साबरमती नदी का महत्त्व,Saabaramatee Nadee Ka Mahatv
श्रीमहादेवजी कहते हैं- सुन्दरि ! अब मैं वेत्रवती (बेतवा) नदीका माहात्म्य वर्णन करता हूँ, सुनो। वहाँ स्रान करनेसे मनुष्यकी मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें वृत्रासुरने एक बहुत ही गहरा कुआँ खुदवाया था, जिसका नाम महागम्भीर था। उसीसे यह दिव्य नदी प्रकट हुई है। वेत्रवती नदी बड़े-बड़े पापोंकी राशिका विनाश करनेवाली है। गङ्गाजीके समान ही इस श्रेष्ठ नदीका भी माहात्म्य है। इसके दर्शन करनेमात्रसे पापराशि शान्त हो जाती है। पहलेकी बात है, चम्पक नगरमें एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही दुष्ट और प्रजाको पीड़ा देनेवाला था। वह नीच अधर्मका मूर्तिमान् स्वरूप था। निरन्तर भगवान् विष्णुकी निन्दा करता, देवताओं और ब्राह्मणोंकी घातमें लगा रहता तथा आश्रमों को कलङ्कित किया करता था। वह मूर्ख वेदोंकी निन्दामें ही प्रवृत्त रहनेवाला, निर्दयी, शठ, असत् शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला और परायी स्त्रियोंको दूषित करनेवाला था। उसका नाम था विदारुण। वह अत्यन्त पापी था। महान् पाप और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेके कारण राजा विदारुण कोढ़ी हो गया।
एक दिन दैवयोगसे वह शिकार खेलता हुआ उस नदीके किनारे आ निकला। उस समय उसे बड़े जोरकी प्यास सता रही थी। घोड़ेसे उतरकर उसने नदीका जल पीया और पुनः अपनी राजधानीको लौट गया। उस जल्के पीनेमात्रसे राजाकी कोढ़ दूर हो गयी और बुद्धिमें भी निर्मलता आ गयी। तबसे उसके हृदयमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी। अब वह सदा ही समय-समयपर वहाँ आकर स्नान करने लगा। इससे वह अत्यन्त रूपवान्और निर्मल हो गया। इस लोकमें सुख भोगते हुए उसने अनेकों यज्ञ किये, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दी तथा अन्तमें श्री विष्णु के वैकुण्ठधाम को प्राप्त किया। पार्वती ! ऐसा जानकर जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वेत्रवती नदी में स्नान करते हैं, वे पापबन्धन से मुक्त हो जाते हैं। कार्तिक, माघ अथवा वैशाखमें जो लोग बारंबार वहाँ स्रान करते हैं, वे भी कमेकि बन्धनसे छुटकारा पा जाते हैं। ब्रह्महत्या, गोहत्या, बालहत्या और वेद-निन्दा करनेवाला पुरुष भी नदियोंके संगममें स्नान करके पापसे मुक्त हो जाता है। जिस स्थानपर और जिस नदीका साभ्रमती (साबरमती) नदीके साथ संगम दिखायी दे, वहाँ स्नान करनेपर ब्रह्महत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है। खेटक (खेड़ा) नामक दिव्य नगर इस धरातलका स्वर्ग है। वहाँ बहुत-से ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके योगोंका साधन किया है। वहाँ स्नान और भोजन करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। पार्वती ! कलियुगमें वेत्रवती नदी दूसरी गङ्गाके समान मानी गयी है। जो लोग सुख, धन और स्वर्ग चाहते हैं,
वे उस नदी में बारंबार स्नान करनेसे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। सूर्यवंश और सोमवंशमें उत्पत्र क्षत्रिय वेत्रवती नदीके तटपर आकर उसमें स्नान करके परम शान्ति पा चुके हैं। यह नदी दर्शनसे दुःख और स्पर्शसे मानसिक पापका नाश करती है। इसमें स्नान और जलपान करनेवाला मनुष्य निस्सन्देह मोक्षका भागी होता है। यहाँ स्त्रान, जप तथा होम करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाराणसी तीर्थमें जाकर जो भक्तिपूर्वक चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान करता है, और वहाँ उसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे वह वेत्रवती नदीमें स्नान