श्री गणेश पुराण | पृथ्वी की व्यग्रता एवं देव-समूहों द्वारा आदिदेव का स्तवन करना,Shri Ganesh-Puraan Prthvee Kee Vyagrata Evan Dev-Samoohon Dvaara Aadidev Ka Stavan Karana

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का तृतीय अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का तृतीय अध्याय ! नीचे दिए गए शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. पृथ्वी की व्यग्रता एवं देव-समूहों द्वारा आदिदेव का स्तवन करना
  2. महोत्कट का प्रकट होना
  3. महोत्कट का जातकर्म संस्कार

पृथ्वी की व्यग्रता एवं देव-समूहों द्वारा आदिदेव का स्तवन करना

त्रैलोक्य विजयी देवान्तक-नरान्तक के शासनकाल में प्रजा अत्यन्त आतंकित और भयभीत थी। विशेषकर देवगण और ऋषिगण बहुत दुःखित हो रहे थे। गृहस्थी विद्वान् विप्रगण भी प्रसन्न नहीं थे। असुरों की स्वच्छन्दता और अत्याचारों के सभी शिकार एवं पीड़ित थे । जब संसार में सर्वत्र अत्याचार हो रहे हों, धर्म-कर्म नष्ट हो रहा हो, साध्वी नारियों का सतीत्व लुट रहा हो, अबोध बालकों की हत्या की जा रही हो, निरपराधों को दण्ड दिया जा रहा हो, तब धरतीमाता को भी चैन कैसे मिल सकता है ? वह अत्यन्त त्रस्त हुई भगवान् चतुरानन के पास पहुँचकर बोलीं- 'महा-महिमामय कमलासन ! आपसे छिपा नहीं है कि संसार में असुरों द्वारा घोर अत्याचार किये जा रहे हैं। सभी देवताओं सहित देवराज इन्द्र भी मारे-मारे फिर रहे हैं। ऋषि, ब्राह्मण और गौ असह्य यन्त्रणा से सन्तप्त हैं। प्रजावर्ग में घोर भय व्याप्त है। स्त्री और बालक भी उन अत्याचारों के घेरे में घिरकर छटपटा रहे हैं। यह सब मुझसे सहन नहीं होता, इसीलिए आपकी शरण में आई हूँ। अतः शीघ्र ही असुरों को विनष्ट कीजिए, अन्यथा मुझे विवश होकर सभी जीवों सहित रसातल में चला जाना होगा ।


ब्रह्माजी ने गम्भीर वाणी में कहा- 'धरित्रि! मैं भी तो उनके अत्याचारों से अछूता नहीं हूँ। क्योंकि मैं, सब लोकपाल, देवता एवं ऋषि-मुनिगण, स्वधा-स्वाहा से वंचित कर दिये गये हैं।'इसलिए स्थान, मन्त्र और आचार से भी हीन हो रहे हैं। इस विपत्ति से बचने का एक ही उपाय है-आदिदेव भगवान् विनायक को प्रसन्न करना । अतएव उन्हीं से प्रार्थना करनी चाहिए ।'चतुरानन का आदेश होने पर वहाँ उपस्थित देवता, ऋषिगण आदि सब समूह में बैठ गये और उन्होंने पृथ्वी सहित विनायक देव की प्रार्थना आरम्भ की-

"नमो नमस्तेऽखिल-लोकनाथ
 नमो नमस्तेऽखिल-लोकधामन् ।
नमो नमस्तेऽखिल-लोककारिन्
 नमो नमस्तेऽखिल-लोकहारिन् ॥"

