देवर्षि नारद की सनकादि से भेंट
देवर्षि नारदकी सनकादि से भेंट तथा नारदजी के द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्त का वर्णनपार्वतीजीने कहा- भगवन् ! समस्त पुराणोंमें श्रीमद्भागवत श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके प्रत्येक पदमें महर्षिद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका नाना प्रकारसे गान किया गया है; अतः इस समय उसीके माहात्म्यका इतिहाससहित वर्णन कीजिये । श्रीमहादेवजीने कहा- जिनका अभी यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा जो समस्त लौकिक- वैदिक कृत्योंका परित्याग करके घरसे निकले जा रहे थे, ऐसे शुकदेवजीको बाल्यावस्थामें ही संन्यासी होते देख उनके पिता श्रीकृष्णद्वैपायन विरहसे कातर हो उठे और 'बेटा ! बेटा !! तुम कहाँ चले जा रहे हो ?' इस प्रकार पुकारने लगे। उस समय शुकदेवजीके साथ एकाकार होनेके कारण वृक्षोंने ही उनकी ओरसे उत्तर दिया था। ऐसे सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मारूपसे विराजमान परम ज्ञानी श्रीशुकदेव मुनिको मैं प्रणाम करता हूँ।
एक समय भगवत्कथाका रसास्वादन करनेमें कुशल परम बुद्धिमान् शौनकजीने नैमिषारण्यमें विराजमान सूतजीको नमस्कार करके पूछा। शौनकजी बोले - सूतजी! आप इस समय कोई ऐसी सारगर्भित कथा कहिये, जो हमारे कानोंको अमृतके समान मधुर जान पड़े तथा जो अज्ञानान्धकारका विध्वंस और कोटि-कोटि जन्मोंके पापोंका नाश करनेवाली हो। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाला विज्ञान कैसे बढ़ता है तथा वैष्णवलोग किस प्रकार माया-मोहका निवारण करते हैं। इस घोर कलिकालमें प्रायः जीव असुर-स्वभावके हो गये हैं, इसीलिये वे नाना प्रकारके क्लेशोंसे घिरे रहते हैं; अतः उनकी शुद्धिका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? इस समय हमें ऐसा कोई साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी, पवित्रको भी पवित्र करनेवाला तथा सदाके लिये भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा देनेवाला हो।
चिन्तामणि केवल लौकिक सुख देती है, कल्पवृक्ष स्वर्गतककी सम्पत्ति दे सकता है; किन्तु यदि गुरुदेव प्रसन्न हो जायँ तो वे योगियोंको भी कठिनतासे मिलनेवाला नित्य वैकुण्ठधामतक दे सकते हैं।सूतजीने कहा- शौनकजी ! आपके हृदयमें भगवत्कथाके प्रति प्रेम है; अतः मैं भलीभाँति विचार करके सम्पूर्ण सिद्धान्तोंद्वारा अनुमोदित और संसार- जनित भयका नाश करनेवाले सारभूत साधनका वर्णन करता हूँ। वह भक्तिको बढ़ानेवाला तथा भगवान् श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान हेतु है। आप उसे सावधान होकर सुनें। कलियुगमें कालरूपी सर्पसे डॅसे जानेके भयको दूर करनेके लिये ही श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-शास्त्रका उपदेश किया है। मनकी शुद्धिके लिये इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। जब जन्म-जन्मान्तरोंका पुण्य उदय होता है तब कहीं श्रीमद्भागवत-शास्त्रकी प्राप्ति होती है।
जिस समय श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित्को कथा सुनानेके लिये सभामें विराजमान हुए, उस समय देवतालोग अमृतका कलश लेकर उनके पास आये। देवता अपना कार्य- साधन करनेमें बड़े चतुर होते हैं। वे सब-के-सब श्रीशुकदेवजीको नमस्कार करके कहने लगे- 'मुने ! आप यह अमृत लेकर बदलेमें हमें कथामृतका दान दीजिये। इस प्रकार परिवर्तन करके राजा परीक्षित् अमृतका पान करें [और अमर हो जायें] तथा हम सब लोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करेंगे। तब श्रीशुकदेवजीने सोचा- 'इस लोकमें कहाँ अमृत और कहाँ भागवतकथा, कहाँ काँच और कहाँ बहुमूल्य मणि!' यह विचारकर वे देवताओंकी बातपर हँसने लगे, तथा उन्हें अनधिकारी जानकर कथामृतका दान नहीं किया। अतः श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। केवल