करनेमात्रसे पा लेता है। यदि वेत्रवती नदीमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो वह चतुर्भुजरूप होकर विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ, देवता और पितर हैं, वे सब वेत्रवती नदीमें वास करते हैं। महेश्वरि! मैं, विष्णु, ब्रह्मा, देवगण तथा महर्षि- ये सब के सब वेत्रवती नदीमें विराजमान रहते हैं। जो एक, दो अथवा तीनों समय वेत्रवती नदीमें देवि ! अब मैं साभ्रमती नदीके माहात्यका यथावत् वर्णन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ कश्यपने इसके लिये बहुत बड़ी तपस्या की थी। एक दिनकी बात है, महर्षि कश्यप नैमिषारण्यमें गये। वहाँ ऋषियोंके साथ उन्होंने बहुत समयतक वार्तालाप किया। उस समय ऋषियोंने कहा- 'कश्यपजी! आप हमलोगोंकी प्रसन्नताके लिये यहाँ गङ्गाजीको ले आइये। प्रभो! वह सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गा आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी।
उन महर्षियोंकी बात सुनकर कश्यपजीने उन्हें प्रणाम किया और वहाँसे चलकर वे आबूके जंगलमें सरस्वती नदीके समीप आये। वहाँ उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। वे मेरी ही आराधनामें संलग्न थे। उस समय मैंने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा- 'विप्रवर ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे मनोवाञ्छित वर माँगो।' कश्यपने कहा- देवदेव! जगत्पते! महादेव !स्नान करते हैं, वे निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं। आप वर देनेमें समर्थ हैं। आपके मस्तकपर जो ये परम पवित्र पापहारिणी गङ्गा स्थित हैं, इन्हें विशेष कृपा करके मुझे दीजिये। आपको नमस्कार है। पार्वती ! उस समय मैंने महर्षि कश्यपसे कहा- 'द्विजश्रेष्ठ ! लो अपना वर।' यों कहकर मैंने अपने मंस्तकसे एक जटा उखाड़कर उसीके साथ उन्हें गङ्गाको दिया। श्रीगङ्गाजीको लेकर द्विजश्रेष्ठ कश्यप बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने स्थानको चले गये। गिरिजे! पूर्वकालमें विष्णुलोककी इच्छा रखनेवाले राजा भगीरथने मुझसे गङ्गाजीके लिये याचना की थी, उस समय उन्हें भी मैंने गङ्गाको समर्पित किया था। तत्पश्चात् पुनः ऋषियोंके कहनेसे कश्यपजीको गङ्गा प्रदान की। यह काश्यपी गङ्गा समस्त रोग और दोषोंका अपहरण करनेवाली है। सुन्दरि ! भिन्न-भिन्न युगोंमें यह गङ्गा संसारमें जिन-जिन नामोंसे विख्यात होती हैं, उनका यथार्थ वर्णन करता हूँ; सुनो। सत्ययुगमें कृतवती, त्रेतामें गिरिकर्णिका, द्वापरमें चन्दना और कलियुगमें इनका नाम साभ्रमती (साबरमती) होता है। जो मनुष्य प्रतिदिन यहाँ विशेषरूपसे स्नान करनेके लिये आते हैं,
वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। लक्षावतरण तीर्थमें, सरस्वती नदीमें, केदारक्षेत्रमें तथा कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह फल साभ्रमती नदीमें नित्य स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। माघ मास आनेपर प्रयाग तीर्थमें प्रातःस्नान करनेसे जो फल होता है, कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिकाका योग आनेपर श्रीशैलमें भगवान् माधवके समक्ष जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह साभ्रमती नदीमें डुबकी लगानेमात्रसे प्राप्त हो जाता है। देवि ! यह नदी सबसे श्रेष्ठ और सम्पूर्ण जगत्में पावन है। इतना ही नहीं, यह पवित्र और पापनाशिनी होनेके कारण परम धन्य है। देवेश्वरि ! पितृतीर्थ, सब तीर्थोसहित प्रयाग, माधवसहित भगवान् वटेश्वर, दशाश्वमेध तीर्थ तथा गङ्गाद्वार- ये सब मेरी आज्ञासे साभ्रमती नदीमें निवास करते हैं। नन्दा, ललिता, सप्तधारक, मित्रपद, भगवान् शङ्करका निवासभूत केदारतीर्थ, सर्वतीर्थमय गङ्गासागर, शतद्रू (सतलज) के जलसे भरे हुए कुण्डमें ब्रह्मसर तीर्थ, तथा नैमिषतीर्थ भी मेरी आज्ञासे सदा साभ्रमती नदीके जलमें निवास करते हैं। श्वेता, बल्कलिनी, हिरण्यमयी, हस्तिमती तथा सागरगामिनी नदी बार्त्रन्नी- ये सब पितरोंको अत्यन्त प्रिय तथा श्राद्धका कोटिगुना फल देनेवाली हैं। वहाँ पुत्रोंको पितरोंके हितके लिये पिण्ड-दान करना चाहिये।
