लक्ष्मी जी के प्रादुर्भाव की कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति,Lakshmee Jee Ke Praadurbhaav Kee Katha, Samudr-Manthan Aur Amrt-Praapti
लक्ष्मी जी के प्रादुर्भाव की कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
भीष्म जी ने कहा- मुने ! मैंने तो सुना था लक्ष्मी जी क्षीर-समुद्र से प्रकट हुई हैं; फिर आपने यह कैसे कहा कि वे भृगुकी पत्नी ख्याति के गर्भ से उत्पन्न हुई ?
पुलस्त्य जी बोले- राजन् ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, उसका उत्तर सुनो। लक्ष्मी जी के जन्म का सम्बन्ध समुद्र से है, यह बात मैंने भी ब्रह्माजी के मुखसे सुन रखी है। एक समयकी बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओंपर चढ़ाई की। उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये। तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्मा जी की शरण में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा- 'तुमलोग मेरे साथ भगवान् की शरण में चलो।' यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले क्षीर सागरके उत्तर-तटपर गये और भगवान् वासुदेव को सम्बोधित करके बोले- 'विष्णो ! शीघ्र उठिये और इन देवताओंका कल्याण कीजिये।
आपकी सहायता न मिलनेसे दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।' उनके ऐसा कहनेपर कमलके समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तमने देवताओंके शरीरकी अपूर्व अवस्था देखकर कहा- 'देवगण ! मैं तुम्हारे तेजकी वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीर सागर में डाल दो। फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकि नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्यमें मैं तुम लोगों की सहायता करूँगा। समुद्र का मन्थन करने पर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करनेसे तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।'
देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गये। देव, दानव और दैत्य सब मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आये और उन्हें क्षीर सागरमें डालकर मन्दराचल को मथानी एवं वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेगसे मन्थन करने लगे। भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे सब देवता एक साथ रहकर वासुकि की पूँछकी ओर हो गये और दैत्यों को उन्होंने वासुकि के सिरकी ओर खड़ा कर दिया। भीष्मजी ! वासुकिके मुखकी साँस तथा विषाग्निसे झुलस जानेके कारण सब दैत्य निस्तेज हो गये। क्षीर-समुद्रके बीचमें ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेवजी कच्छप रूपधारी श्री विष्णु भगवान् की पीठपर खड़े हो अपनी भुजाओंसे कमलकी भाँति मन्दराचलको पकड़े हुए थे तथा स्वयं भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके क्षीर सागरके भीतर देवताओं और दैत्यों के बीचमें स्थित थे। [वे मन्दराचलको अपनी पीठपर लिये डूबनेसे बचाते थे।] तदनन्तर जब देवता और दानवोंने क्षीर-समुद्रका मन्थन आरम्भ किया, तब पहले-पहल उससे देवपूजित सुरभि (कामधेनु) का आविर्भाव हुआ, जो हविष्य (घी-दूध) की उत्पत्तिका स्थान मानी गयी है। तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली- 'दानवो! मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया। इसके बाद पुनः मन्थन आरम्भ होनेपर पारिजात (कल्पवृक्ष) उत्पन्न हुआ, जो अपनी शोभासे देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला था। तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएँ प्रकट हुईं, जो देवता और दानवोंकी सामान्यरूपसे भोग्या है। जो लोग पुण्यकर्म करके देवलोकमें जाते हैं, उनका भी उनके ऊपर समान अधिकार होता है। अप्सराओंके बाद शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाका प्रादुर्भाव हुआ, जो देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाले थे। उन्हें भगवान् शङ्करने अपने लिये माँगते हुए कहा- 'देवताओ! ये चन्द्रमा मेरी जटाओंके आभूषण होंगे, अतः मैंने इन्हें ले लिया।'
