विष्णु पुराण तृतीय अंश का 10 अध्याय संस्कृत और हिंदी में;-
दसवाँ अध्याय जात कर्म, नामकरण और विवाह-संस्कारकी विधि !

सगर उवाच
कथितं चातुराश्रम्यं चातुर्वर्ण्यक्रियास्तथा ।
पुंसः क्रियामहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ॥ १
नित्यनैमित्तिकाः काम्याः क्रियाः पुंसामशेषतः ।
समाख्याहि भृगुश्रेष्ठ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥ २
और्व उवाच
यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमित्तिकाश्रयम् ।
तदहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना मम ॥ ३
सगर बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! आपने चारों आश्रम और चारों वर्णोंके कर्मोंका वर्णन किया। अब मैं आपके द्वारा मनुष्योंके (षोडश संस्काररूप) कर्मोंको सुनना चाहता हूँ हे भृगुश्रेष्ठ ! मेरा विचार है कि आप सर्वज्ञ हैं। अतएव आप मनुष्योंके नित्य-नैमित्तिक और काम्य आदि सब प्रकारके कर्मोंका निरूपण कीजिये और्व बोले- हे राजन् ! आपने जो नित्य- नैमित्तिक आदि क्रियाकलापके विषयमें पूछा सो मैं सबका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥१ - ३॥
जातस्य जातकर्मादिक्रियाकाण्डमशेषतः ।
पुत्रस्य कुर्वीत पिता श्राद्धं चाभ्युदयात्मकम् ॥ ४
युग्मांस्तु प्राङ्मुखान्विप्रान्भोजयेन्मनुजेश्वर ।
यथा वृत्तिस्तथा कुर्यादैवं पित्र्यं द्विजन्मनाम् ॥ ५
दध्ना यवैः सबदरैर्मिश्रान्पिण्डान्मुदा युतः ।
नान्दीमुखेभ्यस्तीर्थेन दद्यादैवेन पार्थिव ॥ ६
प्राजापत्येन वा सर्वमुपचारं प्रदक्षिणम्।
कुर्वीत तत्तथाशेषवृद्धिकालेषु भूपते ॥ ७
ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि ।
देवपूर्व नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम् ॥ ८
शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ॥ ९
नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा।
नामंगल्यं जुगुप्स्यं वा नाम कुर्यात्समाक्षरम् ॥ १०
नातिदीर्घ नातिह्रस्वं नातिगुर्वक्षरान्वितम्।
सुखोच्चार्य तु तन्नाम कुर्याद्यत्प्रवणाक्षरम् ॥ ११
ततोऽनन्तरसंस्कारसंस्कृतो गुरुवेश्मनि।
यथोक्तविधिमाश्रित्य कुर्याद्विद्यापरिग्रहम् ॥ १२
गृहीतविद्यो गुरवे दत्त्वा च गुरुदक्षिणाम् ।
गार्हस्थ्यमिच्छन्भूपाल कुर्याद्दारपरिग्रहम् ॥ १३
ब्रह्मचर्येण वा कालं कुर्यात्संकल्पपूर्वकम् ।
गुरोश्शुश्रूषणं कुर्यात्तत्पुत्रादेरथापि वा ॥ १४
वैखानसो वापि भवेत्परिव्राडथ वेच्छया।
पूर्वसंकल्पितं यादृक् तादृक्कुर्यान्नराधिप ॥ १५
वर्षेरेकगुणां भार्यामुद्बहेत्त्रिगुणस्स्वयम् ।
नातिकेशामकेशां वा नातिकृष्णां न पिंगलाम् ॥ १६
निसर्गतोऽधिकांगीं वा न्यूनांगीमपि नोद्वहेत् ।
नाविशुद्धां सरोमां वाकुलजां वापि रोगिणीम् ॥ १७
न दुष्टां दुष्टवाक्यां वा व्यंगिनीं पितृमातृतः ।
न श्मश्रुव्यञ्जनवतीं न चैव पुरुषाकृतिम् ॥ १८
न घर्घरस्वरां क्षामां तथा काकस्वरां न च।
नानिबन्धेक्षणां तद्ववृत्ताक्षीं नोद्वहेद्बुधः ॥ १९
पुत्रके उत्पन्न होनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकाण्ड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे हे नरेश्वर ! पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा द्विजातियोंके व्यवहारके अनुसार देव और पितृपक्षकी तृप्तिके लिये श्राद्ध करे और हे राजन् ! प्रसन्नतापूर्वक दैवतीर्थ (अँगुलियोंके अग्रभाग)- द्वारा नान्दीमुख पितृगणको दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे अथवा प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिकाके मूल) द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्योंका दान करे। इसी प्रकार [कन्या अथवा पुत्रोंके विवाह आदि] समस्त वृद्धिकालोंमें भी करे तदनन्तर पुत्रोत्पत्तिके दसवें दिन पिता नामकरण- संस्कार करे। पुरुषका नाम पुरुषवाचक होना चाहिये। उसके