श्री गणेश पुराण | तीन असुरों का काशी पर आक्रमण , Shri Ganesh-Puraan Teen Asuron Ka Kaashee Par Aakraman

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का अष्टम अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का अष्टम अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. तीन असुरों का काशी पर आक्रमण
  2. मायामय पक्षी का प्राकट्य
  3. दैत्य-माता द्वारा बदले की कार्रवाई
  4. दैत्य की माता भ्रामरी की मृत्यु

तीन असुरों का काशी पर आक्रमण

कूपक और कन्दर के मरण-संवाद ने नरान्तक को एक बार तो व्याकुल कर दिया और वह सोचने लगा कि 'यह सब क्या हो रहा है ? क्या सभी असुर वीर इतने निष्क्रिय हैं कि उस छोटे से दुर्बल बालक सहित राजा को हरा नहीं सकते ?'बहुत विचार करने के पश्चात् उसने अन्धकासुर, अम्भ्कासुर और तुंगासुर नामक अपने तीन प्रचण्ड वीरों को बुलाकर कहा- 'वीरो ! इन्द्रादि समस्त देवगण तुमसे हार कर भयभीत हुए भागे-भागे फिरते हैं, तब अन्य कौन तुम्हारा सामना कर सकता है? इसलिए अपनी-अपनी सेनाओं सहित जाकर काशी नगरी को घेर लो और अदिति-पुत्र महोत्कट एवं काशीनरेश दोनों को जीवित या मृत अवस्था में यहाँ ले आओ ।'
तीनों ने विश्वास दिलाने के लिए प्रतिज्ञा की- 'जैसे ही महोत्कट दिखाई देगा, वैसे ही हम उसको मार डालेंगे। काशिराज को पकड़ लेंगे और काशी को विध्वंस कर गंगा में डुबो देंगे। हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इन कार्यों को पूर्ण किये बिना वापस नहीं लौटेंगे।' यह कहकर तीनों ने सेनाएँ एकत्र कीं और वहाँ जाकर काशी नगरी को चारों ओर से घेर लिया तथा घोर गर्जना की जिसे सुनकर सभी नगर निवासी आतंकित हो गए। राजभवन में भी चिन्ता की लहर दौड़ गई। काशीनरेश नगरी के द्वारों की सुरक्षा-व्यवस्था स्वयं घूम-घूमकर देखने लगे।
अन्धकासुर ने अपनी माया फैलाई, जिससे सूर्य पर एक प्रकार का आवरण छा जाने के कारण सर्वत्र घोर अन्धकार छा गया। जो द्विजगण स्नान, ध्यान, सन्ध्यावन्दनादि कर्मों में लगे थे, वे सहसा रात्रि का घोर अन्धकार देखकर अत्यन्तं विस्मित हुए। वेदपाठी, कथावाचक, अनुष्ठाता आदि भी दिन में ही रात्रि होने की अभूतपूर्व घटना देखकर अत्यंत आश्चर्य मानने लगे। गृहस्थ स्त्री-पुरुषों में भी व्याकुलता छा गई तथा कार्य रुकने के सर्वत्र दीपक जल उठे ।
सभी नगरवासी अभी सोच ही रहे थे कि सहसा ही दिन में रात्रि हो गई ? तभी अम्भकासुर ने माया फैलाई, जिससे भीषण झंझावात उत्पन्न हो गए। इस कारण सुदृढ़ वृक्ष भी समूल उखड़कर धराशायी हो गये। पर्वत-शिखर भी धरती पर आ-आकर गिरने लगे। अट्टालिकाओं के ऊपरी भाग टूटकर ध्वस्त हो गए। इससे सर्वत्र अत्यन्त भय और आशंका का साम्राज्य छा गया। परन्तु असुरों को तो इतने से भी सन्तोष न था। उनकी माया से आकाश में दल के दल घोर बादल छा गये। बिजली कड़कने-दमकने लगी और फिर कुछ ही देर में बूँदें आईं, जिन्होंने मूसलाधार वर्षा का रूप धारण कर लिया।'

