विष्णु पुराण अध्याय चौदहवाँ - Vishnu Purana Chapter 14

विष्णु पुराण अध्याय चौदहवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 14 in Sanskrit and Hindi

चौदहवाँ अध्याय प्राचीनबर्हि का जन्म और प्रचेताओं का भगवदाराधन !
  • श्रीपराशर उवाच 
पृथोः पुत्रौ तु धर्मज्ञौ जज्ञातेऽन्तर्द्धिवादिनौ ।
शिखण्डिनी हविर्धानमन्तर्धानाद्वयजायत ॥ १
हविर्धानात् षडाग्नेयी धिषणाऽजनयत्सुतान्।
प्राचीनबर्हिषं शुक्रं गयं कृष्णं वृजाजिनौ ॥ २
प्राचीनबर्हिर्भगवान्महानासीत्प्रजापतिः । 
हविर्धानान्महाभाग येन संवर्धिताः प्रजाः ॥ ३
प्राचीनाग्राः कुशास्तस्य पृथिव्यां विश्रुता मुने। 
प्राचीनबर्हिरभवत्ख्यातो भुवि महाबलः ॥ ४
समुद्रतनयायां तु कृतदारो महीपतिः ।
महतस्तपसः पारे सवर्णायां महामते ॥ ५
सवर्णाधत्त सामुद्री दश प्राचीनबर्हिषः ।
सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ ६ 
अपृथग्धर्मचरणास्तेऽतप्यन्त महत्तपः । 
दशवर्षसहस्त्राणि समुद्रसलिलेशयाः ॥ ७
  • श्रीपराशरजी बोले
हे मैत्रेय ! पृथुके अन्तर्द्धन और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए; उनमेंसे अन्तर्द्धनसे उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हविर्धानको उत्पन्न किया हविर्धानसे अग्निकुलीना धिषणाने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन - ये छः पुत्र उत्पन्न किये हे महाभाग ! हविर्धानसे उत्पन्न हुए भगवान् प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की हे मुने ! उनके समयमें [ यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण] प्राचीनाग्र कुश समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे, इसलिये वे महाबली 'प्राचीनबर्हि' नामसे विख्यात हुए हे महामते ! उन महीपतिने महान् तपस्याके अनन्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णासे विवाह किया उस समुद्र- कन्या सवर्णाके प्राचीनबर्हिसे दस पुत्र हुए। वे प्रचेता- नामक सभी पुत्र धनुर्विद्याके पारगामी थे उन्होंने समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्मका आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥ १ - ७ ॥
  • श्रीमैत्रेय उवाच
यदर्थं ते महात्मानस्तपस्तेपुर्महामुने ।
प्रचेतसः समुद्राम्भस्येतदाख्यातुमर्हसि ॥ ८
  • श्रीमैत्रेयजी बोले
हे महामुने! उन महात्मा प्रचेताओंने जिस लिये समुद्रके जलमें तपस्या की थी सो आप कहिये ॥ ८॥
  • श्रीपराशर उवाच
पित्रा प्रचेतसः प्रोक्ताः प्रजार्थममितात्मना । 
प्रजापतिनियुक्तेन बहुमानपुरस्सरम् ॥ ९

  • प्राचीनबर्हिरुवाच
ब्रह्मणा देवदेवेन समादिष्टोऽस्म्यहं सुताः । 
प्रजाः संवर्द्धनीयास्ते मया चोक्तं तथेति तत् ॥ १०
तन्मम प्रीतये पुत्राः प्रजावृद्धिमतन्द्रिताः । 
कुरुध्वं माननीया वः सम्यगाज्ञा प्रजापतेः ॥ ११

