श्रीगणेश-पुराण सप्तम खण्ड का चतुर्थ अध्याय !
श्रीगणेश-पुराण सप्तम खण्ड का चतुर्थ अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक के बारे में वर्णन किया गया है-
- महर्षि पराशर की प्रभु-भक्ति
- सिन्दूरासुर को आकाशवाणी द्वारा चेतावनी
- क्रौंचगन्धर्व को मूषक होने का शाप
- गणेश का प्रिय वाहन मूषक
महर्षि पराशर की प्रभु-भक्ति
उस निविड़ वन में, जहाँ मनुष्य पहुँचता ही नहीं था केवल हिंस्र जीव ही घूमते रहते या कभी-कभार कोई पहुँचे हुए ऋषि-मुनि, सिद्ध-महात्मा ही उधर निकल जाते थे। वहाँ एक शिशु को हाथ-पाँव फेंकता हुआ देखकर एक शृगाल (सियार) बड़ा प्रसन्न होता हुआ उधर लपका । उसी समय उस मार्ग होकर परम तपस्वी महर्षि पराशर निकले और उनकी दृष्टि भी उस शिशु पर पड़ी। वे सोचने लगे कि 'अवश्य ही इन्द्र ने मेरा तप भंग करने के लिए कोई माया रच डाली है। हे दीनबन्धो ! हे जगदीश्वर ! मैंने कभी कोई पाप नहीं किया है, अतः आप ही मुझ निष्पाप की रक्षा कीजिए ।'
यह सोचते और प्रार्थना करते हुए महर्षि पराशर बालक की ओर वेग से बढ़े। शृगाल ने तेजस्वी महर्षि को उधर बढ़ते देखा तो तुरन्त रुका और वन में एक ओर खिसक गया। महर्षि ने निकट जाकर शिशु को ध्यान से देखा-रक्तवर्ण, चार भुजाएँ, गजवदन, सूर्य के समान अद्भुत तेज तथा दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत ! उन्होंने उसके छोटे-छोटे अरुण चरणों को देखा तो उनपर ध्वज, अंकुश और कमल की रेखाएँ स्पष्ट प्रतीत हुईं। उस अलौकिक शिशु को देखकर महर्षि के शरीर में रोमाञ्च हो आया। वे हर्षातिरेक से शिशु को अपलक निहारने लगे। उनके नेत्रों में स्नेह नीर उमड़ पड़ा और वे गद्गद वाणी से बोल उठे- 'हे प्रभो! हे जगदीश्वर ! आप यहाँ क्यों विराजमान हैं ? मैं तो आपको देखकर इन्द्र का कोई छल समझ रहा था। किन्तु आप साक्षात् परमात्मा मुझ सत्यवादी परम भक्त के साथ छल क्यों करने लगे ? नाथ ! मेरे मन में उत्पन्न शंका के लिए आप मुझे क्षमा करें ।'
Shri Ganesh-Puraan Devotion to Maharishi Parashar |
महर्षि ने शिशु के चरणों में अपना मस्तक रख दिया और अपने भाग्य की सराहना करते हुए बोले- 'आज मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ, जो अनायास ही त्रैलोक्यपति के दर्शन कर रहा हूँ। मेरा जीवन, जन्म, मेरे जन्मदाता माता-पिता और तपश्चर्या सभी कुछ धन्य हैं। अब मैं निश्चय ही जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा पा गया। मेरी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो गईं।' इस प्रकार कहते हुए महर्षि ने पुनः शिशु को प्रणाम किया। उनके नेत्रों से निरन्तर प्रेमाश्रुधारा प्रवाहित थी। अन्त में उनके मुख से निकला- 'यह पृथ्वी, यह सरोवर, यह अरण्य, इसके ऊपर का आकाश एवं यहाँ चलने वाली वायु भी कृतकृत्य हो गई है। यह शृगाल भी, जो इनके दर्शन पा चुका है, अवश्य ही धन्य हो गया। परन्तु, ऐसा निष्ठुर एवं अभागा कौन है, जिसने इस महा-महिम-सम्पन्न जगदीश्वर को इस प्रकार यहाँ ला पटका है ?'
