श्री गणेश पुराण| | देवान्तक द्वारा अघोर मन्त्र का अनुष्ठान वर्णन,Shri Ganesh-Puraan Devaantak Dvaara Aghor Mantr Ka Anushthaan Varnan

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का एकादश अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का एकादश अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. देवान्तक द्वारा अघोर मन्त्र का अनुष्ठान वर्णन
  2. देवान्तक को विराट् रूप के दर्शन
  3. युवराज-विवाह तथा विनायक का जाना
  4. दुण्डिराज गणेश की स्थापना

देवान्तक द्वारा अघोर मन्त्र का अनुष्ठान वर्णन

देवान्तक युद्धक्षेत्र से भागकर स्वर्गलोक में जा पहुँचा और चुपचाप अपने भवन में मुख ढँककर सो गया। उसे अभिमान था कि अभी तक वह किसी से नहीं हारा था। उसका वह अभिमान चूर्ण हो गया। वह समझ गया कि देवतागण आज नहीं तो कल अपना राज्य वापस लेने का प्रयत्न करेंगे। क्योंकि स्त्रीसेना के साथ देवताओं को युद्ध करते हुए वह देख चुका था ।
रुद्रदेव उसकी स्थिति से समझ गए कि अवश्य ही कोई गड़बड़ी हुई है। इसलिए उसके पास जाकर बोले- 'पुत्र ! तू इतना उदास क्यों हो रहा है ? यदि मैं कुछ कर सकता हूँ तो निःसंकोच बता ।' उसने लज्जा से नेत्र झुकाये और कहा- 'पिताजी ! क्या बताऊँ ? मैं अपने भाई को मारने वाले विनाशक से प्रतिशोध लेने के लिए काशी गया था । विशाल असुरसेना मेरे साथ थी। मैं जानता हूँ कि काशिराज के पास न तो कोई बड़ी सेना है और न अधिक साधन ही, इसलिए उसे वश में करना बाँयें हाथ का खेल था। किन्तु आश्चर्य कि आठ देवियों के सेनाधिपत्व में आठ सेनायें प्रकट होकर न जाने कहाँ से आईं ? उन्होंने हमारे सभी सेनापतियों सहित अधिकांश चतुरंगिणी सेना को मार डाला।
'शेष सेना को अत्यन्त भयंकर कृत्या ने निगल लिया। आश्चर्य की बात यह थी कि वह कृत्या जिधर जाकर सिंहासन करती उधर के असुर वीर उनके श्वासोच्छ्‌वास के साथ खिंचते चले जाते और वह उन्हें पकड़कर मुख में डाल लेती। अन्त में जब समस्त असुरसेना समाप्त हो गई तो वह मेरी ओर झपटती हुई बोली- 'अरे, अब तक तू अकेला ही क्या करेगा ? मेरे मुख में आकर विश्राम क्यों नहीं करता ?' उसकी उस कर्कश वाणी ने मुझे अत्यन्त भयभीत कर दिया और मैं किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर भाग आया ।


