श्रीगणेश-पुराण सप्तम खण्ड का तृतीय अध्याय !
श्रीगणेश-पुराण सप्तम खण्ड का तृतीय अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक के बारे में वर्णन किया गया है-
- भगवान् गजानन का प्रकट होना
- अपने पुत्र से पार्वती का भयभीत होना
- राजा वरेण्य के यहाँ गजानन को नन्दी द्वारा पहुँचाना
- सिन्दूरासुर के अत्याचारों की वृद्धि
भगवान् गजानन का प्रकट होना
कुछ काल व्यतीत होने पर माता पार्वती जी गर्भवती हुईं। उन दिनों उनका मुखमण्डल अत्यन्त तेजोमय दिखाई देता था। एक दिन शरीर में कुछ उष्णता का अनुभव करती हुई गिरिनन्दिनी ने शिवजी से निवेदन किया- 'नाथ ! यहाँ कुछ गर्मी प्रतीत होती है इसलिए मुझे किसी ठण्डे स्थान पर ले चलने की कृपा करें। शिवजी ने उनका निवेदन मान लिया और उन्हें वृषभ पर चढ़ाकर ले चले। साथ ही सखियों और शिवगणों का समुदाय चल रहा था। देवताओं ने शिवजी को इस प्रकार यात्रा करते देखा तो वे अनेक प्रकार के मधुर मंगलमय बाजे बजाने लगे ।
चलते-चलते वे पर्यत्नी के सुन्दर वन में पहुँचकर रुके। वहाँ अनेकों प्रकार के सुन्दर सुगन्धित पुष्प खिले थे। फलदार वृक्षों पर मीठे फल थे तथा उनकी सघनता से वातावरण अत्यन्त सुहावना और सुखद शीतल हो रहा था । गिरिजा को वह स्थान बहुत रुचिकर प्रतीत हुआ और उनके कहने पर भगवान् शिव ने वहीं ठहरना स्वीकार कर लिया । शिवजी की आज्ञा पाकर उनके गणों ने वहाँ एक सुन्दर दिव्य एवं भव्य मण्डप का निर्माण किया। वहाँ सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाई गईं। जब सब व्यवस्था हो गई तब शिवजी ने पार्वती जी से कहा- 'प्रियतमे ! तुम्हारे लिए सभी आवश्यक सुख-साधन एकत्र किये जा चुके हैं। अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता पड़े तो यह गण उपस्थित कर देंगे। इसलिए तुम जब तक चाहो वहाँ रहो। इन गणों और सखियों को छोड़े जा रहा हूँ।'
पार्वतीजी ने स्वीकारोक्ति की तो शिवजी एक करोड़ गणों को वहाँ छोड़कर कैलास-शिखर पर जा पहुँचे और वहाँ ध्यानयोग का आश्रय ले समाधि में लीन हो गए । जगज्जननी उस अरण्य में सखियों के साथ रहतीं और कभी जल से परिपूर्ण सरोवर में क्रीड़ा करतीं तो कभी वृक्षावलियों के नीचे बैठी रहकर सुगन्धित शीतल वायु का सेवन करतीं। उनकी रक्षा में एक करोड़ शिवगण सदैव प्रस्तुत रहते ही थे, इसलिए किसी प्रकार का भय भी नहीं था ।
धीरे-धीरे नौ मास पूर्ण हो गए। वातावरण अत्यन्त शान्त, सुखदायक और उल्लासवर्द्धक था। शीतल-मन्द समीर प्रवाहित हो रही थी । आकाश नितान्त स्वच्छ हो गया था। ऐसे समय में गिरिनन्दिनी के समक्ष चन्द्रमा के समान परम हर्षोत्पादक परम तत्व प्रकट हो गया। वे स्वयं साक्षात् भगवान् गणेश ही थे ।
