श्री हनुमान जी द्वारा श्री राम कथा का शुभारम्भ और श्री हनुमत्-साधना,Shree Hanumaan Jee Dvaara Shree Raam Katha Ka Shubhaarambh Aur Shree Hanumat-Saadhana

श्री हनुमान जी द्वारा श्री राम कथा का शुभारम्भ और श्री हनुमत्-साधना

श्री राम-कथा के अन्यतम रसिक श्री हनुमान की श्रीराम- कथा-निष्ठाका वर्णन समस्त भारतीय वाङ्गय में विस्तारसे किया गया है। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में श्री हनुमान जी ने भगवान् श्री राम से उनके परधामगमन के समय कथा-श्रवणके लिये चिरंजीवी होने का वरदान माँगा था। यह उनकी कथा निष्ठाका परिचायक है-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले ।
तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशयः ।।

यचैतश्चरितं दिव्यं कथा ते रघुनन्दन ।
तन्यमाप्सरसो राम श्रावयेयुर्नरर्षभ ।।

'वीरवर श्रीरघुनन्दन ! जबतक इस पृथ्वी पर श्री राम कथा का प्रचार रहे, तबतक निस्संदेह मेरे शरीर में प्राण बसे रहे। नरश्रेष्ठ श्रीराम ! आपका जो यह दिव्य चरित और कथा है, इसे अप्सराएँ गाकर मुझे सुनाया करें।' श्रीराघवेन्द्र ने श्रीहनुमानजीका आलिङ्गन करते हुए कहा- 'कपिश्रेष्ठ ! जबतक मेरी कथा इस लोकमें प्रचलित रहेगी, तबतक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी तथा तुम्हारे शरीरमें प्राण भी रहेंगे ही। जबतक ये लोक बने रहेंगे, तबतक मेरी कथाएँ भी स्थिर रहेंगी।' दाक्षिणात्य आचायेंनि श्री हनुमान जी की इस कथानिष्ठाकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि श्रीराधवमें ऐसे अद्भुत गुण थे, जिनसे आकृष्ट होकर हनुमान जी साकेतधामका परित्याग कर आज भी उस कथा-रसका सेवन कर रहे है-

सोऽत्रैव हन्त हनुमान् परमां विमुक्ति
बुद्ध्यावधूय चरितं तव सेवतेऽसौ ।

श्री हनुमान जी जहाँ एक ओर असाधारण कथा-रसिक है, वहीं असाधारण कथा-गायक भी है। वास्तव में श्री हनुमान जी में नवधा भक्ति, प्रेमाभक्ति आदि सभी भक्ति-रसों का पूर्णरूपसे समावेश है। श्रोता के रूप में तो श्री हनुमान जी को भक्तगण अधिक जानते ही हैं, किंतु सुन्दरकाण्ड में जब उन्होंने जगज्जननी श्री जानकी जी को श्रीराम-कथा सुनायी है, उस समय उनको श्री राम-कथा के गायकरूप में भी देखते हैं। इसी अवसर पर श्री हनुमान जी अवधी-भाषा में श्री जनक नन्दिनी को कथा सुनाते हैं।
उस समय श्री हनुमानजी ने विचार किया कि यदि मैं श्री सीता जी के समक्ष संस्कृत भाषा में वार्तालाप करता हूँ तो रावण जानकर वे मुझसे भयभीत हो जायेंगी, अतः मुझे उनके साथ मनुष्य की भाषामें ही वार्तालाप करना चाहिये। श्री गोविन्दराज जी लिखते हैं कि 'मानुषं वाक्यम्' मनुष्यवाक्य का अर्थ है- कोसलदेशवासी मनुष्यकी भाषा; क्योंकि श्री जानकी जी इसी भाषासे परिचित है- 'अत्र वाक्यस्य मानुषत्वं कोसलदेशवर्तिमनुष्यसम्बन्धित्वं विवक्षितम्। क्यस्य देव्याः परिचितत्वात् ।' इस वार्तालापको 'रामकीर्तन' कहा गया है- 'रामकीर्तनहर्षिता'। इस प्रकार लोक-भाषा (अवधी-भाषा) में श्रीहनुमानजीने त्रेतायुगमें ही श्रीराम-कथाका शुभारम्भ कर दिया था। उसी परम्पराका निर्वाह गोस्वामीजीने भी किया तथा अवधी-भाषामें मानसकी रचना की। वैसे तो श्रीहनुमानजीके समान वेद-शास्त्रोंका ज्ञाता अन्यत्र दुर्लभ है। भगवान् श्रीरामने किष्किन्धाकाण्डमें इनके पाण्डित्यका सविस्तर वर्णन किया है। उत्तरकाण्डमें भी सूर्य के समीप इन के व्याकरणअध्ययन का वर्णन इनके असाधारण ज्ञान का द्योतक है-। इस प्रकार वेद एवं व्याकरण आदिके ज्ञाता होनेपर भी अवधी भाषामें श्रीहनुमानजीने श्रीजनकनन्दिनीको कथा सुनायी- यह वस्तुतः अद्भुत एवं अलौकिक घटना है। जो लोग भाषानिर्मित काव्योंपर आक्षेप करते हैं, उनको ध्यान रखना चाहिये कि लोक भाषामें श्रीराम-कथाका शुभारम्भ त्रेतायुगमें ही हो चुका था।