रुद्रकेतु बोले- 'पुत्र ! चिन्ता मत करो। भय और शोक को छोड़ दो। भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिए अघोर मन्त्र का अनुष्ठान करो। उनका पूजन, ध्यान, मंत्र जाप, होम, तर्पण और फिर ब्राह्मण भोजन कराओ। अनुष्ठान पूर्ण होने पर एक अश्व निकलेगा, उसपर सवार होकर रणक्षेत्र में जाने से विजय प्राप्त होगी ।' देवान्तक ने पिता के द्वारा निर्दिष्ट विधि से अनुष्ठान-कार्य सम्पन्न किया। ब्राह्मणों को भोजन कराने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने पर यज्ञवेदी से कृष्णवर्ण का एक अश्व निकला जो कि दीर्घकाय, सबल एवं अत्यन्त दर्शनीय था। उसके मुख से भयानक शब्द निकलता था। उस घोड़े को देखकर देवान्तक प्रसन्न हो गया ।
उसने घोड़े को प्रणाम कर भावनापूर्वक अलंकारादि से सजाया और पूजन किया । तदुपरान्त अपने सेनापतियों की विशाल दैत्यसेना लेकर चलने का आदेश दिया। जब सेना तैयार हो गई तो उसके साथ वह भी उस घोड़े पर सवार हो गया। काशी की ओर वेगपूर्वक बढ़ती हुई उस विशाल दैत्यसेना ने स्वर्ग और धरती को कम्पित कर दिया। उसके आगमन का समाचार सुनते ही लोग प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग निकलते, किन्तु काशी के प्रजाजनों को विनायक की शक्ति में अटूट विश्वास था इसलिए उन्हें उसके पुनरागमन के समाचार से अधिक चिन्ता न हुई। इस बार के युद्ध में सिद्धि देवी की अधिक सेनाएँ अधिक सफल नहीं हो सकीं। असुर उन्हें हराते हुए आगे बढ़ने लगे तो विनायक ने काशिराज की सुरक्षित सेना को युद्ध में भेजा और स्वयं भी सिंह पर आरूढ़ होकर चल दिये। उस समय पाश, परशु और धनुष आदि बाणादि से सम्पन्न उनका वीर वेश दर्शनीय था । 'भगवान् विनायकदेव की जय' बोलती हुई काशीनरेश की सेना असुरों से युद्ध में तत्पर हुई। स्वयं भगवान् भी रणक्षेत्र में जा पहुँचे। उन्हें देखते ही देवान्तक बोला- 'तूने मेरे भाई नरान्तक को मारा है न ! उनका प्रतिशोध तेरे रक्त से लेना अनुचित नहीं होगा। फिर भी तुझे प्राणों का मोह हो तो मेरी शरण में आकर अधीनता स्वीकार कर ले। तेरे बालकपन और भोली सूरत पर मुझे तरस आ रहा है।'विनायक ने अट्टहास करके कहा- 'तुम जैसे कायर को तरस न आयेगा तो और किसे आयेगा ? अरे मूढ़ ! पिछली बार तो तू प्राण बचाकर भाग गया था, किन्तु इस बार नहीं जा सकेगा। क्योंकि तेरे जीवन की अवधि पूर्ण हो गई। इसलिए पहिले तू अपना पौरुष दिखा ले।'
देवान्तक क्रोधित हो उठा। उसने विनायक पर भीषण बाण-वर्षा की। किन्तु विनायक उसके सभी बाणों को काटते जा रहे थे। उसके बाण दैत्य-सेना के संहार में भी लगे थे। दैत्यराज ने अपनी विजय न होती देखकर माया की रचना की। वह कभी पृथ्वी पर तो कभी आकाश में, कभी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में दिखाई देता। फिर उसने मोहास्त्र का प्रयोग किया, जिससे युद्ध में उपस्थित सभी देवता, काशिराज की समस्त सेना और विनायक भी निद्राग्रस्त हो गए। अब देवान्तक ने चक्र के मध्य एक त्रिकोणाकार कुण्ड बनाकर मांसादि की हवि देते हुए अभिचार कर्म का आरम्भ किया। यह समाचार काशिराज को गुप्तचरों से मिला तो वे साधारण नागरिक के वेश में भी छिपते हुए किसी प्रकार विनायक के पास जाकर उनके कान में बोले- 'त्रिकालज्ञ प्रभो ! देवान्तक अभिचार कर्म कर रहा है, यदि वह पूर्ण हो गया तो अजेय हो जायेगा इसलिए निद्रा का त्याग कीजिए।'