घोर अन्धकार, भयंकर अन्धड़ और तिस पर भी मूसलाधार वर्षा ने काशी के नागरिकों को अधीर कर दिया। क्योंकि उससे वन-उपवन ही नष्ट नहीं हुए, अनेकों घर भी ढह गये और उनके नीचे मनुष्य दब गये । इस कारण हाय-हाय की पुकार और करुण-क्रन्दन भी सुनाई देने लगा। वर्षा रुकने का नाम ही न लेती थी, वह उत्तरोत्तर तीव्रतर होती जा रही थी। धन, जन एवं पशु आदि का विनाश होता जा रहा था। प्रथम तो अन्धकार के कारण कुछ दिखता ही नहीं था और कभी किसी दीपक के बुझते से बचे रहने के कारण उसकी टिमटिमाहट में दिखाई भी देता तो चारों ओर जल ही जल। लोगों के हृदय काँप गये। उस महाविनाश से बचने का उपाय कहीं भी दिखाई न देता था ।
राजभवन की दशा भी कुछ बहुत अच्छी नहीं थी। वहाँ भी चारों ओर जल भरा था। महाराज चिन्तित थे कि 'यह क्या हुआ ? इस विपत्ति से किस प्रकार छुटकारा मिले ?' उन्होंने उस समय विनायक की ही शरण ली, जिन्होंने आश्वासन दिया- 'राजन् ! घबराओ मत, यह क्षणिक विपत्ति शीघ्र ही दूर हुई जाती है।' महोत्कट ने भी अपनी माया का विस्तार किया। तुरन्त ही एक लता-गुल्मादि से युक्त अत्यन्त ऊँचा एक ऐसा महावट उत्पन्न हो गया, जिसकी शाखाएँ सौ योजन तक फैल गईं। तभी एक अत्यन्त विशाल पक्षी प्रकट हुआ जिसके पंख दूर-दूर तक फैले थे तथा मस्तक आकाश को छू रहा था।'

मायामय पक्षी का प्राकट्य

वह पक्षी, और कोई नहीं, स्वयं भगवान् विनायकदेव ही थे, जिन्होंने अपनी माया के प्रभाव से अन्धकासुर की माया नष्ट कर दी जिससे सूर्य भगवान् पूर्ववत् प्रकट हो गये। तब उन्होंने जल में एक डुबकी लगाई, जिससे अम्भकासुर की माया नष्ट हो गई और समस्त जल सूख गया। इस प्रकार अन्धक और अम्भक नामधारी दोनों असुर शक्तिहीन हो गये। अभी तुंगासुर में शक्ति शेष थी, उसने पक्षी रूप विनायक पर मूसलाधार वृष्टि की तथा ब्राह्मणों के आश्रमों पर शिलाखण्ड बरसाने लगा। यह देखकर वह अद्भुत एवं विशाल पक्षिराज अपने पंख फैलाकर तीव्र वेग से आकाश में उड़ते हुए तुंगासुर के ऊपर मँडराने लगे। अन्त में उन्होंने उसे अपनी चोंचों के मध्य दबा लिया और आकाश में घुमाने लगे, इससे उसका बल क्षीण होने लगा।
अब उन्होंने नीचे आकर अन्धक और अम्भक को अपने पंजों से पकड़ लिया और पुनः आकाश में पहुँचकर चक्कर काटने लगे। अब तो तीनों असुर भगवान् भास्कर की अग्निमयी रश्मियों के भीषण ताप से जल गये तभी पक्षिराज ने उन्हें आकाश से ही छोड़ दिया। इस कारण वे सूर्य की गर्मी से दग्ध एवं मूच्छित हुए तीनों असुर धरती पर आ गिरे। उनके गिरने का भयंकर शब्द हुआ और उनके शरीर के चूर्णित हुए कण चारों ओर बिखर गये । उनके साथ की आई सेना तो स्वतः ही छिन्न-भिन्न हो गई। अब कोई संकट शेष नहीं था। काशिराज और उनके प्रजाजनों ने चैन की साँस ली। सभी नागरिक अत्यन्त हर्षित हुए भगवान् विनायकदेव की जय बोल रहे थे।
सभी ने उस विशाल वट वृक्ष और महापक्षी के दर्शन किए थे। किन्तु, असुरों के मारे जाने पर न तो वह वट ही दिखाई दिया और न वह विशालकाय पक्षी ही। सभी आश्चर्य कर रहे थे कि जो वस्तु कुछ समय पूर्व विद्यमान थी, वह अब कहाँ चली गई ? काशिराज ने विनायक भगवान् का षोड़शोपचारों से पुनः पूजन किया और स्तुति करके ब्राह्मणों को इच्छित धनादि का दान किया। शान्ति होम के पश्चात् गोदानादि भी किया तथा जब सभी लोग वहाँ से यशोगान करते हुए चले गये तब राजा ने महोत्कट को अपने पास बैठाकर सब प्रकार के व्यंजनों से उन्हें भोजन कराया और स्वयं भी किया।

