विष्णु पुराण अध्याय बारहवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 12 in Sanskrit and Hindi
बारहवाँ अध्याय ध्रुवकी तपस्यासे प्रसन्न हुए भगवान्का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद-दान !निशम्यैतदशेषेण मैत्रेय नृपतेः सुतः ।
निर्जगाम वनात्तस्मात्प्रणिपत्य स तानृषीन् ॥ १
कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानस्ततो द्विज।
मधुसंज्ञं महापुण्यं जगाम यमुनातटम् ॥ २
पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्येनाधिष्ठितं यतः ।
ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमत्र महीतले ।। ३
हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम् ।
शत्रुघ्नो मधुरां नाम पुरीं यत्र चकार वै ॥ ४
यत्र वै देवदेवस्य सान्निध्यं हरिमेधसः ।
सर्वपापहरे तस्मिंस्तपस्तीर्थे चकार सः ॥ ५
मरीचिमुख्यैर्मुनिभिर्यथोद्दिष्टमभूत्तथा ।
आत्मन्यशेषदेवेशं स्थितं विष्णुममन्यत ॥ ६
अनन्यचेतसस्तस्य ध्यायतो भगवान्हरिः ।
सर्वभूतगतो विप्र सर्वभावगतोऽभवत् ॥ ७
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विष्णु पुराण अध्याय बारहवाँ - Vishnu Purana Chapter 12 |
हे मैत्रेय! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया और हे द्विज! अपनेको कृतकृत्य-सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नामक वनमें आया। आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली राक्षसको मारकर शत्रुघ्नने मधुरा (मधुर) नामकी पुरी बसायी जिस (मधुवन) में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की मरीचि आदि मुनीश्वरोंने उसे जिस प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान्का ध्यान करना आरम्भ किया इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य-चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान् हरि सर्वतोभावसे प्रकट हुए ॥१ - ७॥
मनस्यवस्थिते तस्मिन्विष्णौ मैत्रेय योगिनः ।
न शशाक धरा भारमुद्वोढुं भूतधारिणी ॥ ८
वामपादस्थिते तस्मिन्ननामार्द्धन मेदिनी।
द्वितीयं च ननामार्द्ध क्षितेर्दक्षिणतः स्थिते ॥ ९
पादाङ्गुष्ठेन सम्पीड्य यदा स वसुधां स्थितः ।
तदा समस्ता वसुधा चचाल सह पर्वतैः ॥ १०
नद्यो नदाः समुद्राश्च सङ्क्षोभं परमं ययुः ।
तत्क्षोभादमराः क्षोभं परं जग्मुर्महामुने । ११
यामा नाम तदा देवा मैत्रेय परमाकुलाः ।
इन्द्रेण सह सम्मन्त्र्य ध्यानभङ्गं प्रचक्रमुः ॥ १२
कूष्माण्डा विविधै रूपैर्महेन्द्रेण महामुने।
समाधिभङ्गमत्यन्तमारब्धाः कर्तुमातुराः ॥ १३
सुनीतिर्नाम तन्माता सास्त्रा तत्पुरतः स्थिता।
पुत्रेति करुणां वाचमाह मायामयी तदा ॥ १४
पुत्रकास्मान्निवर्त्तस्व शरीरात्ययदारुणात् ।
निर्बन्धतो मया लब्धो बहुभिस्त्वं मनोरथैः ॥ १५
हे मैत्रेय! योगी ध्रुवके चित्तमें भगवान् विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभाल सकी उसके बायें चरणपर खड़े होनेसे पृथिवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दाँयें चरणपर खड़े होनेसे दायाँ भाग झुक गया और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे पृथिवीको (बीचसे) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया हे महामुने ! उस समय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे देवताओंमें भी बड़ी हलचल मची हे मैत्रेय! तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया हे महामुने ! इन्द्रके साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया उस समय मायाहीसे रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रोंमें आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और 'हे पुत्र! हे पुत्र!' ऐसा कहकर करुणा युक्त वचन बोलने लगी [उसने कहा] - बेटा! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे। मैंने बड़ी-बड़ी कामनाओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है॥ ८ - १५ ॥
