गंडकी नदी का महत्व,Gandaki River Nadee Ka Mahatv

गंडकी नदी का महत्व तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदैहिक नामक स्तोत्र का वर्णन

गंडकी नदी का महत्व,

श्रीमहादेवजी कहते हैं- देवि ! अब मैं गण्डकी नदी के माहात्म्यका विधिपूर्वक वर्णन करूँगा। पार्वती! गङ्गाका जैसा माहात्म्य है, वैसा ही गण्डकी नदीका भी बताया गया है। जहाँसे नाना प्रकारकी शालग्राम-शिला प्रकट होती है, उस गण्डकी नदीकी महिमाका बड़े-बड़े मुनियोंने वर्णन किया है। अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरायुज - सभी प्राणी उसके दर्शनमात्रसे पवित्र हो जाते हैं। महानदी गण्डकी उत्तरमें प्रकट हुई है। गिरिजे! वह स्मरण करनेपर निश्चय ही सब पापोंका नाश कर देती है। वहाँ कल्याण प्रदान करनेवाले भगवान् नारायण सदा विद्यमान रहते हैं, ऋषियोंका भी वहाँ निवास है तथा सम्पूर्ण देवता, रुद्र, नाग और यक्ष विशेषरूपसे वहाँ रहा करते हैं। उस स्थलपर भगवान्‌की अनेक रूपवाली और सुखदायिनी चौबीस अवतारोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। एक मत्स्यरूप है, दूसरी कच्छप रूप; इसी प्रकार वाराह, नृसिंह और वामनकी भी कल्याणदायिनी मूर्तियाँ हैं। श्रीराम, परशुराम तथा श्रीकृष्णकी भी मोक्षदायिनी मूर्ति देखी जाती है। श्रीविष्णुनामसे प्रसिद्ध उस स्थलपर उपर्युक्त मूर्तियोंके सिवा बुद्धकी मूर्ति भी बतायी गयी है। कल्कि और महर्षि कपिलकी भी पुण्यमयी मूर्ति उपलब्ध होती है, इनके सिवा और भी भाँति-भाँतिके आकार- वाली बहुत-सी मूर्तियाँ देखी जाती हैं। उन सबके अनेक रूप हैं और उनकी संख्या भी बहुत है। वह गण्डकी नामकी गङ्गा परम पुण्यमयी तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस भूमिपर आज भी मेरे साथ भगवान् हृषीकेश नियमपूर्वक निवास करते हैं, उसके जलका स्पर्श करनेमात्रसे मनुष्य भ्रूणहत्या, बालहत्या और गोहत्या आदि समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।


गण्डकी नदीके जल्का दर्शन करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके मनुष्य - सभी निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं; विशेषतः पापियोंके लिये तो यह त्रिवेणीके समान पुण्यमयी है। जहाँ ब्रह्महत्यारेकी भी मुक्ति हो जाती है, वहाँ औरोंके लिये क्या कहना है?
पार्वती! मैं सदा हर समय वहाँ जाता रहता हूँ; वह तीर्थोंमें तीर्थराज है- यह बात ब्रह्माजीने कही थी। मुनियोंने वहाँ स्नान और दानका विधान किया है। भगवान् विष्णुद्वारा पूर्वकालमें निर्मित हुआ वह क्षेत्र महांन्-से-महान् है। वह वैष्णव पुरुषोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाला और परम पावन माना गया है। देवि ! इस संसारमें मनुष्यका जन्म सदा दुर्लभ है; उसमें भी गण्डकी नदीका तीर्थ और वहाँ भी श्रीविष्णुक्षेत्र अत्यन्त दुर्लभ है। अतः श्रेष्ठ द्विजोंको आषाढ़ मासमें वहाँकी यात्रा करनी चाहिये। वरानने! मैं बारंबार कहता हूँ कि गण्डकीके समान कोई तीर्थ, द्वादशीके तुल्य कोई व्रत और श्रीविष्णुसे भित्र कोई देवता नहीं है। जो नरश्रेष्ठ गण्डकी नदीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुधामको जाते हैं।

महादेव उवाच -

शृणु सुन्दरि वक्ष्यामि स्तोत्रं चाभ्युदयं ततः । 
यच्छ्रुत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महा नात्र संशयः ॥ १ ॥ 
धाता वै नारदं प्राह तदहं तु ब्रवीमि ते। 
तमुवाच ततो देवः स्वयम्भूरमितद्युतिः ॥ २ ॥ 
प्रगृह्य रुचिरं बाहुं स्मारये चौध्वदेहिकम् ।