महर्षि ने पुनः साष्टांग प्रणाम कर शिशु को गोद में उठाया और उल्लसित हृदय से आश्रम की ओर चल पड़े। वहाँ उनकी पत्नी वत्सला ने महर्षि को एक बालक लाते हुए देखा तो उत्सुकता से उधर बढ़ीं। महर्षि ने बताया- 'देवि ! यह शिशु उस सरोवर के तट पर पड़ा था, जो निविड़ अरण्य में विद्यमान है। लगता है कि कोई क्रूर हृदय अभागा इसे वहाँ छोड़ गया है।'
वत्सला ने शिशु को देखा तो हर्ष से बोल उठी 'कितना अद्भुत और अलौकिक है ! इसका असाधारण रूप ही इसकी विशेषता का प्रमाण है।' पराशर ने पत्नी को समझाया- 'यह साक्षात् त्रिलोकीनाथ हैं। यह सदैव भक्तों के कष्ट निवारणार्थ अवतार लेते हैं। इन परब्रह्म परमेश्वर ने मेरा जन्म और जीवन सभी कुछ सफल कर दिया। हमारे सब पूर्व- पुरुष भी धन्य हो गए ।'
महर्षि के मुख से शिशु की अनिर्वचनीय महिमा सुनकर शिशु को हृदय से लगा लिया और आनन्द में मग्न होती हुई बोली- 'स्वामिन् ! शिशु रूप में इस प्रकार सहसा परमपिता परमात्मा का प्राप्त होना आपकी दीर्घकालीन तपस्या का ही प्रत्यक्ष फल है। देखो! जो परब्रह्म कोटि जन्म पर्यन्त तप करते रहने पर भी दर्शन नहीं देते, वे अनायास ही हमारे मन, वाणी और इन्द्रियों के विषय हो गए हैं। उनकी इस महती कृपा के लिए हम किस प्रकार आभार व्यक्त करें !'
मातृ-स्नेह की अधिकता और शिशु के स्पर्श से ऋषिपत्नी के स्तनों में दूध आ गया और वे अत्यन्त स्नेह से शिशु गजानन को दूध पिलाने लगीं। महर्षि समझ गये कि समस्त जप, तप, यज्ञ एवं स्वाध्यायादि कर्म जिनके उद्देश्य से किये जाते हैं, वे प्रभु साक्षात् ही विराजमान हैं। अपनी इस धारणा के कारण उन्हें अब उन कर्मों की अधिक चिन्ता नहीं रही थी। केवल यम-नियमों का निर्वाह मात्र करते हुए वे शिशु के निकट ही अपना अधिकांश समय व्यतीत किया करते। जपादि भी करते तो शिशु के समक्ष बैठकर ही । इस प्रकार पति-पत्नी दोनों ही गजानन भगवान् की सेवा, लालन-पालन में लगे रहते ।
यद्यपि महर्षि का आश्रम पहिले ही सुन्दर और भव्य था, किन्तु शिशु रूप भगवान् के वहाँ आने पर तो वह और भी मनोरम हो गया, उसमें दिव्यता बढ़ती गई। सूखे वृक्ष भी हरे हो गये और उनपर जो फल लगते वे अत्यन्त स्वादिष्ट । आश्रम की गौएँ कामधेनु के समान अमृतोपम दूध देने वाली हो गईं। अन्य पशु-पक्षी भी मनोहर प्रतीत होने लगे। कीर, चकोर, मयूर आदि की वाणी अलौकिक एवं दिव्य थी। हिरनों के समूह आनन्द-विभोर हुए छलाँग मारते हुए फिर रहे थे। माहिष्मती-नरेश वरेण्य को उनके एक दूत ने सम्वाद दिया- 'राजेन्द्र ! आपके शिशु का पालन-पोषण महर्षि पराशर कर रहे हैं। उनकी पत्नी उसे अपने पुत्र के समान स्नेह प्रदान करती है ।'
उक्त संवाद से राजा को बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने रानी से कहा- 'प्रिये ! यदि शिशु में कोई विशेषता न होती तो पराशर दम्पति उसका पालन-पोषण क्यों करते ? पुत्र तो पुत्र ही है, उसके बाह्य रूप से भी भयभीत हो जाना कोई बुद्धिमानी नहीं थी। अब हमें उसका जन्मोत्सव तो मनाना ही चाहिए।' रानी ने सहमति व्यक्त की और तब राजा वरेण्य ने बड़ी धूम-धाम से पुत्रोत्सव मनाया तथा ब्राह्मणों को उनकी मनवाञ्छित वस्तुएँ दान दीं और उन्हें विविध भाँति के भोजन से तृप्त करके पुत्र की दीर्घायु के लिए आशीर्वाद प्राप्त किया ।
