भगवान् विष्णु की महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्र के स्वरूप,Bhagavaan Vishnu Kee Mahima Tatha Ashtaakshar Mantr Ke Svaroop
भगवान् विष्णु की महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्र के स्वरूप
भगवन् ! हरि भक्ति मयी सुधासे पूर्ण आपके वचनों को सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़ती जाती है। अतः इस विषय में जितनी बातें हों, सब बताइये। मुनिश्रेष्ठ ! इस भयानक संसाररूपी वन में आध्यात्मिक आदि तीनों तापों के दावानल की महाज्वाला से सन्तप्त हुए मनुष्यों के लिये श्री हरि भक्ति मयी सुधाके समुद्र को छोड़कर दूसरा कौन-सा आश्रय हो सकता है? महामुने ! मुनिजन जिनकी सदा उपासना करते हैं, परमात्मा की भक्ति के उन विभिन्न रूपोंको इस समय विस्तारके साथ बतलाइये । वसिष्ठ जी ने कहा- राजेन्द्र ! तुम्हारा प्रश्न बहुत उत्तम है। यह मनुष्योंको संसार-सागरके पार उतारनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भक्ति नित्य सुख देनेवाली है। प्राचीन कालमें कैलास पर्वतके शिखर पर भगवती पार्वतीजीने लोकपूजित भगवान् शङ्करसे इसी महान् प्रश्नको पूछा था। पार्वती जी बोलीं- देवदेव ! त्रिपुरासुर को मारने वाले महादेव ! सुरेश्वर ! मुझे विष्णुभक्तिका उपदेश कीजिये, जो सब प्राणियोंको मुक्ति देनेवाली है।
श्री महादेव जी ने कहा - सब लोकोंका हित चाहने वाली महादेवी! तुम्हें साधुवाद। तुम जो भगवान् लक्ष्मी पति के उत्तम माहात्म्य के विषय में प्रश्न करती हो, यह बहुत ही उत्तम है। पार्वती! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा हो और भगवान् विष्णु की भक्त हो। तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारे शील, रूप और गुणोंसे सदा ही सन्तुष्ट रहता हूँ। गिरिजे ! मैं उत्तम भगवद्भक्ति, भगवान् विष्णुके स्वरूप तथा उनके मन्त्रोंके विधानका वर्णन करता हूँ; सुनो। भगवान् नारायण ही परमार्थतत्त्व हैं। वे ही विष्णु, वासुदेव, सनातन, परमात्मा, परब्रह्म, परम ज्योति, परात्पर, अच्युत, पुरुष, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर, नित्य, सर्वगत, स्थाणु, रुद्र, साक्षी, प्रजापति, यज्ञ, साक्षात्, यज्ञपति, ब्रह्मणस्पति, हिरण्यगर्भ, सविता, लोककर्ता, लोकपालक और विभु आदि नामों से पुकारे जाते हैं। वे भगवान् विष्णु 'अ' अक्षरके वाच्य, लक्ष्मी से सम्पन्न, लीलाके स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है, उस जीव-समुदायके तथा अमृतत्व (मोक्ष) के भी स्वामी हैं। वे विश्वात्मा सहस्रों मस्तकवाले, सहस्त्रों नेत्रवाले और सहस्त्रों पैरवाले हैं। उनका कभी अन्त नहीं होता। इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। लक्ष्मीके पति होनेसे श्रीपति नाम धारण करते हैं। योगिजन उनमें रमण करते हैं, इसलिये उनका नाम राम है। वे समस्त गुणोंको धारण करते हैं, तथापि निर्गुण हैं। महान् है। वे समस्त लोकोंके ईश्वर, श्रीमान्, सर्वज्ञ तथा सब ओर मुखवाले हैं। पार्वती! उन लोकप्रधान जगदीश्वर भगवान् वासुदेवके माहात्म्यका जितना मुझसे हो सकेगा, वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तो मैं, ब्रह्माजी तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसका पूरा वर्णन नहीं कर सकते। सम्पूर्ण उपनिषदोंमें भगवान्की महिमाका ही प्रतिपादन है तथा वेदान्तमें उन्हींको परमार्थ-तत्त्व निश्चित किया गया है।