अत्यन्त तेजस्वी और सुन्दर मुखारविन्द, प्रफुल्लित पद्म के समान विशाल नेत्र, दिव्य किरीट युक्त मस्तक, प्रवाल की आभा का तिरस्कार करने वाले अरुण अधरोष्ठ, कानों में सुन्दर कुण्डल, चार भुजाओं में परशु, माला, मोदक और कमल, कण्ठ में मुक्तामाल और कटि में करधनी थी । चरणों में ध्वज, अंकुश और कमल के चिह्न बने थे ।उस भुजापुञ्जमय चतुर्भुज रूप को देखकर पार्वती जी आवेग के कारण काँपने लगीं। फिर कुछ संयत होकर उन्होंने पूछा- 'आप कौन हैं ? अपना परिचय देने की कृपा करें ।'
तेजोमय तत्व ने कहा, 'माता! मैं वही हूँ जिसके पुनः दर्शन की आपने कामना की थी और मैंने द्वापर में प्रकट होने का वचन दिया था। जगत् के सर्ग, पालन और लय का कर्ता एवं समस्त ब्राह्मण का अधीश्वर गणेश मैं ही हूँ। गणेश, गणेश्वर, जगत्पति, मयूरेश, विनायक, गजानन आदि मेरे ही नाम हैं। मैंने ही तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में सिन्दूरासुर से आपको बचाया था। मैंने त्रेतायुग में असुरराज उग्रेक्षण का वध किया था। अब इस द्वापर में भी पुनः आपके पुत्र रूप से प्रकट हुआ हूँ। इस अवतार से मैं सिन्दूर को मारकर तीनों लोकों का भय दूर करूँगा, अब मेरा नाम 'गजानन' होगा ।' देवाधिपति विनायक मयूरेश की पहिचान कर गिरिजा आश्वस्त एवं प्रसन्न हुईं तथा उनको प्रणाम कर हाथ जोड़े भक्तिभाव से स्तवन करने लगीं-
"भक्तप्रियं निराकारं साकारं गुणभेदतः ।
नमाम्यहमतिस्थूलमणुभ्योऽणुतरं विभुम् ॥"
'जो भक्तप्रिय, निराकार किन्तु गुणभेद से साकार हो जाते हैं, उन अतिस्थूल, अणुओं से भी अत्यन्त सूक्ष्म और व्यापक परमात्मा गणेश्वर को मैं नमस्कार करती हूँ ।' 'हे नाथ ! आप अव्यक्त होते हुए भी भक्तों पर कृपा करने के लिए ही व्यक्त होते हैं। आप ही सत्त्व, रज और तम तीनों के आधार हैं। आप ही माया के आश्रय-स्थान, सब मायाओं के जानने वाले, सर्वसमर्थ तया सभी के अन्तर में निवास करने वाले परात्पर ब्रह्म हैं। मेरा परम सौभाग्य ही है कि आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं। किन्तु, प्रभो ! ऐसी कृपा अवश्य कीजिए कि अब कभी मेरा आपसे वियोग न हो ।
अपने पुत्र से पार्वती का भयभीत होना
माता के द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भगवान् ने अपना वह रूप छिपा लिया और चतुर्भुज शिशु रूप हो गए। नाक के स्थान पर शुण्डदण्ड, मस्तक पर चन्द्रमा और हृदय पर चिन्तामणि प्रकाशित थी। दिव्य वस्त्राभूषण धारण किये हुए भगवान् गजानन के उस अद्भुत रूप को माता गिरिजा ध्यानपूर्वक देखने लगीं । किन्तु उनके भयंकर रूप को देखकर माता अधीर हो उठीं । रक्तवर्ण, ऊबड़-खाबड़ मस्तक, हाथी की सूँड़ के समान नाक, सूप जैसे कान, छोटे-छोटे नेत्र, विशाल एवं उन्नत पेट तथा छोटे-छोटे हाथ-पाँव ! उन्होंने सोचा-ऐसे भयंकर रूप वाला बालक तो मैंने कहीं नहीं देखा । जब देवगण, ऋषिगण एवं उनकी पत्नियाँ इसे देखेंगी तब मैं किस मुख से बताऊँगी कि यह मेरा पुत्र है? यदि कम सुन्दर होता तो भी कोई बात न थी, इसका तो