श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्का मोक्ष हुआ देख पूर्वकालमें को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला। उस समय अन्य सभी साधन हलके पड़ गये, अपने गौरवके कारण श्रीमद्भागवतका ही पलड़ा सबसे भारी रहा। यह देखकर समस्त ऋषियोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने इस पृथ्वीपर भगवत्स्वरूप भागवत-शास्त्रको ही पढ़ने- सुननेसे तत्काल भगवान्की प्राप्ति करानेवाला निश्चय किया। यदि एक वर्षमें श्रीमद्भागवतको सुनकर पूरा किया जाय, तो वह श्रवण महान् सौख्य प्रदान करनेवाला होता है। जिसके हृदयमें भगवद्भक्तिकी कामना हो, उसके लिये एक मासमें पूरे श्रीमद्भागवतका श्रवण उत्तम माना गया है। यदि सप्ताहपारायणकी विधिसे इसका श्रवण किया जाय तो यह सर्वथा मोक्ष देनेवाला होता है। पूर्वकालमें सनकादि महर्षियोंने कृपा करके इसे देवर्षि नारदको सुनाया था। यद्यपि देवर्षि नारद श्रीमद्भागवतको पहले ही ब्रह्माजीके मुखसे सुन चुके थे तथापि इसके सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी। शौनकजी ! अब मैं आपको वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना प्रिय शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था। एक समयकी बात है, सनक-सनन्दन आदि चारों निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षि सत्सङ्गके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम) में आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा। सनकादि कुमारोंने पूछा- ब्रह्मन् ! आपके मुखपर दीनता क्यों छा रही है। आप चिन्तासे आतुर कैसे हो रहे हैं। इतनी उतावलीके साथ आप जाते कहाँ है और आये कहाँसे है ? इस समय तो आप जिसका सारा धन लुट गया हो, उस पुरुषके समान सुध-बुध खोये हुए हैं।
आप-जैसे आसक्तिशून्य विरक्त पुरुषकी ऐसी अवस्था होनी तो उचित नहीं है। बताइये, इसका क्या कारण है ? नारदजीने कहा- महात्माओ ! मैं पृथ्वीको [नाना तीर्थोक कारण] सबसे उत्तम जानकर यहाँकी यात्रा करनेके लिये आया था। आनेपर पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग और सेतुबन्ध आदि तीर्थोंमें इधर-उधर विचरता रहा। किन्तु कहीं भी मुझे मनको सन्तोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सखा कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तपस्या, शौच, दया और दान आदि कुछ भी नहीं हैं। बेचारे जीव पेट पालनेमें लगे हैं। वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हो गये हैं। उन्हें तरह-तरहके उपद्रव घेरे रहते हैं। साधु-संत कहलानेवाले लोग पाखण्डमें फँस गये हैं। ऊपरसे विरक्त जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तवमें पूरे संग्रही है। घर-घरमें स्त्रियोंका राज्य है। साले ही सलाहकार बने हुए हैं। पैसोंके लोभसे कन्याएँ-तक बेची जाती हैं। पति-पत्नीमें सदा ही कलह मचा रहता है। आश्रमों, तीर्थों और नदियोंपर म्लेच्छोंने अधिकार जमा रखा है। उन दुष्टोंने बहुत-से देवमन्दिर भी नष्ट कर दिये हैं। अब यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध, न कोई ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही। इस समय सब साधन कलिरूपी दावानलसे भस्म हो गया है। पृथ्वीपर चारों ओर सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचते हैं। ब्राह्मणलोग पैसे लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिसे जीवन निर्वाह करती देखी जाती हैं।