अब मैं भगवान् की उपासना के पृथक् पृथक् भेद बतलाता हूँ, सुनो। भगवान्का अर्चन, उनके मन्त्रोंका जप, स्वरूप का ध्यान, नामों का स्मरण, कीर्तन, श्रवण, वन्दन, चरण-सेवन, चरणोदक-सेवन, उनका प्रसाद ग्रहण करना, भगवद्भक्तों की सेवा, द्वादशी व्रत का पालन तथा तुलसीका वृक्ष लगाना - यह सब देवाधि देव भगवान् विष्णु की भक्ति है, जो भव-बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली है। सम्पूर्ण देवताओं के तथा मेरे लिये भी पुरुषोत्तम श्री हरि ही पूजनीय हैं। ब्राह्मणों के लिये तो वे विशेषरूपसे पूज्य हैं। अतः ब्राह्मणों को उचित है कि वे प्रतिदिन विधि पूर्वक श्री हरि का पूजन करें। श्रेष्ठ द्विजको अष्टाक्षर मन्त्रका अभ्यास करना चाहिये। प्रणवको मिलाकर ही वह मन्त्र अष्टाक्षर कहा गया है। मन्त्र है- 'ॐ नमो नारायणाय'। इस प्रकार इस मन्त्रको अष्टाक्षर जानना चाहिये। यह सब मनोरथोंकी सिद्धि और सब दुःखोंका नाश करनेवाला है। इसे सर्वमन्त्रस्वरूप और शुभकारक माना गया है। इस मन्त्रके 'ऋषि' और 'देवता' लक्ष्मीपति भगवान् नारायण ही हैं। 'छन्द' दैवी' गायत्री है। प्रणवको इसका 'बीज' कहा गया है। भगवान्से कभी विलग न होने- वाली भगवती लक्ष्मीको ही विद्वान् पुरुष इस मन्त्रकी 'शक्ति' कहते हैं। इस मन्त्रका पहला पद 'ॐ', दूसरा पद 'नमः' और तीसरा पद 'नारायणाय' है। इस प्रकार यह तीन पदोंका मन्त्र बतलाया गया है। प्रणवमें तीन अक्षर है- अकार, उकार तथा मकार। प्रणवको तीनों वेदोंका स्वरूप बतलाया गया है। यह ब्रह्मका निवास- स्थान है। अकारसे भगवान् विष्णुका और उकारसे भगवती लक्ष्मीका प्रतिपादन होता है। मकारसे उन दोनोंके दासभूत जीवात्माका कथन है, जो पचीसवाँ तत्त्व है। किसी-किसीके मतमें उकार अवधारणवाची है।
इस पक्ष में भी श्री तत्त्व का प्रतिपादन उकार के ही द्वारा किया जाता है। जैसे सूर्य की प्रभा सूर्य से कभी अलग नहीं होती, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी श्री विष्णु से नित्य संयुक्त रहती हैं। अकारसे जिनका बोध कराया जाता है, वे लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु कारण के भी कारण हैं। सम्पूर्ण जीवात्माओं के प्रधान अङ्गी हैं। जगत्के बीज हैं और परमपुरुष हैं। वे ही जगत्के कर्ता, पालक, ईश्वर और लोकके बन्धु-बान्धव हैं। तथा उनकी मनोरमा पत्नी लक्ष्मी सम्पूर्ण जगत्की माता, अधीश्वरी और आधार- शक्ति हैं। वे नित्य हैं और श्रीविष्णुसे कभी विलग नहीं होतीं। उकारसे उन्हींक तत्त्वका बोध कराया जाता है। मकारसे इन दोनोंके दास जीवात्माका कथन है, जिसे विद्वान् पुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यह ज्ञानका आश्रय और ज्ञानरूपी गुणसे युक्त है। इसे चित्त और प्रकृतिसे परे माना गया है। यह अजन्मा, निर्विकार, एकरूप, स्वरूपका भागी, अणु, नित्य, अव्यापक, चिदानन्द-स्वरूप 'अहं' पदका अर्थ, अविनाशी, क्षेत्र (शरीर) का अधिष्ठाता, भिन्न-भिन्न रूप धारण करनेवाला, सनातन, जलाने, काटने, गलाने और सुखानेमें न आनेवाला तथा अविनाशी है। ऐसे गुणोंसे युक्त जो जीवात्मा है, वह सदा परमात्माका अङ्गभूत है। वह केवल श्रीहरिका ही दास है और किसीका नहीं। इस प्रकार मध्यम अक्षर उकारके द्वारा जीवके दासभावका ही अवधारण (निश्चय) किया जाता है। इस तरह प्रणवका अर्थ जानना चाहिये। प्रणवका अर्थ स्पष्ट हो जानेपर शेष मन्त्रके द्वारा परमात्माके दासभूत जीवकी परतन्त्रता ही सिद्ध होती है। वह कभी स्वतन्त्र नहीं होता। अतः अपनी स्वतन्त्रताके महान् अहङ्कारको मनसे दूर कर देना चाहिये। अहङ्कार-बुद्धिसे जो कर्म किया जाता है, उसका भी निषेध है।
