श्री हनुमान जी आदर्श मित्र रूप में और सेवक श्री हनुमान,Shree Hanumaan Jee Aadarsh Mitr Roop Mein Aur Sevak Shree Hanumaan

श्री हनुमान जी आदर्श मित्र रूप में और सेवक श्री हनुमान

हनुमान जी श्रीराम-नाम को हृदय में धारण कर समुद्र को पार कर गये। सुरसा से दूना रूप और आकार, फिर अत्यन्त लघु, जिस पर्वतपर चरण, वह पाताल में, ऐसी स्थिति आयी केवल नामधारण से। वही नाम साकार हो जाता है, हृदय चीरकर दिखा दिया जाता है, जिस समय प्रभु श्रीराम, माँ जानकी प्रत्यक्ष होती है-ऐसे रुद्रावतार श्रीहनुमानजी है। लंकाधिपति रावण अपने दस सिरोंको काट-काटकर पुष्पकी भाँति श्रीशिवजीकी अर्चनामें भेंट कर चुका था। दस रुद्र उसके वशमें, काल उसकी कोठरीमें, देवता नतमस्तक, परिस्थिति विकट, सृजनकर्ताका उसे वरदान, संहार कर्ता उसके वशमें, पालनकर्ता की प्रतिज्ञा कि जब भी पृथ्वी पर अभिमानी असुरोंका बोझ बढ़े तो उसे हटाना, इसमें संहार-अधिपतिकी सहायता आवश्यक, इसी हेतु एकादश रुद्रका श्री हनुमत्-रूपावतार ।


श्रीहनुमान-चरित एक जीवन-दर्शन है, जिसका मनन श्रवण परलोक सुधारनेका अवलम्ब तो है ही, इस जीवनमें सफलताको एक महत्त्वपूर्ण कुंजी है, जिसके प्रयोगसे जीवनमार्गक सभी बंद द्वार अनायास खुल जाते हैं। सांसारिक जीवनमें आवश्यकता होती है सभीको एक मित्रकी, एक पथप्रदर्शककी, एक सेवककी, चाहे व्यक्ति साधारण हो, असाधारण हो अथवा पुरुषोत्तम हो। ये तीनों आवश्यकताएँ अकेले श्रीहनुमत्-चरितसे पूरी हो जाती हैं। 

श्री हनुमान जी- आदर्श मित्र रूप में 

पम्पापुरनरेश वाली अपने सगे भाईको सत्तासे विच्युत कर अनाश्रित बना देता है। सुग्रीव भाईक डरसे ऋष्यमूक-पर्वतकी कन्दरामें निवास करते हैं- निर्वासित जीवन व्यतीत करते हैं. निरन्तर भवपूर्ण स्थितिमें रहते है कि 'न जाने कब, किस छद्यवेशमें वालीद्वारा भेजा गया कोई गुप्त शत्रु हत्या कर दे।' ऋषिशापवश वह स्वयं तो वहाँ आ नहीं सकता। ऐसी भयपूर्ण मनःस्थितिमें बलशाली श्रीहनुमानजी सत्ताधिपति वालीको, जिसके साथ रहकर प्राप्त सभी सम्भव सुखोंका उपभोग कर सकते थे, त्यागकर कन्दरानिवासी सुग्रीवकी रक्षा करते हैं और मित्रता निभाते हैं। केवल मित्रता निभानेकी इतिश्री इतनेसे ही नहीं, प्रत्युत इससे आगे मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामसे उनकी मित्रता भी कराते हैं। सुग्रीवसे मित्रता निभानेके लिये योद्धा श्रीहनुमान विप्र हनुमान बनते हैं, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामसे मिलते हैं। सुग्रीवकी इस शङ्काका निवारण करने हेतु कि कहीं युगल योद्धाओंके रूपमें वालीद्वारा प्रेरित शत्रु तो नहीं आ रहे हैं।

श्रीहनुमान श्री राम से मिलते हैं, जीव परमात्मा से मिलता है, एकाकार होता है। साधककी साधना सफल होती है, किंतु इतनी ही सफलतासे मित्र श्रीहनुमानको चैन कहाँ, जबतक मित्र दुःखमें, तबतक शान्ति कहाँ। श्रीराम-सुग्रीवकी मित्रता, श्रीहनुमानकी प्रेरणा और परिणाम हुआ वाली वध, सुग्रीव को किष्किन्धाका राज्य, भय समाप्त, सोयी हुई सत्ताकी प्राप्ति, मित्रके वास्तविक चरित्रका प्रत्यक्षीकरण श्रीहनुमानद्वारा । ब्राह्ममुहूर्तकी वेला, अन्तःपुर देखा जा चुका, कोई भवन बाकी न बचा, श्री हनुमान जी चिन्तित। राम-नाम-उच्चारणके साथ विभीषण जागे, श्रीहनुमान उनसे मिले, हृदय मिला, मित्रता हुई। सुग्रीवकी घटना पुनः दुहरायी गयी। विभीषण लंकाधिपति हुए। आसुरी शक्तियोंका विनाश हुआ। विभीषणने श्रीरामानुशासनमें शासन-सूत्र अन्ततः सैभाला, अर्थात् क्षणिक मैत्रीसे, जो ब्राह्ममुहूर्तमें हुई, श्रीहनुमानने विभीषणको मित्र माना तो श्रीरामसे उन्हें मिलाया, राजा बनाया। इस प्रकार दोको अधिपति बनाया मित्र श्रीहनुमानने, जो दैनिक जीवनमें निरन्तर मित्रके कर्तव्य एवं प्रेरणाके प्रकाशस्तम्भ हैं।

