विष्णु पुराण द्वितीय अंश का 12 अध्याय,Vishnu Purana Dviteey Ansh Ka 12 Chapter

विष्णु पुराण द्वितीय अंश का 12 अध्याय संस्कृत और हिंदी में ,Vishnu Purana Dviteey Ansh Ka 12 Chapter  in Sanskrit and Hindi

बारहवाँ अध्याय नवग्रहों का वर्णन तथा लोकान्तरसम्बन्धी व्याख्यानका उपसंहार !

  • श्रीपराशरजी बोले

रथस्त्रिचक्रः सोमस्य कुन्दाभास्तस्य वाजिनः । 
वामदक्षिणतो युक्ता दश तेन चरत्यसौ ॥ १
वीथ्याश्रयाणि ऋक्षाणि ध्रुवाधारेण वेगिना । 
ह्रासवृद्धिक्रमस्तस्य रश्मीनां सवितुर्यथा ॥ २
अर्कस्येव हि तस्याश्वाः सकृद्युक्ता वहन्ति ते। ३
क्षीणं पीतं सुरैः सोममाप्याययति दीप्तिमान्। 
मैत्रेयैककलं सन्तं रश्मिनैकेन भास्करः ॥ ४
क्रमेण येन पीतोऽसौ देवैस्तेन निशाकरम् । 
आप्याययत्यनुदिनं भास्करो वारितस्करः ॥ ५
सम्भृतं चार्धमासेन तत्सोमस्थं सुधामृतम् । 
पिबन्ति देवा मैत्रेय सुधाहारा यतोऽमराः ॥ ६
त्रयस्त्रिंशत्सहस्त्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च।
त्रयस्त्रिंशत्तथा देवाः पिबन्ति क्षणदाकरम् ॥ ७
कलाद्वयावशिष्टस्तु प्रविष्टः सूर्यमण्डलम् । 
अमाख्यरश्मौ वसति अमावास्या ततः स्मृता ॥ ८
अप्सु तस्मिन्नहोरात्रे पूर्व विशति चन्द्रमाः ।
ततो वीरुत्सु वसति प्रयात्यर्क ततः क्रमात् ॥ ९
छिनत्ति वीरुधो यस्तु वीरुत्संस्थे निशाकरे। 
पत्रं वा पातयत्येकं ब्रह्महत्यां स विन्दति ॥ १०
सोमं पञ्चदशे भागे किञ्चिच्छिष्टे कलात्मके। 
अपराह्ने पितृगणा जघन्यं पर्युपासते ॥ ११

Vishnu Purana Dviteey Ansh Ka 12 Chapter

श्रीपराशरजी बोले- चन्द्रमाका रथ तीन पहियोंवाला है, उसके वाम तथा दक्षिण ओर कुन्द-कुसुमके समान श्वेतवर्ण दस घोड़े जुते हुए हैं। ध्रुवके आधारपर स्थित उस वेगशाली रथसे चन्द्रदेव भ्रमण करते हैं और नागवीथिपर आश्रित अश्विनी आदि नक्षत्रोंका भोग करते हैं। सूर्यके समान इनकी किरणोंके भी घटने-बढ़नेका निश्चित क्रम है हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यके समान समुद्रगर्भसे उत्पन्न हुए उसके घोड़े भी एक बार जोत दिये जानेपर एक कल्पपर्यन्त रथ खींचते रहते हैं हे मैत्रेय ! सुरगणके पान करते रहनेसे क्षीण हुए कलामात्र चन्द्रमाका प्रकाशमय सूर्यदेव अपनी एक किरणसे पुनः पोषण करते हैं जिस क्रमसे देवगण चन्द्रमाका पान करते हैं उसी क्रमसे जलापहारी सूर्यदेव उन्हें शुक्ला प्रतिपदासे प्रतिदिन पुष्ट करते हैं हे मैत्रेय! इस प्रकार आधे महीनेमें एकत्रित हुए चन्द्रमाके अमृतको देवगण फिर पीने लगते हैं क्योंकि देवताओंका आहार तो अमृत ही है  तैंतीस हजार, तैंतीस सौ, तैंतीस (३६३३३) देवगण चन्द्रस्थ अमृतका पान करते हैं जिस समय दो कलामात्र रहा हुआ चन्द्रमा सूर्यमण्डलमें प्रवेश करके उसकी अमा नामक किरणमें रहता है वह तिथि अमावास्या कहलाती है उस दिन रात्रिमें वह पहले तो जलमें प्रवेश करता है, फिर वृक्ष-लता आदिमें निवास करता है और तदनन्तर क्रमसे सूर्यमें चला जाता है वृक्ष और लता आदिमें चन्द्रमाकी स्थितिके समय [अमावास्याको] जो उन्हें काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है केवल पन्द्रहवीं कलारूप यत्किंचित् भागके बच रहनेपर उस क्षीण चन्द्रमाको पितृगण मध्याह्नोत्तर कालमें चारों ओरसे घेर लेते हैं॥ १ - ११ ॥