दीनामेकां परित्यक्तुमनाथां न त्वमर्हसि।
सपत्नीवचनाद्वत्स अगतेस्त्वं गतिर्मम ॥ १६
क्व च त्वं पञ्चवर्षीयः क्व चैतद्दारुणं तपः ।
निवर्ततां मनः कष्टान्निर्बन्धात्फलवर्जितात् ॥ १७
कालः क्रीडनकानान्ते तदन्तेऽध्ययनस्य ते।
ततः समस्तभोगानां तदन्ते चेष्यते तपः ॥ १८
कालः क्रीडनकानां यस्तव बालस्य पुत्रक ।
तस्मिंस्त्वमिच्छसि तपः किं नाशायात्मनो रतः ॥ १९
मत्प्रीतिः परमो धर्मो वयोऽवस्थाक्रियाक्रमम् ।
अनुवर्त्तस्व मा मोहान्निवत्तस्मादधर्मतः ॥ २०
परित्यजति वत्साद्य यद्येतन्न भवांस्तपः ।
त्यक्ष्याम्यहमिह प्राणांस्ततो वै पश्यतस्तव । २१
अरे! मुझ अकेली, अनाथा, दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना तुझे उचित नहीं है। बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले अभी तो तेरे खेलने कूदनेका समय है, फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठीक होगा बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका 'जो खेल-कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है। तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाशमें तत्पर हुआ है ? तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना ही है, अतः तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मोंमें ही लग, मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो बेटा! यदि आज तू इस तपस्याको न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही में अपने प्राण छोड़ दूंगी ॥ १६ - २१ ॥
तां प्रलापवतीमेवं बाष्पाकुलविलोचनाम् ।
समाहितमना विष्णौ पश्यन्नपि न दृष्टवान् ॥ २२
वत्स वत्स सुघोराणि रक्षांस्येतानि भीषणे।
वनेऽभ्युद्यतशस्त्राणि समायान्त्यपगम्यताम् ॥ २३
इत्युक्त्वा प्रययौ साथ रक्षांस्याविर्बभुस्ततः ।
अभ्युद्यतोग्रशस्त्राणि ज्वालामालाकुलैर्मुखैः ।। २४
ततो नादानतीवोग्रान्राजपुत्रस्य ते पुरः ।
मुमुचुर्दीप्तशस्त्राणि भ्रामयन्तो निशाचराः ॥ २५
शिवाश्च शतशो नेदुः सज्वालाकवलैर्मुखैः ।
त्रासाय तस्य बालस्य योगयुक्तस्य सर्वदा ॥ २६
हन्यतां हन्यतामेष छिद्यतां छिद्यतामयम् ।
भक्ष्यतां भक्ष्यतां चायमित्यूचुस्ते निशाचराः ॥ २७
ततो नानाविधान्नादान् सिंहोष्ट्रमकराननाः ।
त्रासाय राजपुत्रस्य नेदुस्ते रजनीचराः ॥ २८
रक्षांसि तानि ते नादाः शिवास्तान्यायुधानि च।
गोविन्दासक्तचित्तस्य ययुर्नेन्द्रियगोचरम् ॥ २९
एकाग्रचेताः सततं विष्णुमेवात्मसंश्रयम् ।
दृष्टवान्पृथिवीनाथपुत्रो नान्यं कथञ्चन ॥ ३०हे मैत्रेय ! भगवान् विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोंमें आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा तब, 'अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस महाभयंकर वनमें ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र-शस्त्र उठाये आ रहे हैं'- ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्र- शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया उस नित्य-योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकड़ों स्यारियाँ घोर नाद करने लीं वे राक्षसगण भी 'इसको मारो मारो, काटो- काटो, खाओ-खाओ' इस प्रकार चिल्लाने लगे फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिके-से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे राक्षस, उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्त्रादि कुछ भी दिखायी नहीं दिये वह राजपुत्र एकाग्रचित्तसे निरन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान्को ही देखता रहा और उसने किसीकी ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥ २२ - ३० ॥