ब्रह्माजीने 'बहुत अच्छा' कहकर शङ्करजीकी बातका अनुमोदन किया। तत्पश्चात् कालकूट नामक भयङ्कर विष प्रकट हुआ, उससे देवता और दानव सबको बड़ी पीड़ा हुई। तब महादेवजीने स्वेच्छासे उस विषको लेकर पी लिया। उसके पीनेसे उनके कण्ठमें काला दाग पड़ गया, तभीसे वे महेश्वर नीलकण्ठ कहलाने लगे। क्षीर- सागरसे निकले हुए उस विषका जो अंश पीनेसे बच गया था, उसे नागों (सर्पों) ने ग्रहण कर लिया। तदनन्तर अपने हाथमें अमृतसे भरा हुआ कमण्डलु लिये धन्वन्तरिजी प्रकट हुए। वे श्वेतवस्त्र धारण किये हुए थे। वैद्यराजके दर्शनसे सबका मन स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया। इसके बाद उस समुद्रसे उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नामका हाथी- ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए। इसके पश्चात् क्षीरसागरसे लक्ष्मीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुए कमलपर विराजमान थीं और हाथमें कमल लिये थीं। उनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही थी। उस समय महर्षियोंने श्रीसूक्तका पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका स्तवन किया। साक्षात् क्षीर-समुद्रने [दिव्य पुरुषके रूपमें] प्रकट होकर लक्ष्मीजीको एक सुन्दर माला भेंट की, जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं थे। विश्वकमनि उनके समस्त अङ्गोंमें आभूषण पहना दिये। स्नानके पश्चात् दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब वे सब प्रकार के आभूषणोंसे विभूषित हुईं,
तब इन्द्र आदि देवता तथा विद्याधर आदिने भी उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की। तब ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुसे कहा- 'वासुदेव ! मेरे द्वारा दी हुई इस लक्ष्मीदेवीको आप ही ग्रहण करें। मैंने देवताओं और दानवोंको मना कर दिया है-वे इन्हें पानेकी इच्छा नहीं करेंगे। आपने जो स्थिरतापूर्वक इस समुद्र-मन्थनके कार्यको सम्पन्न किया है, इससे आपपर मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ।' यों कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मीजीसे बोले- 'देवि ! तुम भगवान् केशवके पास जाओ। मेरे दिये हुए पतिको पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका उपभोग करो। ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीजी समस्त देवताओंके देखते-देखते श्रीहरिके वक्षःस्थलमें चली गयीं और भगवान्से बोलीं- 'देव! आप कभी मेरा परित्याग न करें। सम्पूर्ण जगत्के प्रियतम ! मैं सदा आपके आदेशका पालन करती हुई आपके वक्षःस्थलमें निवास करूँगी।' यह कहकर लक्ष्मीजीने कृपापूर्ण दृष्टिसे देवताओंकी ओर देखा, इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इधर लक्ष्मीसे परित्यक्त होनेपर दैत्योंको बड़ा उद्वेग हुआ। उन्होंने झपटकर धन्वन्तरिके हाथसे अमृतका पात्र छीन लिया। तब विष्णुने मायासे सुन्दरी स्त्रीका रूप धारण करके दैत्योंको लुभाया और उनके निकट जाकर कहा- 'यह अमृतका कमण्डलु मुझे दे दो।' उस त्रिभुवनसुन्दरी रूपवती नारीको देखकर दैत्योंका चित्त कामके वशीभूत हो गया। उन्होंने चुपचाप वह अमृत उस सुन्दरीके हाथमें दे दिया और स्वयं उसका मुँह ताकने लगे। दानवोंसे अमृत लेकर भगवान्ने देवताओंको दे दिया और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस अमृतको पी गये। यह देख दैत्यगण भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र और तलवारें हाथमें लेकर देवताओंपर टूट पड़े; परन्तु देवता अमृत पीकर बलवान् हो चुके थे, उन्होंने दैत्य-सेनाको परास्त कर दिया। देवताओंकी मार पड़नेपर दैत्योंने भागकर चारों दिशाओंकी शरण ली और कितने ही पातालमें घुस गये। तब सम्पूर्ण देवता आनन्द- मग्न हो शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुको प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये।
तब से सूर्य देव की प्रभा स्वच्छ हो गयी। वे अपने मार्गसे चलने लगे। भगवान् अग्निदेव भी मनोहर दीप्तिसे युक्त हो प्रज्वलित होने लगे तथा सब प्राणियोंका मन धर्ममें संलग्न रहने लगा। भगवान् विष्णुसे सुरक्षित होकर समस्त त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी। उस समय समस्त लोकों को धारण करने वाले ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा- 'देवगण ! मैंने तुम्हारी रक्षाके लिये भगवान् श्री विष्णु को तथा देवताओं के स्वामी उमापति महादेव जी को नियत किया है; वे दोनों तुम्हारे योगक्षेम का निर्वाह करेंगे। तुम सदा उनकी उपासना करते रहना; क्योंकि वे तुम्हारा कल्याण करनेवाले हैं। उपासना करनेसे ये दोनों महानुभाव सदा तुम्हारे क्षेमके साधक और वरदायक होंगे।' यों कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने धामको चले गये। उनके जानेके बाद इन्द्रने देवलोक की यह ली। तत्पश्चात् श्रीहरि और शङ्करजी भी अपने-अपने धाम - वैकुण्ठ एवं कैलासमें जा पहुँचे। तदनन्तर देवराज इन्द्र तीनों लोकोंकी रक्षा करने लगे। महाभाग ! इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीरसागरसे प्रकट हुई थीं। यद्यपि वे सनातनी देवी हैं, तो भी एक समय भृगुकी पत्नी ख्यातिके गर्भसे भी उन्होंने जन्म ग्रहण किया था।
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