पिबन्ति द्विकलाकारं शिष्टा तस्य कला तु या। 
सुधामृतमयी पुण्या तामिन्दोः पितरो मुने ॥ १२
निस्सृतं तदमावास्यां गभस्तिभ्यः सुधामृतम्। 
मासं तृप्तिमवाप्याग्रयां पितरः सन्ति निर्वृताः ।
सौम्या बर्हिषदश्चैव अग्निष्वात्ताश्च ते त्रिधा ॥ १३
एवं देवान् सिते पक्षे कृष्णपक्षे तथा पितॄन् । 
वीरुधश्चामृतमयैः शीतैरप्परमाणुभिः ॥ १४
वीरुधौषधिनिष्पत्त्या मनुष्यपशुकीटकान् । 
आप्याययति शीतांशुः प्राकाश्याह्लादनेन तु ॥ १५
वाय्वग्निद्रव्यसम्भूतो रथश्चन्द्रसुतश्च च। 
पिशङ्गैस्तुरगैर्युक्तः सोऽष्टाभिर्वायुवेगिभिः ॥ १६
सवरूथः सानुकर्षो युक्तो भूसम्भवैर्हयैः । 
सोपासङ्गपताकस्तु शुक्रस्यापि रथो महान् ॥ १७
अष्टाश्वः काञ्चनः श्रीमान्भौमस्यापि रथो महान्। 
पद्मरागारुणैरश्वैः संयुक्तो वह्निसम्भवैः ॥ १८
अष्टयभिः पाण्डुरैर्युक्तो वाजिभिः काञ्चनो रथः । 
तस्मिंस्तिष्ठति वर्षान्ते राशौ राशौ बृहस्पतिः ॥ १९
आकाशसम्भवैरश्वैः शबलैः स्यन्दनं युतम् । 
तमारुह्य शनैर्याति मन्दगामी शनैश्चरः ॥ २०
स्वर्भानोस्तुरगा हृष्टौ भृङ्गाभा धूसरं रथम् । 
सकृद्युक्तास्तु मैत्रेय वहन्त्यविरतं सदा ॥ २१
आदित्यान्निस्सृतो राहुः सोमं गच्छति पर्वसु । 
आदित्यमेति सोमाच्च पुनः सौरेषु पर्वसु ॥ २२
तथा केतुरथस्याश्वा अप्यष्टौ वातरंहसः । 
पलालधूमवर्णाभा लाक्षारसनिभारुणाः ॥ २३
एते मया ग्रहाणां वै तवाख्याता रथा नव। 
सर्वे ध्रुवे महाभाग प्रबद्धा वायुरश्मिभिः ॥ २४