'हे समस्त लोकों के नाथ! आपको नमस्कार है। हे सब लोकों के आश्रय ! आपको नमस्कार है। हे समस्त सृष्टि के रचयिता और संहारकर्त्ता ! आपको बारम्बार नमस्कार है। हे देवताओं के शत्रुओं का नाश करनेवाले एवं भक्तजनों के पाप दूर करने वाले विनायकदेव ! आपको नमस्कार है। हे प्रभो! आप अपने भक्त द्वारा की गई थोड़ी-सी भक्ति से ही प्रसन्न होकर उनका पोषण करते हैं, आपको नमस्कार है। आप निराकार, परे से भी परे, ब्रह्मरूप, क्षराक्षर से अतीत, सत्वादि गुणों से अनुग्रह किया करते हैं, आपको नमस्कार है। आप निरामय, निरञ्जन दैत्यों का मर्दन करने वाले, पूर्णकाम, नित्य, सत्य, सदैव परोपकार रत तथा सर्वत्र समान रूप से व्याप्त रहने वाले हैं। ऐसे आपको हमारा बारम्बार नमस्कार है।'
इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् उन्होंने लोकव्यापी समस्या से अवगत कराने की चेष्टा की 'हे प्रभो! समस्त विश्व हाहाकार से व्याप्त तथा स्वधा-स्वाहा से वंचित हो रहा है तथा हम सभी देवगण सुमेरु-गिरि-कन्दराओं में पशुओं के समान रहते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसलिए हे विश्व का भरण-पोषण करने वाले प्रभो ! आप कृपा करके इन महादैत्यों का संहार कीजिए।'
देवताओं द्वारा इस प्रकार करुणा प्रार्थना की जाने पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी - 'देवगण ! धैर्य धारण करो। देवदेव विनायक महर्षि कश्यप की पत्नी महाभागा अदिति के गर्भ से प्रकट होकर अद्भुत कर्म करेंगे। उन्हीं से तुम्हारा गया हुआ राज्य मिलेगा। क्योंकि वे साक्षात् अवतार लेकर दुष्टों का दमन और साधुजनों का पालन करेंगे।' आकाशवाणी सुनकर आश्वस्त हुए ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया, 'देवि ! अब तुम्हें धैर्य धारण करना चाहिए। क्योंकि महाप्रभु विनायकदेव अवतार लेकर तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे और उस समय सभी देवता पृथ्वी पर प्रकट होंगे।'चतुरानन से उक्त आश्वासन पाकर पृथ्वी अपने स्थान पर स्थिर हुई और सब देवगण एवं मुनिगण भी अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

महोत्कट का प्रकट होना

कुछ कालोपरान्त देवमाता अदिति गर्भवती हुईं और उनका तेज दिनों-दिन बढ़ने लगा और नवम मास पूर्ण होने पर शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में एक परम तेजस्वी बालक रूप भगवान् का प्राकट्य हुआ, जिनके दस भुजाएँ, कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और ललाट पर कस्तूरी का तिलक शोभा पा रहा था। वक्षःस्थल पर चिन्तामणि तथा कण्ठ में रत्नों की माला पड़ी थी। सिद्धि-बुद्धि उनके साथ थीं। अधरोष्ठ जपा- पुष्प के समान अरुण, दीप्तमान-धवल दाँत, अन्धकार को नष्ट करने वाली अनुपम देह-कान्ति एवं शरीर पर दिव्य वस्त्रालंकार धारण किए हुए थे।
माता अदिति ने उनका वह अलौकिक स्वरूप देखा तो आनन्द-विभोर हो उठीं। उनके मुख की कोई सीमा नहीं थी। तभी उन्होंने सुना, वह तेजस्वी बाल रूप भगवान् कह रहे थे- 'माता! तुम्हारा तप सफल हो गया। उसी के प्रभाव से मैं तुम्हारे पुत्र रूप में आविर्भूत हुआ हूँ। मैं दुष्ट दैत्यों को मारकर साधुजनों का हित सिद्ध करूँगा। उसी से तुम्हारी भी कामनाएँ पूर्ण हो जायेंगी ।'
बालक विनायकदेव के वचन सुनकर माता अदिति ने विनत वाणी से कहा-'अवश्य ही आज मेरे पुण्यों का उदय हुआ है, जिनके कारण साक्षात् भगवान् गजानन ने मेरी कोख पवित्र की है। वस्तुतः यह मेरा परम सौभाग्य ही है कि नित्य आनन्दस्वरूप, निराकार परब्रह्म परमेश्वर ने मेरे पुत्र रूप में अवतार लेकर मुझे धन्य बना दिया। परन्तु प्रभो ! मेरी प्रार्थना है कि-

"इदं रूपं परं दिव्यं उपसंहर साम्प्रतम् ।
प्राकृतं रूपमास्थाय कीडस्व कुहको यथा ॥"