दैत्य-माता द्वारा बदले की कार्रवाई

पक्षिराज द्वारा काटा गया अम्भकासुर का सिर तीव्र वेग से उसी के अपने भवन में गिरा। दैत्यराज की माता भ्रामरी उस समय सो रही थी। दासी ने उसे जगाकर कहा- 'आपके पुत्र का कटा हुआ सिर यहाँ आकर पड़ा है।' भ्रामरी ने सिर को उठाकर गोद में रख लिया और अनेक प्रकार के विलाप करती हुई रोने लगी-

"यस्य क्ष्वेडितमात्रेण रोदसी कम्पते भृशम् ।
स कथं पतितः कुत्र निहतः केन वा सुतः ॥ 
यं दृष्ट्वा कम्पितः कालः स कथं निधनं गतः ॥"

'जिसके क्रोध मात्र से धरती-आकाश काँपते थे और जिसे देखते ही काल भी थर-थर काँपने लगता था, मेरे ऐसे वीर पुत्र को किसने, कब, किस प्रकार से मार डाला ?' उसको अत्यधिक व्याकुल देखकर दासी ने सान्त्वना देने का बहुत प्रयत्न किया अन्त में बोली- 'अब इस प्रकार रोने से कुछ होने वाला नहीं है, इसलिए अब इसका संस्कार करो और फिर विनायक के साथ प्रतिशोध लो ।'
भ्रामरी को उसका परामर्श उचित प्रतीत हुआ और वह तुरन्त उठती हुई बोली- 'सखी! तू मेरे पुत्र के सिर को अभी तो तैल से सुरक्षित रखने की व्यवस्था कर। मैं काशी जाकर विनायक का सिर काटकर लाती हूँ। तब उसके सिर के साथ ही इसका भी दाह-संस्कार कर दूँगी।' अपने भवन से चलती हुई भ्रामरी ने सोचा कि वहाँ पहुँचकर विनायक को मारने में भी सफल किस प्रकार रहूँगी ? तभी उसे कुछ उपाय सूझ पड़ा और देवमाता अदिति का रूप बना कर काशी नगरी में पहुँची। राजभवन के द्वार पर उसने कहलवाया - 'देवमाता अदिति आई हैं।'
महारानी ने सुना तो दौड़ी-दौड़ी द्वार पर आई और देवमाता के चरणों में प्रणाम कर भीतर लिवा ले गई। उसका अनेक प्रकार से स्वागत सत्कार कर स्वर्ण सिंहासन पर बैठने का निवेदन किया। भ्रामरी अपनी आन्तरिक व्यथा छिपाये हुए ऊपर से प्रसन्नता का भाव बनाये हुए थी। उसने पूछा- 'मेरा पुत्र महोत्कट विनायक कहाँ है ?'
महारानी ने कहा- 'बालकों के साथ कहीं खेलने चले गए होंगे, अभी बुलवाती हूँ।' आदेश पाकर दासी उन्हें खोजने गई। इतने में ही देवमाता अदिति का आगमन हुआ सुनकर काशीनरेश वहाँ आ गए और चरणों में मस्तक रख, प्रणाम करने के पश्चात् बोले- 'साक्षात् जगज्जननी देवमाता अदिति के यहाँ पधारने से मेरा यह घर, राज्य, वंश एवं पितर भी धन्य हो गए। आपकी महिमा का गान करने में मैं अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। जिस माता के देवराज इन्द्र एवं विनायक जैसे महापराक्रमी पुत्र हों, वह तो स्वयं ही महान् महिमामयी हैं।'
अपनी उद्विग्नता दबाते हुए अदिति रूपिणी भ्रामरी ने पूछा- 'राजन् ! मेरा पुत्र विनायक तुम्हारे यहाँ रहकर कुछ उत्पात तो नहीं कर बैठता ? क्योंकि वह बड़ा चंचल है।' महाराज ने निवेदन किया- 'नहीं मातेश्वरी! यहाँ रहते हुए उन्होंने उत्पात नहीं, उपकार ही किया है। इस राज्य पर समय-समय पर आने वाली विपत्तियों को उन्होंने बात की बात में ही दूर कर दिया। कुछ ही दिनों में अनेकानेक दैत्यों को मार-मारकर भगा दिया। अन्धक, तुंग और अत्यन्त क्रूर एवं महाबली अम्भकासुर को भी उन्होंने मार डाला है।' अम्भक के मारने की बात सुनकर भ्रामरी के नेत्र लाल हो गए और वह क्रोध के कारण काँपने लगी। तभी उसे अपने अदिति रूप का ध्यान आया और अपनी स्थिति को सँभालने की दृष्टि से अभिनय करती हुई बोली- 'उन दैत्यों को यह भी भय न लगा कि मेरा महान् शक्तिशाली पुत्र महोत्कट यहाँ विद्यमान है? अवश्य ही इन समस्त दैत्यों को दण्डित करना होगा। मेरे पुत्र को यहाँ रहते बहुत दिन हो गए। मैं उसके वियोग से भ्रांत चित्त हो रही हूँ और अपने साथ ले जाना चाहती हूँ।' काशिराज बोले- 'देवजननि ! दैत्यों के आक्रमण के कारण युवराज के विवाह की तिथि हटानी पड़ी थी। अब शीघ्र ही उसका विवाह होने को है। इसलिए कृपाकर इस अवसर पर आप भी यहीं रहने का कष्ट करें। विवाह-कार्य सम्पन्न होते ही मैं आप दोनों को स्वयं पहुँचा आऊँगा ।'