पूर्वमें देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा आदि होने चाहिये ब्राह्मणके नामके अन्तमें शर्मा, क्षत्रियके अन्तमें वर्मा तथा वैश्य और शूद्रोंके नामान्तमें क्रमशः गुप्त और दास शब्दोंका प्रयोग करना चाहिये नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, अमांगलिक और निन्दनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरोंसे युक्त नाम न रखे। जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछेके वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरुगृहमें रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे हे भूपाल ! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरुको दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले या दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रोंकी सेवा-शुश्रूषा करता रहे अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले। हे राजन् ! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे यदि विवाह करना हो तो] अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्यासे विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पाण्डुवर्णा (भूरे रंगकी) स्त्रीसे सम्बन्ध न करे जिसके जन्मसे ही अधिक या न्यून अंग हों, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्रीसे पाणिग्रहण न करे बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिताके अनुसार अंगहीना हो, जिसके श्मश्रु (मूँछोंके) चिह्न हों, जो पुरुषके-से आकारवाली हो अथवा घर्षर शब्द करनेवाले अति मन्द या कौएके समान (कर्णकटु) स्वरवाली हो तथा पक्ष्मशून्या या गोल नेत्रोंवाली हो उस स्त्रीसे विवाह न करे ॥ ४ - १९ ॥
यस्याश्च रोमशे जड्डे गुल्फौ यस्यास्तथोन्नतौ।
गण्डयोः कूपरौ यस्या हसन्त्यास्तां न चोद्वहेत् ॥ २०
नातिरूक्षच्छविं पाण्डुकरजामरुणेक्षणाम् ।
आपीनहस्तपादां च न कन्यामुद्वहेद् बुधः ॥ २१
न वामनां नातिदीर्घा नोद्वहेत्संहतध्रुवम् ।
न चातिच्छिद्रदशनां न करालमुखीं नरः ॥ २२
पञ्चमीं मातृपक्षाच्च पितृपक्षाच्च सप्तमीम् ।
गृहस्थश्चोद्वहेत्कन्यां न्यायेन विधिना नृप ।। २३
ब्राह्यो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः ।
गान्धर्वराक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्टमो मतः ॥ २४
एतेषां यस्य यो धर्मो वर्णस्योक्तो महर्षिभिः ।
कुर्वीत दारग्रहणं तेनान्यं परिवर्जयेत् ॥ २५
सधर्मचारिणीं प्राप्य गार्हस्थ्यं सहितस्तया ।
समुद्वहेद्ददात्येतत्सम्यगूढं महाफलम् ॥ २६
जिसकी जंघाऑपर रोम हों, जिसके गुल्फ (टखने) ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलोंमें गड्ढे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे जिसकी कान्ति अत्यन्त उदासीन न हो, नख पाण्डुवर्ण हों, नेत्र लाल हों तथा हाथ- पैर कुछ भारी हों, बुद्धिमान् पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे जो अति वामन (नाटी) अथवा अति दीर्घ (लम्बी) हो, जिसकी भृकुटियाँ जुड़ी हुई हों, जिसके दाँतों में अधिक अन्तर हो तथा जो दन्तुर (आगेको दाँत निकले हुए) मुखवाली हो उस स्रीसे कभी विवाह न करे हे राजन्! मातृपक्षसे पाँचवीं पीढ़ीतक और पितृपक्षसे सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुषको नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच-ये आठ प्रकारके विवाह हैं इनमेंसे जिस विवाहको जिस वर्णक लिये महर्षियोंने धर्मानुकूल कहा है उसीके द्वारा दार-परिग्रह करे, अन्य विधियोंको छोड़ दे इस प्रकार सहधर्मिणीको प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्मका पालन करे, क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान् फल देनेवाला होता है॥ २० - २६ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
टिप्पणियाँ