श्री हनुमत्-साधना

ऋषि, महर्षि, संत एवं भक्तों ने ज्ञान-प्राप्ति के लिये अनेक साधन बताये हैं। सभी साधनों का लक्ष्य ब्रह्म की प्राप्ति और अज्ञान की निवृत्ति है। भारतवर्षमें सर्वत्र व्याप्त हनुमत्-साधना भी उन्हीं में से एक है। श्री हनुमान जी की उपासना मुख्यतः तीन प्रकार  की होती है-
  • एकमुखी हनुमानकी,
  • पञ्चमुखी हनुमान की और
  • एकादशमुखी हनुमान की।
इनके मन्त्र, स्तोत्र, कवच आदि भिन्न-भिन्न हैं, जिनको योग्य गुरुसे अधिकार प्राप्त करके साधना करनी चाहिये। साधना-शास्त्रमें जो स्थान परमात्म-तत्त्वका है, वही स्थान गुरु-तत्त्वका है। बहुत-से साधकोंने गुरु-तत्त्वको साधकके लिये परमात्मासे भी अधिक हितकर बताया है। श्रीहनुमानजीको 'रामरहस्योपनिषद्' में गुरुरूपमें स्वीकार किया गया है। सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार एवं शाण्डिल्य, मुगल आदि महर्षियोंने श्रीहनुमानजीसे श्रीराम-तत्त्वका ज्ञान प्राप्त किया है, जिसका अनेक प्रकारसे वर्णन प्राप्त होता है तथा श्रीराम इतके अनेक प्रकार इस उपनिषद्‌मे बताये गये हैं। 'रामोत्तरतापनीयोपनिषद्' में माण्डूक्योपनिषद्‌के सभी मन्त्रोंका तात्पर्य शिवत्वमें बताया गया है और वही श्रीराम-तत्त्व है। दोनोंका अभेद है। इस उपनिषद्‌में श्रीराम-तत्त्वक्की साधना अद्वैत सिद्धान्तके अनुसार मानी गयी है। जिस प्रकार अद्वैत वेदान्तमें 'अहं ब्रह्मास्मि' महावाक्यका अर्थ किया गया है, उसी प्रकार इस उपनिषद्‌में 'रामोऽहम्' महावाक्यका अर्थ किया गया है, जो इस प्रकार है-

सदा रामोऽहमस्मीति तत्त्वतः प्रवदन्ति ये।
न ते संसारिणो नूनं राम एव न संशयः ।।


वर्तमान समय में प्रचलित श्री रामानुजके विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय और श्री रामानन्दीय सम्प्रदाय में श्रीरामको परमात्म रूपमें मान्य किया गया है। उपर्युक्त मतमें भेदसहित अद्वैत है और जीव परमात्माका अंशस्वरूप माना गया है। श्रीहनुमानजीके अवतारस्वरूप मध्वाचार्यने द्वैतवादका प्रतिपादन किया है। कबीर, दादू, नानक आदि संतोंने भी श्रीराम-नामके द्वारा निराकार-निर्गुण-अद्वैत उपासना की है, जिसका समन्वय भी उक्त प्रकारसे ही है। इस प्रकार यह नाम-साधनाकी व्यापकता है और इसके उपदेष्टा गुरु-तत्त्वके रूपमें श्रीहनुमानजी ही हैं, इसलिये अद्वैत ब्रहाका बोधक ही हनुमत्-साधना है। श्रीहनुमानजीकी साधनासे लौकिक सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं, जिस (साधना) का जगत्‌ के उपकार के लिये महात्मालोग उपयोग करते हैं। कहा भी गया है-

अष्टसिद्धि नवनिधिके दाता। 
अस बर दीन जानकी माता ।।

इसी का अनुसरण करके महात्मा तुलसी दास ने रामचरित- मानस की रचना की। समर्थ गुरु श्री रामदास जी ने भी महाराज शिवाजीको हनुमत्-शक्ति प्रदान कर हिंदू-धर्मकी रक्षा की थी। वैष्णवधर्ममें जो चतुर्ग्यूह-तत्त्व माना गया है, उसीके रूपान्तर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुन हैं। ऐसे श्रीहनुमत्-स्वरूपका इनके साथ जो अभिन्न योग है, इसका विस्तारसे निरूपण महर्षि वाल्मीकिने अपनी रामायणमें किया है। यहाँ संक्षिप्तरूपमें श्रीहनुमत्-साधना का स्वरूप लिखा गया है। परब्रह्म स्वरूप श्री राम-तत्त्व का बोध श्री हनुमान जी द्वारा ही होता है। इसी लिये श्री राम भक्तोंको भी श्री हनुमत्-साधना करना अत्यन्त आवश्यक है।

श्रीरामद्वारा हनुमानजीकी प्रशंसा

साँचो एक नाम हरि लीन्हे सब दुःख हरि और नाम परिहरि नरहरि ठाए हौ। बानर न होहु तुम मेरे बानरस सम, बलीमुख सूर बली मुख निज गाए हौ ।। साखा मृग नाहीं बुद्धिबलन के साखामृग कैधौं बेद साखामृग केसव कों भाए हौ। साधु हनुमंत बलवंत जसवंत तुम, गए एक काज को अनेक करि आए हौ ।

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