ततः सर्वासु मायासु विलीनासु पुनः सुराः ।
सङ्क्षोभं परमं जग्मुस्तत्पराभवशङ्किताः ॥ ३१
ते समेत्य जगद्योनिमनादिनिधनं हरिम् ।
शरण्यं शरणं यातास्तपसा तस्य तापिताः ॥ ३२
देवा ऊचुः देवदेव जगन्नाथ परेश पुरुषोत्तम।
ध्रुवस्य तपसा तप्तास्त्वां वयं शरणं गताः ॥ ३३
दिने दिने कलालेशैः शशाङ्कः पूर्यते यथा ।
तथायं तपसा देव प्रयात्वृद्धिमहर्निशम् ॥ ३४
औत्तानपादितपसा वयमित्थं जनार्दन ।
भीतास्त्वां शरणं यातास्तपसस्तं निवर्तय ।। ३५
न विद्मः किं स शक्रत्वं सूर्यत्वं किमभीप्सति ।
वित्तपाम्बुपसोमानां साभिलाषः पदेषु किम् ॥ ३६
तदस्माकं प्रसीदेश हृदयाच्छल्यमुद्धर।
उत्तानपादतनयं तपसः सन्निवर्त्तय ।। ३७
तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे सब आपसमें मिलकर जगत्के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनन्त श्रीहरि की शरण में गये देवता बोले- हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तप्त होकर आपकी शरणमें आये हैं हे देव! जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये हैं, आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरुण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है अतः हे ईश! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका काँटा निकालिये ॥ ३१ - ३७ ॥
नेन्द्रत्वं न च सूर्यत्वं नैवाम्बुपधनेशताम् ।
प्रार्थयत्येष यं कामं तं करोम्यखिलं सुराः ॥ ३८
यात देवा यथाकामं स्वस्थानं विगतज्वराः ।
निवर्त्तयाम्यहं बालं तपस्यासक्तमानसम् ॥ ३९हे सुरगण! उसे इन्द्र, सूर्य, वरुण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकी अभिलाषा नहीं है, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करूँगा हे देवगण! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने-अपने स्थानोंको जाओ। मैं तपस्यामें लगे हुए उस बालकको निवृत्त करता हूँ ॥ ३८ - ३९ ॥
इत्युक्ता देवदेवेन प्रणम्य त्रिदशास्ततः ।
प्रययुः स्वानि धिष्ण्यानि शतक्रतुपुरोगमाः ॥ ४०
भगवानपि सर्वात्मा तन्मयत्वेन तोषितः ।
गत्वा ध्रुवमुवाचेदं चतुर्भुजवपुर्हरिः ॥ ४१ देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने- अपने स्थानोंको गये सर्वात्मा भगवान् हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुजरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥ ४० - ४१ ॥
औत्तानपादे भद्रं ते तपसा परितोषितः ।
वरदोऽहमनुप्राप्तो वरं वरय सुव्रत ॥ ४२
बाह्यार्थनिरपेक्षं ते मयि चित्तं यदाहितम्।
तुष्टोऽहं भवतस्तेन तदृणीष्व वरं परम् ॥ ४३ हे उत्तानपादके पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो। मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा दिया है। अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ। अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥ ४२ - ४३ ॥
श्रुत्वेत्थं गदितं तस्य देवदेवस्य बालकः ।
उन्मीलिताक्षो ददृशे ध्यानदृष्टं हरिं पुरः ॥ ४४
देवाधिदेव भगवान्के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोलीं और अपनी ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान् हरिको साक्षात् अपने सम्मुख खड़े देखा ॥ ४४॥
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गवरासिधरमच्युतम् !
