी । ब्रज अंचल में उस समय जियो में यह प्रथा थी कि वे जल में नंगी होकर स्नान करती थीं।
 अतएव गोपियां अपने वस्त्रों को किनारे पर रखकर जल में स्नान करने के लिए पैठ गईं। कुछ आचार्यों का मत है कि जल में नंगे स्नान करना बुरी बात है। इससे जल देवता का अपमान होता है और इस. दुरे रिवाज या प्रथा को मिटाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों को शिक्षा कर सुधारने की दृष्टि से चीर हरण लीला की थी। यह मत भी ठीक है । रन्तु दूसरा अधिक सम्मत मत यह है कि भगवान गोपियों को लज्जापाश मुक्त करना चाहते थे। भगवान की उपासना कितने ही भावो से की जाती है। यथा स्वामी सेवक भाव जैसी हनुमान जी की है, भगवान को पिता और अपने आपको पुत्र मानकर - जैसी भक्तराज घुव ने की। तीसरी वात्सल्य भाव की भगवान को पुत्र मानकर, माता कौशल्या, माता देवकी और कितने ही भक्त जो भगवान की बालगोपाल रूप में उपासना करते हैं इस कोटि में आते हैं । सखा भाव से भगवान को अपना परम सखा सुहृद मानकर जैसा अर्जुन ने माना था । सखी भाव की, जिसमें भगवान को पत्ति भाव में माना जाता है और गोपियो का यही भाव था । मीराबाई का भी यही भाव था । शत्रु भाव की भी उपासना होती है इसमें शत्रु का ध्यान सदा रहता है चाहे शत्रु भाव ही हो और कहते हैं कि रावण का यही भाव था । एक वीर भाव की उपासना है जो तन्त्र में की जाती है। इसमें भगवान को या स्त्री रूप शक्ति को पत्नी रूप में मानकर स्वयं को पति भाव से माना जाता है । अपने को शिव रूप समझ कर और स्त्रियों को शक्ति रूपिणी समझ कर । यह अन्तिम भाव बहुत कठिन भाव है, इसका निर्वाह दुष्कर होता है, अस्तु! गोपियो की भावना भक्ति सखी भाव की थी और वे भगवान की भक्ति पति भाव से करती थीं। भगवान के सामने या पति के सामने स्त्री को सम्पूर्ण लज्जा का परित्याग करके ही जाना होता है। जब तक जीव मे लज्जा का या आवरण है तब तक उस परम पुरुष का सांमीप्य प्राप्त नहीं होता । ब्रज-बालाओं ने जल में खड़ी होकर जब श्रीकृष्ण भगवान से प्रार्थना की कि उनके वस्त्र उनको लौटा दिये जायें, तो भगवान ने उनसे जल से निकल कर अपने पास तक आने को कहा। भगवान उनके वस्त्र और चीर हरण करके उन वस्त्रों सहित पास के एक वृक्ष की डाल पर बैठे हुए मुस्करा रहे थे। गोपियां सकुचाई परन्तु जब उन्होने देखा कि कोई चारा नहीं है, तो वे जल 'से बाहर निकलीं। वे निर्वस्त्र थीं, स्वाभाविक है कि तज्जा का थोड़ा बहुत अंश उनमें अभी बाकी था। अतएव अपने गुह्य अंग पर हाथ रखकर उसे दृष्टि से छिपाते हुए वे जल से बाहर निकली। भगवान तो चाहते थे कि उनके लज्जा पाश का निवारण पूर्ण रूप से हो जाए। गोपियां भगवान की न्म जन्मांतर से भक्ति करती चली आ रही थीं और इस जन्म में उनको पने आराध्य का सामीप्य लाभ प्राप्त हुआ था। अब वह समय आ गया , जब उनको अपनी साधना का चरम लक्ष्य प्राप्त हो। वे अपने आराध्य 'सम्मुख अपना सर्वस्व अर्पण करके अपने सभी पाशों और बन्धनो से मुक्त फिर भगवान ही हो जायें ।