इस प्रकार कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर आ पहुँचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी लीला हुई थी। मुनीश्वरो ! वहाँ आनेपर मैंने जो आश्चर्यकी बात देखी है, उसे आपलोग सुनें- 'वहाँ एक तरुणी स्त्री बैठी थी; जिसका चित्त बहुत ही खिन्न था। उसके पास ही दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा-शुश्रूषा करती, उन्हें जगानेकी चेष्टा करती और अपने प्रयत्नमें असफल होकर रोने लगती थी। बीच-बीचमें दसों दिशाओंकी ओर दृष्टि डालकर वह अपने लिये कोई रक्षक भी ढूँढ़ रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ पंखा झलती हुई उसे बार-बार सान्त्वना दे रही थीं। दूरसे ही यह सब देखकर मैं कौतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री उठकर खड़ी हो गयी और व्याकुल होकर बोली- 'महात्माजी ! क्षणभरके लिये ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कीजिये। आपका दर्शन संसारके समस्त पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है। आपके वचनोंसे मेरे दुःखकी बहुत कुछ शांन्ति हो जायगी। जब बहुत बड़ा भाग्य होता है, तभी आप-जैसे महात्माका दर्शन होता है।'
नारदजी कहते हैं- युवतीकी ऐसी बात सुनकर मेरा हृदय करुणासे भर आया और मैंने उत्कण्ठित होकर उस सुन्दरीसे पूछा- देवि! तुम कौन हो? ये दोनों पुरुष कौन हैं? तथा तुम्हारे पास ये कमलके समान नेत्रोंवाली देवियाँ कौन हैं? तुम विस्तारके साथ अपने दुःखका कारण बताओ। युवती बोली- मेरा नाम भक्ति है, ये दोनों पुरुष मेरे पुत्र है; इनका नाम ज्ञान और वैराग्य है। समयके फेरसे आज इनका शरीर जराजीर्ण हो गया है। इन देवियोंके रूपमें गङ्गा आदि नदियाँ हैं, जो मेरी सेवाके लिये आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख नहीं मिलता। तपोधन ! अब तनिक सावधान होकर मेरी बात सुनिये। मेरी कथा कुछ विस्तृत है। उसे सुनकर मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न होकर कर्णाटकमें बड़ी हुई। महाराष्ट्रमें भी कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ। गुजरातमें आनेपर तो मुझे बुढ़ापेने घेर लिया। वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अङ्ग-भङ्ग कर डाला।
तबसे बहुत दिनोंतक मैं दुर्बल-ही-दुर्बल रही। वृन्दावन मुझे बहुत प्रिय है, इसलिये अपने दोनों पुत्रोंके साथ यहाँ चली आयी। इस स्थानपर आते ही मैं परम सुन्दरी नवयुवती हो गयी। इस समय मेरा रूप अत्यन्त मनोरम हो गया है, परन्तु मेरे ये दोनों पुत्र थके-माँदै होनेके कारण यहीं सोकर कष्ट भोग रहे हैं। मैं यह स्थान छोड़कर विदेश जाना चाहती थी; परन्तु ये दोनों बूढ़े हो गये हैं, इसी दुःखसे मैं दुःखित हो रही हूँ। पता नहीं मैं यहाँ युवती कैसे हो गयी और मेरे ये दोनों पुत्र बूढ़े क्यों हो गये। हम तीनों साथ-ही-साथ यात्रा करते थे, फिर हममें यह विपरीत अवस्था कैसे आ गयी। उचित तो यह है कि माता बूढ़ी हो और बेटे जवान; परन्तु यहाँ उलटी बात हो गयी। इसीलिये मैं चकितचित्त होकर अपने लिये शोक करती हूँ। महात्मन् ! आप परम बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। बताइये, इसमें क्या कारण हो सकता है? नारदजी कहते हैं- उसके इस प्रकार पूछनेपर मैंने कहा- साध्वी ! मैं अभी ज्ञानदृष्टिसे अपने हृदयके भीतर तुम्हारे दुःखका सारा कारण देखता हूँ। तुम खेद न करो। भगवान् तुम्हें शान्ति देंगे।
तब मुनीश्वर नारदजीने ध्यान लगाया और एक ही क्षणमें उसका कारण जानकर कहा- 'बाले ! तुम ध्यान देकर सुनो। यह कलिकाल बड़ा भयङ्कर युग है। इसीने सदाचारका लोप कर दिया। योगमार्ग और तप आदि भी लुप्त हो गये हैं। इस समय मनुष्य शठता और दुष्कर्ममें प्रवृत्त होकर असुर-स्वभावके हो गये हैं। आज जगत्में सज्जन पुरुष दुःखी हैं और दुष्टलोग मौज करते हैं। ऐसे समयमें जो धैर्य धारण किये रहे, वही बुद्धिमान्, धीर अथवा पण्डित है। अब यह पृथ्वी न तो स्पर्श करने योग्य रह गयी है और न देखने योग्य। यह क्रमशः प्रतिवर्ष शेषनागके लिये भारभूत होती जा रही है। इसमें कहीं भी मङ्गल नहीं दिखायी देता। तुम्हें और तुम्हारे पुत्रोंको तो अब कोई देखता भी नहीं है। इस प्रकार विषयान्ध मनुष्योंके उपेक्षा करनेसे ही तुम जर्जर हो गयी थी, किन्तु वृन्दावनका संयोग पाकर पुनः नवीन तरुणी-सी हो गयी हो; अतः यह वृन्दावन धन्य है, जहाँ सब ओर भक्ति नृत्य कर रही है। परन्तु इन ज्ञान और वैराग्यका यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है; इसलिये अभीतक इनका बुढ़ापा दूर नहीं हुआ। इन्हें अपने भीतर कुछ सुख-सा प्रतीत हो रहा है, इससे इनकी गाढ़ सुषुप्तावस्थाका अनुमान होता है।