सिन्दूरासुर को आकाशवाणी द्वारा चेतावनी
एक दिन सिन्दूरासुर अपनी सभा में बैठा था । सभासद् एवं अमात्यगण उसकी प्रशंसा कर रहे थे। तभी उसने कहा- 'इन्द्रादि में से किसी भी देवता ने मेरे समक्ष आने का साहस नहीं किया और ब्रह्मा-विष्णु तो सामने रहकर भी प्राणों की भीख माँगने लगे। इधर मर्त्यलोक में भी ऐसा कोई वीर नहीं निकला जो मुझसे युद्ध कर सकता। इससे मैं यही समझता हूँ कि मेरी अतुलनीय शक्ति एवं पौरुष व्यर्थ हो रहा है। क्योंकि मेरी युद्ध की अभिलाषा को पूर्ण करने वाला कोई वीर ही दिखाई नहीं देता ।'तभी सहसा उसने सुना, आकाशवाणी थी 'अरे मूढ़ ! राक्षस ! तू व्यर्थ ही क्यों प्रलाप करता है ? तेरी युद्ध की अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वीर शिव-शिवा के यहाँ अवतरित हो गया और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान नित्य प्रति बढ़ता जा रहा है।'
असुर ने आकाशवाणी सुनी तो बड़ा चकित और आशंकित हुआ । भय के कारण उसे मूर्च्छा तक आ गई। जब चेत हुआ तो उसने अमात्यों से पूछा- 'इस प्रकार के कुवाक्य कहने वाला यह कौन है ? यदि सामने आ जाये तो मैं उसे प्राणविहीन कर डालूँ ।' यह कहकर उसने घोर गर्जना की और 'मैं उस शिव को ही देखता हूँ' कहता हुआ तुरन्त ही द्रुत वेग से कैलास की ओर दौड़ पड़ा। उसने सोचा-'पार्वती के पुत्र को बड़ा ही क्यों होने दूँ? मैं उसे आज ही मार डालूँगा, तब वह क्या करेगा ?' इस प्रकार वनों को नष्ट करता और पर्वतों को चूर्ण करता हुआ सिन्दूरासुर शीघ्र ही कैलास पर जा पहुँचा। किन्तु पार्वती जी के भवन में किसी को भी रहता न देखकर वह वहाँ से उसी समय लौटकर पृथ्वी पर आ गया ।अब शिव-शिवा को खोजता हुआ वह राक्षस धरती पर सर्वत्र चक्कर काटने लगा। उसने सोच लिया, 'बालक जहाँ भी होगा, वहीं मार डालूँगा ।' अन्त में वह पर्यली-वन में पहुँच गया। वहाँ एक स्वच्छ जल सम्पन्न सरोवर तथा शिव-शिवा का विशाल मण्डप था। उस मण्डप के आस-पास एवं चारों ओर शिवगण विद्यमान थे। वह समझ गया कि यहीं कहीं बालक के साथ पार्वती भी होगी ।
उसने पार्वती जी का भवन खोज लिया। उसके अन्तर्गत रहे प्रसूतिगृह में अनेक चक्कर लगाये, किन्तु शिशु न मिला। यह देखकर उसे लगा कि अभी शिशु का जन्म नहीं हुआ है। उसने सोचा- 'यदि बालक अभी उत्पन्न न हुआ तो पार्वती के उदर से ही तो उत्पन्न होगा। इसलिए पार्वती को ही क्यों न मार दिया जाये ? न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी ।' 63 ऐसा निश्चय कर सिन्दूर ने पार्वती को मारने के लिए हाथ में शस्त्र सँभाला ही था कि उसे उनकी गोद में अत्यन्त तेजस्वी चतुर्भुज शिशु दिखाई दिया । इसलिए उसने शस्त्र तो रख लिया और शिशु का हाथ पकड़कर उसे समुद्र में डुबा देने के विचार से उठा ले चला ।शिशु उस समय बहुत हल्का प्रतीत हुआ, इसलिए असुर उसे लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ा । किन्तु मार्ग में शिशु पर्वत के समान भारी हो गया, इसलिए अब वह उसे ले जाने में अपने को असमर्थ पाने लगा। भार के कारण उसके पाँव डगमगाये तो उसने क्रोधपूर्वक उसे धरती पर वेग से पटक दिया ।
