अग्नि पुराण - एक सौ बासठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 162 Chapter !

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अग्नि पुराण एक सौ बासठ वाँ अध्याय - धर्मशास्त्र का उपदेश

पुष्कर उवाच

मनु र्विष्णु अर्ज्ञवल्को हरितोऽत्रिर्यमोऽनिगिरः |
वसिष्ठदाक्षसंवर्तशतत्पापराशरः || 1 ||

आपस्तम्बोशनोवसः कात्यायनबृहस्पति |
गोतमः शंखलिखितौ धर्ममेते यथाब्रुवन् || 2 ||

तथा वक्षे समासेन भुक्तिमुक्तिप्रदान शृणु |
प्रवृत्तञ्च निवृत्तञ्च द्विविधंकर्म वैदिकम् || 3 ||

काम्यं कर्म प्रवृत्तिं स्यांनिवृत्तं ज्ञानपूर्वकं |
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्दियानाञ्च संयमः || 4 ||

अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकारं परं |
सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम् || 5 ||

तच्चग्र्यं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः |
सर्वभूतेषु चत्मानं सर्वभूतानि चत्मणि || 6 ||

सममपशयनात्मयाजी स्वराज्यमधिगच्छति |
आत्मज्ञाने समे च स्याद्वेदाभ्यसे च यत्नवान् || 7 ||

एतद्दविज़नसामर्थ्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः |
वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन || 8 ||

इहैव लोके तिष्ठं हि ब्रह्मभूया कल्प्यते |
स्वाध्यायनामुपाकर्म श्रवणं श्रवणं तु || 9 ||

हस्ते कौषधिवारे च पंचम्यं श्रवणस्य वा |
पौषमासस्य रोहिण्यमस्तकायामथापि वा || 10 ||

जलन्ते छन्दसांकुर्यादुत्सर्गं विधिवदवहः |
त्रयहं प्रीतेश्वनाध्यायः शिष्यार्थविग्गुरुबंधुषु || 11 ||

उपकर्माणि कोट्सर्गं स्वशाखाश्रोत्रिये तथा |
संध्यागर्जितनिर्घटे भुकमपोलकनिपातन || 12 ||

सामाप्य वेदं ह्यनिषामरण्यकमधित्य च |
पंचादश्यं चतुर्दश्यामष्टम्यं राहुसुतके || 13 ||

ऋतुसंधिषु भुक्त्वा वा श्रद्विकां प्रतिगृह्य च |
पशुमांदुकनकुलश्वाहिमारशुकरैः || 14 ||

कृतेन्तारे त्वहोरात्रं शक्रपते तथोच्च्रिये |
श्वक्रोष्टुगर्धभोलुकमसावनार्तुनिस्वने || 15 ||

अमेध्यश्वशुद्रन्त्यश्शानापतितान्तिके |
शुभासु च तारसु विद्युत्सतनितसमपलवे || 16 ||

भुत्क्वद्रपाणिरामभोंतारार्धरत्रेऽतिमारुते |
पांशुवर्षे दिशानदाहे संध्यानिहारभितिषु || 17 ||

धावतः प्रणिबाधे च विशिष्टे गृहमगते |
खरोष्टरायणहस्त्यश्वानौकावृक्षादिरोहणे || 18 ||

सप्ततृंशदानध्यायनेतानस्तकालिकानविदुः || 19 ||

अग्नि पुराण एक सौ बासठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana - 162 Chapter!-In Hindi

