जानिए ब्रह्मचारी श्रीहनुमान जी के बारे में,Jaanie Brahmachaaree Shreehanumaan Jee Ke Baare Mein

जानिए ब्रह्मचारी श्रीहनुमान जी के बारे में

अञ्जनीगर्भसम्भूतो वायुपुत्रो महाबलः ।
कुमारो ब्रह्मचारी च हनुमन्ताय नमो नमः ।।

दच्छिन दिशि तट उदधि करें वानर उपवासा ।
संपाती सिय पतो दयो बाढ़ी हिय आसा ।।

हनुमत सागर लाँघि गये लंका सिय पाई।
सुरसा लंकिनि ताड़ि तोरि तरु लंक जराई ।।

अति अद्भुत कारज करो, प्रबल पराक्रम बिपुल बल ।
कौन करि सकै काज तजि, वीर ब्रह्मचारी बिमल ।।

संसारमें ब्रह्मचर्य ही एक ऐसी महान् शक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य महान्-से-महान् कार्य कर सकता है। सच्चे ब्रह्मचारीके लिये कोई भी बात असम्भव नहीं। मनुष्यकी शक्ति जब इन्द्रियोंके माध्यमसे सुखमें व्यय होने लगती है, तब वह संसारसे ऊपर नहीं उठ सकता। हनुमानजी ब्रह्मचारियोंक अग्रगण्य हैं। उन्होंने अपने ब्रह्मचर्य, शम, दम, त्याग, तितिक्षा, प्रज्ञा तथा विलक्षण बुद्धिकौशलसे श्रीरामचन्द्रजीको अपने वशमें कर लिया। उन्होंने सीतान्वेषणके समय अपनी बुद्धिमत्ताका जैसा परिचय दिया, उससे भगवान् श्रीराम अत्यन्त ही प्रभावित हुए और वे सदाके लिये हनुमानजीके ही हो गये। उन्होंने तो यहाँतक कह दिया- 'हनुमान! मैं तुम्हारे ऋणसे कभी उऋण ही नहीं हो सकता। मैं तो सदा तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा।' यों तो ऋक्षराज जाम्बवान्‌के स्मरण दिलानेपर हनुमानजीको अपनी शक्ति-सामर्थ्यका स्मरण हो आया। वे बोले- 'आपलोग मुझसे जो कराना चाहें, वह करा सकते हैं। यह शतयोजन लंबा समुद्र तो क्या, ऐसे सैकड़ों समुद्रोंको मैं लाँघ सकता हूँ। रावणकी तो बात ही क्या, मैं उसकी पूरी-की-पूरी लंका को उखाड़ कर समुद्रमें डुबा सकता हूँ, रावणको मच्छरकी भाँति पकड़कर मसल सकता हूँ। आप कहें तो मैं लंका को उखाड़ कर यहीं ले आऊँ? आप कहें तो मैं रावणको मारकर सीताजीको भी साथ लेता आऊँ। आप कहें तो मैं रावणके पुत्र-पौत्र समस्त परिवारको भी श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लाकर रख दूँ।'


जाम्बवान्जीने देखा अब तो हनुमानजी आवश्यकतासे अधिक उत्तेजित हो गये, तब उनको समझाते हुए वे बोले- 'हनुमान ! देखो हम तो भगवान्‌के दूत हैं। दूतोंको सदा मर्यादामें ही रहना चाहिये। दूतोंके लिये युद्ध निषेध है। दूत लड़ाई-झगड़ा नहीं कर सकता। दूतकी बातका राजालोग बुरा भी नहीं मानते। उसे दण्डका भी विधान नहीं; क्योंकि दूत जो भी कहता है, अपने स्वामीके अभिप्रायको ही प्रकट करता है; अतः तुम न तो रावणको मारना, न लंकाको उखाड़ना, न किसीको ताड़ना देना और न कोई अन्य ही उपद्रव करना। तुम केवल इतना ही करना कि सीताजीका पता लेकर ज्यों-के-त्यों ही लौट आना। सीताजीका पता मिलते ही स्वयं भगवान् राघवेन्द्र सेना सजाकर अपनी प्रिया का उद्धार करेंगे। यही उनकी कीर्ति प्रतिष्ठाके अनुरूप होगा। तुम तो अपनेको श्रीरामजीका दूत ही समझना। समझ गये न मेरी बात ?' हनुमानजीने कहा- 'बूढ़े बाबा! आपकी बात मैं समझ गया। मैं सीताजीकी सुधि लेकर शीघ्र ही लौट आऊँगा; किंतु मुझे कोई मारे-पीटे तो मैं उससे आत्मरक्षार्थ भी लड़ाई न करूँ क्या ?'