बस, फिर क्या था ! पृथ्वी काँप उठी, पर्वत हिल गए, अनेकों वृक्ष गिर गये, समुद्र क्षुब्ध हो उठा और ऐसी भीषण ध्वनि हुई जैसे ब्रह्माण्ड ही विदीर्ण होने जा रहा हो। सब ओर प्रकृति में क्षोभ ही क्षोभ प्रतीत होता था । वायु की प्रचण्डता भी अभूतपूर्व थी। बालक नर्मदा नदी में गिरा था, इसलिए उसका नाम 'नार्मद गणेश' हुआ। जहाँ गिरा, वह स्थान 'गणेशकुण्ड' के नाम से विख्यात हुआ। शिशु के शरीर से रक्त निकला, जिससे वहाँ के पाषाण भी लाल वर्ण के हो गये थे।
सिन्दूरासुर ने समझा कि 'मेरा शत्रु मर गया' इसलिए वह अत्यन्त प्रसन्न होता हुआ वहाँ से चलने को हुआ, तभी एक भयंकर ध्वनि हुई तथा कुण्ड से एक अत्यन्त विकराल एवं पर्वताकार पुरुष निकला । क्रोध के कारण उसके नेत्र अंगार जैसे जल रहे थे। विशाल जटाएँ, भयंकर मुख और दाढ़-दाँत, सर्पिणी के समान जिह्वा, हाथ-पाँव अत्यन्त लम्बे और पुष्ट । सिन्दूरासुर उसे देखकर कुछ चकराया, फिर सँभलकर आगे बढ़ा ।
सिन्दूरासुर ने गर्जन कर उस पुरुष पर तलवार से प्रहार किया । तभी वह पुरुष आकाश की ओर द्रुतगति से उठता हुआ बोला- 'अरे मूढ़ ! कुछ धैर्य रख, तेरा काल क्षण-क्षण पर बढ़ता जा रहा है। वह संतजनों की रक्षा के लिए तुझे अवश्य मारेगा ।' विकराल पुरुष आकाश में जाकर अदृश्य हो गया। सिन्दूर को उस समय विस्मय तो बहुत हुआ, किन्तु अपने बल की डींग हाँकने की दृष्टि से उसने कहा- 'उस कटुभाषी भयानक पुरुष को धिक्कार है जो मेरे भय के कारण आकाश में जा छिपा ! यदि वह सामने रहता तो मैं उसे अपना पराक्रम दिखा देता ।'
वह कुछ देर वहाँ खड़ा रहा। फिर सब दिशाओं में कहीं किसी को न देखकर अन्त में सेवकों के साथ अपनी राजधानी सिन्दूरवाड़ जा पहुँचा, किन्तु अपने काल के विषय में लगी हुई चिन्ता दूर करने के प्रयत्न से भी दूर नहीं हो रही थी। इधर असुर के उत्पात से व्यग्र हुई माता अब उस पार्वती-कानन में नहीं रहना चाहती थीं। उन्होंने शिवजी से कहा- 'प्रभो! यहाँ भी उपद्रव होने लगे हैं, इसलिए मुझे शीघ्र ही अपने साथ कैलास ले चलिए ।' शिवा की इच्छा जानकर शिवजी ने उन्हें वृषभ पर अपने साथ बैठाया और सभी गणों के मध्य रहकर कैलास की ओर चल दिए। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी को निश्चिन्तता हुई ।
क्रौंचगन्धर्व को मूषक होने का शाप