पुष्कर कहते हैं- मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, हारीत, अत्रि, यम, अङ्गिरा, वसिष्ठ, दक्ष, संवर्त, शातातप, पराशर, आपस्तम्ब, उशना, व्यास, कात्यायन, बृहस्पति, गौतम, शङ्ख और लिखित इन सबने धर्मका जैसा उपदेश किया है, वैसा ही मैं भी संक्षेपसे कहूँगा, सुनो। यह धर्म भोग और मोक्ष देनेवाला है। वैदिक कर्म दो प्रकारका है- एक 'प्रवृत्त' और दूसरा 'निवृत्त'। कामनायुक्त कर्मको 'प्रवृत्तकर्म' कहते हैं। ज्ञानपूर्वक निष्कामभावसे जो कर्म किया जाता है, उसका नाम 'निवृत्तकर्म' है। वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रियसंयम, अहिंसा तथा गुरुसेवा- ये परम उत्तम कर्म निःश्रेयस (मोक्षरूप कल्याण) के साधक हैं। इन सबमें भी आत्मज्ञान सबसे उत्तम बताया गया है ॥ १-५॥
वह सम्पूर्ण विद्याओंमें श्रेष्ठ है। उससे अमृतत्वकी प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण भूतोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण भूतोंको समानभावसे देखते हुए जो आत्माका ही यजन (आराधन) करता है, वह स्वाराज्य- अर्थात् मोक्षको प्राप्त होता है। आत्मज्ञान तथा शम (मनोनिग्रह) के लिये सदा यत्नशील रहना चाहिये। यह सामर्थ्य या अधिकार द्विजमात्रको विशेषतः ब्राह्मणको प्राप्त है। जो वेद-शास्त्रके अर्थका तत्त्वज्ञ होकर जिस-किसी भी आश्रममें निवास करता है, वह इसी लोकमें रहते हुए ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है। (यदि नया अन्न तैयार हो गया हो तो) श्रावण मासकी पूर्णिमाको अथवा श्रवणनक्षत्रसे युक्त दिनको अथवा हस्तनक्षत्रसे युक्त श्रावण शुक्ला पञ्चमीको अपनी शाखाके अनुकूल प्रचलित गृह्यसूत्रकी विधिके अनुसार वेदोंका नियमपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ करे। यदि श्रावणमासमें नयी फसल तैयार न हो तो जब वह तैयार हो जाय तभी भाद्रपदमासमें श्रवणनक्षत्रयुक्त दिनको वेदोंका उपाकर्म करे। (और उस समयसे लेकर लगातार साढ़े चार मासतक वेदोंका अध्ययन चाल रखे।) फिर पौषमासमें रोहिणीनक्षत्रके दिन अथवा अष्टका तिथिको नगर या गाँवके बाहर जलके समीप अपने गृह्योक्त विधानसे वेदाध्ययनका उत्सर्ग (त्याग) करे। (यदि भाद्रपदमासमें वेदाध्ययन प्रारम्भ किया गया हो तो माघ शुक्ला प्रतिपदाको उत्सर्जन करना चाहिये- ऐसा मनुका (४।९७) कथन है।) ॥ ६-१०३ ॥
शिष्य, ऋत्विज्, गुरु और बन्धुजन- इनकी मृत्यु होनेपर तीन दिनतक अध्ययन बंद रखना चाहिये। उपाकर्म (वेदाध्ययनका प्रारम्भ) और उत्सर्जन (अध्ययनकी समाप्ति) जिस दिन हो, उससे तीन दिनतक अध्ययन बंद रखना चाहिये। अपनी शाखाका अध्ययन करनेवाले विद्वान्‌की मृत्यु होनेपर भी तीन दिनोंतक अनध्याय रखना उचित है। संध्याकालमें, मेघकी गर्जना होनेपर, आकाशमें उत्पात सूचक शब्द होनेपर, भूकम्प और उल्कापात होनेपर, मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेदकी समाप्ति होनेपर तथा आरण्यकका अध्ययन करनेपर एक दिन और एक रात अध्ययन बंद रखना चाहिये। पूर्णिमा, चतुर्दशी, अष्टमी तथा चन्द्रग्रहण- सूर्यग्रहणके दिन भी एक दिन-रातका अनध्याय रखना उचित है। दो ऋतुओंकी संधिमें आयी हुई प्रतिपदा तिथिको तथा श्राद्ध-भोजन एवं श्राद्धका प्रतिग्रह स्वीकार करनेपर भी एक दिन-रात अध्ययन बंद रखे। यदि स्वाध्याय करनेवालोंके बीचमें कोई पशु, मेढक, नेवला, कुत्ता, सर्प बिलाव और चूहा आ जाय तो एक दिन-रातका अनध्याय होता है ॥ ११-१४॥ 
जब इन्द्रध्वजकी पताका उतारी जाय, उस दिन तथा जब इन्द्रध्वज फहराया जाय, उस दिन भी पूरे दिन-रातका अनध्याय होना चाहिये। कुत्ता, सियार, गदहा, उल्लू, सामगान, बाँस तथा आर्त प्राणीका शब्द सुनायी देनेपर, अपवित्र वस्तु, मुर्दा, शूद्र, अन्त्यज, श्मशान और पतित मनुष्य- इनका सांनिध्य होनेपर, अशुभ ताराओंमें, बारंबार बिजली चमकने तथा बारंबार मेघ गर्जना होनेपर तात्कालिक अनध्याय होता है। भोजन करके तथा गीले हाथ अध्ययन न करे। जलके भीतर, आधी रातके समय, अधिक आँधी चलनेपर भी अध्ययन बंद कर देना चाहिये। धूलकी वर्षा होनेपर, दिशाओंमें दाह होनेपर, दोनों संध्याओंके समय कुहासा पड़नेपर, चोर या राजा आदिका भय प्राप्त होनेपर तत्काल स्वाध्याय बंद कर देना चाहिये। दौड़ते समय अध्ययन न करे। किसी प्राणीपर प्राणबाधा उपस्थित होनेपर और अपने घर किसी श्रेष्ठ पुरुषके पधारनेपर भी अनध्याय रखना उचित है। गदहा, ऊँट, रथ आदि सवारी, हाथी, घोड़ा, नौका तथा वृक्ष आदिपर चढ़नेके समय और ऊसर या मरुभूमिमें स्थित होकर भी अध्ययन बंद रखना चाहिये। इन सैंतीस प्रकारके अनध्यायोंको तात्कालिक (केवल उसी समयके लिये आवश्यक) माना गया है॥ १५-१८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'धर्मशास्त्रका वर्णन' नामक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६२॥

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