हे मुने ! उस समय उस द्विकलाकार चन्द्रमाकी बची हुई अमृतमयी एक कलाका वे पितृगण पान करते हैं अमावास्या के दिन चन्द्र-रश्मिसे निकले हुए उस सुधामृतका पान करके अत्यन्त तृप्त हुए सौम्य, बर्हिषद् और अग्निष्वात्ता तीन प्रकारके पितृगण एक मासपर्यन्त सन्तुष्ट रहते हैं इस प्रकार चन्द्रदेव शुक्लपक्षमें देवताओं की और कृष्णपक्षमें पितृगणकी पुष्टि करते हैं तथा अमृतमय शीतल जलकणोंसे लता-वृक्षादिका और लता-ओषधि आदि उत्पन्न करके तथा अपनी चन्द्रिकाद्वारा आह्लादित करके वे मनुष्य, पशु एवं कीट-पतंगादि सभी प्राणियों का पोषण करते हैं  चन्द्रमा के पुत्र बुधका रथ वायु और अग्निमय द्रव्यका बना हुआ है और उसमें वायुके समान वेगशाली आठ पिशंगवर्ण घोड़े जुते हैं  वरूथ, अनुकर्ष, उपासंग और पताका तथा पृथिवीसे उत्पन्न हुए घोड़ोंके सहित शुक्रका रथ भी अति महान् है तथा मंगलका अति शोभायमान सुवर्ण- निर्मित महान् रथ भी अग्निसे उत्पन्न हुए, पद्मराग- मणिके समान, अरुणवर्ण, आठ घोड़ोंसे युक्त है जो आठ पाण्डुरवर्ण घोड़ोंसे युक्त सुवर्णका रथ है उसमें वर्षके अन्तमें प्रत्येक राशिमें बृहस्पतिजी विराजमान होते हैं आकाशसे उत्पन्न हुए विचित्रवर्ण घोड़ोंसे युक्त रथमें आरूढ़ होकर मन्दगामी शनैश्चरजी धीरे- धीरे चलते हैं  राहुका रथ धूसर (मटियाले) वर्णका है, उसमें भ्रमरके समान कृष्णवर्ण आठ घोड़े जुते हुए हैं। हे मैत्रेय! एक बार जोत दिये जानेपर वे घोड़े निरन्तर चलते रहते हैं चन्द्रपों (पूर्णिमा)-पर यह राहु सूर्यसे निकलकर चन्द्रमाके पास आता है तथा सौरपाँ (अमावास्या) पर यह चन्द्रमासे निकलकर सूर्यके निकट जाता है इसी प्रकार केतुके रथके वायुवेगशाली आठ घोड़े भी पुआलके धुएँकी-सी आभावाले तथा लाखके समान लाल रंगके हैं हे महाभाग ! मैंने तुमसे यह नवों ग्रहोंके रथोंका वर्णन किया; ये सभी वायुमयी डोरीसे ध्रुवके साथ बँधे हुए हैं॥ १२ - २४॥

ग्रहर्क्षताराधिष्ण्यानि ध्रुवे बद्धान्यशेषतः । 
भ्रमन्त्युचितचारेण मैत्रेयानिलरश्मिभिः ॥ २५
यावन्त्यश्चैव तारास्तास्तावन्तो वातरश्मयः । 
सर्वे ध्रुवे निबद्धास्ते भ्रमन्तो भ्रामयन्ति तम् ।। २६
तैलपीडा यथा चक्रं भ्रमन्तो भ्रामयन्ति वै।
तथा भ्रमन्ति ज्योतींषि वातविद्धानि सर्वशः ॥ २७
अलातचक्रवद्यान्ति वातचक्रेरितानि तु। 
यस्माज्ञ्ज्योतींषि वहति प्रवहस्तेन स स्मृतः ॥ २८
शिशुमारस्तु यः प्रोक्तः स ध्रुवो यत्र तिष्ठति । 
सन्निवेशं च तस्यापि शृणुष्व मुनिसत्तम ॥ २९ 
यदह्ना कुरुते पापं तं दृष्ट्वा निशि मुच्यते।
यावन्त्यश्चैव तारास्ताः शिशुमाराश्रिता दिवि । 
तावन्त्येव तु वर्षाणि जीवत्यभ्यधिकानि च ॥ ३० 
उत्तानपादस्तस्याधो विज्ञेयो ह्युत्तरो हनुः । 
यज्ञोऽधरश्च विज्ञेयो धर्मो मूर्द्धानमाश्रितः ।। ३१
हृदि नारायणश्चास्ते अश्विनौ पूर्वपादयोः ।
वरुणश्चार्यमा चैव पश्चिमे तस्य सक्थिनी ॥ ३२ 
शिश्नः संवत्सरस्तस्य मित्रोऽपानं समाश्रितः ॥ ३३
पुच्छेऽग्निश्च महेन्द्रश्च कश्यपोऽथ ततो ध्रुवः ।
तारका शिशुमारस्य नास्तमेति चतुष्टयम् ॥ ३४
इत्येष सन्निवेशोऽयं पृथिव्या ज्योतिषां तथा।
द्वीपानामुदधीनां च पर्वतानां च कीर्तितः ॥ ३५
वर्षाणां च नदीनां च ये च तेषु वसन्ति वै।
तेषां स्वरूपमाख्यातं सङ्क्षेपः श्रूयतां पुनः ॥ ३६
यदम्बु वैष्णवः कायस्ततो विप्र वसुन्धरा । 
पद्माकारा समुद्भूता पर्वताब्ध्यादिसंयुता ॥ ३७
ज्योतींषि विष्णुर्भुवनानि विष्णु- र्वनानि विष्णुर्गिरयो दिशश्च ।
नद्यः समुद्राश्च स एव सर्वं यदस्ति यन्नास्ति च विप्रवर्य ॥ ३८