मनस्' - मन शब्दमें जो मकार है, वह अहङ्कारका वाचक है और नकार उसका निषेध करने वाला है। अतः मनसे ही जीवके लिये अहङ्कार- त्यागकी प्रेरणा मिलती है। अहङ्कारसे युक्त मनुष्यको तनिक भी सुख नहीं मिलता। जिसका चित्त अहङ्कारसे मोहित है, वह घोर अन्धकारसे पूर्ण नरकमें गिरता है। इसलिये मनके द्वारा क्षेत्रज्ञकी स्वतन्त्रताका निषेध किया गया है। वह भगवान्के अधीन है। भगवान्के अधीन ही उसका जीवन है। अतः चेतन जीवात्मा किसी साधनका स्वतन्त्र कर्ता नहीं है। ईश्वरके संकल्पसे ही सम्पूर्ण चराचर जगत् अपने-अपने व्यापारमें लगा है। अतः जीव अपने सामर्थ्यपर निर्भर रहना छोड़ दे। ईश्वरके सामर्थ्यसे उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है। अपना सारा भार भगवान् लक्ष्मीपतिको सौंपकर उनकी आराधनाके ही कर्म करे। 'श्रीहरि परमात्मा है। मैं सदा उनका दास बना रहूँ।' इस भावसे स्वेच्छापूर्वक अपने आत्माको ईश्वरकी सेवामें लगाना चाहिये। इस प्रकार मनके द्वारा अहंता, ममताका त्याग करना उचित है। देहमें जो अहंबुद्धि होती है, वही संसार-बन्धनका मूल कारण है। वही कर्मोंक बन्धनमें डालती है। अतः विद्वान् पुरुष अहङ्कारको त्याग दे।
पार्वती ! अब मैं 'नारायण' शब्दकी व्याख्या करता हूँ। शुभे! नर अर्थात् जीवोंके समुदायको नार कहते हैं। उन 'नार' शब्दवाच्य जीवोंके अयन - गति अर्थात् आश्रय परम पुरुष श्रीविष्णु है। अतः वे नारायण कहलाते हैं। अथवा नार यानी जीव उन भगवान्के. अयन - निवासस्थान हैं। इसलिये भी उन्हें नारायण कहा जाता है। जड-चेतनरूप जितना भी जगत् देखा या सुना जाता है, उसको पूर्णरूपसे व्याप्त करके भगवान् नित्य विराजमान हैं। इसलिये उनका नाम नारायण है। जो कल्पके अन्तमें सम्पूर्ण जगत्को अपना ग्रास बनाकर अपने ही भीतर धारण करते हैं और सृष्टिके आरम्भकालमें पुनः सबकी सृष्टि करते हैं, वे भगवान् नारायण कहे गये हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् नार कहलाता है। उसको जिनका संग नित्य प्राप्त है अथवा उसे जिनके द्वारा उत्तम गति प्राप्त होती है, उन्हें नारायण कहते हैं। जलसे फेनकी भाँति जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और पुनः जिनमें लीन हो जाते हैं, उन भगवान्को नारायण कहा गया है। जो अविनाशी पद, नित्यस्वरूप तथा नित्यप्राप्त भोगोंसे सम्पन्न है, साथ ही जो सम्पूर्ण जगत्का शासन करनेवाले हैं, उन भगवान्का नाम नारायण है। दिव्य, एक, सनातन और अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ही नारायण कहलाते हैं। द्रष्टा और दृश्य, श्रोता और श्रोतव्य, स्पर्श करनेवाला और स्पृश्य, ध्याता और ध्येय, वक्ता और वाच्य तथा ज्ञाता और ज्ञेय- जो कुछ भी जड-चेतनमय जगत् है, यह सब लक्ष्मीपति श्रीहरि है, जिन्हें नारायण कहा गया है। वे सहस्रों मस्तकवाले, अन्तर्यामी पुरुष, सहस्त्रों नेत्रोंसे युक्त तथा सहस्त्रों चरणोंवाले हैं। भूत और वर्तमान- सब कुछ नारायण श्रीहरि ही हैं। अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है,
उस प्राणिसमुदाय तथा अमृतत्व-मोक्ष के भी स्वामी वे ही हैं। वे ही विराट् पुरुष हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष ही श्री विष्णु, वासुदेव, अच्युत, हरि, हिरण्मय, भगवान्, अमृत, शाश्वत तथा शिव आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के पालक और सब लोकोंपर शासन करनेवाले ईश्वर हैं। वे हिरण्मय अण्डको उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ और सबको जन्म देनेके कारण सविता है। उनकी महिमाका अन्त नहीं है, इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। वे महान् ऐश्वर्य से सम्पन्न होनेके कारण महेश्वर हैं। उन्हींका नाम भगवान् (षड्विध ऐश्वर्यसे युक्त) और पुरुष है। 