अतएव श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुमने व्रत के समय बिल्कुल नंगी फिर जल मे स्नान किया है, इससे वरुण देवता का अपमान हुआ है। इस पराध की क्षमा मांगने के लिए तुम को अंजुलि बांध कर प्रार्थना करनी हिए। फिर मेरे पास आकर अपने वस्त्र धारण कर लो। अंजुलि बांध कर ना करने के लिए गोपियों को अपने दोनों हाथ ऊपर उठाने पड़े और ससे उनके गुप्त अंग पर रखा हुआ उनका हाथ भी ऊपर उठ गया। इस कार वे अपने स्वामी आराध्य के सामने बिल्कुल निरावरण होकर समर्पित हो गई। वे इसी दशा मे भगवान के समीप पहुंची। भगवान कृष्ण ने उनके स्त्र लौटा दिए । भागवत मे उल्लेख है कि कृष्ण भगवान इससे बहुत प्रसन्न हुए और गोपियों को अपनी वंशी वादन, सुनाकर आनन्द विभोर कर दिया । श्रीकृष्ण के प्रसन्न व आनन्दित होने का एक कारण तो यह था कि उन्होने अपनी अनुगामिनी गोपियो को लज्जा के पाश से मुक्त कर दिया था और दूसरा कारण तान्त्रिक दृष्टि से यह था कि उन्होने अपनी एक साधना में भी सिद्धि प्राप्त कर ली थी। जितने भी अवतारी पुरुष हुए हैं उनको भी सभी विद्याओं की शिक्षा विधिवत लेनी पड़ी है। यह अलग बात है कि उनको बहुत थोड़े प्रयत्न व साधना से ही इनमें सिद्धि प्राप्त होती रही है। भगवान राम ने गुरु विश्वामित्र . के पास रहकर धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की थी। गुरु वशिष्ठ के पास रहकर आध्यात्म की शिक्षा ली थी। चाहे ये सब ज्ञान उन्हें स्वयं सिद्ध रहा हो ।भगवान श्रीकृष्ण ने भी गुरु सांदीपनी के आश्रम मे रहकर विधिवत शिक्षा ग्रहण की थी और सभी प्रकार की तान्त्रिक साधनाये भी की थीं तथा अनेक प्रकार की अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त किया था, जो उनके बाद के जीवन मे बहुत काम आई थीं। भगवान राम कृष्ण परमहंस को तो माता जगदम्बा हे दर्शन के बाद भी सभी तान्त्रिक साधनाये व योग की साधनायें विधिवत करनी पड़ी थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने चाहे बाद में कितने ही विवाह किए और गृहस्थ धर्म का पालन किया, परन्तु इस सब के होते हुए भी वे महान योगीश्वर, इन्द्रियजित व काम पर विजय प्राप्त करने वालों में से थे। तान्त्रिक 'साधनाओ का मुख्य उद्देश्य काम पर विजय प्राप्त करना और इन्द्रियो की वासना पर विजय प्राप्त करना होता है। अपने व्रज प्रवास काल में गोपियों के साथ जो लीलाएं उन्होंने कीं, वे सब काम देव पर उनकी महान विजय 'की द्योतक है। वीरभाव की साधना के वे सबसे उत्कृष्ट नायक हैं। रस सम्राद् . हैं। शिव और शक्ति का जो महारास सारे विश्व के कण-कण में हो रहा है, उसी की अभिव्यक्ति उन्होने अपनी महारात तीला के द्वारा कराई। नंगी युवती स्त्रियो को जो सब भांति सुडौल व सुन्दर शरीर की थीं उनको निर्वस्त्र 'देख कर भी उनको कोई काम विकार उत्पन्न नहीं हुआ। वे निर्विकार रहे और इस प्रकार अपने को निर्विकार सिद्ध करने में सफल रहे, इसका उन्हें आनन्द हुआ। उनकी यह तान्त्रिक साधना जिसे गवाक्ष योग साधन कहा जाता है सफल रही। लोग अपने दृष्टिकोण से देखते हैं और उन्हें यह बड़ा दुष्कर प्रतीत होता है कि कैसे कोई इतनी सारी सुन्दर व नगी स्त्रियों को देखकर भी अपने पर नियंत्रण रख सकता है। अज्ञानी जन भगवान के पावन चरित्र पर लांछन लगाने में भी नहीं हिचकिचाते।
