मत्स्य और कूर्म अवतारों की कथा - समुद्र-मन्थन से लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव,Matsy Aur Koorm Avataar Kee Katha - Samudr-Manthan Se Lakshmee Jee Ka Praadurbhaav

मत्स्य और कूर्म अवतारों की कथा - समुद्र-मन्थन से लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव 

पार्वती जी ने कहा- महेश्वर ! अब मुझसे भगवान्‌के वैभव - मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । श्री महादेव जी बोले- देवि ! एकाग्रचित्त होकर सुनो। मैं श्रीहरिके वैभव- मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों का वर्णन करता हूँ। जैसे एक दीपकसे दूसरे अनेक दीपक जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक परमेश्वरके अनेक अवतार होते हैं। उन अवतारोंके परावस्थ, व्यूह और विभव आदि अनेक भेद हैं। भगवान् विष्णुके अनेक शुभ अवतार बताये गये हैं; ब्रह्माजीने भृगु, मरीचि, अत्रि, दक्ष, कर्दम, पुलस्त्य, पुलह, अङ्गिरा तथा क्रतु इन नौ प्रजापतियोंको उत्पन्न किया। इनमें मरीचिने कश्यपको जन्म दिया। कश्यपके चार स्त्रियाँ थीं- अदिति, दिति, कद्रू और विनता। अदितिसे देवताओंका जन्म हुआ। दितिने तमोगुणी पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो महान् असुर हुए। उनके नाम इस प्रकार है-मकर, हयग्रीव, महाबली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, जम्भ और मय आदि। मकर बड़ा बलवान् था। उसने ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीको मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये।

मत्स्य अवतारा

इस प्रकार श्रुतियों का अपहरण करके वह महासागर में घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्म से शून्य हो गया। वर्णसंकर-सन्तान उत्पन्न होने लगी। स्वाध्याय, वषट्‌कार और वर्णाश्रम-धर्मका लोप हो गया। तब ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंके साथ क्षीरसागरपर भगवान्‌की शरणमें जाकर मकर दैत्यके द्वारा अपहरण किये हुए वेदों का उद्धार करने के लिये उनका स्तवन किया।  श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु मत्स्यरूप धारण करके महासागरमें प्रविष्ट हुए। उन्होंने उस अत्यन्त भयंकर मकर नामक दैत्यको थूथुनके अग्रभागसे विदीर्ण करके मार डाला और अङ्ग-उपाङ्गॉसहित सम्पूर्ण वेदोंको लाकर ब्रह्माजीको समर्पित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मत्स्यावतारके द्वारा सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा की। वेदोंको लाकर श्रीहरिने तीनों लोकों का भय दूर किया, धर्मकी प्राप्ति करायी और देवताओं तथा सिद्धोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये।

कूर्म अवतारा

प्रिये ! अब मैं श्री विष्णु के कूर्मावतार-सम्बन्धी विश्ववन्दित वैभवका वर्णन करूँगा। महर्षि अत्रिके पुत्र दुर्वासा बड़े ही तेजस्वी मुनि हुए। वे महान् तपस्वी, अत्यन्त क्रोधी तथा सम्पूर्ण लोकोंको क्षोभमें डालनेवाले हैं। एक समयकी बात है- वे देवराज इन्द्रसे मिलनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। उस समय इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित होकर कहीं जानेके लिये उद्यत थे। उन्हें देखकर महातपस्वी दुर्वासाका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने विनीत भावसे देवराजको एक पारिजातकी माला भेंट की। देवराजने उसे लेकर हाथीके मस्तकपर डाल दिया और स्वयं नन्दनवनकी ओर चल दिये। हाथी मदसे उन्मत्त हो रहा था। उसने सूँड़से उस मालाको उतार लिया और मसलते हुए तोड़कर जमीन पर फेंक दिया। इससे दुर्वासाजीको क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा- 'देवराज ! तुम त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होनेके कारण मेरा अपमान करते हो। इसलिये तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जायगी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

दुर्वासा के इस प्रकार शाप देने पर इन्द्र पुनः अपने नगर को लौट गये। तत्पश्चात् जगन्माता लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयीं। ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, दैत्य, दानव, नाग, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी तथा कीट आदि जगत्‌के समस्त चराचर प्राणी दरिद्रताके मारे दुःख भोगने लगे। सब लोगोंने भूख-प्याससे पीड़ित होकर ब्रह्माजीके पास जाकर कहा- 'भगवन् ! तीनों लोक भूख-प्याससे पीड़ित हैं। आप सब लोकोंके स्वामी और रक्षक है। अतः हम आपकी शरणमें आये हैं। देवेश! आप हमारी रक्षा करें।' ब्रह्माजी बोले- देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्य आदि प्राणियो । सुनो। इन्द्रके अनाचारसे ही यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। उन्होंने अपने बर्तावसे महात्मा दुर्वासाको कुपित कर दिया है। उन्हींक क्रोधसे आज तीनों लोकोंका नाश हो रहा है। जिनकी कृपा कटाक्षसे सब लोक सुखी होते हैं, वे जगन्माता महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। जबतक वे अपनी कृपादृष्टिसे नहीं देखेंगी, तबतक सब लोग दुःखी ही रहेंगे। इसलिये हम सब लोग चलकर क्षीरसागरमें विराजमान सनातनदेव भगवान् नारायणकी आराधना करें। उनके प्रसन्न होनेपर ही सम्पूर्ण जगत्‌का कल्याण होगा।

ऐसा निश्चय करके ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं और भृगु आदि महर्षियोंके साथ क्षीरसागरपर गये और विधिपूर्वक पुरुषसूक्तके द्वारा उनकी आराधना करने लगे। उन्होंने अनन्यचित्त होकर अष्टाक्षर मन्त्रका जप और पुरुषसूक्तका पाठ करके परमेश्वरका ध्यान करते हुए उनके लिये हवन किया तथा दिव्य स्तोत्रोंसे स्तवन और विधिवत् नमस्कार किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने सब देवताओंको दर्शन दिया और कृपापूर्वक कहा- 'देवगण ! मैं वर देना चाहता हूँ, तुमलोग इच्छानुसार वर माँगो।' यह सुनकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर बोले- 'भगवन् ! दुर्वासा मुनिके शापसे तीनों लोक सम्पत्तिहीन हो गये हैं। पुरुषोत्तम! इसीलिये हम आपकी शरणमें आये हैं।' श्री भगवान् बोले- देवताओ ! अत्रिकुमार दुर्वासा मुनिके शापसे भगवती लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। अतः तुमलोग मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसमुद्रमें रखो और उसे मथानी बना नागराज वासुकिको रस्सीकी जगह उसमें लपेट दो। फिर दैत्य, गन्धर्व और दानवोंके साथ मिलकर समुद्रका मन्थन करो। तत्पश्चात् जगत्‌की रक्षाके लिये लक्ष्मी प्रकट होंगी। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही तुमलोग महान् सौभाग्यशाली हो जाओगे।

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मैं ही कूर्मरूपसे मन्दराचलको अपनी पीठकर धारण करूँगा। तथा मैं ही सम्पूर्ण देवताओंमें प्रवेश करके अपनी शक्तिसे उन्हें बलिष्ठ बनाऊँगा। भगवान्‌ के ऐसा कहनेपर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देने लगे। उनकी स्तुति सुनते हुए भगवान् अच्युत वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महाबली दानव आदिने मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसागरमें डाला। इसी समय अमित- पराक्रमी भूतभावन भगवान् नारायणने कछुएके रूपमें प्रकट होकर उस पर्वतको अपनी पीठपर धारण किया तथा एक हाथसे उन सर्वव्यापी अविनाशी प्रभुने उसके शिखरको भी पकड़ रखा था। तदनन्तर देवता और असुर मन्दराचल पर्वतमें नागराज वासुकिको लपेटकर क्षीरसागरका मन्थन करने लगे। जिस समय महाबली देवता लक्ष्मीको प्रकट करनेके लिये क्षीरसागरको मथने लगे, उस समय सम्पूर्ण महर्षि उपवास करके मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक श्रीसूक्त और विष्णुसहस्रनामका पाठ करने लगे।

शुद्ध एकादशी तिथिको समुद्रका मन्थन आरम्भ हुआ। उस समय लक्ष्मीके प्रादुर्भावकी अभिलाषा रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरोंने भगवान् लक्ष्मीनारायणका ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्तमें सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, जो बहुत बड़े पिण्डके रूपमें था। वह प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भयसे व्याकुल हो भाग चले। उन्हें भयसे पीडित हो भागते देख मैंने उन सबको रोककर कहा- 'देवताओ ! इस विषसे भय न करो। इस कालकूट नामक महान् विषको मैं अभी अपना आहार बना लूँगा।' मेरी बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे चरणोंमें पड़ गये और 'साधु-साधु' कहकर मेरी स्तुति करने लगे। उधर मेघके समान काले रंगवाले उस महाभयानक विषको प्रकट हुआ देख मैंने एकाग्रचित्तसे अपने हृदय में सर्वदुःखहारी भगवान् नारायणका ध्यान किया और उनके तीन नामरूपी महामन्त्रका भक्तिपूर्वक जप करते हुए उस भयंकर विषको पी लिया। सर्वव्यापी श्रीविष्णुके तीन नामोंके प्रभावसे उस लोकसंहारकारी विषको मैंने अनायास ही पचा लिया। अच्युत, अनन्त और गोविन्द- ये ही श्रीहरिके तीन नाम हैं।