महादेवजी कहते हैं- सुन्दरी! सुनो, अब मैं अभ्युदयकारी स्तोत्रका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा भी निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। ब्रह्माजीने देवर्षि नारदसे इस स्तोत्रका वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ। [पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब रावणका वध कर चुके, उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति करनेके लिये आये। उसी अवसरपर] अमित- तेजस्वी भगवान् ब्रह्माने श्रीरघुनाथजीकी सुन्दर बाँह हाथमें लेकर जो उनकी स्तुति की थी, वह 'और्ध्वदैहिक स्तोत्र' के नामसे प्रसिद्ध है। आज मैं उसीको स्मरण करके तुमसे कहता हूँ।

भवान्नारायणः श्रीमान् देवश्चक्रायुधो हरिः ॥ ३ ॥
शाङ्गधारी हृषीकेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।
अजितः खङ्गभिजिष्णुः कृष्णश्चैव सनातनः ॥ ४ ॥
एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यभवात्मकः ।
अक्षरं ब्रह्म सत्यं तु आदौ चान्ते च राघव ॥ ५॥ 
लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः । 
सेनानी रक्षणस्त्वं च वैकुण्ठस्त्वं जगत्प्रभो ॥ ६ ॥

श्रीब्रह्माजी बोले- श्रीरघुनन्दन ! आप समस्त जीवोंके आश्रयभूत नारायण, लक्ष्मीसे युक्त, स्वयंप्रकाश एवं सुदर्शन नामक चक्र धारण करनेवाले श्रीहरि हैं। शार्ङ्ग नामक धनुषको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आप ही इन्द्रियोंके स्वामी एवं पुराणप्रतिपादित पुरुषोत्तम हैं। आप कभी किसीसे भी परास्त नहीं होते। शत्रुओंकी तलवारोंको टूक-टूक करनेवाले, विजयी और सदा एकरस रहने वाले - सनातन देवता सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण भी आप ही हैं। आप एक दाँतवाले भगवान् वराह हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों काल आपके ही रूप हैं। श्रीरघुनन्दन ! इस विश्वके आदि, मध्य और अन्तमें जो सत्यस्वरूप अविनाशी परब्रह्म स्थित है, वह आप ही हैं। आप ही लोकोंके परम धर्म हैं। आपको युद्धके लिये तैयार होते देख दैत्योंकी सेना चारों ओर भाग खड़ी होती है, इसीलिये आप विष्वक्सेन कहलाते हैं। आप ही चार भुजा धारण करनेवाले श्रीविष्णु हैं। 

प्रभवश्चाव्ययस्त्वं च उपेन्द्रो मधुसूदनः । 
पृश्निगर्भो धृतार्चिस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत् ॥ ७ ॥ 
शरण्यं शरणं च त्वामाहुः सेन्द्रा महर्षयः ।
ऋक्सामश्रेष्ठो वेदात्या शतजिह्वो महर्षभः ॥ ८ ॥
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्‌कारस्त्वमोंकारः परन्तपः । 
शतधन्वा वसुः पूर्व वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥ ९ ॥

आप सबकी उत्पत्तिके स्थान और अविकारी इन्द्रके छोटे भाई वामन एवं मधु दैत्यके प्राणहन्ता श्रीविष्णु भी आप ही हैं। आप अदिति या देवकीके गर्भमें अवतीर्ण होनेके कारण पृश्निगर्भ कहलाते हैं। आपने महान् तेज धारण कर रखा है। आपकी ही नाभिसे विराट् विश्वकी उत्पत्तिका कारणभूत कमल प्रकट हुआ था। आप शान्तस्वरूप होनेके कारण युद्धका अन्त करनेवाले हैं। इन्द्र आदि देवता तथा सम्पूर्ण महर्षिगण आपको ही सबका आश्रय एवं शरणदाता कहते हैं। ऋग्वेद और सामवेदमें आप ही सबसे श्रेष्ठ बताये गये हैं। आप सैकड़ों विधिवाक्यरूप जिह्वाओंसे युक्त वेद स्वरूप महान् वृषभ हैं। आप ही यज्ञ, आप ही वषट्‌कार और आप ही ॐकार है। आप शत्रुओंको ताप देने वाले तथा सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले हैं। आप ही वसु, वसुओंके भी पूर्ववर्ती एवं प्रजापति हैं।

त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः । 
रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः ॥ १० ॥ 
अश्विनौ चापि कणौं ते सूर्यचन्द्रौ च चक्षुषी । 
अन्ते चादौ च मध्ये च दृश्यसे त्वं परन्तप ॥ ११ ॥ 
प्रभवो निधनं चासि न विदुः को भवानिति ।
दृश्यसे सर्वलोकेषु गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥ १२ ॥ 
दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु गुहासु च। 
सहस्त्रनयनः श्रीमाज्यातशीर्षः सहस्त्रपात् ॥ १३ ॥