देवान्तक को विराट् रूप के दर्शन

काशिराज की प्रार्थना सुनते ही वे चैतन्य हो गये और उन्होंने अपने धनुष पर खगास्त्र और घण्टास्त्र से अभिमन्त्रित दो बाण चढ़ाकर आकाश में छोड़े। बस, फिर क्या था, आकाश में भीषण घण्टानाद होने लगा, जिससे सभी निद्रित सैनिकों, देवताओं आदि की निद्रा भंग हो गई। वे तुरन्त उठकर देवान्तक के पास जा पहुँचे और उसके अभिचार कर्म में विघ्न डाल दिया ।
निद्रा दूर होने का कार्य घण्टास्त्र ने, दूसरे खगास्त्र ने असंख्य पक्षी उत्पन्न कर दिये, जिन्होंने समस्त आकाश को पक्षियों से व्याप्त कर दिया जिनसे सर्वत्र अन्धकार छा गया तथा वे पक्षी दैत्य-सेना के वीरों को उठा-उठाकर भक्षण करने लगे। इससे समस्त सेना में खलबली मच गयी। अब अत्यन्त क्रोधित हुए देवान्तक ने घोर युद्ध किया, किन्तु विनायक के समक्ष उसके सभी प्रयास निष्फल रहते। तभी उसने विराट् रूप के दर्शन किये। मनुष्य का शरीर और हाथी का मुख, धरती पर चरण और आकाश को स्पर्श करता हुआ मस्तक। वह उस रूप को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित और भयभीत हुआ। तभी उन्होंने उसके मस्तक पर अपने दाँत से भयंकर प्रहार किया, जिससे वह चीत्कार करता हुआ सैकड़ों खण्डों में छिन्न-भिन्न होकर धरती पर बिखर गया। उसके मुख से एक ज्योति निकलकर विनायक के मुख में प्रविष्ट कर गई। 57 अपने स्वामी की मृत्यु हुई देखकर समस्त दैत्यसेना वेगपूर्वक इधर-उधर भाग गई। देवगण प्रसन्न होकर दुन्दुभियाँ बजाने लगे। काशिराज की सेना में विनायकदेव की जय गूंज उठी। विजय-वाद्य बजने लगे। दिशाएँ स्वच्छ हो गईं और उन्मुक्त वायु चलने लगी। इन्द्रादि देवगण वहाँ आकर उनकी स्तुति करने लगे-

"विमोचिता वयं बन्धाद् देवान्तककृताद् विभो ।
उपेन्द्र इव देवेन्द्र कार्यं यस्मात् कृतं त्वया ॥"

'हे प्रभो ! आपकी कृपा से आज हम राक्षसराज देवान्तक के बन्धन से मुक्त हो गये। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए आपने उपेन्द्र के समान पराक्रम किया है। इसलिए आप संसार में उपेन्द्र भी कहे जायेंगे। अब हम भय-रहित रूप से अपने-अपने अधिकार का उपभोग करेंगे तथा दीर्घकाल से अवरुद्ध हुए स्वाहाकार और वषट्‌कार के स्वर पूर्वकृत सर्वत्र सुनाई देंगे।' स्तुति करके सभी देवता अपने-अपने स्थानों को गये। इन्द्र ने स्वर्ग से समस्त असुरों को बाहर खदेड़कर पुनः देवराज्य की स्थापना की। असुरों में शोक और देवताओं में आनन्द व्याप्त हो गया।

युवराज-विवाह तथा विनायक का जाना

काशिराज और उसके मित्र राजाओं ने भी विनायक का पूजन और स्तुति की तथा दूसरे दिन उन्होंने सभा में आकर अमात्यों से कहा-'अमात्यगण ! मैं विनायकदेव को युवराज का विवाह करने के लिए इनके माता-पिता से माँगकर लाया था, किन्तु बहुत समय तक असुरों के आक्रमण होते रहने के कारण युवराज का विवाह निरन्तर टलता रहा और विनायक को भी इनके माता-पिता के पास नहीं लौटा सके । यद्यपि काशी में इनका निवास हमारी सुख-समृद्धि और अभयता का कारण रहा है, तो भी इनके माता-पिता को घर न लौटने के कारण चिन्ता हो रही होगी। इसलिए हमें शीघ्र ही युवराज का विवाह करके इन्हें पहुँचा देना चाहिए।'
सभी सभासदों ने महाराज की बात का समर्थन किया। सर्वत्र युवराज के विवाह के निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। मगधपति भी अपनी कन्या कों लेकर वहीं आ गये। विनायकदेव ने विवाह-कार्य सम्पन्न कराया। कई दिनों तक हर्षोत्सव मनाया जाता रहा। तदुपरान्त सभी आगतजन काशिराज से सम्मानित होकर अपने-अपने स्थानों को लौट गये।
अब विनायक का पूजन करके काशिराज ने उनकी आज्ञा चाही। विनायक बोले- 'राजन् ! मैं यहाँ युवराज का विवाह कराने के लिए कुछ ही दिनों के लिए आया था, किन्तु अब तो बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं। पिताजी-माताजी मुझे याद करते होंगे। मुझे भी उनकी बड़ी याद आ रही है। इसलिए अब शीघ्र ही वहाँ पहुँचना चाहिए ।' विनायक का आदेश पाकर महाराज ने रथ तैयार करने का आदेश दिया और रथ के आने पर विनायक के साथ स्वयं भी उसपर सवार हुए । नगर-निवासियों को उनके वियोग असह्य था। वे उनसे कुछ दिन और रहने का आग्रह करने लगे। उन श्रद्धावान् भक्तों का अत्यन्त आग्रह देखकर विनायक ने समझाया - 'सुहृद्भनो ! इस समय तो मुझे जाना ही होगा। किन्तु जब कभी आप पर कोई विपत्ति आये, मुझे याद करना, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। मेरी स्वयं की आवश्यकता होगी तो मैं स्वयं भी यहाँ उपस्थित हो जाऊँगा। फिर भी-