हे मैत्रेय! समस्त ग्रह, नक्षत्र और तारामण्डल वायुमयी रज्जुसे ध्रुवके साथ बँधे हुए यथोचित प्रकारसे घूमते रहते हैं जितने तारागण हैं उतनी ही वायुमयी डोरियाँ हैं। उनसे बँधकर वे सब स्वयं घूमते तथा ध्रुवको घुमाते रहते हैं जिस प्रकार तेली लोग स्वयं घूमते हुए कोल्हूको भी घुमाते रहते हैं उसी प्रकार समस्त ग्रहगण वायुसे बँधकर घूमते रहते हैं क्योंकि इस वायुचक्रसे प्रेरित होकर समस्त ग्रहगण अलातचक्र (बनैती) के समान घूमा करते हैं, इसलिये यह 'प्रवह' कहलाता है जिस शिशुमारचक्रका पहले वर्णन कर चुके हैं, तथा जहाँ ध्रुव स्थित है, हे मुनिश्रेष्ठ ! अब तुम उसकी स्थितिका वर्णन सुनो रात्रिके समय उनका दर्शन करनेसे मनुष्य दिनमें जो कुछ पापकर्म करता है उनसे मुक्त हो जाता है तथा आकाशमण्डलमें जितने तारे इसके आश्रित हैं उतने ही अधिक वर्ष वह जीवित रहता है उत्तानपाद उसकी ऊपरकी हनु (ठोड़ी) है और यज्ञ नीचेकी तथा धर्मने उसके मस्तकपर अधिकार कर रखा है  उसके हृदय- देशमें नारायण हैं, दोनों चरणोंमें अश्विनीकुमार हैं तथा जंघाओंमें वरुण और अर्यमा हैं संवत्सर उसका शिश्न है, मित्रने उसके अपान देशको आश्रित कर रखा है, तथा अग्नि, महेन्द्र, कश्यप और ध्रुव पुच्छभागमें स्थित हैं। शिशुमार के पुच्छभागमें स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी अस्त नहीं होते  इस प्रकार मैंने तुमसे पृथिवी, ग्रहगण, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष और नदियोंका तथा जो-जो उनमें बसते हैं उन सभीके स्वरूपका वर्णन कर दिया। अब इसे संक्षेपसे फिर सुनो हे विप्र ! भगवान् विष्णुका जो मूर्तरूप जल है उससे पर्वत और समुद्रादिके सहित कमलके समान आकार वाली पृथिवी उत्पन्न हुई हे विप्रवर्य ! तारागण, त्रिभुवन, वन, पर्वत, दिशाएँ, नदियाँ और समुद्र सभी भगवान् विष्णु ही हैं तथा और भी जो कुछ है अथवा नहीं है वह सब भी एकमात्र वे ही हैं॥ २५ - ३८ ॥ 