आप तीनों लोकोंके आदिकर्ता और स्वयं ही अपने प्रभु (परम स्वतन्त्र) हैं। आप रुद्रोंमें आठवें रुद्र और साध्योंमें पाँचवें साध्य हैं। दोनों अश्विनीकुमार आपके कान तथा सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। परंतप ! आप ही आदि, मध्य और अन्तमें दृष्टिगोचर होते हैं। सबकी उत्पत्ति और लयके स्थान भी आप ही है। आप कौन हैं- इस बातको ठीक-ठीक कोई भी नहीं जानते। सम्पूर्ण लोकोंमें, गौओंमें और ब्राह्मणोंमें आप ही दिखायी देते हैं तथा समस्त दिशाओंमें, आकाशमें, पर्वतोंमें और गुफाओंमें भी आपकी ही सत्ता है। आप शोभासे सम्पन्न हैं। आपके सहस्रों नेत्र, सैकड़ों मस्तक और सहस्त्रों चरण है।
त्वं धारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् । 
अन्तःपृथिव्यां सलिले दृश्यसे त्वं महोरगः ॥ १४ ॥ 
त्रींल्लोकान्धारयन् राम देवगन्धर्वदानवान् ।
अहं ते हृदयं राम जिह्वा देवी सरस्वती ॥ १५ ॥ 
देवा रोमाणि गात्रेषु निर्मितास्ते स्वमायया ।
निमेषस्ते स्मृता रात्रिरुन्मेषो दिवसस्तथा ॥ १६ ॥

आप सम्पूर्ण प्राणियोंको तथा पर्वतोंसहित पृथ्वीको भी धारण करते हैं। पृथ्वीके भीतर पाताललोकमें और क्षीरसागरके जलमें आप ही महान् सर्प- शेषनागके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं। राम! आप उस स्वरूपसे देवता, गन्धर्व और दानवोंके सहित तीनों लोकोंको धारण करते हैं। श्रीराम ! मैं (ब्रह्मा) आपका हृदय हूँ, सरस्वती देवी जिह्वा हैं तथा आपके द्वारा अपनी मायासे उत्पन्न किये हुए देवता आपके अगोंमें रोम हैं। आपका आँख मूँदना रात्रि और आँख खोलना दिन है।

संस्कारस्तेऽभवद्देहो नैतदस्ति विना त्वया । 
जगत्सर्व शरीरं ते स्थैर्य च वसुधातलम् ॥ १७ ॥ 
अग्निः कोपः प्रसादस्ते शेषः श्रीमांश्च लक्ष्मणः ।
त्वया लोकास्त्रयः क्रान्ताः पुरा स्वैर्विक्रमैस्त्रिभिः ॥ १८ ॥ 
त्वयेन्द्रश्च कृतो राजा बलिर्बद्धो महासुरः ।
लोकान् संहृत्य कालस्त्वं निवेश्यात्मनि केवलम् ॥ १९ ॥ 
करोष्येकार्णवं घोरं दृश्यादृश्ये च नान्यथा ।
त्वया सिंहवपुः कृत्वा परमं दिव्यमद्भुतम् ॥ २० ॥ 
भयदः सर्वभूतानां हिरण्यकशिपुर्हतः ।

शरीर और संस्कारकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। आपके बिना इस जगत्‌की स्थिति नहीं है। सम्पूर्ण विश्व आपका शरीर है, पृथ्वी आपकी स्थिरता है, अग्नि आपका कोप है और शेषावतार श्रीमान् लक्ष्मण आपके प्रसाद हैं। पूर्वकाल में वामनरूप धारण कर आपने अपने तीन पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे तथा महान् असुर बलिको बाँधकर इन्द्रको स्वर्गका राजा बनाया था। आप ही कालरूपसे समस्त लोकोंका संहार करके अपने भीतर लीनकर सब ओर केवल भयङ्कर एकार्णवका दृश्य उपस्थित करते हैं। उस समय दृश्य और अदृश्यमें कुछ भेद नहीं रह जाता। आपने नृसिंहावतार के समय परम अद्भुत एवं दिव्य सिंहका शरीर धारण करके समस्त प्राणियोंको भय देनेवाले हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध किया था।

त्वमश्ववदनो भूत्वा पातालतलमाश्रितः ॥ २१ ॥
संहतं परमं दिव्यं रहस्यं वै पुनः पुनः ।
यत्परं श्रूयते ज्योतिर्यत्परं श्रूयते परम् ॥ २२ ॥ 
यत्परं परतश्चैव परमात्मेति कथ्यते ।
परो मन्त्रः परं तेजस्त्वमेव हि निगद्यसे ॥ २३ ॥