परन्तु यह दुष्कर कार्य विरले ही महापुरुषों और प्रबल आत्म शक्ति वाले अवतारी सिद्ध पुरुषों के द्वारा ही सम्भव है। भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस जो अभी पिछली शताब्दी में ही हुये हैं और जिनके बारे मे बहुत से तथ्य प्रामाणिक रूप से उपलब्ध हैं, वे आजन्म गृहस्थ रहे परन्तु अपनी धर्मपत्नी मां शारदा के साथ एक शैय्या पर सोते रहते हुए भी सदा उनमें भातृभाव ही रखा। कभी काम के वश होकर शरीर सभोग की इच्छा तक नहीं की।, तान्त्रिक साधना का मुख्य उद्देश्य जीव का शिव शक्ति से मिलन है। और जो तान्त्रिक क्रियाये हैं वे साधक को कामवासना पर विजय प्राप्त कराने के लिये की जाती हैं। इन्हीं में एक साधना षोडशी पूजन की है। इसमे एक 'सर्वांग सुन्दरी सोलह वर्षीय कन्या की पूजा साक्षात् भगवती त्रिपुर सुन्दरी की भावना रख कर की जाती है। अमावस्या की रात्रि को उस कन्या को उत्तम वस्त्र आभूषणो से सुसज्जित करके उच्चासन पर बिठाया जाता है और उसके अन्दर मां जगदम्बा की प्रतिष्ठा की जाती है। यदि साधक की सच्ची भावना होती है तो उस पोडशी कन्या मे साक्षात् जगदम्बा का आविर्भाव हो जाता है । तत्पश्चात् उस सशरीरी जगदम्बा की पोडशोपचार से पूजा की जाती है। अपने हाथ से नेवैद्य खिलाया जाता है और आत्म निवेदन किया जाता है । वैष्णवोक्त तन्त्र साधनाओ में तो मद्य मास का प्रयोग नहीं किया जाता और यह सब मधुर भाव से की जाती है। कितने ही ऐसे सम्प्रदाय वैष्णवो में हैं जिनमे स्त्रियां गोपी भाव या राधा भाव से साधना करती हैं और कृष्ण को ही पति मानती हैं। कहीं-कहीं किसी सुन्दर युवक मे कृष्ण की भावना करके भक्ति करने का चलन है। ऐसी साधनाओ मे मन पर नियंत्रण नहीं रहने पर बहुधा दोनो के ही पथ भ्रष्ट होने की पूरी आशका रहती है। इसलिए इस प्रकार के सम्प्रदाय लोगों में बदनाम हो गये हैं। जिन महापुरुषो ने यह सम्प्रदाय चलाये थे, उनका उद्देश्य यही था कि कृष्ण पर ध्यान लगाना या एक अव्यक्त पर प्रेम भावना को केन्द्रित करना अपेक्षाकृत कठिन होता है, इसलिए उसे पहले एक सशरीर व्यक्ति पर केन्द्रित किया जाये और बाद मे उसे श्रीकृष्ण की ओर बदल दिया जाये परन्तु इसमे यही खतरा रहता है कि साधक भौतिक प्रेम में ही लिप्त होकर अवनति की ओर चला जाता है। सूफी मत मे भी कुछ ऐसी ही साधना होती है।