किरीटिनं समालोक्य जगाम शिरसा महीम् ॥ ४५
रोमाञ्चिताङ्गः सहसा साध्वसं परमं गतः ।
स्तवाय देवदेवस्य स चक्रे मानसं ध्रुवः ॥ ४६
किं वदामि स्तुतावस्य केनोक्तेनास्य संस्तुतिः ।
इत्याकुलमतिर्देवं तमेव शरणं ययौ ॥ ४७
ध्रुव उवाच भगवन्यदि मे तोषं तपसा परमं गतः ।
स्तोतुं तदहमिच्छामि वरमेनं प्रयच्छ मे ॥ ४८
[ ब्रह्माद्यैर्यस्य वेदज्ञैर्जायते यस्य नो गतिः ।
तं त्वां कथमहं देव स्तोतुं शक्नोमि बालकः ॥
त्वद्भक्तिप्रवणं होतत्परमेश्वर मे मनः ।
स्तोतुं प्रवृत्तं त्वत्पादौ तत्र प्रज्ञां प्रयच्छ मे ॥
श्रीअच्युतको किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर प्रणाम किया और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति करनेकी इच्छा की किन्तु 'इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या कहूँ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है?' यह न जाननेके कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन देवदेवकी ही शरण ली ध्रुवने कहा- भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्यासे सन्तुष्ट हैं ! ४८ ! तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये [ जिससे मैं स्तुति कर सकूँ] [हे देव! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ। किन्तु हे परम प्रभो! आपकी भक्तिसे द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है। अतः आप इसे उसके लिये बुद्धि प्रदान कीजिये !! ४५ !!
शङ्खप्रान्तेन गोविन्दस्तं पस्पर्श कृताञ्जलिम्।
उत्तानपादतनयं द्विजवर्य जगत्पतिः ॥ ४९
अथ प्रसन्नवदनः स क्षणान्नृपनन्दनः ।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भूतधातारमच्युतम् ।। ५०
हे द्विजवर्य! तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको अपने (वेदमय) शंखके अन्त (वेदान्तमय) भागसे छू दिया तब तो एक क्षणमें ही वह राजकुमार प्रसन्न मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ॥ ४९ - ५०॥
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥ ५१
शुद्धः सूक्ष्मोऽखिलव्यापी प्रधानात्परतः पुमान् ।
यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणाशिने ॥ ५२
भूरादीनां समस्तानां गन्धादीनां च शाश्वतः ।
बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥ ५३
तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम् ।
प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वद्रूपं परमेश्वर ॥ ५४
बृहत्त्वाबृंहणत्वाच्च यद्रूपं ब्रह्मसंज्ञितम् ।
तस्मै नमस्ते सर्वात्मन्योगिचिन्त्याविकारिणे ॥ ५५
सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।
सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ ५६
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल-प्रकृति- ये सब जिनके रूप हैं उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ जो अति शुद्ध, सूक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधानसे भी परे हैं वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण-भोक्ता परमपुरुषको मैं नमस्कार करता हूँ हे परमेश्वर! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष (जीव)-से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिलब्रह्माण्ड नायक के ब्रह्मभूत शुद्धस्वरूप आत्माकी मैं शरण हूँ हे सर्वात्मन् ! हे योगियोंके चिन्तनीय! व्यापक और वर्धनशील होनेके कारण आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूपको मैं नमस्कार करता हूँ हे प्रभो! आप हजारों मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोंवाले और हजारों चरणोंवाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और [पृथिवी आदि आवरणोंके सहित] सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥ ५१ - ५६ ॥
यद्भूतं यच्च वै भव्यं पुरुषोत्तम तद्भवान् ।
त्वत्तो विराट् स्वराट् सम्राट् त्वत्तश्चाप्यधिपूरुषः ।। ५७
अत्यरिच्यत सोऽधश्च तिर्यगूर्वं च वै भुवः ।
त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तो भूतभविष्यती ।। ५८
त्वरूपधारिणश्चान्तर्भूतं सर्वमिदं जगत् ।
त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशुर्द्विधा ॥ ५९