  • श्रीपराशरजी 
कहने लगे हे मैत्रेय! एक बार प्रजापतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा पिता प्राचीनबर्हिने उनसे अति सम्मानपूर्वक सन्तानोत्पत्तिके लिये इस प्रकार कहा प्राचीनबर्हि बोले- हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि 'तुम प्रजाकी वृद्धि करो' और मैंने भी उनसे ' बहुत अच्छा' कह दिया है।अतः हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापतिकी आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है॥ ९ - ११ ॥ 
  • श्रीपराशर उवाच
ततस्ते तत्पितुः श्रुत्वा वचनं नृपनन्दनाः ।
तथेत्युक्त्वा च तं भूयः पप्रच्छुः पितरं मुने ॥ १२

  • प्रचेतस ऊचुः
येन तात प्रजावृद्धौ समर्थाः कर्मणा वयम् । 
भवेम तत् समस्तं नः कर्म व्याख्यातुमर्हसि ॥ १३

  • श्रीपराशरजी बोले
हे मुने ! उन राजकुमारोंने पिताके ये वचन सुनकर उनसे 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर फिर पूछा  प्रचेता बोले- हे तात! जिस कर्मसे हम प्रजा- वृद्धिमें समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥ १३ ॥
  • पितोवाच
आराध्य वरदं विष्णुमिष्टप्राप्तिमसंशयम् । 
समेति नान्यथा मर्त्यः किमन्यत्कथयामि वः ॥ १४
तस्मात्प्रजाविवृद्धयर्थं सर्वभूतप्रभुं हरिम् ।
आराधयत गोविन्दं यदि सिद्धिमभीप्सथ ॥ १५
धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं चान्विच्छतां सदा।
आराधनीयो भगवाननादिपुरुषोत्तम ॥ १६
यस्मिन्नाराधिते सर्गं चकारादौ प्रजापतिः । 
तमाराध्याच्युतं वृद्धिः प्रजानां वो भविष्यति ॥ १७
  • पिताने कहा
वरदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है और किसी उपायसे नहीं। इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ इसलिये यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा-वृद्धिके लिये सर्वभूतोंके स्वामी श्रीहरि गोविन्दकी उपासना करो धर्म, अर्थ, काम या मोक्षकी इच्छावालोंको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी ही आराधना करनी चाहिये कल्पके आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी रचना की है, तुम उन अच्युतकी ही आराधना करो। इससे तुम्हारी सन्तानकी वृद्धि होगी ॥ १४ - १७ ॥
  • श्रीपराशर उवाच
इत्येवमुक्तास्ते पित्रा पुत्राः प्रचेतसो दश। 
मग्नाः पयोधिसलिले तपस्तेपुः समाहिताः ॥ १८
दशवर्षसहस्त्राणि न्यस्तचित्ता जगत्पतौ।
नारायणे मुनिश्रेष्ठ सर्वलोकपरायणे ॥ १९
तत्रैवावस्थिता देवमेकाग्रमनसो हरिम् ।
तुष्टुवुर्यस्स्तुतः कामान् स्तोतुरिष्टान्प्रयच्छति ।। २०
  • श्रीमैत्रेय उवाच
स्तवं प्रचेतसो विष्णोः समुद्राम्भसि संस्थिताः । 
चक्रुस्तन्मे मुनिश्रेष्ठ सुपुण्यं वक्तुमर्हसि ॥ २१
  • श्रीपराशर उवाच
शृणु मैत्रेय गोविन्दं यथापूर्वं प्रचेतसः । 
तुष्टुवुस्तन्मयीभूताः समुद्रसलिलेशयाः ॥ २२
  • प्रचेतस ऊचुः
नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती ।
तमाद्यन्तमशेषस्य जगतः परमं प्रभुम् ॥ २३
ज्योतिराद्यमनौपम्यमण्वनन्तमपारवत् !
योनिभूतमशेषस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ २४
यस्याहः प्रथमं रूपमरूपस्य तथा निशा। 
सन्ध्या च परमेशस्य तस्मै कालात्मने नमः ॥ २५
भुज्यतेऽनुदिनं देवैः पितृभिश्च सुधात्मकः ।
जीवभूतः समस्तस्य तस्मै सोमात्मने नमः ।। २६
यस्तमांस्यत्ति तीव्रात्मा प्रभाभिर्भासयन्नभः ।
धर्मशीताम्भसां योनिस्तस्मै सूर्यात्मने नमः ॥ २७