एक समय की बात है-अमरावती में देवताओं की सभा जुड़ी थी । देवराज इन्द्र अपने राजसिंहासन पर विराजमान थे। उस समय गन्धर्वराज क्रौंच भी वहाँ उपस्थित था। उसे किसी कार्यवश शीघ्र कहीं जाना था । इसलिए उसने देवराज से आज्ञा ली और उठकर चलने लगा। तभी शीघ्रता में उसका ध्यान वहाँ बैठे हुए महर्षि वामदेव पर न गया और भूल से उसका पाँव महर्षि को छू गया। इसमें महर्षि ने अपना अपमान समझा। महर्षि क्रोधित हो गये। उन्होंने तुरन्त ही उसे शाप दे डाला- 'अरे मूर्ख गन्धर्व ! ऐसा मदमत्त हो रहा है कि बैठे हुए मुझ शान्त मुनि को लात मारता है। जा तू मूषक बनेगा।' गन्धर्व उस शाप को सुनकर भयभीत और व्याकुल हो गया। उसने महर्षि से क्षमा माँगी, रोया, गिड़गिड़ाया तो महर्षि को दया आ गई। वे बोले- 'तू मूषक तो अवश्य होगा, किन्तु देवाधिदेव गजानन का वाहन होने के कारण अत्यन्त सुखी होगा। उनकी कृपा से तेरा सब दुःख दूर हो जायेगा ।'
बेचारा गन्धर्व ! किसी विशेष कार्य की शीघ्रता में उठकर तो जा रहा था, किन्तु मुनिवर से पाँव लगने में सावधानी न बरत सका । इसका दण्ड मिला उसे मूषक शरीर में धरती पर पहुँचने का। यही हुआ-वह तुरन्त ही मूषक होकर महर्षि पराशर के आश्रम में जा गिरा । वह मूषक भी आकारादि में अलौकिक था, पर्वत के समान विशालकाय और भयंकर था। उसके रोम एवं नख भी पर्वत-शिखर के समान लगते । दाँत बहुत बड़े तीक्ष्ण और भयोत्पादक थे और उसका स्वर भी अत्यन्त कर्कश और भयावना था। पराशर आश्रम में गिरते ही उस मूषक ने उपद्रव आरम्भ कर दिया । मृत्तिका पात्रों को तोड़-फोड़कर उनमें भरा हुआ समस्त अन्न खा लिया । वल्कल, वस्त्र एवं ग्रन्थादि कुतर-कुतर कर नष्ट कर डाले। आश्रम की
वाटिका नष्ट-भ्रष्ट कर डाली, उसके फूल-फल, पौधे आदि को, बड़ी हानि पहुँचाई तथा पुच्छ प्रहार से वृक्षों को धरती पर गिरा दिया । उसके इस प्रकार के विनाश कर्म से महर्षि बड़े दुःखित हुए । उन्होंने सोचा कि इस दुष्ट मूषक को यहाँ से कैसे भगाया जाये ? यदि इसका कोई उपाय न हुआ तो यह और भी अधिक विनाश कर बैठेगा । इसे मारना भी सम्भव नहीं है और फिर मारने से जीव-हत्या का पाप भी लगेगा ही। उस पाप को हम क्या अपने सिर लें? हे प्रभो ! हे अशरण-शरण ! मेरा यह दुःख शीघ्र दूर कीजिए। इस दुष्ट मूषक से रक्षा कीजिए स्वामिन् !' महर्षि को अधिक व्याकुल देखकर भगवान् गजानन ने उन्हें मधुर वाणी में आश्वासन दिया- 'पूज्य महर्षे ! आप मेरे पालक पिता हैं, मेरे रहते आप पर कोई विपत्ति आये, यह मैं सहन नहीं कर सकता । आपका प्रिय कार्य करना मेरा परम कर्त्तव्य है। मैं इस मूषक को अपना वाहन बनाये लेता हूँ, जिससे इसके उत्पात समाप्त हो जायें ।' यह कहकर उन्होंने मूषक की ओर अपना तेजस्वी पाश फेंका, जिससे आकाश तक प्रकाशमान हो उठा। उसके भय से देवता भी अपने स्थान से भाग गये। वह पाश दशों दिशाओं में घूमता हुआ पाताल तक जा पहुँचा और धरती खोदकर उसमें प्रविष्ट होते हुए मूषक का कण्ठ जकड़कर उसे बाहर खींच लाया। पाश की जकड़ ने उसे व्याकुल और मूच्छित कर दिया ।
फिर जब उसे चेत हुआ तब वह शोकग्रस्त होता हुआ कहने लगा-'सहसा यह क्या हो गया ? मैं अत्यन्त पुरुषार्थी हूँ। मैंने अपने दंष्टाग्र से बड़े-बड़े वृक्षों और पर्वतों तक को नष्ट कर डाला। ऐसे मुझ महा पराक्रम का कण्ठ किसने बाँधा है ?'