त्वत्तः ऋचोऽथ सामानि त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे।
त्वत्तो यजूंष्यजायन्त त्वत्तोऽश्वाश्चैकतो दतः ।। ६०
गावस्त्वत्तः समुद्भूतास्त्वत्तोऽजा अवयो मृगाः ।
त्वन्मुखाद्ब्राह्मणास्त्वत्तो बाहोः क्षत्रमजायत ।। ६१
वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्रगताः ।
अक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ।। ६२
प्राणोऽन्तः सुषिराज्ञ्जातो मुखादग्निरजायत ।
नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्तत ॥ ६३
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम् ।। ६४
हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत् जो कुछ पदार्थ हैं वे सब आप ही हैं तथा विराट्, स्वराट्, सम्राट् और अधिपुरुष (ब्रह्मा) आदि भी सब आपहीसे उत्पन्न हुए हैं वे ही आप इस पृथिवीके नीचे-ऊपर और इधर-उधर सब ओर बढ़े हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है तथा आपहीसे भूत और भविष्यत् हुए हैं यह सम्पूर्ण जगत् आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्डके अन्तर्गत है [फिर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है। जिसमें सभी पुरोडाशोंका हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य (दधि और घृत) तथा [ग्राम्य और वन्य] दो प्रकारके पशु आपहीसे उत्पन्न हुए हैं आपहीसे ऋक्, साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि जीव उत्पन्न हुए हैं आपहीसे गौओं, बकरियों, भेड़ों और मृगोंकी उत्पत्ति हुई है; आपहीके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जंघाओंसे वैश्य और चरणोंसे शूद्र प्रकट हुए हैं तथा आपहीके नेत्रोंसे सूर्य, प्राणसे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी छिद्र (नासारन्ध्र) से प्राण, मुखसे अग्नि, नाभिसे आकाश, सिरसे स्वर्ग, श्रोत्रसे दिशाएँ और चरणोंसे पृथिवी आदि उत्पन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभो! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ है जिस प्रकार नन्हेंसे बीजमें बड़ा भारी वट वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय-कालमें यह सम्पूर्ण जगत् बीज-स्वरूप आपहीमें लीन रहता है ॥ ५७ - ६५ ॥
न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः ।
संयमे विश्वमखिलं बीजभूते तथा त्वयि ॥ ६५
बीजादङ्कुरसम्भूतो न्यग्रोधस्तु समुत्थितः ।
विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत् ॥ ६६
यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रादपि दृश्यते ।
एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वत्स्थायीश्वर दृश्यते ।। ६७
ह्लादिनी सन्धिनी संवित्त्वय्येका सर्वसंस्थितौ ।
ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ ६८
पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः ।
प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥ ६९
व्यक्तं प्रधानपुरुषौ विराट् सम्राट् स्वराट् तथा।
विभाव्यतेऽन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो भवान् ॥ ७०
सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् ।
सर्वं त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्मनेऽस्तु ते ॥ ७१ जिस प्रकार बीजसे अंकुररूपमें प्रकट हुआ वट-वृक्ष बढ़कर अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकाल में यह जगत् आपहीसे प्रकट होकर फैल जाता है हे ईश्वर! जिस प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोंसे अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगत्से आप पृथक् नहीं हैं, वह आपहीमें स्थित देखा जाता है सबके आधारभूत आपमें ह्लादिनी (निरन्तर आह्यदित करनेवाली) और सन्धिनी (विच्छेदरहित) संवित् (विद्याशक्ति) अभिन्नरूपसे रहती हैं। आपमें (विषयजन्य) आह्लाद या ताप देनेवाली (सात्त्विकी या तामसी) अथवा उभयमिश्रा (राजसी) कोई भी संवित् नहीं है, क्योंकि आप निर्गुण हैंआप [कार्यदृष्टिसे] पृथक् रूप और [कारणदृष्टिसे] एकरूप हैं। आप ही भूतसूक्ष्म हैं और आप ही नाना जीवरूप हैं। हे भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ [योगियोंके द्वारा] अन्तःकरणमें आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष, विराट्, सम्राद् और स्वराट् आदि रूपोंसे भावना किये जाते हैं और [क्षयशील] पुरुषोंमें आप नित्य अक्षय हैं ! आकाशादि सर्वभूतों में अर्थात् उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपोंको धारण करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही हैं; सब कुछ आपहीसे हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे हैं इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है॥ ६५ - ७१ ॥