  • श्रीपराशर जी बोले
पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रोंने समुद्रके जलमें डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया  हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायणमें चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीं (जलमें ही) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरिकी एकाग्र चित्तसे स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंकी सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं
  • श्रीमैत्रेयजी बोले
हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्रके जलमें स्थित रहकर प्रचेताओंने भगवान् विष्णुकी जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! पूर्वकालमें समुद्रमें स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मयभावसे श्रीगोविन्द की जो स्तुति की, वह सुनो प्रचेताओंने कहा- जिनमें सम्पूर्ण वाक्योंकी नित्य- प्रतिष्ठा है [ अर्थात् जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपाद्य हैं] तथा जो जगत्‌की उत्पत्ति और प्रलयके कारण हैं उन निखिल-जगन्नायक परमप्रभुको हम नमस्कार करते हैं जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनन्त, अपार और समस्त चराचरके कारण हैं, तथा जिन रूपहीन परमेश्वरके दिन, रात्रि और सन्ध्या ही प्रथम रूप हैं, उन कालस्वरूप भगवान्‌को नमस्कार है  समस्त प्राणियोंके जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूपको देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते हैं- उन सोमस्वरूप प्रभुको नमस्कार है जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमण्डलको प्रकाशित करते हुए अन्धकारको भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जलके उद्गमस्थान हैं उन सूर्यस्वरूप [नारायण] को नमस्कार है॥ १८ - २७॥

काठिन्यवान् यो बिभर्त्ति जगदेतदशेषतः । 
शब्दादिसंश्रयो व्यापी तस्मै भूम्यात्मने नमः ।। २८
यद्योनिभूतं जगतो बीजं यत्सर्वदेहिनाम्।
तत्तोयरूपमीशस्य नमामो हरिमेधसः ॥ २९
यो मुखं सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक् तथा।
पितॄणां च नमस्तस्मै विष्णवे पावकात्मने ।। ३०
पञ्चधावस्थितो देहे यश्चेष्टां कुरुतेऽनिशम् । 
आकाशयोनिर्भगवांस्तस्मै वाय्वात्मने नमः ॥ ३१
अवकाशमशेषाणां भूतानां यः प्रयच्छति। 
अनन्तमूर्तिमाञ्छुद्धस्तस्मै व्योमात्मने नमः ॥ ३२
समस्तेन्द्रियसर्गस्य यः सदा स्थानमुत्तमम् ।
तस्मै शब्दादिरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ॥ ३३
गृह्णाति विषयान्नित्यमिन्द्रियात्मा क्षराक्षरः । 
यस्तस्मै ज्ञानमूलाय नताः स्म हरिमेधसे ॥ ३४
गृहीतानिन्द्रियैरर्थानात्मने यः प्रयच्छति।
अन्तःकरणरूपाय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥ ३५
यस्मिन्ननन्ते सकलं विश्वं यस्मात्तथोद्गतम् । 
लयस्थानं च यस्तस्मै नमः प्रकृतिधर्मिणे ॥ ३६
शुद्धः सँल्लक्ष्यते भ्रान्त्या गुणवानिव योऽगुणः ।
तमात्मरूपिणं देवं नताः स्म पुरुषोत्तमम् ॥ ३७
अविकारमजं शुद्धं निर्गुणं यन्निरञ्जनम्। 
नताः स्म तत्परं ब्रह्म विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ३८
अदीर्घह्रस्वमस्थूलमनण्वश्यामलोहितम् ।
अस्नेहच्छायमतनुमसक्तमशरीरिणम् ॥३९
अनाकाशमसंस्पर्शमगन्धमरसं च यत्। 
अचक्षुश्रोत्रमचलमवाक्पाणिममानसम् ॥ ४०
अनामगोत्रमसुखमतेजस्कमहेतुकम् !
अभयं भ्रान्तिरहितमनिद्रमजरामरम् ॥ ४१
अरजोऽशब्दममृतमप्लुतं यदसंवृतम् !
पूर्वापरे न वै यस्मिंस्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ४२
परमेशत्वगुणवत्सर्वभूतमसंश्रयम् !
नताः स्म तत्पदं विष्णोर्जिह्वादृग्गोचरं न यत् ।। ४३


जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसारको धारण करते हैं और शब्द आदि पाँचों विषयोंके आधार तथा व्यापक हैं, उन भूमिरूप भगवान्‌को नमस्कार है जो संसारका योनिरूप है और समस्त देहधारियोंका बीज है, भगवान् हरिके उस जलस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं  जो समस्त देवताओंका हव्यभुक् और पितृगणका कव्यभुक् मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकार से देहमें स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान्‌को नमस्कार है जो समस्त भूतोंको अवकाश देता है उस अनन्तमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभुको नमस्कार हैसमस्त इन्द्रिय-सृष्टिके जो उत्तम स्थान हैं उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूपसे नित्य विषयोंको ग्रहण करते हैं उन ज्ञानमूल हरिको नमस्कार है इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये विषयोंको जो आत्माके सम्मुख उपस्थित करता है उस अन्तःकरणरूप विश्वात्माको नमस्कार है जिस अनन्तमें सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो उसके लयका भी स्थान है उस प्रकृतिस्वरूप परमात्माको नमस्कार है जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त से दिखायी देते हैं उन आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेवको हम नमस्कार करते हैं जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णुका परमपद है उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते हैं  जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्नेह (द्रव), कान्ति तथा शरीरसे रहित एवं अनासक्त और अशरीरी (जीवसे भिन्न) है जो अवकाश स्पर्श, गन्ध और रससे रहित तथा आँख-कान-विहीन, अचल एवं जिह्वा, हाथ और मनसे रहित है जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है; जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण-इन (अवस्थाओं) का अभाव है जो अरज (रजोगुणरहित), अशब्द, अमृत, अप्लुत (गतिशून्य) और असंवृत (अनाच्छादित) है एवं जिसमें पूर्वापर व्यवहारकी गति नहीं है वही भगवान् विष्णुका परमपद है  जिसका ईशन (शासन) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिह्वा और दृष्टिका अविषय है, भगवान् विष्णुके उस परमपदको हम नमस्कार करते हैं॥ २८ - ४३ ॥

एवं प्रचेतसो विष्णुं स्तुवन्तस्तत्समाधयः ।
दशवर्षसहस्त्राणि तपश्चेरुर्महार्णवे ॥ ४४
ततः प्रसन्नो भगवांस्तेषामन्तर्जले हरिः । 
ददौ दर्शनमुन्निद्रनीलोत्पलदलच्छविः ॥ ४५
पतत्त्रिराजमारूढमवलोक्य प्रचेतसः । 
प्रणिपेतुः शिरोभिस्तं भक्तिभारावनामितैः ॥ ४६
ततस्तानाह भगवान्द्रियतामीप्सितो वरः । 
प्रसादसुमुखोऽहं वो वरदः समुपस्थितः ॥ ४७
ततस्तमूचुर्वरदं प्रणिपत्य प्रचेतसः । 
यथा पित्रा समादिष्टं प्रजानां वृद्धिकारणम् ॥ ४८
स चापि देवस्तं दत्त्वा यथाभिलषितं वरम् । 
अन्तर्धानं जगामाशु ते च निश्चक्रमुर्जलात् ॥ ४९

श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्‌में समाधिस्थ होकर प्रचेताओंने महासागरमें रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की  तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी-सी आभायुक्त दिव्य छविसे जलके भीतर ही दर्शन दिया प्रचेताओंने पक्षिराज गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें  भक्तिभावके भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया तब भगवान्ने उनसे कहा- "मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो" तब प्रचेताओंने वरदायक श्रीहरिको प्रणाम कर, जिस प्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धिके लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की  तदनन्तर, भगवान् उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥ ४४ - ४९ ॥
  • इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

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