प्रह्लाद कृत गणेश स्तोत्र | Prahlaad Krt Ganesh Stotr

प्रह्लाद कृत गणेश स्तोत्र |

हिंदुओं के सभी कार्यों का श्रीगणेश अर्थात शुभारंभ भगवान गणपति के स्मरण एवं पूजन से किया जाता है। भगवान श्री गणेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके पूजन एवं स्मरण का यह क्रम जीवन भर लगातार चलता रहता है। चाहे कोई व्रत, पर्व, उत्सव, संस्कार, देवपूजन, यज्ञ, तप या दान हो अथवा कोई पारिवारिक, आर्थिक, व्यावसायिक, सामाजिक या धार्मिक कार्य, उसका शुभारंभ श्री गणेश के स्मरण या पूजन के बिना नहीं हो सकता। श्री गणेश का स्वरूप अरुणवर्ण, एकदंत, गजमुख, लंबोदर, रक्त (लाल) वस्त्र, शूर्प कर्ण, चतुर्भुज, त्रिपुंड तिलक एवं मूषकवाहन- यह इनका आगमोक्त स्वरूप है। ऋद्धि एवं सिद्धि इनकी पत्नियां हैं। ब्रह्माजी के वरदान से ये देवताओं में प्रथम पूज्य हैं। भगवान शिव के गणों के स्वामी होने के कारण ये गणेश या गणपति कहलाते हैं। भगवान शिव के द्वारा गजराज का मुख लगा देने के कारण ये गजानन या गजवदन कहलाते हैं। अपने अग्रज श्री कार्तिकेय के साथ संग्राम में एक दांत टूट जाने के कारण वे एकदंत हैं। सूप जैसे लंबे कानों के कारण वे शूर्पकर्ण और बड़ा या लंबा पेट होने के कारण लंबोदर कहलाते हैं।

Prahlaad Krt Ganesh Stotr

गणपति की कृपा से साधक के सभी दु:ख दूर होते हैं और उसे बल, बुद्धि और विद्या का आशीर्वाद प्राप्त होता है. मान्यता है कि किसी भी कार्य से पहले सर्वशक्तिमान भगवान श्री गणेश जी की पूजा करने पर उस कार्य में कोई बाधा नहीं आती है और गणपति की कृपा से वह कार्य समय पर संपूर्ण होता है.

प्रह्लाद कृत गणेश स्तोत्र | Prahlaad Krt Ganesh Stotr

अधुना शृणु देवस्य साधनं योगदं परम् । 
साधयित्वा स्वयं योगी भविष्यसि न संशयः ॥१॥

स्वानन्दः स्वविहारेण संयुक्तश्च विशेषतः । 
सर्वसंयोगकारित्वाद् गणेशो मायया युतः ॥२॥

विहारेण विहीनश्चाऽयोगो निर्मायिकः स्मृतः ।
संयोगाभेद-हीनत्वाद् भवहा गणनायकः ॥३॥

संयोगा-ऽयोगयोर्योगः पूर्णयोगस्त्वयोगिनः ।
प्रह्लादगणनाथस्तु पूर्णो ब्रह्ममयः परः ॥४॥

योगेन तं गणाधीशं प्राप्नुवन्तश्च दैत्यपः । 
बुद्धिः सा पञ्चधा जाता चित्तरूपा स्वभावतः ॥५॥

तस्य माया द्विधा प्रोक्ता प्राप्नुवन्तीह योगिनः । 
तं विद्धि पूर्णभावेन संयगाऽयोगवर्जितः ॥६॥

क्षिप्तं मूढं च विक्षिप्तमेकाग्रं च निरोधकम् । 
पञ्चधा चित्तवृत्तिश्च सा माया गणपस्य वै ॥७॥

क्षिप्तं मूढं च चित्तं च यत्कर्मणि च विकर्मणि । 
संस्थितं तेन विश्वं वै चलति स्व-स्वभावतः ।।८।।

अकर्मणि च विक्षिप्तं चित्तं जानीहि मानद ! । 
तेन मोक्षमवाप्नोति शुक्लगत्या न संशयः ॥९॥ 

एकाग्रमष्टधा चित्तं तदेवैकात्मधारकम् । 
संप्रज्ञात-समाधिस्थं जानीहि साधुसत्तम ! ॥१०॥

निरोधसंज्ञितं चित्तं निवृत्तिरूपधारकम् । 
असंप्रज्ञातयोगस्थ जानीहि योगसेवया ॥११॥

सिद्धिर्नानाविधा प्रोक्ता भ्रान्तिदा तत्र सम्मता । 
माया सा गणनाथस्य त्यक्तव्या योगसेवया ॥१२॥

पञ्चधा चित्तवृत्तिश्च बुद्धिरूपा प्रकीर्तिता । 
सिद्ध्यर्थं सर्वलोकश्च भ्रमयुक्ता भवन्त्यतः ॥१३॥

धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षाणां सिद्धिभिन्ना प्रकीर्तिता ।
ब्रह्मभूतकरी सिद्धिस्त्यक्तव्या पञ्चधा सदा ॥१४॥

मोहदा सिद्धिरत्यन्तमोहधारकतां गता ।
बुद्धिश्चैव स सर्वत्र ताभ्यां खेलति विघ्नपः ॥१५॥

बुद्धया यद् बुद्धयते तत्र पश्चान् मोहः प्रवर्तते । 
अतो गणेशभक्त्या स मायया वर्जितो भवेत् ॥१६॥

पञ्चधा चित्तवृत्तिञ्च पञ्चधा सिद्धिमादरात् । 
त्यक्त्वा गणेशयोगेन गणेशं भज भावतः ॥१७॥

ततः स गणराजस्य मन्त्रं तस्मै ददौ स्वयम् ।
गणानां त्वेति वेदोक्तं स विधिं मुनिसत्तम ॥१८॥

तेन सम्पूजितो योगी प्रह्लादेन महात्मना ।
ययौ गृत्समदो दक्षः स्वर्गलोकं विहायसा ॥१९॥

प्रह्लादश्च तथा साधुः साधयित्वा विशेषतः ।
योगं योगीन्द्रमुख्यं स शान्तिसद्धारकोऽभवत् ॥२०॥

विरोचनाय राज्यं स ददौ पुत्राय दैत्यपः । 
गणेशभजने योगी स सक्तः सर्वदाऽभवत् ॥२१॥

सगुणं विष्णुरूपं च निर्गुणं ब्रह्म वाचकम् । 
गणेशेन धृतं सर्वं कलांशेन न संशयः ॥२२॥

एवं ज्ञात्वा महायोगी प्रह्लादोऽभेदमाश्रितः । 
हृदि चिन्तामणि ज्ञात्वाऽभजदन्यभावनः ॥२३॥ 

स्वल्पकालेह दैत्येन्द्रः शान्ति प्राप्तो शान्तियोगपरायणः । 
गणेशेनैकभावोऽभवत्परः ॥२४॥

शापश्चैव गणेशेन प्रह्लादस्य निराकृतः ।
न पुनर्दुष्टसङ्गेन भ्रान्तोऽभून्मयि मानद ! ॥२५॥

एवं मदं परित्यज्य ह्येकदन्तसमाश्रयात् ।
असुरोऽपि महायोगी प्रह्लादः स बभूव ह ॥२६॥

एतत् प्रह्लादमाहात्म्यं यः शृणोति नरोत्तमः । 
पठेद् वा तस्य सततं भवेदीप्सितदायकम् ॥२७॥

इति मुद्गलपुरोणोक्त प्रह्लादकृतं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥११॥

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