भक्तिने कहा- महर्षे! महाराज परीक्षित्ने इस अपवित्र कलियुगको पृथ्वीपर रहने ही क्यों दिया? तथा कलियुगके आते ही सब वस्तुओंका सार कहाँ चला गया ? भगवान् तो बड़े दयालु हैं, उनसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। आपकी बातोंसे मुझे बड़ा सुख मिला है। नारदजी बोले- बाले ! यदि तुमने पूछा है तो प्रेमपूर्वक सुनो। कल्याणी। मैं तुम्हें सब बातें बताऊँगा और इससे तुम्हारा सब शोक दूर हो जायगा। जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ कलियुगका आगमन हुआ है, जो समस्त साधनोंमें बाधा उपस्थित करनेवाला है। दिग्विजयके समय जब राजा परीक्षित्की दृष्टि इस कलियुगके ऊपर पड़ी तो यह दीनभावसे उनकी शरणमें गया। राजा भौरेके समान सारग्राही थे, इसलिये उन्होंने सोचा कि मुझे इसका वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस कलियुगमें एक बड़ा अद्भुत गुण है। अन्य युगोंमें तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती, वही फल कलियुगमें भगवान् केशवके कीर्तनमात्रसे और अच्छे रूपमें उपलब्ध होता है। * असार होनेपर भी इस एक ही रूपमें यह सारभूत फल प्रदान करनेवाला है, यही देखकर राजा परीक्षित्ने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये इसे रहने दिया।
इस समय लोगोंकी खोटे कर्मोंमें प्रवृत्ति होनेसे सभी वस्तुओंका सार निकल गया है तथा इस पृथ्वीपर जितने भी पदार्थ हैं, वे बीजहीन भूसीके समान निस्सार हो गये हैं। ब्राह्मणलोग धनके लोभसे घर-घरमें जाकर प्रत्येक मनुष्यको [अधिकारी-अनधिकारीका विचार किये बिना ही] भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इससे कथाका सार चला गया- लोगोंकी दृष्टिमें उसका कुछ महत्त्व नहीं रह गया है। तीर्थोंमें बड़े भयङ्कर कर्म करनेवाले नास्तिक और दम्भी मनुष्य भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी सार चला गया। जिनका चित्त काम, क्रोध, भारी लोभ और तृष्णासे सदा व्याकुल रहता है, वे भी तपस्वी बनकर बैठते हैं। इसलिये तपस्याका सार भी निकल गया। मनको काबूमें न करने, लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेने तथा शास्त्रका अभ्यास न करनेके कारण ध्यानयोगका फल भी चला गया। औरोंकी तो बात ही क्या, पण्डितलोग भी अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं। वे सन्तान पैदा करनेमें ही दक्ष हैं। मुक्तिके साधनमें वे नितान्त असमर्थ पाये जाते हैं। परम्परासे प्राप्त हुआ वैष्णव-धर्म कहीं भी नहीं रह गया है। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युगका स्वभाव ही है, इसमें दोष किसीका नहीं है; यही कारण है कि कमलनयन भगवान् विष्णु निकट रहकर भी यह सब कुछ सहन करते हैं।
शौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने जो कुछ कहा, उसे आप सुनिये ।
भक्ति बोली- देवर्षे ! आप धन्य हैं। मेरे सौभाग्यसे ही आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। संसारमें साधु-महात्माओंका दर्शन सब प्रकारके कार्योंको सिद्ध करनेवाला और सर्वश्रेष्ठ साधन है। अब जिस प्रकार मुझे सुख मिले- मेरा दुःख दूर हो जाय, वह उपाय बताइये। ब्रह्मन् ! आप समस्त योगोंक स्वामी हैं, आपके लिये इस समय कुछ भी असाध्य नहीं है। एकमात्र आपके ही सुन्दर उपदेशको सुनकर कयाधू-नन्दन प्रह्लादने संसारकी मायाका त्याग किया था तथा राजकुमार ध्रुव भी आपकी ही कृपासे ध्रुवपदको प्राप्त हुए थे। आप सब प्रकारसे मङ्गलभाजन एवं श्रीब्रह्माजीके पुत्र है; मैं आपको प्रणाम करती हूँ।
टिप्पणियाँ