शाक्त सम्प्रदाय में प्रधानतः चीर भाव की साधना है। इसमे मद्य मात का प्रयोग किया जाता है और साधक अपने में शिव भाव आरोपित करके शक्ति रूपिणी स्त्री को ग्रहण भी करते हैं। क्योंकि यह मार्ग सभी सीधे मार्गों से हट कर एक उल्टा रास्ता है, इसलिये इसे वाम मार्ग कहा जाता है। जैसे कोई आपसे मिलने सामने के सदर दरवाजे से आता है, कोई खिड़की के रास्ते से आता है और कोई शौचालय के मार्ग से आता है। पोडशी पूजा मे यह साधक भगवती रूपी कन्या या स्त्री को कारण करि यानी मद्य अर्पण करते है और स्वयं भी प्रसाद रूप मे इतनी अधिक मद्य पीते है कि इन्हें अपना होश तक नहीं रहता । पीत्वा पीत्वा पुनर्पीत्या पीत्यस प्रतति भूतले । इतनी पियो कि पृथ्वी पर गिर पड़ो। यह इनका मूल मन्त्र होता है। मद्य पीने से तुष्य अपने होश हवास खो बैठता है, उसे अपने शरीर की सुधि नहीं रहती यह भी सत्य है कि स्त्री संभोग में जो विषयानन्द आता है, वह परमात्मा | आत्मा के मिलने के परमानन्द से कुछ ही कम है। स्त्री पुरुष के संभोग 'समय जो चरम आनन्द की स्थिति होती है, उसे विषयानंद की संज्ञा दी ई है । आप कोई वस्तु खाते हैं और उस समय आपका ध्यान या मन कहीं र है तो आपके उस वस्तु का स्वाद या उससे आने वाले आनन्द का पता हीं चलेगा। इसी प्रकार आप कोई मधुर संगीत सुन रहे हैं। यानी सगीत रहा है या कोई गायक गा रहा है परन्तु यदि बीच में आपका ध्यान कहीं और चला जाता है, तो उस संगीत का आनन्द आपको नहीं आयेगा । ससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भोगो का भी आनन्द लेने के लिये ज्ञानेन्द्रिय योग्य वस्तु और आपके मन की एकाग्र होना आवश्यक है। किसी भी नशीली वस्तु के सेवन से शरीर के तन्तुओं में एक विशेष प्रकार की तीव्रता आ जाती है और मद्य में यह प्रभाव है कि शरीर व मन की अच्छी, बुरी प्रवृत्तियों को भी उभार देती है। क्रोधी व्यक्ति के क्रोध को, कामी व्यक्ति के काम को इसी प्रकार उस व्यक्ति के शरीर व मन में बसने वाले गुणों व दुर्गुणो को उभार देती है । विषयानन्द को परमानन्द का सहोदर बताया गया है। जिस समय संभोग क्रिया की चरम परिणति होती है, उस समय कुछ क्षणों के लिये प्रतीत होता है कि परमानन्द प्राप्त हो गया। क्योंकि यह क्षणिक होता है, नाशवान अस्थायी है और इससे शरीर व मन की हानि अवनति होती है, इस कारण सज्जन पुरुषों ने महापुरुषों ने इसे हेय माना है । कुण्डलिनी शक्ति जहां सोई पड़ी है योनि व लिंग की इन्द्रियां उस स्थान के सबसे समीप हैं । हो सकता है किसी योगी साधक की कुण्डलिनी शक्ति स्त्री संभोग करते समय किये गये जप ध्यान आदि क्रियाओं के करने से जागृत हो गयी हो और उसने तन्त्र में वाम मार्ग का चलन प्रारम्भ कर दिया हो। और बाद में इस प्रकार की विचारधारा के योगी साधक योग सम्बन्धी सफलता पाने के लिये व कुछ इन्द्रिय सुख की लालसा से इसमें सम्मिलित हो गये हों । यो तो अच्छे बुरे | सभी प्रकार के लोग सभी सम्प्रदायों में होते हैं परन्तु तान्त्रिकों के नाम से आज आम लोग यही जानते है कि यह पूरी तरह से वाम मार्गी लोगो की दी जमात है । बुद्ध धर्म के आने से पहले भारतवर्ष में भी मांस खाने का आम रिवाज था और यज्ञ में पशुबलि व कहीं-कहीं नरबलि तक दी जाती थी । यति मांस को सब लोग यहां तक कि उस समय का ब्राह्मण ऋषि भी निसंकोच ग्रहण करता था। सुरा का भी समाज मे और पूजा यम आदि कार्यों में प्रचलन