सर्वात्मकोऽसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो यतः ।
कथयामि ततः किं ते सर्व वेत्सि हृदि स्थितम् ।। ७२
सर्वात्मन्सर्वभूतेश सर्वसत्त्वसमुद्भव ।
सर्वभूतो भवान्वेत्ति सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ ७३
यो मे मनोरथो नाथ सफलः स त्वया कृतः ।
तपश्च तप्तं सफलं यदृष्टोऽसि जगत्पते ॥ ७४
हे सर्वेश्वर! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त हैं; अतः मैं आपसे क्या कहूँ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंको जानते हैं हे सर्वात्मन् ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतोंके आदि-स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके मनोरथोंको जानते हैं हे नाथ! मेरा जो कुछ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत्पते। मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकि मुझे आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ७२ - ७४॥
तपसस्तत्फलं प्राप्तं यदृष्टोऽहं त्वया ध्रुव।
मद्दर्शनं हि विफलं राजपुत्र न जायते ॥ ७५
वरं वरय तस्मात्त्वं यथाभिमतमात्मनः ।
सर्वं सम्पद्यते पुंसां मयि दृष्टिपथं गते ॥ ७६ हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी; परन्तु हे राजकुमार। मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले। मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥ ७५ - ७६ ॥
भगवन्भूतभव्येश सर्वस्यास्ते भवान् हृदि।
किमज्ञातं तव ब्रह्मन्मनसा यन्मयेक्षितम् ।। ७७
तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि यन्मया।
प्रार्थ्यते दुर्विनीतेन हृदयेनातिदुर्लभम् ॥ ७८
किं वा सर्वजगत्त्रष्टः प्रसन्ने त्वयि दुर्लभम् ।
त्वत्प्रसादफलं भुङ्क्ते त्रैलोक्यं मघवानपि ॥ ७९
नैतद्राजासनं योग्यमजातस्य ममोदरात्।
इतिगर्वादवोचन्मां सपत्नी मातुरुच्चकैः ॥ ८०
आधारभूतं जगतः सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ।
प्रार्थयामि प्रभो स्थानं त्वत्प्रसादादतोऽव्ययम् ॥ ८१
हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप सभीके अन्तःकरणोंमें विराजमान हैं। हे ब्रह्मन् । मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है? तो भी, हे हे देवेश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा हे समस्त संसारको रचनेवाले रमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर (संसारमें) क्या दुर्लभ है? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बढ़-बढ़कर मुझसे यह कहा था कि 'जो मेरे उदरसे उत्पन्न नहीं है उसके योग्य यह राजासन नहीं है' अतः हे प्रभो! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥ ७७ - ८१ ॥
यत्त्वया प्रार्थ्यते स्थानमेतत्प्राप्स्यति वै भवान्।
त्वयाऽहं तोषितः पूर्वमन्यजन्मनि बालक ॥ ८२
त्वमासीर्ब्रह्मणः पूर्वं मय्येकाग्रमतिः सदा।
मातापित्रोश्च शुश्रूषुर्निजधर्मानुपालकः ॥ ८३
कालेन गच्छता मित्रं राजपुत्रस्तवाभवत् ।
यौवनेऽखिलभोगाढ्यो दर्शनीयोज्ज्वलाकृतिः ॥ ८४
तत्सङ्गात्तस्य तामृद्धिमवलोक्यातिदुर्लभाम् ।
भवेयं राजपुत्रोऽहमिति वाञ्छा त्वया कृता ।। ८५अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्ममें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा पूर्व जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित्त रहनेवाला, माता-पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था कालान्तरमें एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया। वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था उसके संगसे उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि 'मैं भी राजपुत्र होऊँ' ॥८२ - ८५ ॥