दैत्य की माता भ्रामरी की मृत्यु

राजा यह कह ही रहे थे, तभी विनायक आ पहुँचे। छद्म-वेश धारिणी भ्रामरी ने उन्हें हृदय से लगा लिया और फिर गोद में बिठाकर लाड़ लड़ाने लगी। उसकी चेष्टाओं से विनायक को कुछ अपूर्व-सा लगा। फिर भी वे मुस्काते हुए चुपचाप बैठे रहे।भ्रामरी बोली- 'बेटा ! यह समय तो तेरे भोजन का है। खेलने में लगता है तो भूख का भी ध्यान नहीं रखता। ले, यह मोदक खा ले।' विनायक ने शीघ्रता से मोदक को खाते हुए अपने भूखे होने का प्रदर्शन किया। इसलिए उसने उन्हें दूसरा मोदक दिया। उसे खाते समय विनायक को पता चल गया कि मोदक में तीव्र विष मिला है। अतएव उसकी गोद में बैठे हुए उन्होंने अपनी भार वृद्धि की। भ्रामरी को लगा कि वह दबी जा रही है। भार के कारण वह व्याकुल हो उठी, किन्तु विनायक ने माता के प्रति अत्यन्त स्नेह-भाव का प्रदर्शन किया तथा उनसे और भी अधिक लिपट गए।
उनकी जकड़ में फँसी हुई भ्रामरी का शरीर टूटने लगा, प्राण तड़पने लगे। उसके मुख से बरबस ही निकला- 'अरे, यह क्या करता है ? इस प्रकार तो मैं मर ही जाऊँगी।' परन्तु, विनायक ने उन्हें छोड़ा नहीं। उन्हें उसकी छटपटाहट में ही आनन्द आ रहा था। राक्षसी बेबस और पीड़ित थी, उसकी व्याकुलता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी। महाराज और महारानी ने उसका उत्पीड़न देखकर विनायक को हटाना चाहा और अन्त में उन्हें खींचते हुए बोले- 'अदितिकुमार ! आपके भार को सहने में यह असमर्थ हैं, इसलिए उठो । अपनी माता की प्राण-रक्षा का तो ध्यान रखो ।'
किन्तु, विनायक उठे नहीं, उनकी जकड़ बढ़ती गई। भ्रामरी पीड़ा के कारण चीत्कार कर उठी। उसकी आँखें फट गईं, जीभ बाहर निकल आई। लोगों ने देखा कि भ्रामरी का अदिति रूप अदृश्य होता जा रहा है और उसका स्थान ले रही है राक्षसी की भयंकर आकृति । कुछ देर में ही उसके प्राणपखेरू उड़ गये। अब विनायक उठ खड़े हुए। सभी समझ गये कि अदिति का छद्मवेश बनाकर यह राक्षसी विनायकदेव को मारने के लिए आई थी। इससे विनायक की अद्भुत सामर्थ्य और विलक्षण ज्ञान देखकर सभी आश्चर्यचकित हो उनकी स्तुति करने लगे-

"नमस्ते ब्रह्मरूपाय नमस्ते रुद्ररूपिणे ।
मोक्षहेतो नमस्तुभ्यं नमो विघ्नहराय ते।
नमोऽभक्तविनाशाय नमो भक्तप्रियाय च ।
सर्वोत्पातविघाताय नमो लीलास्वरूपिणे ।
सर्वान्तरर्यामिने तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय ते नमः ॥"

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