था । असुर कही जाने वाली जातियों में तो सारी पूजा उपासना मद्यमांस जैसी वस्तुओं के द्वारा ही होती है। और यह भी सर्व विदित है कि असुरो के पास कितनी ही विलक्षण आसुरी शक्तियां थीं, जो चाहे विध्वंसक ही हो, परन्तु इससे यह तो साबित हो ही जाता है कि मद्य मांस सुरासुन्दरी को लेकर की जाने वाली तात्रिक साधनाओं से अलौकिक सिद्धियां तो मिल ही सकती हैं । इसका साघन करने वाले लोग आसुरी शक्तियों पर अधिकार रखने, नियंत्रण करने मे सफल होते पाये गए हैं। अंहं ब्रह्मास्म और शिवोहं यानी मैं ब्रह्म हूं या मैं शिव हूं, यह सिद्धांत हमारे शास्त्रों में एक मान्य सिद्धांत के रूप में प्राचीनकाल से ही प्रतिपादित है, परन्तु यह बहुत कठिन मार्ग है। अपने मे शिवत्व की भावना का आरोपण भी यदि पूरी तरह से कोई कर ले, तो वह शिव रूप ही हो जाता है। वाम मार्गी तात्रिक साधनाओ मे अपने शरीर मे शिवत्व का और नारी शरीर मे शक्ति तत्व का आरोपण करके अपने उस विश्वास को पक्का करता है। वाम मार्ग मे एक चक्रानुष्ठान किया जाता है जिसे भैरवी चक्र भी कहते हैं। इसमे कुछ पुरुष साधक तथा उतनी ही स्त्री साधिकायें सम्मिलित होती हैं। कोई बाहर का आदमी जो इनके सिद्धातो में विश्वास नहीं रखता उपस्थित नहीं रहने दिया जाता। ये लोग स्त्री साधिकाओं की शक्ति रूप मे स्थापना करके उनका पूजन करते हैं और कारण वारि (मद्य) का भोग लगाते हैं। प्रसाद रूप मे सब साधक उसे पान करके शिवत्व को प्राप्त हो जाते हैं। तब वे सब नग्न हो जाते हैं। शक्तियो (स्त्रियो) के अधोवस्त्र एक स्थान पर एकत्र कर दिये जाते हैं। जिस शिव (पुरुष) के हाथ मे जिस स्त्री (शक्ति) का वस्त्र आ जाये वही उसकी उस अनुष्ठान के लिए शिव शक्ति होती है । वह शिवरूप पुरुष अपनी शक्ति को साथ लेकर मद्यपान करता है तथा काम क्रीड़ा, रास क्रीड़ा करने मे सब के साथ सामूहिक रूप से निमग्न होकर विषयानन्द रूपी परमानन्द की प्राप्ति करता है। उन लोगो का कहना है कि काम वासना की प्रवृत्तियो को बलपूर्वक शमन करने से वे उतने ही उम्र रूप से और अधिक मात्रा में जाग्रत होती है। इससे उनकी पूर्ति करके उनका उपराम हो जाता है और फिर इस अनुष्ठान में कामवासना न रहकर शिवत्व की भावना उत्तरोत्तर प्रबल होती जाती है। अघोरपंथ की साधना मे घृणा के पाश से मुक्त होने पर अधिक जोर दिया गया है और भय भाव से भी मुक्ति मिलती है। इसमें श्मशान में बैठकर साधना करना, शव पर बैठकर साधना करना, शव भास ग्रहण करना, विष्ठा, मूत्र, कीचड़ जैसे घृणित समझे जाने वाले पदार्थों मे भी समभाव रखना और ऐसे मलिनवेश व रौद्र भेष में रहना जो शिवजी के गणों का शास्त्रों में वर्णित है आदि बाते मुख्य हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि जीव के अष्टपाशों में लज्जा, घृणा भय तीन मुख्य पाश हैं। सब में उस चेतना तत्व का निवास है और परमार्थ साधन करने वाले संसार के सभी जीवो व पदार्थों मे समभाव रखना चाहिए। अन्य सम्प्रदायों में इसका अभ्यास अपने-अपने ढंग से कराया जाता है । इस सम्प्रदाय मे इसके लिए बड़े उम्र साधन हैं जो देखने सुनने में बड़े भयानक और वीभत्स प्रतीत होते हैं परन्तु देखा यह गया है कि इनसे अलौकिक सिद्धियां चाहे वे निम्न कोटि की ही हों, बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं ।