जो एकाग्रचित्त हो इनके आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः जोड़कर (ॐ अच्युताय नमः, ॐ अनन्ताय नमः तथा ॐ गोविन्दाय नमः इस रूपमें) भक्तिपूर्वक जप करता है, उसे विष, रोग और अग्निसे होनेवाली मृत्युका महान् भय नहीं प्राप्त होता। जो इस तीन नामरूपी महामन्त्रका एकाग्रता पूर्वक जप करता है, उसे काल और मृत्युसे भी भय नहीं
होता; फिर दूसरोंसे भय होनेकी तो बात ही क्या है। देवि ! इस प्रकार मैंने तीन नामोंके ही प्रभावसे विषका पान किया था। तत्पश्चात् समुद्र-मन्थन करनेपर लक्ष्मीजीकी बड़ी बहन दरिद्रा देवी प्रकट हुई। वे लाल वस्त्र पहने थीं। उन्होंने देवताओंसे पूछा- 'मेरे लिये क्या आज्ञा है।' तब देवताओंने उनसे कहा- 'जिनके घरमें प्रतिदिन कलह होता हो, वहीं हम तुम्हें रहनेके लिये स्थान देते हैं। तुम अमङ्गलको साथ लेकर उन्हीं घरोंमें जा बसो। जहाँ कठोर भाषण किया जाता हो, जहाँके रहनेवाले सदा झूठ बोलते हों तथा जो मलिन अन्तःकरणवाले पापी सन्ध्याके समय सोते हों, उन्हींक घरमें दुःख और दरिद्रता प्रदान करती हुई तुम नित्य निवास करो। महादेवि ! जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पैर धोये बिना ही आचमन करता है, उस पापपरायण मानवकी ही तुम सेवा करो।'

कलहप्रिया दरिद्रा देवीको इस प्रकार आदेश देकर सम्पूर्ण देवताओंने एकाग्रचित्त हो पुनः क्षीरसागरका मन्थन आरम्भ किया। तब सुन्दर नेत्रोंवाली वारुणी देवी प्रकट हुई, जिसे नागराज अनन्तने ग्रहण किया। तदनन्तर समस्त शुभलक्षणोंसे सुशोभित और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित एक स्त्री प्रकट हुई, जिसे गरुड़ने अपनी पत्नी बनाया। इसके बाद दिव्य अप्सराएँ और महातेजस्वी गन्धर्व उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त रूपवान् और सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निके समान तेजस्वी थी। तत्पश्चात् ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा नामक अश्व, धन्वन्तरि वैद्य, पारिजात वृक्ष और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौका प्रादुर्भाव हुआ। इन सबको देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्रहण किया। इसके बाद द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर सम्पूर्ण लोकोंकी अधीश्वरी कल्याणमयी भगवती महालक्ष्मी प्रकट हुई। उन्हें देखकर सब देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। देवलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, वनदेवियाँ फूलोंकी वृष्टि करने लगीं, गन्धर्वराज गाने और अप्सराएँ नाचने लगीं। शीतल एवं पवित्र हवा चलने लगी। सूर्यकी प्रभा निर्मल हो गयी। बुझी हुई अनियाँ जल उठीं और सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रसन्नता छा गयी।