जो मनुष्य वहाँ स्त्रान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। नीलकण्ठ तीर्थ, नन्दहृद तीर्थ, रुद्रहृद तीर्थ, पुण्यमय रुद्रमहालय तीर्थ, परम पुण्यमयी मन्दाकिनी तथा महानदी अच्छोदा- ये सब तीर्थ और नदियाँ अव्यक्तरूपसे साभ्रमती नदीमें बहती रहती है। धूम्रतीर्थ, मित्रपद, बैजनाथ, दृषद्वर, क्षिप्रा नदी, महाकाल तीर्थ, कालञ्जर पर्वत, गङ्गोद्भूत तीर्थ, हरोच्छेद तीर्थ, नर्मदा नदी तथा ओङ्कार तीर्थ-ये गङ्गामें पिण्डदान करनेके समान फल देनेवाले हैं, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। उक्त सभी तीर्थ ब्रह्मतीर्थ कहलाते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने इन सभी तीर्थोंको साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर गुप्त रूप से स्थापित कर रखा है। महेश्वरि! ये तीर्थ स्मरणमात्रसे लोगोंके पापोंका नाश करनेवाले हैं। फिर जो वहाँ श्राद्ध करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। ओङ्कार तीर्थ, पितृतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगाका साभ्रमतीके साथ संगम तथा अमरकण्टक इन तीर्थोंमें स्रान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है। साभ्रमती और वार्त्रघ्नी नदीका जहाँ संगम हुआ है, वहाँ गणेश आदि देवताओंने तीर्थसंघकी स्थापना की है। इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे साभ्रमती नदीमें तीर्थोक संगमका वर्णन किया है। विस्तारके साथ उनका वर्णन करनेमें बृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं।
अतः इस तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक स्नान करना चाहिये। सबेरे तीन मुहूर्तका समय प्रातःकाल कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्त्ततक पूर्वाह्न या सङ्गवकाल होता है। इन दोनों कालोंमें तीर्थके भीतर किया हुआ स्नान आदि देवताओंको प्रीतिदायक होता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्त्ततक मध्याह्न है और उसके बादका तीन मुहूर्त अपराह्न कहलाता है। इसमें किया हुआ खान, पिण्डदान और तर्पण पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होता है। तदनन्तर तीन मुहूर्तका समय सायाह्न माना गया है। उसमें तीर्थस्त्रान नहीं करना चाहिये। वह राक्षसी बेला है, जो सभी कर्मोंमें निन्दित है। दिन-भरमें कुल पंद्रह मुहूर्त बताये गये हैं। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतप काल माना गया है। उस समय पितरोंको पिण्डदान करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। मध्याह्नकाल, नेपालका कम्बल, चाँदी, कुश, गौ, दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) और तिल- ये कुतप कहलाते हैं। 'कु' नाम है पापका, उसको सन्ताप देनेवाले होनेके कारण ये कुतपके नामसे विख्यात हैं। कुतप मुहूर्त्तके बाद चार मुहूर्त्ततक कुल पाँच मुहूर्तका समय श्राद्धके लिये उत्तम समय माना गया है। कुश और काले तिल श्राद्धकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुए हैं- ऐसा देवताओंका कथन है। तीर्थवासी पुरुष जलमें खड़े हो हाथमें कुश लेकर तिलमिश्रित जलकी अञ्जलि पितरोंको दें। ऐसा करनेसे श्रद्धमें बाधा नहीं आती।