हँसकर जाम्बवान्ने कहा- 'अरे, भैया! अपनी रक्षा तो कर ही लेना। वैसे व्यर्थमें लड़ाई मत मोल लेना।' हनुमान जी ने कहा- 'अच्छा, बहुत अच्छा, तो अब आप मुझे आज्ञा दीजिये।' यह कहकर हनुमानजीने बड़ोंके पैर छुए, बराबरवालों से मिले, छोटोंने उन्हें प्रणाम किया और वे कूदकर एक बड़े भारी वृक्षपर चढ़ गये। अब उन्होंने अपने शरीरको बढ़ाना आरम्भ किया। देखते-ही-देखते वे पर्वताकार हो गये। इतना भारी वृक्ष भी उनके भारको सहन करनेमें समर्थ न हुआ, वह टूटकर समुद्रमें गिरने लगा। हनुमानजी उछलकर समुद्रमें कूद पड़े। उनके साथ वृक्षोंकी फूली फूली सैकड़ों डालियाँ समुद्रमें बहने लगीं। उन डालियोंको अपनी छातीसे तोड़ते-फोड़ते कपिराज आगे बढ़ने लगे। पता नहीं चलता था कि वे समुद्रमें तैर रहे हैं या आकाशमें उड़ रहे हैं। वायु-वेगके समान वे सर्र-सर्र उड़े जा रहे थे। सब लोग उनके ऐसे अद्भुत अलौकिक पुरुषार्थको देखकर आश्चर्यचकित हो एकटक उन्हें निहार रहे थे। समुद्रके जल-जन्तु भयभीत होकर समुद्रके तलमें छिप गये। पक्षियोंने आकाशमें उड़ना बंद कर दिया। हनुमानजी बिना विश्राम किये निरन्तर वायुवेगके सदृश समुद्रके जलपर उड़ते ही जा रहे थे।

हिमालयके पुत्र मैनाकने, जो समुद्रमें छिपा हुआ है, कहा भी, 'हनुमान! तनिक विश्राम कर लो, फिर आगे बढ़ो।' किंतु उसकी ओर बिना देखे ही हनुमानजीने शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते ही कहा- "मैनाक भाई ! धन्यवाद ! धन्यवाद !! इस कृपाके लिये साधुवाद! श्रीरामचन्द्रजीका कार्य जबतक मैं कर न लूँगा, तबतक मुझे विश्राम कहाँ, आराम कहाँ। मुझे आज्ञा दो, शीघ्र पहुँचना है उस पार ।' सर्पोंकी माता सुरसाको देवताओंने हनुमानजीकी बुद्धिकी परीक्षा लेने भेजा। उसने आकर कहा- 'ओ वानर ! खड़ा रह, मैं तुझे खाऊँगी। बड़ी भूखी हूँ। देवताओंने मेरे लिये तुम्हें ही आहारके निमित्त भेजा है।' हनुमानजीने कहा- 'माँ ! मैं शीघ्रतामें हूँ। लौट आऊँ, तब खा लेना।' उसने कहा- 'बातें मत बनाओ। तुम बहुत हृष्ट-पुष्ट ब्रह्मचारी बलवान् हो, मैं तुम्हें ही आहार करके संतुष्ट होऊँगी।' बातको अधिक न बढ़ाकर वानर बोले- 'अच्छा नहीं मानती है तो फाड़ मुख।' उसने मुख फाड़ा, ये उससे दुगुने बन गये। फिर उसने दुगुना मुख फाड़ा तो ये उससे भी दुगुने बन गये। ऐसे दुगुना-दुगुना बढ़ाते हुए जब उसने अपने मुखको सौ योजन चौड़ा बना लिया, तब ये छोटा-सा रूप बनाकर उसके मुखमें घुस गये। उसके एक प्रकारसे पुत्र बन गये और बाहर निकलकर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। बोले- 'माँ! अब तो मैं तुम्हारे उदरमें चला गया, अब आज्ञा दे दो।'
सुरसा इनके बुद्धि-कौशलको देखकर परम प्रमुदित हुई और इन्हें भाँति-भाँतिके आशीर्वाद देकर चली गयी। ये आगे बढ़ गये।

आगे चलकर एक विघ्न्न और आ गया। राहुकी माता सिंहिका, जो समुद्रमें ही रहती थी, आकाशमें उड़नेवालोंकी समुद्रमें पड़ती हुई छायाके द्वारा ही उन्हें खींचकर पकड़ लेती और खा जाती। उसने इनकी छायाको भी खींचा। ये उसको धूर्तता समझ गये और ऐसा कसकर एक मुका जमाया कि उसके लगते ही वह परलोक सिधार गयी। हनुमानजी समुद्र-पार पहुँच गये। अब उन्होंने सोचा, इस पर्वताकार शरीरसे लंकामे प्रवेश करना उचित नहीं। समस्त सिद्धियाँ तो सदा इनके सम्मुख समुपस्थित ही रहती थीं। इन्होंने अणिमासिद्धिके द्वारा अपना बहुत ही छोटा-सा रूप बना लिया। लंकाकी अधिष्ठात्री देवी, जो सदा ही लंकाकी रक्षा किया करती थी, किसी अपरिचित व्यक्तिको बिना अनुमतिके भीतर प्रविष्ट ही न होने देती थी। बहुत लघु रूप होनेपर भी उसने इन्हें देख लिया और गरजकर बोली- 'कौन है तू, जो चोरकी भाँति मेरा तिरस्कार करके लंकामें प्रवेश कर रहा है? सावधान, आगे न बढ़ना। नहीं तो तुझे खा जाऊँगी।' हनुमान जी ने बातको बढ़ाया नहीं। उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे उसे कसकर एक ऐसा मुक्का मारा कि वह अचेत होकर गिर पड़ी। तब उसने कहा- 'कपिराज! अवश्य ही तुम श्रीरामके दूत हो, अब लंकाका विनाश संनिकट आ गया। ब्रह्माजीने मुझे पूर्वमें ही बता दिया था कि जब तू बंदरके मुष्टिप्रहारसे अचेत हो जायगी, तब समझ जाना कि अब लंकाका विनाश होगा। अतः तुम प्रसन्नतासे भीतर चले जाओ।' इतना सुनते ही रात्रिके समय हनुमानजीने लंकामें प्रवेश किया।