ज्ञानस्वरूपो भगवान्यतोऽसा- वशेषमूर्तिर्न तु वस्तुभूतः ।
ततो हि शैलाब्धिधरादिभेदा-ञ्जानीहि विज्ञानविजृम्भितानि ॥ ३९
यदा तु शुद्धं निजरूपि सर्वं कर्मक्षये ज्ञानमपास्तदोषम् ।
तदा हि सङ्कल्पतरोः फलानि भवन्ति नो वस्तुषु वस्तु भेदाः ॥ ४०
वस्त्वस्ति किं कुत्रचिदादिमध्य- पर्यन्तहीनं सततैकरूपम् ।
यच्चान्यथात्वं द्विज याति भूयो न तत्तथा तत्र कुतो हि तत्त्वम् ॥ ४१
मही घटत्वं घटतः कपालिका कपालिका चूर्णरजस्ततोऽणुः ।
जनैः स्वकर्मस्तिमितात्मनिश्चयै- रालक्ष्यते ब्रूहि किमत्र वस्तु ॥ ४२
तस्मान्न विज्ञानमृतेऽस्ति किञ्चित्- क्वचित्कदाचिद्विज वस्तुजातम् ।
विज्ञानमेकं निजकर्मभेद- विभिन्नचित्तैर्बहुधाभ्युपेतम् ॥ ४३ 
ज्ञानं विशुद्धं विमलं विशोक- मशेषलोभादिनिरस्तसङ्गम् !
एकं सदेकं परमः परेशः स वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति ।। ४४
सद्भाव एवं भवतो मयोक्तो ज्ञानं यथा सत्यमसत्यमन्यत् । 
एतत्तु यत्संव्यवहारभूतं तत्रापि चोक्तं भुवनाश्रितं ते ॥ ४५
यज्ञः पशुर्वह्निरशेषऋत्विक् सोमः सुराः स्वर्गमयश्च कामः ।
इत्यादिकर्माश्रितमार्गदृष्टं भूरादिभोगाश्च फलानि तेषाम् ॥ ४६
यच्चैतद्भुवनगतं मया तवोक्तं सर्वत्र व्रजति हि तत्र कर्मवश्यः ।
ज्ञात्वैवं ध्रुवमचलं सदैकरूपं तत्कुर्याद्विशति हि येन वासुदेवम् ।। ४७

क्योंकि भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप हैं इसलिये वे सर्वमय हैं, परिच्छिन्न पदार्थाकार नहीं हैं। अतः इन पर्वत, समुद्र और पृथिवी आदि भेदोंको तुम एकमात्र विज्ञानका ही विलास जानो जिस समय जीव आत्मज्ञानके द्वारा दोषरहित होकर सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय हो जानेसे अपने शुद्ध-स्वरूपमें स्थित हो जाता है उस समय आत्मवस्तुमें संकल्पवृक्षके फलरूप पदार्थ भेदोंकी प्रतीति नहीं होती  हे द्विज ! कोई भी घटादि वस्तु है ही कहाँ ? आदि, मध्य और अन्तसे रहित नित्य एकरूप चित् ही तो सर्वत्र व्याप्त है। जो वस्तु पुनः पुनः बदलती रहती है, पूर्ववत् नहीं रहती, उसमें वास्तविकता ही क्या है? देखो, मृत्तिका ही घटरूप हो जाती है और फिर वही घटसे कपाल, कपालसे चूर्णरज और रजसे अणुरूप हो जाती है। तो फिर बताओ अपने कर्मोंके वशीभूत हुए मनुष्य आत्मस्वरूपको भूलकर इसमें कौन-सी सत्य वस्तु देखते हैं अतः हे द्विज! विज्ञानसे अतिरिक्त कभी कहीं कोई पदार्थादि नहीं हैं। अपने-अपने कर्मों के भेदसे भिन्न-भिन्न चित्तोंद्वारा एक ही विज्ञान नाना प्रकार से मान लिया गया है वह विज्ञान अति विशुद्ध, निर्मल, निःशोक और लोभादि समस्त दोषोंसे रहित है। वही एक सत्स्वरूप परम परमेश्वर वासुदेव है, जिससे पृथक् और कोई पदार्थ नहीं है इस प्रकार मैंने तुमसे यह परमार्थका वर्णन किया है, केवल एक ज्ञान ही सत्य है, उससे भिन्न और सब असत्य है। इसके अतिरिक्त जो केवल व्यवहारमात्र है उस त्रिभुवनके विषयमें भी मैं तुमसे कह चुका [इस ज्ञान-मार्गक अतिरिक्त ] मैंने कर्म-मार्ग-सम्बन्धी यज्ञ, पशु, वहिन, समस्त ऋत्विक्, सोम, सुरगण तथा स्वर्गमय कामना आदिका भी दिग्दर्शन करा दिया। भूलोंकादिके सम्पूर्ण भोग इन कर्म-कलापोंके ही फल हैं यह जो मैंने तुमसे त्रिभुवनगत लोकोंका वर्णन किया है इन्हींमें जीव कर्मवश घूमा करता है, ऐसा जानकर इससे विरक्त हो मनुष्यको वही करना चाहिये जिससे ध्रुव, अचल एवं सदा एकरूप भगवान् वासुदेवमें लीन हो जाय ॥ ३९ - ४७ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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