प्रत्येक अवयव बेडौल है ! इस प्रकार पुत्र की कुरूपता का विचार करते-करते माता के नेत्र सजल हो उठे। तभी भगवान् शंकर वहाँ पधारे। वे सर्वज्ञ अपनी प्राण- प्रिया के मन की उद्विग्नता को समझ गये और तब पुत्र को ध्यानपूर्वक देखते हुए बोले- 'प्रिये ! पुत्र के रूप की भयंकरता देखकर रोती हो । परन्तु बाह्य रूप के देखने मात्र से किसी के व्यक्तित्व का अनुमान नहीं किया जा सकता । इसका रक्तवर्ण, गज जैसा मुख, विशाल उदर, चार भुजाएँ किन्तु छोटी-छोटी आँखें, पाँव भी बहुत छोटे, इस सबसे शिशु का असाधारण होना स्पष्ट है। देवि ! इसके गुणों पर विचार करो। यह अखिल विश्व का अधिपति, देवाधिदेव, सभी की आत्मा और मंगलों के मूल से सम्पन्न है। यह त्रिलोकों की रक्षा के लिए सतयुग में दशभुज विनायक के रूप मे प्रकट हुआ था। त्रेतायुग में शुक्ल वर्ण, दशभुज मयूरेश के रूप में तुम्हारे पुत्र रूप से यही अवतरित हुआ था। अब द्वापर में यह वही सिन्दूरासुर को नष्ट करने के लिए तुम्हारे पुत्र विनायक रूप में अवतरित हुआ है। आगे भी कलियुग में यह अत्याचार, अनाचार को नष्ट करने के लिए 'धूम्रकेतु' नाम से अवतार लेगा ।'
तभी शिशु रूप भगवान् बोल उठे- 'चन्द्रमौले! आप मुझे भली प्रकार समझ गए हैं। वस्तुतः मैं सिन्दूरासुर को मारकर पृथ्वी का बोझ उतारने के लिए आपके पुत्र रूप में अवतरित हुआ हूँ। मैं समस्त विश्व को सन्तुष्ट करूँगा । समस्त वैदिक कर्मों का प्रारम्भ हो जायेगा तथा मैं सभी भक्तों की अभिलाषाएँ पूर्ण करता हुआ राजा वरेण्य को ज्ञान और वरदान प्रदान करूँगा । वह राजा मेरा परम भक्त है। देव-ब्राह्मण एवं अतिथि पूजक, पञ्चयज्ञोपासक, पुराण श्रवण में मति वाला है। उसकी सुन्दर साध्वी, पतिप्राणा पत्नी का नाम पुष्पिका है। राजा-रानी दम्पति ने बारह वर्ष तक तपस्या करके मुझे पुत्र रूप में प्राप्त करने का मुझसे वर प्राप्त किया था। जिसके फलस्वरूप उसने अभी पुत्र प्रसव किया है, जिसे राक्षसी उठा ले गई है। इस कारण रानी पुष्पिका मूच्छित पड़ी है, और पुत्र के कारण प्राण त्याग देगी, इसलिए आप मुझे अभी उस प्रसूता रानी के पास पहुँचा दीजिए ।'
राजा वरेण्य के यहाँ गजानन को नन्दी द्वारा पहुँचाना
यह सुनकर भगवान् शंकर ने गजानन भगवान् का विविध उपचारों से पूजन किया और फिर नन्दी को आज्ञा दी-
'वत्स ! तुम्हें एक कार्य बहुत ही सावधानी से सम्पन्न करना है । माहिष्मती नगरी में वरेण्य नामक धर्मात्मा राजा राज्य करते हैं। उसकी साध्वी रानी पुष्पिका ने अभी एक पुत्र प्रसव किया था, जिसे कोई राक्षसी उठा ले गई। वह रानी अभी मूच्छित पड़ी है। तुम तुरन्त ही पार्वती के इस नवजात शिशु को वहाँ ले जाओ और मूच्छित रानी के पास लिटाकर लौट आओ। यह कार्य रानी की मूर्च्छा दूर होने से पहिले ही पूर्ण हो जाना चाहिए । अन्यथा प्रसूता के प्राण जाने की सम्भावना है ।'नन्दी ने भगवान् शंकर के चरणों में प्रणाम कर शिशु रूप गजानन भगवान् को लेकर माहिष्मती नगर की ओर वायुवेग से चल पड़े । मार्ग में अनेक बाधाएँ आईं, किन्तु नन्दीश्वर ने भगवान् शंकर का स्मरण करते हुए अपने पराक्रम से उन बाधाओं को दूर किया ।