शमशान एक ऐसा स्थान होता है जहां जाते री ससार की नश्वरता का आभास तत्क्षण होता है, संसार से वैराग्य की भावना एकदम जाग्रत होती है, भोजनान्ते मैथुनान्ते श्मशानान्ते च या मते । सामते सर्वदा चेतसात् नरो नारायणा भवेत् । भोजन के उपरान्त पेट भर जाने पर जिस प्रकार भोजन से उपराम हो जाता है, मैथुन कर्म करने के बाद उस कर्म से तबियत हट जाती है और जिस प्रकार श्मशान में किसी दाहकर्म में जाने के बाद इस संसार से वैराग्य हो जाता है; तो शास्त्रकार कहता है कि जिस प्रकार की यह मति या बुद्धि थोड़ी देर के लिए होती है उसी प्रकार की बुद्धि यदि सदा "बनी रहे तो यह नर साक्षात नारायण हो जाय। श्मशान में जाकर साधना करने का यही अभिप्राय होता है कि यहां पर संसार से वैराग्य भावना का उदय होता है और मन यदि एक बार इस संसार की मोह माया से हट जाय तो दूसरी ओर जल्दी लग जाता है। दूसरा ताभ यह होता है कि श्मशान जाने से का नाश होता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी अपने साधनकाल मे रात के बारह बजे श्मशान मे जाकर नग्न होकर बैठते थे और अपनी शक्ति साधना करते थे । श्मशान मे बहुत सी प्रेतात्मायें निवास करती है । उनका पार्थिव शरीर तो नहीं होता परन्तु सूक्ष्म शरीर होता है। यह वह आत्माये होती हैं जिनकी वासनायें अतृप्त रह जाती है जिनकी गति नहीं हो पाती या अकाल मृत्यु हो गई होती है। उन्हें प्रेत योनी में रहना पड़ता। और ऐसी अधिकतर आत्माये श्मशान में ही वास करती हैं। ऐसी प्रेतात्माओ है के शरीर नहीं होता तो मुख आदि इन्द्रियां भी नहीं होतीं और वे कुछ खा पी नहीं सकतीं। परन्तु उनकी इच्छित वस्तु मिलने पर उन्हें तृप्ति अवश्य होती है और वे इस प्रकार की वस्तुयें उन्हें अर्पण करने वाले पर शीघ्र प्रसन्न भी हो जाती है। नहीं तो वे तंग करती है और कमजोर आत्मशक्ति वाले लोग तो इन भयावह क्रियाकलापो से डर कर बेहोश हो जाते हैं । कभी-कभी तो उनके हृदय की गति रुक कर मृत्यु भी हो जाती है। श्रीरामकृष्ण जी (उस काल में उनका नाम गदाधर था ) भी इसी लिए उन प्रेतात्माओं की वासना शान्ति के लिए अपने साथ एक खप्पर या इंडिया में उनको प्रसन्न करने वाली वस्तुयें ले जाते थे और उसे शमशान मे एक स्थान पर रख देते थे। वह पात्र वहा से किसी वृक्ष की ओर उड़ जाता था और प्रेतात्माये शान्त हो जाती थीं और उनको शान्ति से अपना भजन करने देती थीं। श्रीरामकृष्ण जी को तो प्रेतात्मा सिद्ध करनी नहीं थीं। उनको तो अपना साधन निर्विघ्न करना था। परन्तु अन्य शमशान साधक प्रेतात्माओं को इसी प्रकार भेट आदि देकर सिद्धकर लेते हैं और फिर उनके द्वारा अपने बहुत से स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कुछ आत्मायें भूतकाल की तथा वर्तमान काल की बाते ठीक बता देती हैं। कुछ अच्छी शुद्ध आत्माये जो श्मशान में नहीं रहती, भविष्य के बारे में ज्ञान दे देती हैं। शमशान साधक जो भूत प्रेत सिद्ध करते हैं उनकी गति नहीं होती। वे उसी प्रेतयोनी मे जाते हैं। उनकी मृत्यु के समय वे ही त मल, मूत्र, विष्ठा जैसी घृणित वस्तुएं उनके मुख मे भर देते हैं। तज्जा घृणा भय कुलशील जाति मान अभिमान यह अष्टपाश है । इन्हीं से मुक्त कराने के लिये भिन्न सम्प्रदायो मे उनके प्रवर्तको ने तरह तरह के साधन निर्धारित किये हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी शमशान मे या पंचवी सारे वस्त्र उतार कर यहा तक कि जाति सूचक जनेऊ भी उतार कर भजन करते थे। एक हाथ में सिक्के, दूसरे मे कुछ मिट्टी के ढेले लेकर दोनो को गाजी में फेक देते थे । इस भावना को दृढ़ करने के लिये कि दोनो ही समान ' अपवित्र स्थान को साफ करना, भिखारियों तक की झूठन को प्रसाद रूप ग्रहण करके और इसी प्रकार की साधनाओ से अष्ट पाशों से मुक्ति पाई आती है। संसार में भांति-भांति के लोग हैं और भाति भाति के पन्य है । तो जिसे अच्छा लगता है वह उसी की ओर आकर्षित होता है। रास्ते सब उस ईश्वर की ओर ही ले जाने वाले हैं। कोई सुगम कोई दुर्गम हो सकता है। किसी को दुर्गम मार्ग ही पसन्द होता है और कोई मार्ग ऐसा भी हो सकता है कि जिसमें मार्ग के प्रलोभन मजिल तक पहुँचने की इच्छा को ही समाप्त कर सकते हैं । इसलिये सही मार्ग चुनना चाहिये। महाजनो येन गतः पन्या । जिस मार्ग पर चल कर महापुरुषों ने लक्ष्य की प्राप्ति की है वही मार्ग सही है। शाक्त तन्त्र के अन्तर्गत वाम, अघोरी, वामाचारी, कौलाचारी व कापालिक सम्प्रदाय है, उन सबकी साधानायें गूढ़ रहस्य से भरी हुई तामसिक क्रियाओ से युक्त होती हैं। वाम मार्ग की साधनाओं में चक्रानुष्ठान, शव साधना, चिता साधना मुख्य साधनायें हैं। इनसे अलौकिक सिद्धियां बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं परन्तु इनमें प्राणों तक का खतरा रहता है । एक तो इनमें गुरु के निर्देशन की पूरी आवश्यकता है। दूसरे इन साधनाओं को करने से पहले मन्त्र अभ्यास, कुण्डलिनी, योग ध्यान आदि के द्वारा इतना अधिक आत्म बल इकट्ठा कर लेना चाहिये कि भयभीत न हों और साधना का फल जिस रूप में भी सामने आये उसे ग्रहण करने की शक्ति शरीर, मन व आत्मा रूपी पात्र मे हो । नहीं तो साधक विक्षिप्त हो जाता है,
 उस निधि को संभाल नहीं पाता या कभी-कभी प्राणों तक की आहुति भी देनी पड़ती है। अभी हाल में ही एक ऐसे ही साधक की मृत्यु इसी प्रकार की साधना करते समय हो गई थी जिसका विवरण मनोहर कहानियाँ नाम की पत्रिका में छपा था । तात्रिक साधना का राजमार्ग राजयोग की पद्धति से साधना करना ही अधिक श्रेयस्कर है जिसमें साधक गुरु के निर्देशन में चाहे धीरे-धीरे ही आगे बड़ता हो, पर पथभ्रष्ट होने की आशंका नहीं होती और इसकी क्रियायें भीसात्विक होती है। प्राणायाम के सीधे सरल अभ्यासो के द्वारा यम नियम