ततो यथाभिलषिता प्राप्ता ते राजपुत्रता ।
उत्तानपादस्य गृहे जातोऽसि ध्रुव दुर्लभे ॥ ८६
अन्येषां दुर्लभं स्थानं कुले स्वायम्भुवस्य यत् ॥ ८७
तस्यैतदपरं बाल येनाहं परितोषितः ।
मामाराध्य नरो मुक्तिमवाप्नोत्यविलम्बिताम् ॥ ८८
मय्यर्पितमना बाल किमु स्वर्गादिकं पदम् ॥ ८९
त्रैलोक्यादधिके स्थाने सर्वताराग्रहाश्रयः ।
भविष्यति न सन्देहो मत्प्रसादाद्भवान्ध्रुव ॥ ९०
सूर्यात्सोमात्तथा भौमात्सोमपुत्राबृहस्पतेः ।
सितार्कतनयादीनां सर्वक्षणां तथा ध्रुव ॥ ९१
सप्तर्षीणामशेषाणां ये च वैमानिकाः सुराः ।
सर्वेषामुपरि स्थानं तव दत्तं मया ध्रुव ॥ ९२
केचिच्चतुर्युगं यावत्केचिन्मन्वन्तरं सुराः ।
तिष्ठन्ति भवतो दत्ता मया वै कल्पसंस्थितिः ॥ ९३
सुनीतिरपि ते माता त्वदासन्नातिनिर्मला ।
विमाने तारका भूत्वा तावत्कालं निवत्स्यति ॥ ९४
ये च त्वां मानवाः प्रातः सायं च सुसमाहिताः ।
कीर्त्तयिष्यन्ति तेषां च महत्पुण्यं भविष्यति ॥ ९५
अतः हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हींके घरमें तूने उत्तानपादके यहाँ जन्म लिया अरे बालक! [औरोंके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु] जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त तुच्छ है। मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकोंका तो कहना ही क्या है? हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्सन्देह उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा हे ध्रुव ! मैं तुझे वह ध्रुव (निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणोंसे ऊपर है देवताओंमेंसे कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतककी स्थिति देता हूँ तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी और जो लोग समाहित-चित्तसे सायंकाल और प्रातःकालके समय तेरा गुण-कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य होगा ॥ ८६ - ९५ ॥
एवं पूर्व जगन्नाथाद्देवदेवाज्ञ्जनार्दनात् ।
वरं प्राप्य ध्रुवः स्थानमध्यास्ते स महामते ।। ९६
स्वयं शुश्रूषणाद्धर्म्यान्मातापित्रोश्च वै तथा ।
द्वादशाक्षरमाहात्म्यात्तपसश्च प्रभावतः ॥ ९७
तस्याभिमानमृद्धिं च महिमानं निरीक्ष्य हि।
देवासुराणामाचार्यः श्लोकमत्रोशना जगौ ॥ ९८
अहोऽस्य तपसो वीर्यमहोऽस्य तपसः फलम्।
यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ ९९
ध्रुवस्य जननी चेयं सुनीतिर्नाम सूनृता।
अस्याश्च महिमानं कः शक्तो वर्णयितुं भुवि ॥ १००
त्रैलोक्याश्रयतां प्राप्तं परं स्थानं स्थिरायति ।
स्थानं प्राप्ता परं धृत्वा या कुक्षिविवरे ध्रुवम् ॥ १०१
हे महामते! इस प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए हे मुने ! अपने माता-पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर-मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उन के मान, वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरोंके आचार्य शुक्रदेवने ये श्लोक कहे हैं 'अहो! इस ध्रुवके तपका कैसा प्रभाव है? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल है जो इस ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे हैं इसकी यह सुनीति नामवाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है। संसारमें ऐसा कौन है जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है' ॥ ९६ - १०१ ॥
यश्चैतत्कीर्त्तयेन्नित्यं ध्रुवस्यारोहणं दिवि ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके महीयते ॥ १०२
स्थानभ्रंशं न चाप्नोति दिवि वा यदि वा भुवि ।
सर्वकल्याणसंयुक्तो दीर्घकालं स जीवति ॥ १०३जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक प्राप्तिके प्रसंगका कीर्तन करता है वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता हैवह स्वर्गमें रहे अथवा पृथिवीमें, कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ॥ १०२ - १०३ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
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