तदनन्तर क्षीरसागरसे शीतल एवं अमृतमयी किरणों से युक्त चन्द्रमा प्रकट हुए, जो माता लक्ष्मीके भाई और सबको सुख देनेवाले हैं। वे नक्षत्रोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत्‌के मामा हैं। इसके बाद श्रीहरिकी पली तुलसीदेवी प्रकट हुईं, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण विश्वको पावन बनानेवाली हैं। जगन्माता तुलसीका प्रादुर्भाव श्रीहरिकी पूजाके लिये ही हुआ है। तत्पश्चात् सब देवता प्रसन्नचित्त होकर मन्दराचलपर्वतको यथास्थान रख आये और सफल मनोरथ हो माता लक्ष्मीके पास जा सहस्त्रनामसे स्तुति करके श्रीसूक्तका जप करने लगे। तब भगवती लक्ष्मीने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- 'देववरो ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हें वर देना चाहती हूँ। मुझसे मनोवाञ्छित वर माँगो।'
देवता बोले- सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी! आप हमलोगोंपर प्रसन्न हों और श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें सदा निवास करें। कभी भगवान्से अलग न हों तथा तीनों लोकोंका भी कभी परित्याग न करें। देवि ! यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। जगन्माता ! आपको नमस्कार है। हम आपसे यही चाहते हैं।

देवताओंके ऐसा कहनेपर श्रीनारायणकी प्रियतमा लोकमाता महेश्वरी लक्ष्मीने 'एवमस्तुं' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर क्षीरसागरपर भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी प्रकट हुए। देवताओंने जनार्दनको नमस्कार करके उनका स्तवन किया और प्रसन्नवदन हो, हाथ जोड़कर कहा- 'सर्वेश्वर! आप अपनी प्रियतमा और महारानी लक्ष्मीदेवीको, जो कभी आपसे अलग होनेवाली नहीं हैं, जगत्‌की रक्षाके लिये ग्रहण कीजिये।' ऐसा कहकर ब्रह्मा आदि देवता और मुनियोंने नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए बालसूर्यके समान तेजस्वी दिव्य पीठपर भगवान् विष्णु और भगवती लक्ष्मीको बिठाया तथा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, रत्नमय आभूषण एवं अप्राकृत दिव्य फलोंसे उन दोनोंका पूजन किया। क्षीरसागरसे जो कोमल दलोंवाली तुलसीदेवी प्रकट हुई थीं, उनके द्वारा उन्होंने लक्ष्मीजीके युगल चरणोंका अर्चन किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा और बारंबार नमस्कार करके दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति की। इससे सर्वदेवेश्वर भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीसहित प्रसन्न होकर देवताओंको मनोवाञ्छित वरदान दिया। तबसे देवता और मनुष्य आदि प्राणी बहुत प्रसन्न रहने लगे। उनके यहाँ धन-धान्यकी प्रचुर वृद्धि हुई और वे नीरोग होकर अत्यन्त सुखका अनुभव करने लगे।

इसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये समस्त महामुनियों और देवताओंसे कहा- 'मुनियो और महाबली देवताओ! तुम सब लोग सुनो- एकादशी तिथि परम पुण्यमयी है। वह सब उपद्रवोंको शान्त करनेवाली है। तुमलोगोंने लक्ष्मीका दर्शन पानेके लिये इस तिथिको उपवास किया है; इसलिये यह द्वादशी तिथि मुझे सदा प्रिय होगी। आजसे जो लोग एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर बड़ी श्रद्धाके साथ लक्ष्मी और तुलसीके साथ मेरा पूजन करेंगे, वे सब बन्धनोंसे मुक्त होकर मेरे परम पदको प्राप्त होंगे।' ऐसा कहकर सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए लक्ष्मीजीके निवासस्थान क्षीरसागरमें चले गये। वहाँ सूर्य के समान तेजोमय विमानपर शेषनागकी शय्याके ऊपर विशाललोचना भगवती रमाके साथ रहने लगे। वे देवताओंको दर्शन देनेके लिये सदा ही वहाँ निवास करते हैं।

तदनन्तर सब देवता कच्छपरूपधारी सनातन भगवान्‌का भक्तिपूर्वक पूजन करके प्रसन्नचित्त हो उनकी स्तुति करने लगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बोले- 'देवेश्वरो ! तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, वैसा वर माँगो।' देवता बोले- महाबली देवेश्वर ! आप शेषनाग और दिग्गजोंकी सहायताके लिये सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण कीजिये । देवताओंकी प्रार्थना सुनकर विश्वभावन भगवान्ने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो)। तबसे उन्होंने सातों द्वीपोंसहित पृथ्वी को अपनी पीठपर धारण किया। तदनन्तर महर्षियोंसहित देवता, गन्धर्व, दैत्य, दानव तथा मानव भगवान्‌की आशा ले अपने-अपने लोकको चले गये। तबसे ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, मनुष्य, योगी तथा मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌की आज्ञा मानकर बड़ी भक्तिके साथ एकादशी तिथिको उपवास और द्वादशी तिथिको भगवान्‌ का पूजन करने लगे।

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