गणेश का प्रिय वाहन मूषक
पाश ने मूषक को भगवान् गजानन के समक्ष उपस्थित किया तो उसे प्रभु के दर्शन से ज्ञान होने लगा। वह अपनी स्थिति को ठीक प्रकार से समझता हुआ हाथ जोड़कर बोला- 'जगदीश्वर! आपके दर्शन करके मेरा जीवन सफल हो गया। आप देव, दानव, मनुष्य, जरग, यक्ष, किन्नर आदि सभी पर दया करने वाले हैं। हे नाथ! मुझ अज्ञानी जीव पर भी दया कीजिए ।' भगवान् विनायक प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, 'मूषक ! तू क्षमा के योग्य नहीं था, क्योंकि तूने ऋषियों को बहुत कष्ट दिया है। किन्तु तू मेरी शरण में आ गया है, इसलिए अब भय रहित हो जा और जो कुछ चाहे, वह वर माँग ले ।' मूषक ने सोचा, मुझे कोई क्या देगा ? और फिर माँगूँ भी किसलिए ? ऐसा विचार कर उसने कहा- 'मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए । यदि आपकी कुछ इच्छा हो तो मुझसे ही वर माँग लीजिए ।' गणेश्वर ने कहा- 'अच्छा, तू मुझे वर देना चाहता है तो बस इतना ही वर दे कि मेरा वाहन बन जा ।'
मूषक ने स्वीकारोक्ति की तो पराशर-नन्दन तुरन्त उसकी पीठ पर आरूढ़ हो गये । बेचारा मूषक सभी भारों के स्थान उन विनायकदेव का भार कैसे सहन कर सकता था ? उसे लगा कि अब पिसा, अब पिसा । प्राण संकट में देखकर उसने भगवान् से प्रार्थना की- 'प्रभो! मुझपर प्रसन्न होइए । हे दयानाथ ! दया कीजिए और इतने हल्के हो जाइए कि आपके बोझ से मुझे कुछ न हो और मैं सरलता से आपका वहन, कर सकूँ ।'
भगवान् ने समझ लिया कि मूषक का गर्व खण्डित हो गया है तो उन्होंने अपना भार घटा लिया और उसके द्वारा वहन होने योग्य हल्के हो गये । महर्षि पराशर ने यह लीला देखी तो उन्होंने गजानन के पदपंकज में प्रणाम कर कहा- 'प्रभो! कैसे आश्चर्य का विषय है कि जो मूषक बड़े-बड़े वृक्षों को गिरा चुका था और जिसके भयंकर शब्द से पर्वत भी कम्पायमान हो रहे थे, वह क्षणभर में ही आपका वाहन बन गया । ऐसा पौरुष किसी सामान्य बालक में कहीं नहीं देखा जाता ।' ऋषि-पत्नी भी आश्चर्य चकित हुई गजमुख को देख रही थीं। फिर उसने पुत्र को लेकर स्तनपान कराया और सुला दिया । दूसरे दिन गणेश ने मूषक के कण्ठ में एक रस्सी बाँधी और उसके साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगे ।
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