माहिष्मती राजभवन के प्रसूतागार में रानी पुष्पिका अभी भी मूच्छित पड़ी थी। नन्दी ने वहाँ पहुँचकर गजानन को उनके समीप लिटा दिया और चुपचाप वहाँ से निकल आये। फिर वायुवेग से चलते शीघ्र ही लौटकर आशुतोष भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और शिव-शिवा के चरणों में प्रणाम कर शिशु को वहाँ सकुशल पहुँचा देने का समाचार दिया । उधर पुष्पिका की मूर्च्छा दूर हुई तो उसने रक्तवर्ण, गजमुख, लम्बोदर एवं अद्भुत वस्त्राभूषणों से अलंकृत बालक को अपने निकट देखा । उससे वह अत्यन्त भयभीत हुई और रोती हुई प्रसूतिगृह से बाहर निकली । उधर शिशु का रुदन सुनकर परिचारिकाएँ दौड़ी हुई भीतर गई तो उनके विकराल रूप को देखकर वे भी भय से काँप गईं। फिर जो-जो भी स्त्री या पुरुष प्रसूतिकागृह में गया, वही भयभीत एवं काँपता हुआ बाहर निकल आया । शिशु के भयानक रूप को देखकर कुछ तो मूच्छित ही हो गए।
सिन्दूरासुर के अत्याचारों की वृद्धि
महाराज वरेण्य को सूचना दी गई। उन्होंने सुना कि अत्यन्त भयानक आकार का एवं लाल वर्ण वाला पुत्र हुआ है तो राजा भी चिन्तित हो उठे। तभी कुछ विचारवान् लोगों ने कहा- 'राजन् ! शिशु जो हमने देखा है, वह ऐसा अद्भुत आकार का और महाभयंकर है कि ऐसा शिशु न कभी उत्पन्न हुआ, न भविष्य में कभी होगा ही। यह लक्षण वंश को नष्ट करने वाले हैं, इसलिए ऐसे कुलनाशक बालक को घर में रखना उचित नहीं। प्रजा की भी इसी में भलाई है।'
विद्वान् कहलाने वाले लोगों की उक्त बात सुनकर राजा ने अपना दूत बुलाया और उसे आदेश दिया- 'राजवंश और प्रजा के लिए अहितकर ऐसे शिशु को निर्जन वन में ले जाकर छोड़ आओ और लौटकर मुझे सूचित करो ।' दूत 'जो आज्ञा !' कहकर प्रसूतिकागार में गया और शिशु को शीघ्रतापूर्वक उठाकर निर्जन वन में ले गया। वहाँ एक निर्मल जल से भरा हुआ सरोवर विद्यमान था। उस स्थान पर कोई मनुष्य नहीं पहुँच सकता था। हिंसक पशु ही जल पीने के लिए वहाँ आते और वृक्षों की छाँह में विश्राम करते रहते । दूत ने शिशु को उस सरोवर के तट पर रखा और शीघ्रता से लौटकर राजा की सेवा में उपस्थित हुआ ।
उसने राजा को प्रणाम कर कहा- 'महाराज! मैंने आपकी आज्ञानुसार उस भयंकर शिशु को हिंसक जीवों से युक्त अरण्य में सरोवर तट पर रख दिया, जहाँ वह व्याघ्रादि हिंस्त्र जन्तुओं का आहार बन जायेगा ।' राजा वरेण्य ने खिन्न हृदय से दूत का कथन सुना और चुप बैठ गए। उनके मन में निर्दोष अबोध शिशु के परित्याग की पीड़ा कसक रही थी, किन्तु जनमत को स्वीकार करना कर्त्तव्य समझकर वे मौन थे ।
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