"न चित्तस्य समाधानं भवेद् वै चिन्तनेन मे । 
मम मूर्ति मृदा कृत्वा पूजयन्तु गृहे गृहे ॥"

'यदि आपके चित्त का समाधान मेरे चिन्तन से न हो तो मेरी मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर घर-घर में स्थापित करें और उसमें मुझ विनायक की भावना करके भक्तिपूर्वक पूजन करें।' लोगों को संतोष हुआ। सभी विनायक की जय बोलने लगे। उन्होंने रथ की परिक्रमा की। महारानी ने भी अपनी सहेलियों के साथ आकर उनकी अभ्यर्चना की और उसके पश्चात् रथ चल पड़ा। जब तक नेत्रों से ओझल न हो गया, तब तक सभी एकटक उधर ही देखते रहे। वायुवेग से चलता हुआ रथ कश्यपाश्रम पर जा पहुँचा। महाराज और विनायक दोनों उतरकर महर्षि दम्पति के चरणों में पड़ गए। राजा को आशीर्वाद देकर उन्होंने अपने पुत्र को हृदय से लगा लिया। काशिराज ने उन्हें असुरों के आक्रमण और विनायक के पराक्रम की समस्त घटनाएँ यथावत् सुनाईं, जिससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। दूसरे दिन मुनिवर की आज्ञा लेकर महाराज अपने नगर को लौट आये।

दुण्डिराज गणेश की स्थापना

काशी के घर-घर में भगवान् विनायक की मूर्तियाँ स्थापित की गईं। महाराज ने भी 'ढुण्डिराज गणेश' के नाम से एक मूर्ति की स्थापना राजभवन में कराई। उन मूर्तियों के पूजन-प्रभाव से घर-घर में आनन्द छाया रहा था जिसने जो भी कामना की वही पूरी हुई। उधर माता-पिता के पास रहते हुए विनायक को कुछ ही दिन व्यतीत हुए थे। उन्होंने अपने माता-पिता से निवेदन किया- 'जननी एवं जनक ! आपने जिस अभिप्राय से तप करके मेरे प्राकट्य की इच्छा की थी, वह कार्य पूर्ण हो चुका है। त्रिलोकी को त्रसित करने वाले समस्त दैत्यों का संहार हो गया है तथा ऋषि-विप्रादि निर्भय रूप से यज्ञादि कार्यों का सम्पादन कर रहे हैं। इस प्रकार धरती का भार उतर गया है, अब मुझे अपने धाम को जाने की आज्ञा दीजिए।' विनायक के यह वचन सुनकर एक बार तो मुनि और उनकी पत्नी अवाक् रह गये। फिर कुछ सँभलकर महर्षि ने कहा-'देव ! अभी कुछ काल और निवास कीजिए ।'
उन्होंने कहा- 'अब तो मुझे जाना ही होगा। यहाँ मेरा कोई कार्य शेष नहीं रह गया है ऋषिवर !' माता ने सजल नयन पूछा- 'अब कब दर्शन होंगे पुत्र ?' विनायक बोले- 'मेरा दर्शन भवानी मन्दिर में पुनः कर सकोगी माता !' और यह कहकर विनायक अदृश्य हो गये। महर्षि ने उनकी अष्ट-धातु की प्रतिमा स्थापित की और नित्य प्रति उसका यथाविधि पूजन करने लगे ।

"विनायकस्य देवस्य श्रवणात् सर्वसिद्धिदम् । 
धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वोपद्रवनाशनम् । 
सर्वकामप्रदं सर्वपापसंशयनाशनम् ॥"

भगवान् विनायक गणपति का यह चरित्र सुनने पर सभी सिद्धियाँ देने वाला है। इससे धन-धान्य, यश एवं आयु की प्राप्ति तथा उपद्रवों का नाश होता है। यह सभी कामनाओं को पूर्ण सञ्चित पापों को नष्ट करने वाला है।

टिप्पणियाँ