पार्वती ! इस प्रकार मैंने साश्रमती नदीमें नामोच्चारणपूर्वक तीर्थोंका प्रवेश कराकर उसे महर्षि कश्यपको दिया था। कश्यप मेरे प्रिय भक्त है, इसलिये उन्हें मैंने यह पवित्र एवं पापनाशिनी गङ्गा प्रदान की थी। महाभागे ! साभ्रमतीके तटपर ब्रह्मचारितीर्थ है। वहाँ उसी नामसे मैंने अपनेको स्थापित कर रखा है। सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये मैं वहाँ ब्रह्मचारीश नामसे निवास करता हूँ। साभ्रमती नदीके किनारे ब्रह्मचारीश शिवके पास जाकर भक्त पुरुष यदि कलियुगमें विशेष- रूपसे पूजा करे तो इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें महान् शिवधामको प्राप्त होता है। उनके स्थानपर जाकर जो जितेन्द्रिय भावसे उपवास करता और रात्रिमें स्थिर भावसे रहकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता है, उसे मैं योगीरूपसे दर्शन देता हूँ तथा उसकी समस्त मनोगत कामनाओंको भी पूर्ण करता हूँ- यह बिलकुल सच्ची बात है। पार्वती! वहाँ मेरा कोई लिङ्ग नहीं है, मेरा स्थानमात्र है। जो विद्वान् वहाँ फूल, धूप तथा नाना प्रकारका नैवेद्य अर्पण करता है, उसे निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है। जो मेरे स्थानपर आकर बिल्वपत्र, पुष्प तथा चन्दन आदिसे मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं सब कुछ देता हूँ। दर्शनसे रोग नष्ट होता है, पूजा करनेसे आयु प्राप्त होती है तथा वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।
सुन्दरि ! सुनो, अब मैं राजखङ्ग नामक परम अद्भुत तीर्थका वर्णन करता हूँ, जो साश्रमती नदीके तीर्थोंमें विशेष विख्यात है। सूर्यवंशमें उत्पन्न एक वैकर्तन नामक राजा था, जो दुराचारी, पापात्मा, ब्राह्मण निन्दक, गुरुद्रोही, सदा असन्तुष्ट रहनेवाला, समस्त कर्मोंकी निन्दा करनेवाला, सदा परायी स्त्रियोंमें प्रीति रखनेवाला और निरन्तर श्रीविष्णुकी निन्दा करनेवाला था। वह बहुत-से प्राणियोंका घातक था और अपनी प्रजाको सदा पीड़ा दिया करता था। इस प्रकार दुष्टात्मा राजा वैकर्तन इस पृथ्वीपर राज्य करता था। कुछ कालके पश्चात् दैवयोगसे अपने पापके कारण वह कोढ़ी हो गया। अपने शरीरकी दुर्दशा देखकर वह बार-बार सोचने लगा- 'अब क्या करना चाहिये ?' वह निरन्तर इसी चिन्तामें डूबा रहता था। एक दिन दैवयोगसे क्रीड़ाके लिये राजा वनमें गया। वहाँ साभ्रमती नदीके तीर पर जाकर खड़ा हुआ। फिर उसने वहाँ स्नान किया और वहाँका उत्तम जल पीया। इससे उसका शरीर दिव्य हो गया। पार्वती! जैसे सोनेकी प्रतिमा देदीप्यमान दिखायी देती है, उसी प्रकार राजा वैकर्तन भी परम कान्तिमान् हो गया। उस दिव्य रूपको पाकर राजाने कुछ कालतक राज्य-भोग किया। इसके बाद वह परमपदको प्राप्त हुआ। तबसे वह तीर्थ राजखङ्गके नामसे सुप्रसिद्ध हो गया। जो लोग वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर भगवान् विष्णुके सनातन धामको प्राप्त होते हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होता। जो प्रतिदिन राजखङ्ग तीर्थमें स्नान और श्रद्धापूर्वक पितरोंका तर्पण करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर पुण्यकर्मा कहलाते हैं। ब्राह्मणों और बालकोंकी हत्या करनेवाले पुरुष भी यदि यहाँ स्नान करते हैं तो वे पापोंसे रहित हो भगवान् शिवके समीप जाते हैं। जो मनुष्य साभ्रमती नदीके तटपर नील वृषका उत्सर्ग करेंगे, उनके पितर प्रलय कालतक तृप्त रहेंगे। राजखङ्ग तीर्थका यह दिव्य उपाख्यान जो सुनते हैं, उन्हें कभी भय नहीं प्राप्त होता इसके सुनने और पढ़नेसे समस्त रोग-दोष शान्त हो जाते हैं।
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