'अपने इस परम दिव्य रूप को छिपाकर प्राकृत शिशु के समान क्रीड़ा करते हुए मुझे पुत्र-सुख से सुखी कीजिए।' अदिति की प्रार्थना व्यावहारिक थी । भगवान् गजानन ने तुरन्त ही शिशु रूप धारण कर लिया। अब देवमाता के समीप एक अत्यन्त तेजस्वी, हृष्ट-पुष्ट एवं दिव्य सौन्दर्य से सम्पन्न नवजात शिशु जोर-जोर से रो रहा था। उसके रोने का शब्द तीनों लोकों और दशों दिशाओं में व्याप्त हो गया, जिसे सुनकर धरती काँप उठी, दिशाएँ भी थरश्वराने लगीं, बन्ध्या स्त्रियों का बन्ध्यात्व दोष मिट गया, किन्तु असुर-नारियों के गर्भ गिर गये। इससे देवताओं में उल्लास और दैत्यों में शोक छा गया ।'

महोत्कट का जातकर्म संस्कार

महर्षि कश्यप के हर्ष का पारावार न था। उन्होंने शास्त्र-विधिपूर्वक बालरूप भगवान् का जातकर्म संस्कार आदि किये तथा विप्रों द्वारा ऋषि-मुनियों को पुष्कल दान-दक्षिणाएँ दीं तथा घर-घर में मिष्ठान्न युक्त बायन प्रेषित किये। बालक का नाम 'महोत्कट' रखा गया । माता अदिति के गर्भ से भगवान् विनायकदेव को अवतरित होना सुनकर दूर-दूर से ऋषि-मुनि, ब्रह्मचारी एवं साधु तथा भक्तजन आ-आकर दर्शन करने लगे। महर्षि कश्यप के आश्रम पर दर्शनाभिलाषियों का ताँता लग गया । दर्शनार्थियों में नारद, वशिष्ठ, वामदेव आदि अनेक स्वनामधन्य महर्षि भी थे। कश्यप ने सभी का समुचित रूप से स्वागत सत्कार किया तथा गौ आदि प्रदान करके सबका आभार माना ।
नारदादि ने ऋषियों से कहा- 'महर्षि ! हम आपके पुत्र के दर्शनार्थ आये हैं। हमें उनके दर्शन कराओ।' कश्यप का संकेत पाकर अदिति अपने विलक्षण पुत्र को ले आईं, जिसे देखते ही उन ऋषियों ने कहा- 'महर्षे ! तुम्हारे इस शिशु के शरीर में बत्तीस शुभ गुण दिखाई दे रहे हैं। आपने इसका 'महोत्कट' नाम गुणानुसार ही रखा है। विश्व के मंगलार्थ यह अत्यन्त भीषणकर्मा होगा ।'
'ऋषिश्रेष्ठ ! आपके घर में आदि, मध्य और अन्त से रहित भगवान् विनायकदेव ने ही अवतार लिया है। यद्यपि बालक के जीवन में अनेक संकट आयेंगे, तथापि वे सब स्वतः दूर हो जायेंगे। फिर भी यह जब तक स्वयं सशक्त न हो जायें, तब तक आपको सावधानी से इनकी रक्षा करनी चाहिए।' तदुपरान्त महर्षि वशिष्ठ ने उन कश्यप-पुत्र भगवान् के ध्वज-वज्रांकुश चिह्नित चरणारविन्दों का भक्तिभावपूर्वक पूजन करके प्रार्थना की। उनके साथ-

प्रार्थयामास सर्वस्त्वं भूभारहरणं कुरु । 
साधूनां पालनं देव दुष्टदानवघातनम् ॥"

'अन्य सभी ऋषियों ने भी निवेदन किया कि हे प्रभो! धरती का भार हरण कीजिए। साधुओं का पालन और दुष्ट दानवों का विनाश कीजिए नाथ !' इस प्रकार प्रार्थना और प्रणामादि करके ऋषिगण अपने-अपने आश्रमों को चले गये। सभी के चित्त अत्यन्त प्रफुल्लित थे। उन्हें विश्वास था कि यही महोत्कट भगवान् पृथ्वी को भार-मुक्त करेंगे, जिससे साधुजनों की रक्षा होगी तथा दैत्यों के अत्याचारी शासन का अन्त हो जायेगा ।

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