का पालन करते हुऐ स्वांस सुरति पर मंत्र जप करते हुये शनैः शनैः एक-एक चक्र को पार करते हुए साधक आगे बढ़ता जाता है। जिस प्रकार रीड़ के हड्डी के अन्तर्गत सात मुख्य चक हैं, उसी प्रकार इस जीव के सात शरीर हैं। आप चाहे तो भी इन शरीरो मे अपने को नहीं बदल सकते, परन्तु कुण्डलिनी योग का साधक जब शरीर के अन्दर के चको को पार कर ले है, तो उसको यह शक्ति प्राप्त हो जाती है। उसकी सभी इन्द्रियों की शक्ति चढ़ जाती है । जैसे हम अपने इस स्थूल शरीर के चर्म चक्षुओं के द्वारा अपने सामने के दृश्य को अधिक से अधिक क्षितिज तक देख सकते हैं और उन्ही स्वरूपों को देख सकते हैं जो हमारी तरह स्थूल शरीरधारी हैं। परन्तु यदि हमारी कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार से उठकर स्वाधिष्ठान चक्र तक भी पहुँच जाती है तो हमें कुछ ऐसे लोक की आत्माओं के दर्शन होने लगते हैं जो हमसे ऊपर के लोक के निवासी हैं। हमें काफी दूर तक दिखाई देने लग है । अन्तर्चक्षुओं से काफी दूर के दर्शन सुलभ हो जाते हैं। इसी प्रकार हमारे कानो के श्रवण यंत्र जो बहुत पास की आवाज ही सुन सकते हैं, दूर की ध्वनियों को सुनने में सक्षम हो जाते हैं और बहुत सी ऐसी ध्वनिया जिनकी फ्रीक्वेन्सी यानी ध्वनि तरग गति स्थूल कानो को सुनाई नहीं दे सकती, सुनाई देने लगती है । हमारे कानो' का यंत्र २००० से १५००० तक गति की ध्वनियो तक को ही घुरने की क्षमता रखता है। परन्तु जैसे-जैसे साधक साधना मे आये के चक्रों की ओर बढ़ता जाता है, उसे वे ध्वनिया भी सुनाई देने लगती है जो इससे कम या ज्यादा गति के वायुमण्डल में रहती हैं। जैसे आप कि । तो उसमे से चिर-फिर की आवाज आयेगी आपकी समझ मे कुछ नहीं आयेगा। एक झींगुर की झकार आपको अंकार जैसी सुनाई देती है, परन्तु दूसरे र के लिए जिसकी कर्णेन्द्रिय उसी फ्रीक्वेन्सी पर सैट है वे ध्वनियां है अर्थपूर्ण हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे साधक अन्तर अभ्यास में पूरक, अनाहत आदि चक्रो को पार करता जाता है, उसका अतीन्द्रिय ज्ञान बढ़ता जाता है । यह सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करके अदृश्य होकर हवा में उड़ सकता है तत्काल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच सकता है। इस प्रकार के सिद्ध योगी हुये हैं और कदाचित अब भी तिब्बत, हिमालय जैसे स्थानो में हो। इस प्रकार के सिद्ध योगी जन क्योंकि संसार से विरक्त होते हैं, अपने चमत्कारो का, अपनी अलौकिक सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते । अनायास आवश्यकता वश किसी चमत्कार का प्रदर्शन हो जाने पर ही वह दूसरों की दृष्टि मे आ जाता है। स्वामी रामृष्ण परमहंस जी के जीवनवृत्त से हमे पता - चलता है कि एक बार वे शरीर से अपने शिष्यो के बीच मे समाधिमग्न थे और उसी समय वे काफी दूर मां के उत्सव में भी सम्मिलित हुए थे तथा घहां पर उपस्थित लोगों ने उन्हें देखा था । 

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