'वासुदेव' शब्द बिना किसी उपाधिके सर्वात्माका बोधक है। उन्हींको ईश्वर, भगवान् विष्णु, परमात्मा, संसारके सुहृद्, चराचर प्राणियोंके एकमात्र शासक और यतियोंकी परमगति कहते हैं। जिन्हें वेदके आदिमें स्वर कहा गया है, जो वेदान्तमें भी प्रतिष्ठित है तथा जो प्रकृतिलीन पुरुषसे भी परे हैं, वे ही महेश्वर कहलाते हैं। प्रणवका जो अकार है, वह श्रीविष्णु ही हैं और जो विष्णु हैं, वे ही नारायण हरि हैं। उन्हींको नित्यपुरुष, परमात्मा और महेश्वर कहते हैं। मुनियोंने उन्हें ही ईश्वर नाम दिया है। इसलिये भगवान् वासुदेवमें उपाधिशून्य 'ईश्वर' शब्दकी प्रतिष्ठा है। सनातन वेदवादियोंने उन्हें आत्मेश्वर कहा है। इसलिये वासुदेवमें महेश्वरत्वकी भी प्रतिष्ठा है। वे त्रिपाद् विभूति तथा लीलाके भी अधीश्वर हैं। जो श्री, भू तथा लीला देवीके स्वामी हैं, उन्हींको अच्युत कहा गया है। इसलिये वासुदेवमें सर्वेश्वर शब्दकी भी प्रतिष्ठा है। जो यज्ञके ईश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञके भोक्ता, यज्ञ करनेवाले, विभु, यज्ञरक्षक और यज्ञपुरुष हैं,
वे भगवान् ही परमेश्वर कहलाते हैं। वे ही यज्ञके अधीधर होकर समस्त हव्य-कव्यों का भोग लगाते हैं। वे ही इस लोकमें अविनाशी श्री हरि एवं ईश्वर कहलाते हैं। उनके निकट आनेसे समस्त राक्षस, असुर और भूत तत्काल भाग जाते हैं। जो विरारूप धारण करके अपनी विभूतिसे तीनों लोकोंको तृप्त करते हैं, वे पापको हरनेवाले श्रीजनार्दन ही परमेश्वर हैं। जब पुरुषरूपी हविके द्वारा देवताओंने यज्ञ किया, तब उस यज्ञसे नीचे-ऊपर दोनों ओर दाँत रखनेवाले जीव उत्पन्न हुए। सवको होमनेवाले उस यज्ञसे ही ऋग्वेद और सामवेदकी उत्पत्ति हुई। उसीसे घोड़े, गौ और पुरुष आदि उत्पन्न हुए। उस सर्वयज्ञमय पुरुष श्रीहरिके शरीरसे स्थावर-जङ्गमरूप समस्त जगत्की उत्पत्ति हुई। उनके मुख, बाहु, ऊरु और चरणोंसे क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण उत्पन्न हुए। भगवान्के पैरोंसे पृथ्वी और मस्तक से आकाश का प्रादुर्भाव हुआ। उनके मनसे चन्द्रमा, नेत्रोंसे सूर्य, मुखसे अग्नि, सिरसे द्युलोक, प्राणसे सदा चलनेवाले वायु, नाभिसे आकाश तथा सम्पूर्ण चराचर जगत्की उत्पत्ति हुई। सब कुछ श्रीविष्णुसे ही प्रकट हुआ है,
इसलिये वे सर्वव्यापी नारायण सर्वमय कहलाते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करके श्रीहरि पुनः उसका संहार करते हैं- ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपनेसे प्रकट हुए तन्तुओंको पुनः अपनेमें ही लीन कर लेती है। ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वरुण और यम- सभी देवताओंको अपने वशमें करके उनका संहार करते हैं; इसलिये भगवान्को हरि कहा जाता है। जब सारा जगत् प्रलयके समय एकार्णवमें निमग्न हो जाता है, उस समय वे सनातन पुरुष श्रीहरि संसारको अपने उदरमें स्थापित करके स्वयं मायामय वटवृक्षके पत्रपर शयन करते हैं। कल्पके आरम्भमें एकमात्र सर्वव्यापी एवं अविनाशी भगवान् नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे, न रुद्र। न देवता थे, न महर्षि। ये पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, लोक तथा महत्तत्त्वसे आवृत ब्रह्माण्ड भी नहीं थे। श्री हरिने समस्त जगत्का संहार करके सृष्टिकालमें पुनः उसकी सृष्टि की; इसलिये उन्हें नारायण कहा गया है। पार्वती ! 'नारायणाय' इस चतुर्थ्यन्त पदसे जीवके दासभावका प्रतिपादन होता है। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण जगत् भगवानका दास ही है। पहले इस अर्थको समझकर पीछे मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये। मन्त्रार्थ को न जाननेसे सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।
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