आपने ही हयग्रीव अवतार धारण करके पातालके भीतर प्रवेशकर दैत्योंद्वारा अपहरण किये हुए वेदोंके परम रहस्य और यज्ञ यागादिके प्रकरणोंको पुनः प्राप्त किया। जो परम ज्योतिःस्वरूप तत्त्व सुना जाता है, जो परम उत्कृष्ट परब्रह्मके नामसे श्रवणगोचर होता है, जिसे परात्पर परमात्मा कहा जाता है तथा जो परम मन्त्र और परम तेज है, उसके रूपमें आपके ही स्वरूपका प्रतिपादन किया जाता है।

हव्यं कव्यं पवित्रं च प्राप्तिः स्वर्गापवर्गयोः ।
स्थित्युत्पत्तिविनाशांस्ते त्वामाहुः प्रकृतेः परम् ॥ २४ ॥ 
यज्ञश्च यजमानश्च होता चाध्वर्युरेव च । 
भोक्ता यज्ञफलानां च त्वं वै वेदैश्च गीयसे ॥ २५ ॥
सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः ।
वधार्थं रावणस्य त्वं प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ॥ २६ ॥ 

हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), पवित्र, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति, संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार - ये सब आपके ही कार्य हैं। ज्ञानी पुरुष आपको प्रकृतिसे पर बतलाते हैं। वेदोंके द्वारा आप ही यज्ञ, यजमान, होता, अध्वर्यु तथा यज्ञफलोंके भोक्ता कहे जाते हैं।सीता साक्षात् लक्ष्मी है और आप स्वयंप्रकाश विष्णु, कृष्ण एवं प्रजापति हैं। आपने रावणका वध करनेके लिये ही मानव शरीरमें प्रवेश किया है।

तदिदं च त्वया कार्य कृतं कर्मभृतां वर । 
निहतो रावणो राम प्रहष्टा देवताः कृताः ॥ २७ ॥
अमोघं देव वीर्य ते नमोऽमोघपराक्रम । 
अमोघं दर्शनं राम अमोघस्तव संस्तवः ॥ २८ ॥
अमोधास्ते भविष्यन्ति भक्तिमन्तो नरा भुवि । 
ये च त्वां देव संभक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् ॥ २९ ॥
इममार्ष स्तवं पुण्यमितिहासं पुरातनम् ।
ये नराः कीर्तयिष्यन्ति नास्ति तेषां पराभवः ॥ ३० ॥

कर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी! आपने हमारा यह कार्य पूरा कर दिया। रावण मारा गया, इससे सम्पूर्ण देवताओंको आपने 'बहुत प्रसन्न कर दिया है। देव ! आपका बल अमोघ है। अचूक पराक्रम कर दिखानेवाले श्रीराम ! आपको नमस्कार है। राम ! आपके दर्शन और स्तवन भी अमोघ है। देव ! जो मनुष्य इस पृथ्वीपर आप पुराण पुरुषोत्तमका भलीभांति भजन करते हुए निरन्तर आपके चरणोंमें भक्ति रखेंगे, वे जीवनमें कभी असफल न होंगे। जो लोग परम ऋषि ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए इस पुरातन इतिहासरूप पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा।

यह महात्मा श्रीरघुनाथजीका स्तोत्र है, जो सब स्तोत्रोंमें श्रेष्ठ है। जो प्रतिदिन तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ द्विजोंको चाहिये कि वे संध्याके समय विशेषतः श्राद्धके अवसरपर भक्तिभावसे मन लगाकर प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करें। यह परम गोपनीय स्तोत्र है। इसे कहीं और कभी भी अनधिकारी व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। इसके पाठसे मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। निश्चय ही उसे सनातन गति प्राप्त होती है। नरश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको श्राद्धमें पहले तथा पिण्ड-पूजाके बाद भी इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये; इससे श्राद्ध अक्षय हो जाता है। यह परम पवित्र स्तोत्र मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो एकाग्र चित्तसे इस स्तोत्रको लिखकर अपने घरमें रखता है, उसकी आयु, सम्पत्ति तथा वलकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। जो बुद्धिमान् पुरुष कभी इस स्तोत्रको लिखकर ब्राह्मणको देता है, उसके पूर्वज मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। चारों वेदोंका पाठ करनेसे जो फल होता है, वही फल मनुष्य इस स्तोत्रका पाठ और जप करके पा लेता है। अतः भक्तिमान् पुरुषको यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इसके पढ़नेसे मनुष्य सब कुछ पाता है और सुखपूर्वक रहकर उत्तरोत्तर उन्नतिको प्राप्त होता है।

टिप्पणियाँ