पथ-प्रदर्शक हनुमान

'माँ जानकीकी सूचना लाये बिना लौटे तो जीवित नहीं बचोगे- आदेश हुआ राजा सुग्रीवका। समुद्र-तटपर किंकर्तव्यविमूढ़ सभी शोकमन्न। सम्पातिने इतनी सूचना तो दे दी कि लंकामें माँ जानकी हैं। मात्र सूचनासे, बिना निशानी लाये जोवन बचनेकी कोई सम्भावना न थी। जाम्बवान् अपने पूर्व पौरुषके न रहनेसे असहाय, युवराज अङ्गद वापसीके प्रति रङ्कालु, सभी वीर योद्धा शोकमग्न। चेतना हुई, जाम्बवान्‌के वचन अच्छे लगे, 'जबतक लौट न आऊँ, प्रतीक्षा करो' का नार्ग प्रदर्शितकर समुद्र-लङ्घन किया वीर श्रीहनुमानने और जीवन-पथके प्रदर्शक बने इन सभी वीरोंके। श्रीराम-हनुमानकी गाथाएँ प्रत्यक्ष रहीं त्रेतामें। द्वापरमें भीमके पथप्रदर्शक बने, अहंकार छोड़नेमें जब स्वर्गका मार्ग रोककर बैठ गये, अन्यथा भीम उस मार्गसे कहीं और निकल जाते कर्तव्यसे च्युत होकर। कलियुग भी श्री हनुमान के पथप्रदर्शनसे वञ्चित नहीं। घर-घरमें प्रचलित रामचरितमानसके रचनाकारकी इच्छा हुई रामदर्शनकी।

सेवक श्री हनुमान

पथ प्रदर्शक श्री हनुमान प्रत्यक्ष हुए, तुलसीदास की सहायता की कि वे भगवान् राम का दर्शन कर सकें, जब वे चूकते ही रहे, तो बाध्य हो श्रीहनुमानको प्रत्यक्षतः कहना पड़ा कि 'तुलसी दास चंदन थिस रहे हो, जिसे रघुवीर ग्रहण कर रहे हैं, तुलसीदास को श्रीराम मिल गये। परिणामतः मानवता को रामचरित मानस मिल गया। जो सम्भव हुआ पथप्रदर्शक श्रीहनुमानके नाते। जीवन के पल-पल में, प्रत्येक कठिनाई में, हर कार्यमें निरन्तर सुलभ हैं पथप्रदर्शन हेतु श्रीहनुमान, केवल विलम्ब है उन्हें पुकारने में भक्ति मार्ग में श्रीहनुमानकी श्री राम भक्ति दासभाव की भक्ति है, जब कि श्रीराम उन्हें भ्रातृभावसे मानते हैं। दासभावको भक्तिका जो स्वरूप सेवक श्री हनुमान ने प्रस्तुत किया, वह अवर्णनीय है। अकेले लंका में युद्ध, अक्षकुमार सहित अगणित योद्धाओंको जुझाते हुए माँ जानकी की निशानी सहित वापसी, अपने प्रभु श्री राम के चरणों में बैठकर उनकी सेवा करते हुए रावणसे युद्ध, अहिरावणद्वारा छल-कपटसे श्रीराम-लक्ष्मण को पाताल ले जाकर बलि की तैयारी के समय अकेले जीवनका मोह छोड़ पाताल-यात्रा, अपने प्रभुके लिये जीवनका जोखिम उठाकर युद्ध और अहिरावण को पराजितकर प्रभुसहित प्रत्यावर्तन किया श्रीहनुमानने । इस प्रकार श्रीहनुमानजीने एक मित्र, एक पथप्रदर्शक एवं एक सेवक के रूपमें जो मान्यता स्थापित की, उसके हजारवें भागको यदि जीवनमें उतारा जा सके तो निःसंदेह लौकिक उपलब्धि भी होगी, पारलौकिक तो सुनिश्चित ही है।

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