श्री राम-काज करने वाले ब्रह्मचारी को सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीनों प्रकारकी मायाएँ आकर घेरती है और उसे भाँति-भाँतिके प्रलोभन देती हैं। जो इनके फंदेमें फँस जाता है, वह गिर जाता है तथा जो इनपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह आगे बढ़ जाता है। सात्त्विक मायाको तो हाथ जोड़ ले, उसका मातृभावसे केवल स्पर्श करके आगे बढ़ जाय। तामस माया आये तो उसे मारकर ही आगे बढ़े। राजस मायाको मारे नहीं, केवल मूर्च्छित करके आगे बढ़ जाय। यही हनुमानजीने किया।

अब उन्हें सीता जी के अन्वेषण की चिन्ता हुई। पहले उन्हें घुड़साल दिखायी दी। उस में घुस गये, वहाँ असंख्यों घोड़े बँधे थे। उसमें हनुमान जी चारों ओर घूम-घूमकर सीता जी को खोजने लगे। वहाँ न मिलनेपर हस्तिशाला, गोशाला आदिमें खोजने लगे, फिर सोचने लगे 'मैं भी कैसा पागल हूँ, जो स्त्रीको गोशाला, गजशाला, अश्वशाला तथा दूसरे पशु-स्थानों में खोज रहा हूँ। स्त्री तो स्त्रियों में ही हो सकती हैं। चलूँ, रावणकी महिषीशाला में खोजें।' यह सोचकर वे रावणके अन्तः पुरमें गये। वहाँ एक सुवर्णमण्डित पलंगपर रावण सो रहा था। उसके समीप गलीचोंपर सहस्रों स्त्रियाँ पड़ी सो रही थीं। किसीका मुख सोते सोते खुल गया था, किसीके मुखसे लार गिर रही थी, कोई जोर-जोरसे खुरटि ले रही थी, कोई बड़बड़ा रही थी, कोई पान खाते-खाते सो गयी थी,

पानकी पीक उसके वस्त्रोंपर टपक रही थी। हनुमानजीने कभी सीताजीको देखा तो था नहीं, अतः प्रत्येक सुन्दरी स्त्रीको देखते और सोचते हो-न-हो यही सीता हो, फिर उससे बढ़कर सुन्दरीको देखते तो उसे सीता समझने लगते। फिर सोचने लगे- "इनमेंसे कोई भी सीता नहीं। तब सीता गयी कहाँ। सम्पातिकी बात झूठ तो हो नहीं सकती। उसने कहा था- 'मैं सीताको लंकामें बैठी देख रहा हूँ।' अच्छा, लंका तो बहुत बड़ी है, फिर खोजूँ।" यह सोचकर वे फिर खोजने लगे। परंतु कहीं पता न चला तो वे पुनः रावणके अन्तः पुरमें आये। अबकी बार उन अस्तव्यस्त पड़ी स्त्रियोंको देखकर उनके मनमें बड़ी घृणा हुई। वे सोचने लगे- 'ब्रह्मचारीको तो स्त्रियोंके चित्रको भी नहीं देखना चाहिये। मैंने अर्धनग्न अवस्थामें अचेत पड़ी हुई इन स्त्रियोंको देखा है, इससे मुझे दोष लगा। बड़ा अपराध हुआ। इसका क्या प्रायश्चित्त करूँ।'

फिर सोचने लगे- 'मैंने स्त्रियोंको देखनेकी दृष्टिसे तो यहाँ प्रवेश किया नहीं। मैं तो माता सीता का अन्वेषण करने आया था। माता सीता स्त्रियोंमें ही मिलेंगी, इसी भावनासे मैंने रावणके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। अपना अन्तःकरण ही पुरुषका साक्षी होता है। इन स्त्रियोंको देखकर मेरे मनमें किसी प्रकारका विकार नहीं उत्पन्न हुआ। पाप और पुण्यमें भावना ही प्रधान होती है। जब मेरी भावना ही दूषित नहीं हुई, तब प्रायश्चित्त ही किस बातका ? किंतु मैं जिस कामके लिये यहाँ आया था, वह काम तो अभी हुआ ही नहीं। सीताजीका पता तो लगा नहीं। मुझे सब काम छोड़कर सीता जी को ही खोजना चाहिये।' यह सोचकर मारुतनन्दन बालब्रह्मचारी हनुमान फिर दूसरे स्थानों में सीता जी को खोजने लगे।

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